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हिन्दी साहित्य ने मुसलमानों को अनदेखा क्यों किया?

नामवर सिंह ने कभी कहा था कि हिंदी साहित्य से मुसलमान पात्र गायब हो रहे हैं। १९९० में शानी ने इसी प्रश्न को एक बातचीत के दौरान और प्रखर ढंग से पेश किया कि हिंदी साहित्य में मुसलमान पात्र थे ही कहा जो गायब होंगे। शानी का तर्क था कि तेलुगु,असमिया और बंगला के साहित्यकार जब इनसाइडर की तरह मुसलमान पात्रों का चित्रण कर सकते हैं तो हिंदी साहित्यकार क्यों नहीं कर सकते। शानी ने पांच साल पहले नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और काशीनाथ से सवाल पूछा था कि क्या हिंदी हिंदू साहित्य की समानाथीं नहीं हो गई है? साम्प्रदायिकता से आक्रांत आज के सामाजिक माहौल में शानी का यह सवाल और भी प्रासंगिक हो गया है।
शानीः आपने अमरकांत की कहानी और रघुवीर सहाय की कविता का उदाहरण देते हुए पिछली मर्तबा चर्चा में यह बात ज्यादा स्पष्ट की थी कि कैसे रघुवीर सहाय की कविता और अमरकांत की डिप्टी कलक्टरी में बहुत जबरदस्त अंतर है और एक जगह यथार्थ का वह निरूपण नहीं है जो अमरकांत को डिप्टी कलक्टरी में है। मैं एक बात जानना चाहूंगा नामवर जी, कि नई कहानी पर चर्चा करते हुए आपको या दूसरे आलोचकों को स्वतंत्रता के बाद सामाजिक यथार्थ में यह अनुभव कैसे हुआ कि विभाजन के बाद के भारतीय मुसलमान और उसकी मर्मांतक पीड़ा को अनदेखा कर दिया गया। हिंदी साहित्य कभी भी केवल हिंदू साहित्य नहीं रहा। क्या इस कारण साहित्य हिंदू संवेदना से सताया हुआ और निरपेक्ष तो नहीं है और अगर ऐसा है तो आपने मुस्लिम अनुभव को देखने-जानने और परखने को कोशिश क्यों नहीं की? क्या किसी भी देश का भौगोलिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मानचित्र १२-१५ करोड़ मुसलमानों के वजूद को झुठलाकर पूरा हो सकता है? खासकर तब जब आधी आबादी ने देश के दो टुकड़े कर दिए हैं और इसकी सजा आज तक हम आप सारे के सारे लोग अभी तक भुगत रहे हैं और आगे आने वाली पीढ़ियाँ भी लगातार भुगतेंगी। आप ही हैं नामवर जी, कई वर्ष पहले आपने कहा था कि हिंदी साहित्य से मुस्लिम पात्र गायब हो रहे हैं। मुस्लिम पात्र जब थे ही नहीं तो गायब कहां हो रहे हैं। प्रेमचंद में नहीं थे, यशपाल में आंशिक रूप से थे। अज्ञेय, नागर जी, जैनेन्द्र कुमार और दूसरे लेखकों में नहीं है। और तो और स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक के कहानीकारों में कहीं नहीं हैं। हिंदी में ही क्यों नहीं हैं जबकि तेलुगु में हैं, असमिया में हैं, बंगला में है। वह अलग बात है कि बंकिमचंद्र में नहीं हैं। अलग बात है कि रवींद्रनाथ टैगोर में नहीं हैं या शरद बाबू में नहीं हैं लेकिन गौरकिशोर घोष के उपन्यास प्रेम नेई में हैं। तेलुगु के विश्वनाथ रेड्डी जैसे कहानीकार आज भी पंजाखाना जैसी कहानी लिखते हैं, इनसाइडर की तरह लिखते हैं। आज भी सारा अबूबकर जैसी लेखिका जो कन्नड़ भाषा में लिखती हैं, हिंदी वालों से ज्यादा सच्ची और जिंदगी से जुड़ी है। ऐसा क्यों है? क्या हिंदी भाषा का लेखक अपने आपमें इतना महदूद है या दूसरे शब्दों में क्या हिंदी हिंदू साहित्य की समानार्थी हो गई है। हमारी तो जो परंपरा है उसमें मलिक मोहम्मद जायसी हैं, रहीम हैं, अमीर खुसरो हैं। क्या यह सवाल आप अनदेखा कर सकते हैं नामवर जी?
नामवर सिंहः शानी भाई, यह एक ऐसा सवाल है जो आईने के सामने अपने आपको रूबरू खड़ा करने वाला है। कठघरे में खड़ा करता है हम सबको। मुझे याद नहीं कि इससे पहले भी यह सवाल मुझसे किसी ने पूछा तो। हां, स्वयं मैंने ही यह सवाल कभी पूछा था कि क्यों हिंदी साहित्य से मुस्लिम चरित्र गायब हो गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लोग हिंदू संप्रदाय के शिकार हो गए हैं?
शानीः नामवर जी, मुझे खुशी है कि आप इसके प्रति पूरी तरह सजग और जागरूक हैं। आपको याद होगा कुछ अर्सा पहले दौलतराम कालेज में जहां एक संगोष्ठी थी और जिसमें आप चेयरमैन थे। दो-तीन लेखकों की तरह मैं भी वहां मौजूद था। वहां मैंने यही प्रश्न उठाया था प्रेमचंद के गोदान से। आप कैसे एक इतनी बड़ी आबादी को अनदेखा कर देंगे। जब आप अनदेखा कर देते हैं तो उसका नतीजा भी आपको सामने नजर आता है।
काशीनाथ सिंहः यह सवाल आलोचक से तो पूछा ही जा रहा है रचनाकारों से भी किया जाना चाहिए।
नामवर सिंहः मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि आजादी के बाद हिंदी में आने वाले लेखकों में और आजादी के पहले के लेखकों में इस विषय को लेकर एक अंतर है। १९४७ के पहले जो आजादी की लड़ाई से जुड़े हुए लेखक थे वो एक जुड़े हुए हिंदुस्तान से वाकिफ थे। इसलिए बंटवारे के बाद भी उसी हिंदुस्तान का ख्वाब देखते थे और वह हिंदुस्तान उनके अंदर मौजूद भी था। प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े लेखकों में इस मिले-जुले हिंदुस्तानी समाज की चेतना ज्यादा आज भी है। जैसे भीष्म साहनी में, अमरकांत में, हरिशंकर परसाई में।
शानीः उनकी कहानियों में भी नहीं हैं, कहीं नहीं है। यही तो मैं कहता हू कि बिलकुल नहीं है। मैंने कहा था कि गोदान जो लगभग क्लासिकी पर जा सकता है और हमारे भारतीय गांव का जीवंत दस्तावेज है, उसमें गांव का कोई मुसलमान पात्र क्यों नहीं है? क्या अपने देश का कोई भी गांव इनके बिना पूरा होता है? प्रेमचंद फिर भी उदार हैं, जबकि यशपाल के झूठा सच में नाममात्र के मुस्लिम पात्र नहीं हाड़-मांस के जीवंत लोग हैं। लेकिन उसके बाद? अज्ञेय, जैनेंद्र, नागर जी या उनकी पीढ़ी के दूसरे लेखकों में क्यों नहीं? और उससे भी ज्यादा तकलीफ़देह यह कि आजादी के बाद के मेरी पीढ़ी के कहानीकारों में और उसके बाद के कहानीकारों में भी नहीं है। यह सोचने की बात है कि क्यों नहीं है और यह भी सोचने की बात है कि प्रेमचंद और यशपाल में आए इक्के-दुक्के मुस्लिम पात्र हमारे सामाजिक जीवन में इतने अंतर्गुम्फित लोग क्यों नहीं हैं जितने कि वे वास्तविक जीवन में हैं या होते हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि ६५ वर्ष पहले अंग्रेजी उपन्यासकार ईएम फास्टर ने ए पैसेज टु इंडिया' में हमारे सामाजिक जीवन से अजीज जैसा जीवंत और प्रासंगिक पात्र उठाया था, ऐसा पात्र जो आज तक किसी भारतीय लेखक के यहां नहीं है। नामवर जी, मुझे तो लगता है यह अंदाज भी वही तरस खाने वाला और मालिकाना है, वही जिसे आप रिप्रेसिव टॉलरैंस कहते हैं और जो हिंसा से कम मारक नहीं है। जब अमेरिका का ब्लैक एक्सपीरियस' हो सकता है यूरोप का यहूदी अनुभव हो सकता है और हो सकता है वे आपको मार्मिक लग सकते हैं तो मुस्लिम अनुभव क्यों नहीं और वह भी विभाजन के बाद? और आप उसे क्यों नहीं जानते?
विश्वनाथ त्रिपाठीः जहां तक मैं समझ पाया हूं यशपाल की पर्दा' कहानी की ये बड़ी तारीफ करते हैं। और यशपाल को पर्दा' कहानी को आदर्श के रूप में मानते हैं। ऐसी कहानियां अगर हिंदी लेखकों ने लिखी होतीं तो इनको यह शिकायत नहीं रहती।
शानीः प्रेमचंद की १९२५ की कहानियों में मंदिर-मस्जिद नाम की कहानी है। ऐसा लगता है प्रेमचंद ने ६५ वर्ष बाद भी आज ही लिखी हो। वो कांशीनाथ सिंह ने नहीं लिखी, वो राजेन्द्र यादव या ज्ञानरंजन ने भी नहीं लिखी।
विश्वनाथ त्रिपाठीः हम मुसलमानों की जिंदगी को शायद बहुत दूर तक जानते भी नहीं हैं और यह मुझे शानी की कहानियां पढ़कर लगा। जैसे तकियादार जिसका मतलब मैं पहले नहीं जानता था। फातिहा क्या होता है? खुदा को रज्जाक क्यों कहते हैं? अब आप देखें कि गांव में जो सबसे नीचे तबके का मुसलमान होता है वो तो एक-दूसरे की जिंदगी में खास तरह का कल्चरल एका होता है। आजादी के बाद पॉलिटिक्स में जो अलगाव आया और उसको प्रतिबिंबित करती जो कहानियां लिखी गयीं उनसे अलग हिंदी के दो कहानीकारों का नाम लिया जा रहा है जिनसे शानी संतुष्ट हैं यानी जिनको आदर्श के रूप में मानते हैं। एक प्रेमचंद हैं दूसरे यशपाल हैं।
नामवर सिंहः शानी साहब, मुस्लिम समाज के अंदर की जानकारी सचमुच ही हमें बहुत कम है। आपका काला जल उपन्यास पढ़ते समय अक्सर मुझे अपनी इस कमी का अहसास हुआ है।
शानीः नामवर जी, कहीं ऐसा तो नहीं है कि संवेदना की एक परिधि होती है और मुस्लिम अनुभव के अभाव में आप उस संवेदना की परिधि से बाहर रह जाते हैं। ऐसे में मुस्लिम अनुभव मुस्लिम साइकी या उसकी परस्पर विरोधी तकलीफें आपको छू नहीं पा रहीं। जब भी ऐसे अनुभव कहानी या उपन्यास के जरिए आप तक पहुंचते हैं आप उन्हें रद्द करते चलते हैं जाने या अनजाने में। लिहाजा जाहिर है कि जो आपको छूता ही नहीं वह आपके अंदरूनी अनुभव का हिस्सा कैसे बन सकता है? एक और बात मुझे लगती है कि यह आकस्मिक नहीं है कि कई मर्तबा बड़ी महत्त्वपूर्ण कहानियां या ऐसी कहानियां भी जो तत्कालीन लोगों की संवेदना परिधि या रुचियों-अभिरुचियों के आसपास नहीं पहुंचती, उन पर धूल पड़ती जाती है जैसे प्रेमचंद की मंदिर-मस्जिद और यशपाल की पर्दा।
नामवर सिंहः शानी भाई एक प्रश्न-प्रेमचंद का मुस्लिम चरित्रों के परिचय शायद इसलिए भी था कि वे उर्दू में भी लिखते थे और उनका समाज इस तरह का था जहां एक-दूसरे से जुड़े हुए लोग थे। यशपाल भी संभवतः उर्दू जबान से परिचित थे। प्रेमचंद और यशपाल ये दोनों उर्दू भाषा जानने के कारण मुस्लिम चरित्रों को जानते थे, उनके बारे में लिखते थे। उनके संघर्ष, उनकी पीड़ाओं का चित्रण करते थे या उस समय बंटवारे के पहले का भारत ऐसा था कि हिंदू और मुसलमान दोनों एक-दूसरे के ज्+यादा निकट थे।
शानीः मैं नहीं समझता कि किसी जाति की भाषा को जानना उसके जीवन को जानना है। एक हद तक भाषा जाति की संस्कृति की पहचान करा देती है लेकिन जिंदगी एक-दूसरे से दो-चार होने और एक-दूसरे के रूबरू टकराव से ही समझ में आती है या उसका अनुभव होता है। अगर ऐसा न होता तो राजेन्द्र सिंह बेदी जैसे बड़े लेखक ने उर्दू के शिखर पर पहुंचकर भी मुस्लिम जीवन को कहीं नहीं छुआ। ÷ए पैसेज टू इंडिया' में अजीज जैसा चरित्र निरूपित करने के लिए ईएम फास्टर को उर्दू जानने की ज+रूरत नहीं पड़ी और न उन्होंने सीखी। शायद उन्हें भारतीय जीवन की सामाजिक विसंगतियों में से ज्यादा तार्किकता और गहराई के साथ देख सकने का गहरा माद्दा था बावजूद इसके के वे एक बाहरी आदमी थे। रहा आपका दूसरा सवाल, मुझे लगता है कि बंटवारे के पहले का भारत आज से बहुत भिन्न था और उसका भी उदाहरण ईएम फास्टर का ए पैसेज टु इंडिया' है।
विश्वनाथ त्रिपाठीः मैं यह कह रहा था, जैसे आपने कहा, कहानी में तो इसको ऊर्जा समाप्त-सी लगती है। जो पहले से लिख रहे हैं उनमें से वे लोग जो समीक्षात्मक दृष्टि से देखते रहे उनकी अलग बात है लेकिन ज्यादातर लोगों की ऊर्जा समाप्त हो गई। कहानी के क्षेत्र में नये कहानीकार आए, नए उपन्यासकार आए। रेणु जैसे लोग आए। कविता में कहने के लिए बहुत कवि आए जिनको सराहा-माना भी गया। लेकिन कविता के क्षेत्र में जो पहले से लिख रहे थे नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शमशेर ये सब आजादी से पहले लिख रहे थे। वो लोग, बल्कि जो बाद में आए उनसे ज्यादा नये मालूम पड़ रहे हैं।
नामवर सिंहः त्रिपाठी जी, यूं देखें तो कविता में तो छाए हुए थे पंत, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, दिनकर मुख्य रूप से। पुराने प्रतिष्ठित लोग ये थे। थे निराला भी। इनकी तुलना में शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय आदि युवा समझे जाते थे कविता में। पुराने लोगों की सृजनात्मक क्षमता जैसे कथा-साहित्य में क्षीण हुई वैसे ही कविता में भी क्षीण हुई। अकेले बचे रहे निराला, जैसे कथा-साहित्य में अकेले बचे रहे यशपाल। नये रचनाकार के नये सृजन से इन्हें पुनर्नवता प्राप्त हुई।
विश्वनाथ त्रिपाठीः नामवर जी, मैं यह कहना चाहता हूं, कि आजादी के बाद जैसे कहानी शुरू हुई, नये ढंग से नयी ऊर्जा के साथ, वैसे ही कविता के क्षेत्र में भी कुछ कवियों ने लिखना शुरू किया, नयी ऊर्जा के साथ आजादी के बाद। और तो और उसी में हमारे प्रिय मित्र केदारनाथ सिंह आते हैं। उसी में रघुवीर सहाय आते हैं। उसी में कुंवरनारायण आते हैं और आपने भी अभी इसके पहले बहस में सबका नाम गिनाया। तो जैसे कहानी के क्षेत्र में लोग आए नयी ऊर्जा के साथ, वैसे कविता के क्षेत्र में भी लोग आए नयी ऊर्जा के साथ और कहानी और कविता दोनों में आंचलिकता आई। शुरू में आजादी के बाद कुछ नये गीत लिखे गए। लेकिन ये कैसे हुआ कि कविता में जो आजादी के पहले से लिखकर रहे थे वे लगभग प्रतिष्ठित हो चुके थे। जो नयी पीढ़ी कविता में आजादी के बाद एक नई ऊर्जा वो इतनी दूर तक क्यों नहीं चल पाई। और जो आजादी के पहले से लिख रहे थे वो आज भी नये लगते हैं।
काशीनाथ सिंहः मैं इसमें एक प्रश्न और जोड़ दूं। लिख तो रहे हैं वे आज भी। जब उपन्यास की चर्चा होती है तो बात रेणु तक ही आकर रह जाती है। श्रीलाल शुक्ल भी हैं। ठीक है। लेकिन एक ÷माइल स्टोन' की तरह मैला आंचल तक। यानी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। कहानियां भी लिखी जा रही हैं। लेकिन हम जानना चाहते थे कि कौन-सी बातें हैं जिनके चलते देखने वालों की नजर पीछे की तरफ जा रही है अपने पास या सामने की तरफ नहीं आ रही।
विश्वनाथ त्रिपाठीः देखिए उपन्यास में भी रेणु की ऊर्जा बहुत जल्दी समाप्त हो गई। खुद रेणु ने भी मैला आंचल जैसा कोई उपन्यास नहीं लिखा।
शानीः हां, परती परिकथा', दीर्घतपा कमतर उपन्यास थे।
विश्वनाथ त्रिपाठीः लेकिन साहब आप नागार्जुन और त्रिलोचन के बारे में वो बात नहीं कहते तो आप मैला आंचल' के रचनाकार के बारे में कह सकते हैं।
नामवर सिंहः इस बहस में एक महत्त्वपूर्ण विधा छूट ही गई और एक बड़ा लेखक भी छूट गया। हरिशंकर परसाई, जिनके बगैर स्वाधीन भारत के हिंदी साहित्य की चर्चा अधूरी है। कहानियां तो कम लिखीं उन्होंने। रानी नागफनी का कहानी' नामक एक उपन्यास भी लिखा है लेकिन जाने जाते हैं वो मुख्यतः अपने तीखे व्यंग्य वाले निबंधों के लिए। उनके निबंध अनाहत रूप से बिना किसी भटकाव के सैकुलर मूल्यों के लिए संघर्ष करते हैं वह राजनीतिक विवेक जो हिंदी लेखकों में कम ही पाया जाता है, परसाईं जी उसकी मिसाल आप हैं। शानी भाई, यह हिंदी की अपनी १९वीं सदी की परंपरा का विकास है। आज के समूचे भारतीय साहित्य में ऐसा विवेकवान व्यंग्यकार-निबंधकार शायद ही दूसरा मिले। आजादी के बाद बढ़ते हुए हिंदू संप्रदायवाद के विरु( संघर्ष में परसाई के गद्य ने जो भूमिका निभाई है वह बेजोड़ है। इसके अलावा उनके निबंधों ने हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन के अन्य छद्मों का भी उद्घाटन किया है। जाने क्या उन्हें हास्य-व्यंग्य का लेखक कहकर लोगों ने टाल देने की कोशिश की है। वह खाली हास्य-व्यंग्य नहीं है।
विश्वनाथ त्रिपाठीः ये नहीं है कि परसाई हास्य-व्यंग्य के रचनाकार नहीं है। परसाई हास्य-व्यंग्य के ऐसे विरले रचनाकार हैं जिनकी दृष्टि में अद्भुत व्याप्ति है इतना ही नहीं मेरे ख्+याल से परसाई सामाजिक चेतना में स्वातंत्रयोत्तर भारत की एक नैतिक आवाज हैं।
नामवर सिंहः मैं यहां यह बात और कह दूं कि यह सही है कि आजादी के बाद देश का जब बंटवारा हुआ तो कहीं देश के दिल और दिमाग के भी दो टुकड़े हुए। इस त्रासदी का प्रभाव अगर साहित्य पर न पड़ा होता तो आश्चर्य होता। इस त्रासदी के कारण हिंदी साहित्य अपनी परंपरा से टूटा है। फिर ऐसे दबाव भी पड़ते रहते हैं जिनके तहत हिंदी साहित्य में बदल देने की कोशिश होती रही हैं। ये कोशिशें पूरी तरह कामयाब न हुईं, यह और बात है। हिंदुत्व के शिकार ज्यादातर रूपवादी साहित्यकार हुए हैं जिनके साहित्य से मुसलमान एकदम बाहर हैं। जहां रूपवाद है हिंदुत्व परोक्ष रूप से, अंतर्निहित रूप से प्रवेश करता है। लेकिन हिंदी में रूपवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाली एक व्यापक सामाजिक चेतना भी है। मैं उसके केवल प्रगतिशीलता या जनवाद तक सीमित नहीं रखना चाहता। इनमें अनेक गैर-वामपंथी मानववादी भी हैं। उन लोगों में और कुछ नहीं तो कम से कम एक अपराधबोध बचा रह गया है। मैं इसे गनीमत मानता हूं। मेरे जिस भाषण का आपने जिक्र किया है वह अपराधबोध का एक उदाहरण है। जिस रिप्रैसिव टालरैंस' की बात आप कर रहे हैं वह, क्षमा किया जाए, हमारे अत्यंत श्रद्धेय नेता जवाहरलाल नेहरू के युग की देन है।
विश्वनाथ त्रिपाठीः मैं एक चीज कहना चाहता हूं अगर एक अपराधबोध आज बचा हुआ है तो वह कम से कम जवाहरलाल नेहरू की वजह से है।
नामवर सिंहः देखिए विश्वनाथ जी, पंडित जी की अपनी ईमानदारी में रत्ती भर संदेह मुझ कभी नहीं रहा और न है लेकिन जो हिंदुस्तान उन्होंने बनाया और जिस तरह से बनाया उस हिंदुस्तान में मुसलमान की औकात उन्होंने यही रखी कि उस पर दया, कृपा का भाव रखा जाए। जबकि सवाल अस्मिता का है - स्वाभिमान की जिंदगी जीने का है। यह काम पंडित जी कर सकते थे और अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि न कर सके। मैं यह कह रहा था कि आजाद हिंदुस्तान का समूचा साहित्य किस उत्साह, उमंग, नई सृजनात्मक ऊर्जा के साथ शुरू हुआ था और वह आजादी का पहला दशक था। वह साहित्य-सृष्टि आज भी हमको प्रेरणा देता है। उसमें अनेक अंतर्विरोध थे, खामियां भी थीं, जिनका कुछ ताल्लुक देश के बंटवारे से था, कुछ विकास के लिए अपनाए गए पूंजीवादी रास्ते से था, कुछ सामंती जीवन-पद्धति के अवशेषों के विरुद्ध संघर्ष करने में शिथिलता से था पर इन सबके बावजूद उस दशक को साहित्य अपनी उपलब्धियों में ठीक पहले के दशक से भी कहीं अधिक समृद्ध और श्रेष्ठ प्रतीत होता है। इस दशक के साहित्य का सबसे शुभ पक्ष है उसका आलोचनात्मक स्वर। आजादी के प्रथम दशक में सबसे बड़ा प्रलोभन नई राजसत्ता और व्यवस्था के अंध-समर्थन का था। हिंदी साहित्य ने उस प्रलोभन से अपने को बचाया और जनता के पक्ष से आलोचनात्मक यथार्थ के साहित्य का सृजन किया-यह हिंदी लेखकों की दृढ़ प्रतिबद्धता का प्रमाण तो है ही, हिंदी साहित्य की सदियों लंबी गौरवशाली परंपरा के अनुरूप भी है। साहित्य का यह दौर १९६४ तक चला। इसके बाद दूसरे दौर की शुरुआत होती है, जिसकी चर्चा अलग से की जानी चाहिए।

Comments

पहली बात तो यह कि यह बात बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण है कि हिन्दी-साहित्य ने मुसलमानों को अनदेखा किया।

दूसरी यह कि इसके लिये मुसलमान अधिक जिम्मेदार हैं। जब हिन्दी के विकास की बात आयी तो हमेशा हिन्दी-उर्दू का बखेड़ा खड़ा करते रहे। भारत का मजहब के आधार पर विभाजन करा कर पाकिस्तान बना दिया।
Manjit Thakur said…
हिंदी साहित्य को इस तरह बांटने और वर्गीकरण करके अपनी रोटी सेंकने वालों का बाज़ आना चाहिए। कल को आप तो प्रेमचंद को भी जातिवादी बताएंगे। उनके साहित्य मिर्जा खुर्शेद और तन्खा है या नहीं, लेकिन आपको तो मातादीन और दातादीन की कहानियां ही नजर आएंगी। प्रेमचंद दलित विरोधी ऐसा भी लिखिए। अच्छा अगला लेख लिखिए, उर्दू साहित्य से गायब होते हिंदू पात्र तब समझेंगे। नामवर ने बोल दिया तो पत्थर की लकीर है क्या..?
क्या बात है! बाबू साहब की कॉंग्रेसियत का इससे उम्दा उदाहरण मिलना मुश्किल है. पर हमारे पास अपनी समझ तो है! हम क्यों सुन रहे हैं ऐसे लोगों की बातें जो साहित्य को भी हिन्दू-मुसलमान के आधार पर बांटने में लगे हैं?

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