Skip to main content

Posts

Showing posts from November, 2008

आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....

VIJAY KUMAR SAPPATTI आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया..... कुछ याद दिला गया , कुछ भुला दिया , मुझको ; मेरे शहर ने रुला दिया..... यहाँ की हवा की महक ने बीते बरस याद दिलाये इसकी खुली ज़मीं ने कुछ गलियों की याद दिलायी.... यहीं पहली साँस लिया था मैंने , यहीं पर पहला कदम रखा था मैंने ... इसी शहर ने जिन्दगी में दौड़ना सिखाया था. आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया..... दूर से आती हुई माँ की प्यारी सी आवाज , पिताजी की पुकार और भाई बहनो के अंदाज.. यहीं मैंने अपनों का प्यार देखा था मैंने... यहीं मैंने परायों का दुलार देख था मैंने ..... कभी हँसना और कभी रोना भी आया था यहीं , मुझे आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....

ये जो हो रहा है !!

RAJEEV THEPRA जो हो रहा है उसे समझ, ख़ुद को समझाने दे , चुप मत बैठ आदम , दिल को तिलमिलाने दे!! अपने या घर-दूकान के भीतर घुसा मत रहा, बाहर निकल,ताज़ी हवा को भी पास आने दे!! कोई भी किसी को जीने क्यूँ नहीं दे रहा , ख़ुद को कभी उनसे ये बात कर के आने दे !! तेरे कूच करने से ही बदल पाएगी ये फिजां , तू अपनी मुहब्बत से जरा इसे बदलवाने दे !! जन्नत एक तिलिस्म नहीं है मेरे भाई,सच, मेरे साथ चल,प्रेम के गली में हो के आने दे !! तू अपनी सोच में अच्छा हो के बैठा मत रह, तू अपने अच्छे कर्मों को यां खिलखिलाने दे !! तेरे रहते ही कुछ अच्छा हो,तो हो जाए"गाफिल", वरना इस बेमुरौवत जिंदगी का क्या,जाने दे !!

प्रिय इन नयनों का अश्रु-नीर !

महादेवी वर्मा प्रिय इन नयनों का अश्रु-नीर ! दुख से आविल सुख से पंकिल, बुदबुद् से स्वप्नों से फेनिल, बहता है युग-युग अधीर ! जीवन-पथ का दुर्गमतम तल अपनी गति से कर सजग सरल, शीतल करता युग तृषित तीर ! इसमें उपजा यह नीरज सित, कोमल कोमल लज्जित मीलित; सौरभ सी लेकर मधुर पीर ! इसमें न पंक का चिह्न शेष, इसमें न ठहरता सलिल-लेश, इसको न जगाती मधुप-भोर ! तेरे करुणा-कण से विलसित, हो तेरी चितवन में विकसित, छू तेरी श्वासों का समीर !

तस्वीर

VIJAY KUMAR SAPPATTI मैंने चाहा कि तेरी तस्वीर बना लूँ इस दुनिया के लिए, क्योंकि मुझमें तो है तू ,हमेशा के लिए.... पर तस्वीर बनाने का साजो समान नही था मेरे पास. फिर मैं ढुढ्ने निकला ; वह सारा समान , ज़िंदगी के बाज़ार में... बहुत ढूंढा , पर कहीं नही मिला; फिर किसी मोड़ पर किसी दरवेश ने कहा, आगे है कुछ मोड़ ,तुम्हारी उम्र के , उन्हें पार कर लो.... वहाँ एक अंधे फकीर कि मोहब्बत की दूकान है; वहाँ ,मुझे प्यार कर हर समान मिल जायेगा.. मैंने वो मोड़ पार किए ,सिर्फ़ तेरी यादों के सहारे !! वहाँ वो अँधा फकीर खड़ा था , मोहब्बत का समान बेच रहा था.. मुझ जैसे, तुझ जैसे, कई लोग थे वहाँ अपने अपने यादों के सलीबों और सायों के साथ.... लोग हर तरह के मौसम को सहते वहाँ खड़े थे. उस फकीर की मरजी का इंतज़ार कर रहे थे.... फकीर बड़ा अलमस्त था... खुदा का नेक बन्दा था... अँधा था...... मैंने पूछा तो पता चला कि मोहब्बत ने उसे अँधा कर दिया है !! या अल्लाह ! क्या मोहब्बत इतनी बुरी होती है.. मैं भी किस दुनिया में भटक रहा था.. खैर ; जब मेरी बारी आई तो ,उस अंधे फकीर ने , तेरा नाम लिया ,और मुझे चौंका दिया , मुझसे कुछ नही

कविता

इला प्रसाद अँधेरे और उदासी की बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। निराशा और पराजय का साथ करना मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए यात्रा में हूँ। अँधेरे में उजाला भरने और पराजय को जय में बदलने के लिए चल रही हूँ लगातार...

जिज्ञासा

अशोक चक्रधर कितनी रोटी गाँव में अकाल था, बुरा हाल था। एक बुढ़ऊ ने समय बिताने को, यों ही पूछा मन बहलाने को- ख़ाली पेट पर कितनी रोटी खा सकते हो गंगानाथ ? गंगानाथ बोला- सात ! बुढ़ऊ बोला- ग़लत ! बिलकुल ग़लत कहा, पहली रोटी खाने के बाद पेट ख़ाली कहाँ रहा। गंगानाथ, यही तो मलाल है, इस समय तो सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।

कब्र

VIJAY KUMAR SAPPATTI जब तुम ज़िन्दगी की टेड़ी-मेढ़ी और उदास राहों पर चलकर ,थककर किसी अपने की तलाश करने लगो , तो एक पुरानी ,जानी पहचानी राह पर चली जाना ये थोडी सी आसान सी राह है इसमे भी दुःख है ,दर्द है ; पर ये थकाने वाली राह नही है .. ये मोहब्बत की राह है !!! जहाँ ये रास्ता ख़त्म होंगा , वहां तुम्हे एक कब्र मिलेंगी ; उस कब्र के पत्थर अब उखड़ने लगे है कब्र से एक झाड़ उग आया है , पहले इसमे फूल उगते थे ,अब कांटो से भरा पड़ा है.. कब्र पर कोई अपना ,कई दिन पहले कुछ मोमबत्तियां जला कर छोड़ गया था .. जिसे वक्त की आँधियों ने बुझा दिया था.. अब पिघली हुई मोम आंसुओं की शक्लें लिए कब्र पर पड़ी है काश , कोई उस कब्र को सवांरने वाला होता .. पर मोहब्बत की कब्रों के साथ ज़माना ऐसा ही सलुख करता है .. कुछ फूल आस-पास बिखरे पड़े है वो सब सुख चुके है पर अब भी चांदनी रातों में उनसे खुशबू आती है , चारो तरफ़ बड़ी वीरानी है .. तुम उस कब्र के पास चली आना अपने आँचल से उसे साफ़ कर देना अपने आंसुओं से उसे धो देना फिर अपने नर्म लबों से उसके सिरहाने को चूम लेना वो मेरी कब्र है !!! वहां तुम्हे सकून मिलेंगा वहां तुम्हे एहसास

तू

VIJAY KUMAR SAPPATTI मैं अक्सर सोचती हूँ कि, खुदा ने मेरे सपनो को छोटा क्यों बनाया करवट बदलती हूँ तो तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है तेरी होटों की शरारत याद आती है तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है तेरी क़समें ,तेरे वादें ,तेरे सपने ,तेरी हकीक़त .. तेरे जिस्म की खुशबु ,तेरा आना , तेरा जाना .. एक करवट बदली तो , तू यहाँ नही था.. तू कहाँ चला गया.. खुदाया !!!! ये आज कौन पराया मेरे पास लेटा है...

जिन्दगी है मेरे साथी-मरने की कला

धर्मवीर भारती न शान्ति के लिए मचल जल निशा प्रदीप जल ! जल कि काली मौत वाली रात को जला ! जल कि खुद परवाना बनकर सूरज तुझ पर मँडराये तेरी एक जलन में विहँसें सौ विहान उज्ज्वल ! जल शिक्षा प्रदीप जल !! जिन्दगी की रात में मत प्रेत बन कर घूम पतझड़ों में झूम पीली-पीली पत्तियों के मुर्दा होठ चूम धीमे से उन पर उढ़ा दे मौत का झीना कफ़न किन्तु फिर उन पर सिसक कर मत तू मिट जा धूल में जल उठ खिल उठ मेरे दीपक, जिन्दगी के फूल में इस दुनिया की डालियों में इन घुटती आँधी मालियों में बन बसन्ती आग तू सुलगा दे जलती कोपलें जिन्दगी की कोपलें जिन्दगी है मेरे साथी-मरने की कला ! जल कि काली मौत वाली रात को जला !!!

सुलगती तनहाई

सीमा गुप्ता बिलबिला के इस दर्द से, किस पनाह मे निजात पाऊं... तुने वसीयत मे जो दिए, कुछ रुसवा लम्हे, सुलगती तनहाई , जख्मो के सुर्ख नगीने... इस खजाने को कहाँ छुपाऊं ... अरमानो के बाँध किरकिराए, अश्कों के काफिले साथ हुए, किस बंजर भूमि पर बरसाऊ ... जेहन मे बिखरी सनसनी, रूह पे फैला सन्नाटा , संभावना की टूटती कडियाँ , किस ओक मे समेटूं , कहाँ सजाऊ...

मौनता

VIJAY KUMAR SAPPATTI मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , जिसे सब समझ सके , ऐसी परिभाषा देना ; मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना. मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , ताकि ,मैं अपने शब्दों को एकत्रित कर सकूँ अपने मौन आक्रोश को निशांत दे सकूँ, मेरी कविता स्वीकार कर मुझमे प्राण फूँक देना मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , ताकि मैं अपनी अभिव्यक्ति को जता सकूँ इस जग को अपनी उपस्तिथि के बारे में बता सकूँ मेरी इस अन्तिम उद्ध्ङ्तां को क्षमा कर देना मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , ताकि ,मैं अपना प्रणय निवेदन कर सकूँ अपनी प्रिये को समर्पित , अपना अंतर्मन कर सकूँ मेरे नीरस जीवन में आशा का संचार कर देना मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना , ताकि ,मैं मुझमे जीवन की अनुभूति कर सकूँ स्वंय को अन्तिम दिशा में चलने पर बाध्य कर सकूँ मेरे गूंगे स्वरों को एक मौन राग दे देना मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,

कितने पाकिस्तान

सारांश: कमलेश्वर का यह उपन्यास मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक है...इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परम्परा अब खत्म हो....। प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश यह उपन्यास यह उपन्यास मन के भीतर लगातार चलने वाली एक जिरह का नतीजा है। दशकों तक सभी कुछ चलता रहा। मैं कहानियाँ और कॉलम लिखता रहा। नौकरियाँ करता और छोड़ता रहा। टी.वी. के लिए कश्मीर के आतंकवाद और अयोध्या की बाबरी मस्जिद विवाद पर दसियों फ़िल्में बनाता रहा। सामाजिक हालात ने कचोटा तो शालिनी अग्निकांड पर ‘जलता सवाल’ और कानपुर की बहनों के आत्महत्याकांड पर ‘बन्द फाइल’ जैसे कार्यक्रम बनाने में उलझा रहा। इस बीच एकाध फ़िल्में भी लिखीं। चंद्रक्रांता, युग, बेताल, विराट जैसे लम्बे धारावाहिकों के लेखन में लगा रहा।इसी बीच भारतीय कृषि के इतिहास पर एक लम्बा श्रृंखलाबद्ध धारावाहिक लिखने का मौका मिला। कई सभ्यताओं के इतिहास और विकास की कथाओं को पढ़ते-पढ़ते चश्मे का नम्बर बदला। एक-एक घंटे की 27 कड़ियों को लिखते-लिखते बार-बार दिमाग आदिकाल और आर्यों के आगमन को लेकर सोचता रहा। बु

मोहब्बत की सांसों की

सीमा गुप्ता अंधियारे की चादर पे, छिटकी कोरी चांदनी .. सन्नाटे मे दिल की धडकन , मर्म मे डूबे सितारों का न्रत्य और ग़ज़ल ... झुलसती ख्वाइशों की मुंदती हुई पलक .. मोहब्बत की सांसों की, आखरी नाकाम हलचल.. पिघलते ह्रदय का करुण खामोश रुदन.. ये सब तुम्हारी बाट मे, इक हिचकी बन अटके हैं.. अगर एक पल को तुम आते इन सब को सांसों के कर्ज से... निज़ात दिला जाते...

जिन्दगी की आस में लुटती यहाँ है जिन्दगी

धर्मवीर भारती इस दुनिया के कणकणों में बिखरी मेरी दास्तां इस दुनिया के पत्थरों पर अंकित मेरा रास्ता फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !! माना मैंने उस तरफ हरियाले कोमल फूल हैं माना मैंने उस तरफ लहरों में बिखरे फूल हैं माना मैंने इस तरफ बस कंकड़ पत्थर धूल हैं किन्तु फिर क्या पत्थरों पर सर पटकता ही रहूँ ! खींच कर यदि ला सकूँ उस पार को इस पार मैं फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !! पैरों में भूकम्प मेरी साँसों में तूफान है स्वर लहरियों में मेरी हँसते प्रलय के गान हैं मौत ही जब आज मेरी जिन्दगी का मान है फिर दबा लूँ क्यों न दोनों मुट्ठियों में कूल को बह चलूँ खुद क्यों न बन जलधार मैं फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !! जिन्दगी की आस में लुटती यहाँ है जिन्दगी जिन्दगी की आस में घुटती यहाँ है जिन्दगी किन्तु फिर क्या बैठकर आकाश को ताका करूँ तोड़ कर यदि ला सकूँ आकाश को इक बार मैं फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!!

भरोसे से

सीमा गुप्ता वक्त के जंगल के ये झंखाड़, और वो झाड़ियाँसाफ़ दिखने में ख़लल डालें, जो बनकर गुत्थियाँचंद क़दमों पर नज़र आएँगे, फिर से हम ज़रूरबस भरोसे से हटाना है, तुम्हें बेज़ारियाँ......... (बेज़ारियाँ = विमुखता, क्रोध, नाख़ुशी)

यह गुलाम देश है

धर्मवीर भारती गुलाब मत यहाँ बिखर पराग मत यहाँ बिखर यह गुलाम देश है ! ये दास भावना ये गीले-गीले गीत औ’ उदास कल्पना हैं यही गुलाम देश की निशानियाँ बेहयाई का महज यहाँ गुजर बसर ! यह गुलाम देश है ! ये सूने-सूने गाँव ये भूखे-सूखे पंजरों के लड़खड़ाते पाँव ये नहीं है जिन्दगी ये मौत की छाँव आदमी यहाँ पिये हैं मौत का ज़हर ये गुलाम देश हैं। तू बन यहाँ प्रसून तेज कण्टकों का आज काम है यहाँ टूटने से पहले चुभ कर चूस ले दो बूँद खून है यहाँ रहम गुनाह भूल कर रहम न कर ! यह गुलाम देश है !!

ये प्यासे-प्यासे होठ ठण्डी आह मेरे साथियो,

धर्मवीर भारती ये प्यासे-प्यासे होठ ठण्डी आह मेरे साथियो, ये नहीं है जिन्दगी की राह मेरे साथियों ! आस्मान चीरकर उतर पड़ो जमीन पर तुम प्रलय की धार बन कर बन्धनों को तोड़ दो बह चले फिर जिन्दगी की धार मेरे साथियों ! नाश है निर्माण का सिंगार मेरे साथियों !! रूप के उभार से रंग के निखार से कण्टकों की छोटी-छोटी जालियों को तोड़ दो छोटे-छोटे बन्धनों के पार मेरे साथियों ! जिन्दगी का हर नया उभार मेरे साथियों !! प्यास हो अगर लगी प्यास हो अगर जगी तो एक पाँव से दबा के आस्मां निचोड़ दो जिन्दगी है मौत का सवाल मेरे साथियों ! जिन्दगी की रेत खूँ से लाल मेरे साथियों !!

कुंती का लाल

हस्सान अहमद वो बच्चा अब भी रोता है जिसे कुंती ने जन्मा था मगर दुनिया के डर से उसको दरिया में बहा आयी तो एक उम्मीद थी उसको कि शायद रहम दिल कोई उठाकर अपने दामन में उसे पालेगा पोसेगा मगर अफसोस ऐ दुनिया न कोई उसका वारिस है न कोई ग़म गुसार उसका जरा तुम आंख तो खोलो कि तुम भी देख सकती हो वह बच्चा अब भी रोता है किसी फुटपाथ पर बैठा

रश्क

हस्सान अहमद आज़मी सारे दिन का थका हारा सूरज भी अब धीरे-धीरे रवां अपने घर की तरफ मुंतज़िर अपनी दहलीज़ से एक दिल कश-सी मुस्कान पाने को है सारा दर्द और ग़म भूल जाने को है

भ्रम

सीमा गुप्ता कल्पना की सतह पर आकर थमा, अनजान सा किसका चेहरा है..... शब्जाल से बुनकर बेजुबान सा नाम, क्यूँ लबों पे आकर ठहरा है.... एहसास के अंगारे फ़िर जलने लगे, उदासी की चांदनी ने किया घुप अँधेरा है.... क्षतिज के पार तक नज़र दौड़ आई, किसके आभास का छाया कोहरा है...... वक्त की देहलीज पर आस गली, कितना बेहरम दर्द का पहरा है..... साँस थम थम कर चीत्कार कर रही, कोई नही.. कोई नही ..ये भ्रम बस तेरा है.....

खामोश सी रात

SEEMA GUPTA सांवली कुछ खामोश सी रात, सन्नाटे की चादर मे लिपटी, उनींदी आँखों मे कुछ साये लिए, ये कैसी शिरकत किए चली जाती है.... बिखरे पलों की सरगोशियाँ , तनहाई मे एक शोर की तरह, करवट करवट दर्द दिए चली जाती है.... कुछ अधूरे लफ्जों की किरचें, सूखे अधरों पे मचल कर, लहू को भी जैसे सर्द किए चली जाती है... सांवली कुछ खामोश सी रात अक्सर...

'खुदा की वापसी'

नासिरा शर्मा प्रतिष्ठित हिन्दी-कथाकार नासिरा शर्मा के इस नये?कहना संग्रह 'खुदा की वापसी' को दो अर्थों में लिया जा सकता है - एक तो यही कि यह सोच अब जा चुकी है कि पति एक दुनियावी खुदा है और उसके आगे नतमस्तक होना पत्नी का परम ध्म है, और दूसरा है उस खुदा की वापसी, जिसने सभी न्सानों को बराबर माना और औरत मर्द को समान अधिकार दिये हैं। संग्रह की कहानियों में ऐसे सवालों के इशारे भी हैं जो हमें उपलब्ध हैं उसे भूल कर हम उन मुद्दों के लिए क्यों लड़ते हैं जिन्हों ध्म, कानून, समाज, परिवार ने हमें नहीं दिया हैं? जो अधिकार हमें मिला है जब उसी को हम अपनी जिन्दगी में शामिल नहीं कर पाते और उसके बारे में लापरवाह रहते हैं, तब किस अधिकार और स्वत्त्रता की अपेक्षा हम खुद से करते हैं? दरअसल 'खुदा की वापसी' की सभी कहानियाँ उन बुनियादी अधिकारों की मांग करती नज़र आती हैं जो वासातव में महिलाओं को मिले हुए हैं मगर पुरुष-समाज के धर्म-पंडित-मौलवी मौलिक अधिकारों को भी देने के विरुद्ध हैं।'खुदा की वापसी की कहानियाँ ' एक समुदाय विशेष की होकर भी विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं। नारी के संघ

कुइयाँजान -नासिरा शर्मा

नासिरा शर्मा बताशेवाली गली में सुबह फूट चुकी थी, मगर उसका उजाला तंग गली में अपना दूधिया रंग अभी बिखेर नहीं पाया था। मंदिर की घंटी और दूध वाले की साइकिल की टनटनाहट से एक-दूसरे से सटे घर कुनमुना उठे। चंदन हलवाई दातून करता घर के बाहर बने पतले चबूतरे पर आकर बैठ गया। कुत्तों ने भी अंगड़ाई ले बदन सीधा किया और उसे देखकर अपनी दुम हिलानी शुरू कर दी, मगर चंदन उनसे बेगाना बना दातून चबाता रहा। उसकी आंखों से नींद का खुमार अभी उतरा नहीं था। कल रात शादी की पार्टी से लौटते-लौटते दो बज गए थे। एकाएक मद्धिम सुरों से रेंगती छमछम की आवाज चंदन की चेतना से टकराई। इतनी सुबह किसकी विदाई हो रही है ? जब पायजनी का स्वर निरंतर पास आता चला गया तो उसने अपनी मिचमिचाई आंखें खोली और एकदम से झुंझला उठा। ‘‘सत्यानाश ! रंगीले, रसीले की जोड़ी कहां से आय मरी है। सारे दिन का अब भगवान ही मालिक है।’’ कुत्तों ने दौड़कर रंगीले, रसीले को घेरा और उन्हें सूंघने लगे। रसीले ने हाथ में पकड़ी ढोलक पर थाप मारी। कुत्तों ने पीछे हटकर उन दोनों को घूरा, फिर अपना एतराज दर्ज कराते भौंक उठे। ‘‘कहां जात हो रसीले, इतनी सुबह सुबह ?’’ भड़भूजन जो लो

एक थी सुल्ताना

नासिरा शर्मा कल्लू दर्जी की एक लड़की थी। उसका नाम सुल्ताना था। सुल्ताना को कल्लू दर्जी बहुत चाहता था। वह उसकी इकलौती लड़की थी। कल्लू उसकी शादी किसी पढ़े-लिखे लड़के से करना चाहता था। जब सुल्ताना जवान हुई तो सारे मुहल्ले की नजर उस पर थी। सब उसे अपनी बहू बनाना चाहते थे, सुल्ताना बहुत हँसमुख थी। घर का सब काम जानती थी चार कलास पास थी। शबरातन की बहन जुमेरातन अपने बेटे शकूर से उसकी शादी करना चाहती थी। शकूल पांच कलास पास था। वह एक बिजली की दुकान में नौकर था। कल्लू ने शादी करने से मना कर दिया। कुछ दिनों बाद सुल्ताना के लिए करीम का रिश्ता आया। लड़का बारह कलास पास था। नौकरी नहीं करता था मगर खाता पीता घराना था। कल्लू ने झट से हाँ कर दी। खूब धूमधाम से बेटी की शादी की। सुल्ताना जब दोबारा ससुराल से मायके आई तो शबरातन को वह थकी-थकी सी लगी। माँ बाप के पूछने पर उसने बताया कि करीम को लाटरी के टिकट खरीदने की लत है। सिनेमा भी रोज देखता है। घर में पैसा न मिलने पर मां से लड़ता है। घर से भाग जाने की धमकी देता है कमाने का उसे शौक नहीं है। करीम की माँ को उम्मीद है कि बहू बेटे को सुधार लेगी। करीम सुल्त

नये-नये विहान में

धर्मवीर भारती नये-नये विहान में असीम आस्मान में- मैं सुबह का गीत हूँ। मैं गीत की उड़ान हूँ मैं गीत की उठान हूँ मैं दर्द का उफ़ान हूँ मैं उदय का गीत हूँ मैं विजय का गीत हूँ सुबह-सुबह का गीत हूँ मैं सुबह का गीत हूँ चला रहा हूँ छिप के रोशनी के लाल तीर मैं जगा रहा हूँ पत्थरों के दिल में आज पीर मैं गुदागुदा के फूल को हँसा रहा हूँ आज मैं ये सूना-सूना आस्मां बसा रहा हूँ आज मैं सघन तिमिर के बाद फिर मैं रोशनी का गीत हूँ मैं जागरण का गीत हूँ बादलों की ओर से छिप के मुस्करा उठूँ मैं जमीन से उड़ँ कि आस्मां पे छा उठूँ मैं उड़ूँ कि आस्मां के होश संग उड़ चलें मैं मुड़ूँ कि जिन्दगी की राह संग मुड़ चलें मैं जिन्दगी की राह पर मुसाफ़िरों की जीत हूँ स्वर्ण गीत ले विहग कुमार-सा चहक कर मैं खिजाँ की डाल पर बहार-सा महक उठूँ कण्टकों के बन्धनों में फूल का उभार हूँ मैं पीर हूँ मैं प्यार हूँ बहार हूँ खुमार हूँ भविष्य मैं महान् हूँ अतीत हूँ, वर्तमान हूँ मैं युग-युगों का गीत हूँ युग-युगों का गीत मैं सुबह का गीत हूँ !!

नेहरू की प्रासंगिकता - शिवप्रसाद सिंह

जिन्दगी

सीमा गुप्ता जीने का फकत एक बहाना तलाश करती ये जिन्दगी, अनचाही किसकी बातें बेशुमार करती ये जिन्दगी... कोई नही फ़िर किसे कल्पना मे आकर देकर, यहाँ वहां आहटों मे साकार करती ये जिन्दगी... इक लम्हा सिर्फ़ प्यार का जीने की बेताबी बढा, खामोशी से एक स्पर्श का इंतजार करती ये जिन्दगी॥ ना एहतियात, ना हया, ना फ़िक्र किसी जमाने की, बेबाक हो अपना दर्द-ऐ-इजहार करती ये जिन्दगी... रिश्तों के उलझे सिरों का कोई छोर नही लेकिन, हर बेडीयों को तोड़ने का करार करती ये जिन्दगी... बंजर से नयन, निर्जन ये तन, अवसादित मन, उफ़! इस बेहाली से हर लम्हा तकरार करती ये जिन्दगी....

जाने जिगर

सीमा गुप्ता राह पे पथरा के बर्फ सी जम गयी नजर , पलट के एक बार भी ना देखा, जाते- जाते किस अदा से कहर ढा गया.. जो कहता था मुझे कभी अपनी जाने जिगर ...

मुस्लिम एक नया परिप्रेक्ष्य - के. मलकानी

इस बंद गली में-अहमद शामलू

वीरानो मे

सीमा गुप्ता खामोश से वीरानो मे, साया पनाह ढूंढा करे, गुमसुम सी राह न जाने, किन कदमो का निशां ढूंढा करे.......... लम्हा लम्हा परेशान , दर्द की झनझनाहट से, आसरा किसकी गर्म हथेली का, रूह बेजां ढूंढा करे.......... सिमटी सकुचाई सी रात, जख्म लिए दोनों हाथ, दर्द-ऐ-जीगर सजाने को, किसका मकां ढूंढा करें ........... सहम के जर्द हुई जाती , गोया सिहरन की भी रगें , थरथराते जिस्म मे गुनगुनाहट, सांसें बेजुबां ढूंढा करें................

प्यार का ग्राफ- राही मासूम रजा

चित्र पर क्लिक करें और पढ़े.