- प्रताप दीक्षित
राही मासूम रजा के निधन के १६ वर्षों बाद उनकी याद और उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आजादी के ६० साल बाद भी वे दारूण स्थितियां, जिनके विरुद्ध राही ने कलम उठाई थी ज्यों की त्यों मौजूद हैं। आजादी का वास्तविक स्वरूप और मूल्य स्थापित नहीं हो सके। मनुष्य के विरोध में उभरने वाली शक्तियां और प्रखर हुई हैं। सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार विघटित हुए हैं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की स्थितियां बद से बदतर होती गई। प्रगति, आर्थिक विकास और धर्म के नाम पर किया जाने वाला शोषण और आम मनुष्य की उपेक्षा युग सत्य बन गए। ऐसी स्थिति में राही मासूम रजा का साहित्य इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इन स्थितियों के खिलाफ संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी देश और समाज को जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा के आधार पर विभाजित करने वाले राजनीतिकों, तथाकथित समाजसेवियों और छद्म बुद्धि जीवियों का सतत् विरोध करते रहे। अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण उन्हें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के कट्टरपांथियों के विद्वेश का शिकार होना पड़ा। साहित्य के इतिहास में, संभवतः कबीर के बाद, राही पहले साहित्यकार है जिन्हें ऐसी हालातों से गुजरना पड़ा। उनके संघर्ष के अनेक प्रसंग हैं। अपने विचारों के चलते मुस्लिम विश्वविद्यालय की नौकरी उन्हें छोड़नी पड़ती है। मुफलिसी के दिनों में पत्नी प्रसव हेतु अस्पताल में थी। लेखक मित्रों कमलेश्वर, भारती, कृष्णचन्दर की मदद से अस्पताल का बिल भरा गया। बम्बई में किसी तरह काम मिलने का सिलसिला शुरू होता है लेकिन न तो राही की बेबाकी कम होती है न ही संघर्ष। यहाँ तक कि हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक द्वारा संचालित प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित उनके उपन्यास आधा गाँव की पूरी रायल्टी भी नहीं दी जाती। जोधपुर विश्वविद्यालय में उनके उपन्यास ''आधा गाँव'' को तत्कालीन विभागाध्यक्ष नामवर सिंह के समर्थन के बाद भी बिना नामवर सिंह की सहमति के पाठ्यक्रम से हटा दिया जाता है। राही बदनीयती से कभी समझौता नहीं कर पाए। कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य होते हुए भी जब केरल में साम्यवादी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिए मुस्लिम लींग से गठबंधन किया गया तब पार्टी मेंबर होते हुए भी उन्होंने इस गठबंधन का कड़ा विरोध किया। जनसंघ और मुस्लिम लींग दोनों ही उनकी दृष्टि में साम्प्रदायिक हैं। उनकी साफगोई दूसरों के लिए ही नहीं वरन् स्वयं के संबन्ध में भी है। एक साक्षात्कार में वह अपने फ़िल्मी लेखन के संबन्ध में स्वीकार करते हैं...मैं जानता हूँ कि फ़िल्मों में घटिया लेखन कर रहा हूँ। सब-स्टैर्ण्ड काम करता हूँ ताकि जी सकूं। जियूंगा तभी तो कुछ लिख सकूंगा। मुझे इसकी कोई शर्म नहीं। परन्तु फ़िल्मों में जो लिखना चाहता हूँ वह तो अभी लिख ही नहीं सका।
राही मासूम रजा के साहित्य के विवेचन के परिप्रेक्ष्य में इन स्थितियों और संघर्षों का आकलन इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि किसी साहित्यकार का संपूर्ण लेखन उसके विचारों, जीवन-दर्शन और संघर्षों का ही आइना होता है।
राही मासमू रजा मूलतः उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। यह अल्पज्ञात तथ्य है कि वह एक संवेनशील कवि और सशक्त कहानीकार भी थे। उनकी कविताओं का प्रभाव उनके उपन्यासों, उनके पात्रों और कहानियों पर परिलक्षित होता है। अपने उपन्यासों के प्रकाशन के पूर्व वह कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।
राही का कोई कहानी संग्रह संभवतः प्रकाशित नहीं हुआ है। राही साहित्य के अध्येताओं और शोध करने वालों ने भी उनकी कहानियों के संबंध में कोई चर्चा नहीं की है। राही की कहानियां तत्कालीन पत्रिकाओं सारिका, धर्मयुग, रविवार आदि में बिखरी हुई हैं। राही की पहली कहानी तन्नू भाई शीर्षक से है जो उन्होंने १७ वर्ष की आयु में १९४४ में लिखी थी। पाठकों को ज्ञात होगा कि तन्नू भाई उनके उपन्यास आधा गाँव का एक पात्र है। साहित्य के अध्येता जानते हैं कि प्रत्येक कहानी में एक उपन्यास की संभावना और हर उपन्यास के प्रत्येक पात्र की अपनी कहानी होती है।
कहानी और उपन्यास के बीच अन्तर के सैद्धन्तिक प्रश्न को यदि विद्वजनों के लिए छोड़ दिया जाए और विषय को केवल लेखक की कहानियों तक सीमित करें तब भी यह तो तय है कि समय के संग्रहलय में किसी रचनाकार की एक रचना भी बची रह जाती है तो साहित्य के इतिहास में लेखक का नाम अक्षुण्ण हो जाता हैं।
समीक्षकों ने राही मासूम रजा के साहित्य को साम्प्रदायिकता के विरूद्ध एक जेहाद के रूप में परिभाषित किया है। इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। परन्तु राही की कहानियों से लेखक की संवेदना के विविध आयाम उद्घाटित होते हैं। मनुष्य के स्वप्न, अभाव, शोषण, रिश्तों की संवेदनहीनता, मनुष्यता की अवमानना तज्जनित उसके अकेलेपन का चित्रण उनकी कहानियों में मिलता हैं। यहाँ तक कि आज की सर्वग्रासी विभीषिका बाजारवाद का भी उन्होंने पूर्वालोकन कर लिया था।
दरअसल किसी साहित्यकार के रचनात्मक संघटन में इतिहास, परिवेश और उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव होता है। परन्तु सभी के लिए अपने समय के दौर की रचनात्मकता के साथ आसान नहीं होता। कारण इतर हैं। जरूरत होती है। संघर्षगामिता, प्रखर दृष्टि और ईमानदारी की। राही नई-नई मिली आजादी या कहा जाए सत्तापरिवर्तन के समय युवा हुए थे। वह देश के बटवारे को कभी स्वीकार नहीं कर सके। आजादी के बाद के हालातों साम्प्रदायिकता, विषमता, शोषण, भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी के लिए जलालत के अतिरिक्त कुछ बचा था तो उसकी आँखों में अधखिले सपने और एक विशाल जनसमूह उन सपनों की भी असामयिक मृत्यु के लिए अभिशप्त हो गया। राही की कहानियां इन सबके लिए जिम्मेदार शक्तियों को कटघरे में खड़े करने की कोशिश हैं।
राही मासूम रजा की कहानियों के परिपे्रक्ष्य में उनका साहित्य दो ध्रुवों पर स्थित दिखाई देता हैं। एक छोर पर उनकी कहानियाँ साम्प्रदायिकता, सामाजिक-राजनीतिक असमानताओं, पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों के खिलाफ एक अनवरत युद्ध है जो सपनों को सच करने के लिए लड़ा जा रहा है। क्योंकि कोई भी व्यवस्था स्वतंत्रता, न्याय, समता आदि की व्याख्या अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने ढंग से करती है। लेखक की नियति उससे टकराना है।
दूसरी ओर उनकी कहानियों में जगह-जगह पर ख्वाबों, परछाइयों,धुंध और सन्नाटे हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से वह मिथक, इतिहास और संस्कृति में मानवीय अस्मिता की तलाश करते नजर आते हैं। चम्मचभर चीनी में पौराणिक प्रसंग को लेखक वर्तमान संदर्भों से जोड़ता है। देवताओं ने समंदर को मथा/जहर भी अमृत भी मिला/ मथे मेरी तरह/एक कतरे को जरा/किसने अपने को मथा/मेरे सिवा/मेरे ही जैसे दीवानों की तरह।
दिल एक सादा काग़ज-खोए हुए सपनों और परछाइयों की तलाश का प्रयास है। जैदी विला एक ऐसा प्रतीक है जिसके माध्यम से लेखक अपनी आत्मा, जमीन, इसांनियत खोज रहा है।
राही की कहानियों में आत्मा पर चढ़ी धूल है, खुशबू में बसा अंधेरा है, यादे हैं, चाँदनी आँखों की अफ्सुरदा है, बिछुड़ गई परछाइयाँ है, सहमी खामोशी है, सिकुड़ गए सपने हैं, चुटकी भर नींद है। परन्तु मंजिल दूर है। अब तो कृष्ण भी परदेश गया है। राही को ही अपने खूने दिल से राहों पर फूल खिलाने हैं।
प्रेमचन्दोत्तर कहानी ने कई पड़ाव पार किए। उस समय समाज जिस ध्रुवहीनता में धूम रहा था, कहानी उसी में रास्ता तलाश रही थी। कहानी की अन्तर्वस्तु और स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आए। तमाम कथा आन्दोलनों से परे कहानियों के संबंध में राही की अपनी मान्यताएं हैं उनका मानना है कि कथाकार के लिए जरूरी है कि वह उन लोगों को अच्छी तरह जानता हो जिनकी वह कहानी सुना रहा है। वह यह भी मानते हैं कि साहित्य में मूल प्रश्न वास्तविकता का नहीं बल्कि वास्तविकता की तरफ़ लेखक के दृष्टिकोण का होता है। राही के कथा साहित्य के विश्लेषण से मालूम होता है कि उन्हें इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ है। उनकी रचनाओं में मूल्यों की स्थापना का कथात्मक प्रयास है। उनकी कहानियों में जीवन की गहरी और व्यापक समझ पाई जाती है।
उनकी कहानियों की रचना प्रक्रिया के संबंध में राही की पहले प्लाट सोच कर कहानी लिखना नहीं पसंद करते। दृष्टव्य है कि फ्रांसिस विवियन ने भी दृढ़ता से प्लाट का विरोध किया था। उनकी कहानियों के केन्द्र में कोई व्यक्ति या चरित्र होता है। लेखक की श्रद्धा मानवीय संवेदना में है जिसका केन्द्र मनुष्य होता है। विचार भी इसी माध्यम से आते हैं। राही के अनुसार जीवन के विषय में एक दृष्टिकोण के बिना अच्छी कहानी नहीं लिखी जा सकती। वह कहते हैं कि यदि कहानी युग की सीमाओं को नहीं पार कर पाती तो समाप्त हो जाती है।
राही मासूम रजा की जो भी कहानियां उपलब्ध हो सकी हैं ये उनके कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व तो नहीं करती परन्तु इनके आधार पर उनके सपनों, संघर्ष और विचारों की बानगी अवश्य मिलती है।
चम्मचभर चीनी राही मासूम रजा की १९७६ में प्रकाशित कहानी है। फंतासीनुमा इस कहानी में जीवन की कड़वाहटें, टूटते सपने और अभाव हैं। एक ओर यह मनुष्य के मोहभंग की कहानी है तो दूसरी ओर अटूट जिजीविषा की।
कथ्य की दृष्टि से यह लेखक और उसके मित्र की कहानी है। मित्र जीवन की विसंगतियों और अभावों को स्वीकार नहीं कर पाता। कड़वाहट मिटाने के लिए चम्मचभर चीनी की ही दरकार है, जो है वह चाय के प्याले में मिठास भरने के लिए पर्याप्त नहीं है। लगता है कि यह मित्र लेखक का अपना ही अक्स है। अन्त में लेखक आजिज आकर आइने पर दावात फेंककर मारता है। आइना टूटने से वह राहत महसूस करता है। सन्नाटा चम्मचभर चीनी बन जाता है और चाय मीठी हो जाती है।
चम्मचभर चीनी जीवन के अभावों, कड़वाहटों और मनुष्य के टूटते सपनों को बचाने की कोशिशों का प्रतीक है। बंद आँखों से देखे गए ख्+वाबों की कहानी। क्योंकि खुली आँखों के सामने जो यथार्थ आता है उसमें जीना मुश्किल हो गया है। समय या तो स्थगित हो गया है या अतीत की ओर चलने लगा है। भविष्य की ओर जाने वाले सभी रास्ते बंद हो चुके हैं। आम आदमी विवश हो गया है ख्वाबों और कविता के अन्दर जीने के लिए। इनके बाहर जो यथार्थ है उसका सामना वह नहीं कर सकता। कविता के बाहर की जि+न्दगी उसके लिए नहीं है।
मंहगाई के बीच सस्ता सिर्फ़ मनुष्य हुआ है। एक चम्मच में बोरी की बोरियां चीनी समा जाती है लेकिन चम्मच नहीं भरती। इस बाजार में हाथ की कीमत एक चम्मच चीनी है। जो कभी भरती नहीं। यह एक चम्मच चीनी मनुष्य की अस्मिता, आत्मा और सपने हैं जिसकी कीमत किसी बाजार में नहीं लगाई जा सकती। जिसका खालीपन कोई बाजार व्यवस्था नहीं भर सकती। बाजारवाद के विरुद्ध, लिखी गई, संभवतः पहली कहानी है।
लेखक बायां हाथ खरीदना चाहता है। क्योंकि उसका बायां हाथ बरसों हुए सुन्न हो चुका है। दाहिना तो पहले ही सलाम करते करते थक चुका है। उससे तो उम्मीद की नहीं जा सकती। लेखक का यह व्यंग्य उन छद्म वामपंथियों पर प्रतीत होता है जो स्वयं जमाने से इस बाजार संस्कृति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। लेखक पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों पर प्रश्न खड़े करता है।
अंत में मिठास आती है, हाथ में जान भी। परन्तु आइना टूटने के बाद। आइना ही तो आत्म साक्षांत्कार है। आइने में व्यक्ति अपनी ही शक्ल देखता है। आत्ममोह व्यक्तिवाद की ओर ले आता है। बाजार का दबाव भी यही करता है। मनुष्य को खण्डों में विभाजित करता है। आत्ममोह के आइने को तोड़ कर ही बूंद और अपने को मथा जा सकता है। जीवन में मिठास भरने के लिए अपने से बाहर आना ही होगा।
यह छोटी-सी कहानी गहरी विचार दृष्टि और महाकाव्यों की गइराई अपने में संजोए हुए है।
राही मासूम रजा के निधन के १६ वर्षों बाद उनकी याद और उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आजादी के ६० साल बाद भी वे दारूण स्थितियां, जिनके विरुद्ध राही ने कलम उठाई थी ज्यों की त्यों मौजूद हैं। आजादी का वास्तविक स्वरूप और मूल्य स्थापित नहीं हो सके। मनुष्य के विरोध में उभरने वाली शक्तियां और प्रखर हुई हैं। सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार विघटित हुए हैं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की स्थितियां बद से बदतर होती गई। प्रगति, आर्थिक विकास और धर्म के नाम पर किया जाने वाला शोषण और आम मनुष्य की उपेक्षा युग सत्य बन गए। ऐसी स्थिति में राही मासूम रजा का साहित्य इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इन स्थितियों के खिलाफ संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी देश और समाज को जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा के आधार पर विभाजित करने वाले राजनीतिकों, तथाकथित समाजसेवियों और छद्म बुद्धि जीवियों का सतत् विरोध करते रहे। अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण उन्हें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के कट्टरपांथियों के विद्वेश का शिकार होना पड़ा। साहित्य के इतिहास में, संभवतः कबीर के बाद, राही पहले साहित्यकार है जिन्हें ऐसी हालातों से गुजरना पड़ा। उनके संघर्ष के अनेक प्रसंग हैं। अपने विचारों के चलते मुस्लिम विश्वविद्यालय की नौकरी उन्हें छोड़नी पड़ती है। मुफलिसी के दिनों में पत्नी प्रसव हेतु अस्पताल में थी। लेखक मित्रों कमलेश्वर, भारती, कृष्णचन्दर की मदद से अस्पताल का बिल भरा गया। बम्बई में किसी तरह काम मिलने का सिलसिला शुरू होता है लेकिन न तो राही की बेबाकी कम होती है न ही संघर्ष। यहाँ तक कि हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक द्वारा संचालित प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित उनके उपन्यास आधा गाँव की पूरी रायल्टी भी नहीं दी जाती। जोधपुर विश्वविद्यालय में उनके उपन्यास ''आधा गाँव'' को तत्कालीन विभागाध्यक्ष नामवर सिंह के समर्थन के बाद भी बिना नामवर सिंह की सहमति के पाठ्यक्रम से हटा दिया जाता है। राही बदनीयती से कभी समझौता नहीं कर पाए। कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य होते हुए भी जब केरल में साम्यवादी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिए मुस्लिम लींग से गठबंधन किया गया तब पार्टी मेंबर होते हुए भी उन्होंने इस गठबंधन का कड़ा विरोध किया। जनसंघ और मुस्लिम लींग दोनों ही उनकी दृष्टि में साम्प्रदायिक हैं। उनकी साफगोई दूसरों के लिए ही नहीं वरन् स्वयं के संबन्ध में भी है। एक साक्षात्कार में वह अपने फ़िल्मी लेखन के संबन्ध में स्वीकार करते हैं...मैं जानता हूँ कि फ़िल्मों में घटिया लेखन कर रहा हूँ। सब-स्टैर्ण्ड काम करता हूँ ताकि जी सकूं। जियूंगा तभी तो कुछ लिख सकूंगा। मुझे इसकी कोई शर्म नहीं। परन्तु फ़िल्मों में जो लिखना चाहता हूँ वह तो अभी लिख ही नहीं सका।
राही मासूम रजा के साहित्य के विवेचन के परिप्रेक्ष्य में इन स्थितियों और संघर्षों का आकलन इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि किसी साहित्यकार का संपूर्ण लेखन उसके विचारों, जीवन-दर्शन और संघर्षों का ही आइना होता है।
राही मासमू रजा मूलतः उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। यह अल्पज्ञात तथ्य है कि वह एक संवेनशील कवि और सशक्त कहानीकार भी थे। उनकी कविताओं का प्रभाव उनके उपन्यासों, उनके पात्रों और कहानियों पर परिलक्षित होता है। अपने उपन्यासों के प्रकाशन के पूर्व वह कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।
राही का कोई कहानी संग्रह संभवतः प्रकाशित नहीं हुआ है। राही साहित्य के अध्येताओं और शोध करने वालों ने भी उनकी कहानियों के संबंध में कोई चर्चा नहीं की है। राही की कहानियां तत्कालीन पत्रिकाओं सारिका, धर्मयुग, रविवार आदि में बिखरी हुई हैं। राही की पहली कहानी तन्नू भाई शीर्षक से है जो उन्होंने १७ वर्ष की आयु में १९४४ में लिखी थी। पाठकों को ज्ञात होगा कि तन्नू भाई उनके उपन्यास आधा गाँव का एक पात्र है। साहित्य के अध्येता जानते हैं कि प्रत्येक कहानी में एक उपन्यास की संभावना और हर उपन्यास के प्रत्येक पात्र की अपनी कहानी होती है।
कहानी और उपन्यास के बीच अन्तर के सैद्धन्तिक प्रश्न को यदि विद्वजनों के लिए छोड़ दिया जाए और विषय को केवल लेखक की कहानियों तक सीमित करें तब भी यह तो तय है कि समय के संग्रहलय में किसी रचनाकार की एक रचना भी बची रह जाती है तो साहित्य के इतिहास में लेखक का नाम अक्षुण्ण हो जाता हैं।
समीक्षकों ने राही मासूम रजा के साहित्य को साम्प्रदायिकता के विरूद्ध एक जेहाद के रूप में परिभाषित किया है। इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। परन्तु राही की कहानियों से लेखक की संवेदना के विविध आयाम उद्घाटित होते हैं। मनुष्य के स्वप्न, अभाव, शोषण, रिश्तों की संवेदनहीनता, मनुष्यता की अवमानना तज्जनित उसके अकेलेपन का चित्रण उनकी कहानियों में मिलता हैं। यहाँ तक कि आज की सर्वग्रासी विभीषिका बाजारवाद का भी उन्होंने पूर्वालोकन कर लिया था।
दरअसल किसी साहित्यकार के रचनात्मक संघटन में इतिहास, परिवेश और उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव होता है। परन्तु सभी के लिए अपने समय के दौर की रचनात्मकता के साथ आसान नहीं होता। कारण इतर हैं। जरूरत होती है। संघर्षगामिता, प्रखर दृष्टि और ईमानदारी की। राही नई-नई मिली आजादी या कहा जाए सत्तापरिवर्तन के समय युवा हुए थे। वह देश के बटवारे को कभी स्वीकार नहीं कर सके। आजादी के बाद के हालातों साम्प्रदायिकता, विषमता, शोषण, भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी के लिए जलालत के अतिरिक्त कुछ बचा था तो उसकी आँखों में अधखिले सपने और एक विशाल जनसमूह उन सपनों की भी असामयिक मृत्यु के लिए अभिशप्त हो गया। राही की कहानियां इन सबके लिए जिम्मेदार शक्तियों को कटघरे में खड़े करने की कोशिश हैं।
राही मासूम रजा की कहानियों के परिपे्रक्ष्य में उनका साहित्य दो ध्रुवों पर स्थित दिखाई देता हैं। एक छोर पर उनकी कहानियाँ साम्प्रदायिकता, सामाजिक-राजनीतिक असमानताओं, पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों के खिलाफ एक अनवरत युद्ध है जो सपनों को सच करने के लिए लड़ा जा रहा है। क्योंकि कोई भी व्यवस्था स्वतंत्रता, न्याय, समता आदि की व्याख्या अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने ढंग से करती है। लेखक की नियति उससे टकराना है।
दूसरी ओर उनकी कहानियों में जगह-जगह पर ख्वाबों, परछाइयों,धुंध और सन्नाटे हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से वह मिथक, इतिहास और संस्कृति में मानवीय अस्मिता की तलाश करते नजर आते हैं। चम्मचभर चीनी में पौराणिक प्रसंग को लेखक वर्तमान संदर्भों से जोड़ता है। देवताओं ने समंदर को मथा/जहर भी अमृत भी मिला/ मथे मेरी तरह/एक कतरे को जरा/किसने अपने को मथा/मेरे सिवा/मेरे ही जैसे दीवानों की तरह।
दिल एक सादा काग़ज-खोए हुए सपनों और परछाइयों की तलाश का प्रयास है। जैदी विला एक ऐसा प्रतीक है जिसके माध्यम से लेखक अपनी आत्मा, जमीन, इसांनियत खोज रहा है।
राही की कहानियों में आत्मा पर चढ़ी धूल है, खुशबू में बसा अंधेरा है, यादे हैं, चाँदनी आँखों की अफ्सुरदा है, बिछुड़ गई परछाइयाँ है, सहमी खामोशी है, सिकुड़ गए सपने हैं, चुटकी भर नींद है। परन्तु मंजिल दूर है। अब तो कृष्ण भी परदेश गया है। राही को ही अपने खूने दिल से राहों पर फूल खिलाने हैं।
प्रेमचन्दोत्तर कहानी ने कई पड़ाव पार किए। उस समय समाज जिस ध्रुवहीनता में धूम रहा था, कहानी उसी में रास्ता तलाश रही थी। कहानी की अन्तर्वस्तु और स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आए। तमाम कथा आन्दोलनों से परे कहानियों के संबंध में राही की अपनी मान्यताएं हैं उनका मानना है कि कथाकार के लिए जरूरी है कि वह उन लोगों को अच्छी तरह जानता हो जिनकी वह कहानी सुना रहा है। वह यह भी मानते हैं कि साहित्य में मूल प्रश्न वास्तविकता का नहीं बल्कि वास्तविकता की तरफ़ लेखक के दृष्टिकोण का होता है। राही के कथा साहित्य के विश्लेषण से मालूम होता है कि उन्हें इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ है। उनकी रचनाओं में मूल्यों की स्थापना का कथात्मक प्रयास है। उनकी कहानियों में जीवन की गहरी और व्यापक समझ पाई जाती है।
उनकी कहानियों की रचना प्रक्रिया के संबंध में राही की पहले प्लाट सोच कर कहानी लिखना नहीं पसंद करते। दृष्टव्य है कि फ्रांसिस विवियन ने भी दृढ़ता से प्लाट का विरोध किया था। उनकी कहानियों के केन्द्र में कोई व्यक्ति या चरित्र होता है। लेखक की श्रद्धा मानवीय संवेदना में है जिसका केन्द्र मनुष्य होता है। विचार भी इसी माध्यम से आते हैं। राही के अनुसार जीवन के विषय में एक दृष्टिकोण के बिना अच्छी कहानी नहीं लिखी जा सकती। वह कहते हैं कि यदि कहानी युग की सीमाओं को नहीं पार कर पाती तो समाप्त हो जाती है।
राही मासूम रजा की जो भी कहानियां उपलब्ध हो सकी हैं ये उनके कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व तो नहीं करती परन्तु इनके आधार पर उनके सपनों, संघर्ष और विचारों की बानगी अवश्य मिलती है।
चम्मचभर चीनी राही मासूम रजा की १९७६ में प्रकाशित कहानी है। फंतासीनुमा इस कहानी में जीवन की कड़वाहटें, टूटते सपने और अभाव हैं। एक ओर यह मनुष्य के मोहभंग की कहानी है तो दूसरी ओर अटूट जिजीविषा की।
कथ्य की दृष्टि से यह लेखक और उसके मित्र की कहानी है। मित्र जीवन की विसंगतियों और अभावों को स्वीकार नहीं कर पाता। कड़वाहट मिटाने के लिए चम्मचभर चीनी की ही दरकार है, जो है वह चाय के प्याले में मिठास भरने के लिए पर्याप्त नहीं है। लगता है कि यह मित्र लेखक का अपना ही अक्स है। अन्त में लेखक आजिज आकर आइने पर दावात फेंककर मारता है। आइना टूटने से वह राहत महसूस करता है। सन्नाटा चम्मचभर चीनी बन जाता है और चाय मीठी हो जाती है।
चम्मचभर चीनी जीवन के अभावों, कड़वाहटों और मनुष्य के टूटते सपनों को बचाने की कोशिशों का प्रतीक है। बंद आँखों से देखे गए ख्+वाबों की कहानी। क्योंकि खुली आँखों के सामने जो यथार्थ आता है उसमें जीना मुश्किल हो गया है। समय या तो स्थगित हो गया है या अतीत की ओर चलने लगा है। भविष्य की ओर जाने वाले सभी रास्ते बंद हो चुके हैं। आम आदमी विवश हो गया है ख्वाबों और कविता के अन्दर जीने के लिए। इनके बाहर जो यथार्थ है उसका सामना वह नहीं कर सकता। कविता के बाहर की जि+न्दगी उसके लिए नहीं है।
मंहगाई के बीच सस्ता सिर्फ़ मनुष्य हुआ है। एक चम्मच में बोरी की बोरियां चीनी समा जाती है लेकिन चम्मच नहीं भरती। इस बाजार में हाथ की कीमत एक चम्मच चीनी है। जो कभी भरती नहीं। यह एक चम्मच चीनी मनुष्य की अस्मिता, आत्मा और सपने हैं जिसकी कीमत किसी बाजार में नहीं लगाई जा सकती। जिसका खालीपन कोई बाजार व्यवस्था नहीं भर सकती। बाजारवाद के विरुद्ध, लिखी गई, संभवतः पहली कहानी है।
लेखक बायां हाथ खरीदना चाहता है। क्योंकि उसका बायां हाथ बरसों हुए सुन्न हो चुका है। दाहिना तो पहले ही सलाम करते करते थक चुका है। उससे तो उम्मीद की नहीं जा सकती। लेखक का यह व्यंग्य उन छद्म वामपंथियों पर प्रतीत होता है जो स्वयं जमाने से इस बाजार संस्कृति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। लेखक पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों पर प्रश्न खड़े करता है।
अंत में मिठास आती है, हाथ में जान भी। परन्तु आइना टूटने के बाद। आइना ही तो आत्म साक्षांत्कार है। आइने में व्यक्ति अपनी ही शक्ल देखता है। आत्ममोह व्यक्तिवाद की ओर ले आता है। बाजार का दबाव भी यही करता है। मनुष्य को खण्डों में विभाजित करता है। आत्ममोह के आइने को तोड़ कर ही बूंद और अपने को मथा जा सकता है। जीवन में मिठास भरने के लिए अपने से बाहर आना ही होगा।
यह छोटी-सी कहानी गहरी विचार दृष्टि और महाकाव्यों की गइराई अपने में संजोए हुए है।
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