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Showing posts from February, 2009

राही मासूम रजा की कहानियां: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर

राही मासूम रजा की कहानियां: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर (का शेष भाग) - प्रताप दीक्षित सपनों की रोटी व्यवस्था के शव विच्छेदन की कहानी हैं । समाज, राजनीति और व्यवस्था के अन्तविरोधों पर व्यंग्य कथा लगती यह कहानी राही की अन्य रचनाओं की भाँति मनुष्यता की तलाश कहानी है। अथवा कहा जाए कि एक प्रकार से मनुष्य के सपनों की अथवा स्वयं की खोज की कहानी है। कहानी का कथानक छोटा लेकिन इसका फलक बड़ा है। कहानी का मुख्य पात्र एक लेखक है जिसकी एक जेब में पी-एच०डी० की डिग्री और दूसरी में उसके लिखे नए उपन्यास के कुछ पन्ने हैं। वह स्वयं कहीं गुम हो गया है। तलाश उसी को करनी है। लेखक इस खोज के माध्यम से राजनीति, मंहगाई, सरकारी तन्त्र, भ्रष्टाचार, सरकारी नौकरियों की स्थिति और यथार्थ, लोगों की सोच का यथार्थ विश्लेषण करता नजर आता है। अपने को कहीं न पाकर अन्त में वह सोचता है कि शायद वह मर चुका है जिसकी उसे ख़बर नहीं हुई हैं। वह निराश लौट कर पलंग पर अपने को सोए हुए पाता है। उसे इत्मीनान होता है कि यदि वह सो रहा है तो वह सपने भी देख रहा होगा। ग़नीमत है कि उसके सपने तो सुरक्षित हैं। लेखक इस कहानी में व्यवस

राही मासूम रजा की कहानियां: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर

- प्रताप दीक्षित राही मासूम रजा के निधन के १६ वर्षों बाद उनकी याद और उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आजादी के ६० साल बाद भी वे दारूण स्थितियां, जिनके विरुद्ध राही ने कलम उठाई थी ज्यों की त्यों मौजूद हैं। आजादी का वास्तविक स्वरूप और मूल्य स्थापित नहीं हो सके। मनुष्य के विरोध में उभरने वाली शक्तियां और प्रखर हुई हैं। सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार विघटित हुए हैं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की स्थितियां बद से बदतर होती गई। प्रगति, आर्थिक विकास और धर्म के नाम पर किया जाने वाला शोषण और आम मनुष्य की उपेक्षा युग सत्य बन गए। ऐसी स्थिति में राही मासूम रजा का साहित्य इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इन स्थितियों के खिलाफ संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी देश और समाज को जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा के आधार पर विभाजित करने वाले राजनीतिकों, तथाकथित समाजसेवियों और छद्म बुद्धि जीवियों का सतत्‌ विरोध करते रहे। अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण उन्हें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के कट्टरपांथियों के विद्वेश

चुनावी गणित

नदीम अहमद नदीम मंगतू का नाम निर्दलीय प्रत्याशियों में देखकर मुझे बहुत हैरत हुई क्योंकि मंगतू तो पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी खास गुर्गा हुआ करता था। अब उन्हीं को गालियां बकते हुए चुनाव मैदान में.....। मेरे मित्र ने लापरवाही से कहा सब चुनावी गणित है। वो कैसे? मंगतू की जाति बिरादरी वालों के इस क्षेत्र में खासे वोट हैं जो इस बार मिस्टर एक्स से नाराज हैं। इसलिए मिस्टर एक्स ने ही मंगतू को सिखा पढ़ाकर निर्दलीय प्रत्याशी बनाया ताकि नाराज वोटों को विरोधी खेमे में जाने से रोका जा सके। चुनावी गणित की यह आंकड़ेबाजी क्या वाकई लोकतंत्र को मजबूत कर रही है अगर सोचता रहूं तो बस सोचता ही रहूं। जैनब कॉटेज, बड़ी कर्बला मार्ग, चौखूंटी, बीकानेर-०१

हश्र

नदीम अहमद नदीम शेयर मार्केट के ओंधे मुंह गिरने की ख़बर से मैं बहुत खुश था। मुझसे अपनी खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी। पत्नी ने आख़िर पूछ लिया क्या बात है इतनी खुशी का सबब? बात ही खुश होने की है। मनोज कई दिन से शेयर मार्केट में इन्वेस्ट करने के लिए मुझे प्रोत्साहित कर रह था लेकिन मैं टाल रहा था, मनोज ने चार लाख का इन्वेस्टमेन्ट कर रखा था। लेकिन मनोज तो दुखी हो रहा होगा फटाफट दौलतमन्द बनने की चाह का यही हश्र होना चाहिए।'' कहकर मैंने अख़बार उछाल दिया।

एहसास

NAGMA JAVED बेटियां! खामोश रहती हैं बेटियां! माँओं का मुँह देखती हैं - रोती हैं चुपके-चुपके सोचती हैं मांएँ, क्यों नहीं करती उन्हें बेटों जितना प्यार! हिंन्दी विभाग, एन०एस०डी०टी०, महिला महाविद्यालय, मुम्बई।

गर्व और शर्मिन्दगी

नदीम अहमद नदीम काफ़ी देर तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। पतिदेव बार-बार टी.वी. चैनल बदल रहे थे। फिर झुंझलाकर टी.वी. बंद ही कर दिया। आख़िर तुम्हीं बताओ मेरी क्या ग़लती थी पत्नी ने कहा। ग़लती तो तुम्हारी ही थी अपनी ही बेटी को सास-श्वसुर से अलग होने की सलाह देनी ही नहीं चाहिए। ये तो हमारी बेटी समझदार थी जो तुम्हारी सलाह नहीं मानी और तुमसे झगड़ा करके चली गई। मुझे अपनी बिटिया की समझदारी पर गर्व है और तुम्हारी सोच पर शर्मिन्दा हूँ।

ममता

नदीम अहमद नदीम उस माँ का रोना बिलखना पत्थर दिल इंसानों से भी देखा नहीं जा रहा था। पूरा मुहल्ला ग़मगीन था। पुलिस की ग़फलत से एक मासूम निर्दोष बच्चा गोली का शिकार हो गया था। मंत्रीजी की गाड़ियों का काफिला घर के आगे रुका। मंत्री महोदय ने रोनी सी सूरत बनाई और टी.वी. चैनल वालों को इशारा किया। उनका नाटक शुरू आपके होनहार बच्चे की असामयिक मृत्यु पर हमें बहुत दुःख है। ईश्वर की मर्जी के आगे.....! यह एक लाख का चैक सरकार ने...... अचानक बिलखती हुई मां ने मंत्री का गिरेबां पकड़ लिया ला, मुझे तेरा बेटा दे दे। मैं तुझे दो लाख रुपया देती हूं, तुम्हें शर्म नहीं आती मेरे बेटे की लाश की बोली लगाते हुए। मंत्री अपना गिरेबां छुड़ाकर गाड़ी में सवार हो गया। एक मां का सामना करने की हिम्मत उसमें नहीं थी।

मै डरती हूँ

SEEMA GUPTA मै जानती हूँ ......... मेरे खत का उसे इंतजार नही मेरे दुख से उसे सरोकार नही , मेरे मासूम लफ्ज उसे नही बहलाते मेरी कोई बात भी उसे याद नही. मेरे ख्वाबों से उसकी नींद नही उचटती मेरी यादो मे उसके पल बर्बाद नही मेरा कोई आंसू उसे नही रुलाता उसे मुझसे जरा भी प्यार नही कोई आहट उसे नही चौंकाती क्योंकि उसे मेरा इन्तजार नही मगर मै डरती हूँ उस पल से जब वो चेतना में लौटेगा और पश्चाताप के तूफानी सैलाब से गुजर नही पायेगा ...जड हो जाएगा मै डरती हूँ ....बस उस एक पल से

हिन्दी साहित्य ने मुसलमानों को अनदेखा क्यों किया?

नामवर सिंह ने कभी कहा था कि हिंदी साहित्य से मुसलमान पात्र गायब हो रहे हैं। १९९० में शानी ने इसी प्रश्न को एक बातचीत के दौरान और प्रखर ढंग से पेश किया कि हिंदी साहित्य में मुसलमान पात्र थे ही कहा जो गायब होंगे। शानी का तर्क था कि तेलुगु,असमिया और बंगला के साहित्यकार जब इनसाइडर की तरह मुसलमान पात्रों का चित्रण कर सकते हैं तो हिंदी साहित्यकार क्यों नहीं कर सकते। शानी ने पांच साल पहले नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और काशीनाथ से सवाल पूछा था कि क्या हिंदी हिंदू साहित्य की समानाथीं नहीं हो गई है? साम्प्रदायिकता से आक्रांत आज के सामाजिक माहौल में शानी का यह सवाल और भी प्रासंगिक हो गया है। शानीः आपने अमरकांत की कहानी और रघुवीर सहाय की कविता का उदाहरण देते हुए पिछली मर्तबा चर्चा में यह बात ज्यादा स्पष्ट की थी कि कैसे रघुवीर सहाय की कविता और अमरकांत की डिप्टी कलक्टरी में बहुत जबरदस्त अंतर है और एक जगह यथार्थ का वह निरूपण नहीं है जो अमरकांत को डिप्टी कलक्टरी में है। मैं एक बात जानना चाहूंगा नामवर जी, कि नई कहानी पर चर्चा करते हुए आपको या दूसरे आलोचकों को स्वतंत्रता के बाद सामाजिक यथार्थ में

"एहसास"

SEEMA GUPTA हर साँस मे जर्रा जर्रा पलता है कुछ, यूँ लगे साथ मेरे चलता है कुछ. सोच की गागर से निकल शब्द बन अधरों पे खामोशी से मचलता है कुछ. ये एहसास क्या ... तुम्हारा है प्रिये ??? जो मोम बनके मुझमे , बर्फ़ मानिंद ... पिघलता है कुछ