नासिरा शर्मा
प्रतिष्ठित हिन्दी-कथाकार नासिरा शर्मा के इस नये?कहना संग्रह 'खुदा की वापसी' को दो अर्थों में लिया जा सकता है - एक तो यही कि यह सोच अब जा चुकी है कि पति एक दुनियावी खुदा है और उसके आगे नतमस्तक होना पत्नी का परम ध्म है, और दूसरा है उस खुदा की वापसी, जिसने सभी न्सानों को बराबर माना और औरत मर्द को समान अधिकार दिये हैं। संग्रह की कहानियों में ऐसे सवालों के इशारे भी हैं जो हमें उपलब्ध हैं उसे भूल कर हम उन मुद्दों के लिए क्यों लड़ते हैं जिन्हों ध्म, कानून, समाज, परिवार ने हमें नहीं दिया हैं? जो अधिकार हमें मिला है जब उसी को हम अपनी जिन्दगी में शामिल नहीं कर पाते और उसके बारे में लापरवाह रहते हैं, तब किस अधिकार और स्वत्त्रता की अपेक्षा हम खुद से करते हैं? दरअसल 'खुदा की वापसी' की सभी कहानियाँ उन बुनियादी अधिकारों की मांग करती नज़र आती हैं जो वासातव में महिलाओं को मिले हुए हैं मगर पुरुष-समाज के धर्म-पंडित-मौलवी मौलिक अधिकारों को भी देने के विरुद्ध हैं।'खुदा की वापसी की कहानियाँ ' एक समुदाय विशेष की होकर भी विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं। नारी के संघर्षों और उत्पीड़नों से उपजी विद्रूपताओं तथा अर्थहीन सामाजिक रूढ़ाचार पर तीखी चोट करती ये कहानियाँ समकालीन परिवेश और जीवन की विसंगतियों का प्रखर विश्लेषण भी करती हैं, भाषा और शिल्प के नयेपन सहित, पूरी समझदारी और ईमानदारी?के साथ।
निवेदन
कहानी ‘ख़ुदा की वापसी’ लिखते हुए मुझे कई तरह के खौफ ने घेर रखा था। जब हर तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा हो, उस समय मेरी यह कहानी कहीं उसी का गान न समझ ली जाए और उसमें छिपी जिन्दगी की पीड़ा पाठकों के मन को छू न सके, इस खौफ के बावजूद मैं खतरा मोल लेने को तैयार थी। क्योंकि मुझे शिद्दत से महससू हो रहा था कि हमने काफी समय उन अधिकारों को पाने के संघर्ष में गँवा दिया, जिसके लिए हमारा समाज, धर्म और मानसिकता तैयार नहीं थे, मगर हमने उन अधिकारों की तरफ ध्यान नहीं दिया जो हमें मिले हुए हैं और हम उनसे बेखबर सिर्फ इसलिए हैं कि पुरुषप्रधान समाज उसे हमें देना नहीं चाहता है। मुझे लगा, बेहतर है कि हम मिले अधिककारों को पहले हासिल करें, फिर जो नहीं हैं उनका सवाल उठाएँ।दूसरा खतरा मुझे उन कठमुल्ला सियासतदानों से था जो सच की परदाकुशाई से भड़ककर कोई फतवा न दे बैठें। इसलिए मैंने खुदा की वापसी के दोनों मौलवी किरदारों को बिलकुल उसी तरह पेश किया जैसे कि वे हैं। उनसे मैंने पूछ लिया था कि क्या वह मेरी कहानी के ‘पात्र’ बनना पसन्द करेंगे और किसी भी परेशानी के समय बआवाज बुलन्द औरत के अधिकारों की हिमायत करेंगे ? दोनों बखुशी राजी हुए और मुझे यह लिखते हुए खुशी हो रही है कि वह कहानी न केवल पसन्द की गयी बल्कि हजारों औरतों के अहसास की जबान बनी; क्योंकि उस कहानी में मेरा सबसे अहम सवाल था कि लड़की को उन बातों की तालीम क्यों नहीं दी जाती है जिस पर उसकी जिन्दगी के महत्त्वपूर्ण मुद्दे टिके हुए हैं। (जब फरजाना की तरह मुसीबत में पड़ती है तो धर्म-ग्रन्थों को पलटती है)। यदि औरत को अपनी लड़ाई खुद लड़नी है तो फिर अपने लिए बनाये शरीयत कानून का पूरा ज्ञान और देश के अन्य धर्म-कानूनों को भी जानना जरूरी है, तभी वह अपनी लड़ाई लड़ सकती है और एक-दूसरे की मदद कर सकती है वरना दूसरों के भरोसे रही तो उसको वही मिलेगा जो दूसरे उसे देना चाहेंगे। पूरी दुनिया में अनेक औरतें अपनी-अपनी तरह से यह लड़ाई लड़ रही हैं। उनके द्वारा किये गये सर्वे की रिपोर्ट पढ़ने से पता चलता है कि शरीयत के नाम पर कैसे-कैसे जुल्म ढाकर औरतों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है। इस्लाम ने यदि औरतों को बराबरी का अधिकार दे रखा है तो फिर वह अपने समाज, परिवार में इस तरह कैद क्यों रखी जाती हैं ? एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान माँ के नाम से होगी बाप के वंशवृक्ष से नहीं, फिर उसी औरत को आखिर प्रताड़ित कौन कर रहा है-रियासत, समाज, अज्ञानता ? जवाब साफ है कि वह मर्द है जो औरत के अधिकार का हनन करता है। मगर क्या औरत कम कसूरवार है जो अपने अधिकारों को लेना नहीं जानती है, उसको समझती नहीं है, उसको पढ़ती और दूसरी औरत को बताती नहीं है ?इन कहानियों को लिखने के पीछे केवल आक्रोश नहीं बल्कि मेरी एक मानसिकता भी है, जो मेरे गहरे सन्ताप को इंगित करती है, जो मेरे अन्दर बचपन से एक खौफ की शक्ल में घर कर गया था, जिसने मुझे धार्मिक अनुष्ठानों से दूर रखा; क्योंकि मेरे लिए धर्म का अर्थ था फसाद, घुटन, जड़ता आडम्बर और कठमुल्लापन। खौफ जो मेरे अन्दर परत-दर-परत जमता जा रहा था, वह बगावत की शक्ल में हर बन्धन को तोड़ने पर उकसाता रहता था। इसके बावजूद कि मेरे संस्कार उस परिवार के थे जो शिया और सय्यद था, जहाँ कबला की त्रासदी उनकी सोच का अहम हिस्सा थी, जहाँ जून की तपती दोपहर में ठण्डा पानी पीते हुए ‘मौला तेरी प्यास के सदके’ जैसे जुमले आम थे। मोहर्रम से चहल्लुम तक पूरे दो माह हक की लड़ाई में शहीद हुसैन के सोग में काला कपड़ा पहन अमामबाड़े के सामने नौहा, मरसिया, सोज हदीस, पढ़ना जिन्दगी का हिस्सा था। उसमें सौन्दर्यबोध था, साहित्य था, लय और संगीत था। रंग और दस्तकारी थी, हुनर और सृजन था, तिलिस्म और दर्शन था। गर्जकि इतिहास का यह काल-खण्ड कहीं आपको अभिभूत किये रहता था। दो माह के इस हसीन प्रदर्शन के बाद सब-कुछ बदल जाता था। वह ओज और ऊँचाई कहीं खो जाती थी फिर वही मामूली समस्याएँ थीं, वहीं घटियापन। सब हुसैन की कुर्बानी को भूलकर नेकी करना, दूसरों के लिए बलिदान करना भूल जाते थे। यह विरोधाभास ऐसा था जिसने मेरे इस विश्वास को पुख्ता कर दिया कि यदि मुझे इन्सान बने रहना है तो मुझे धर्म से दूर रहना होगा और किसी भी ख़ुदा के आगे सिजदा नहीं करना होगा। मेरे अपने अनुभव और फैसले से अलग एक पूरा देश है, जिसकी अस्सी प्रतिशत जनता का विश्वास धर्म और पवित्र ग्रन्थों में है। शाहबानों के केस में हम देख चुके थे कि आम आदमी को हमारी हमदर्दी, हमारा संघर्ष, हमारी लड़ाई कहीं प्रभावित नहीं कर पायी जितना मौलवियों के वक्तव्य। और वहीं पर महसूस हुआ था कि हम आम आदमी से बहुत दूर हैं। बौद्धिक स्तर पर हम उनके लिए जितने भी बेचैन हों, मगर वास्तविकता यह है कि हमारे बीच कोई संवाद नहीं है। इस सत्य को जानने के बाद लग था कि यदि मुझे इस वर्ग के लिए कुछ करना है तो मुझे संघर्ष का तरीका बदलना पड़ेगा। इन्हीं की जबान, आस्था, सोच और रहन-सहन के अनुसार अपनी कलम उठानी पड़ेगी और उनको उस खौफ से निकालना होगा जिसे धर्म-ग्रन्थों और ख़ुदा का आदेश बनाकर कठमुल्लाओं ने उन पर थोप रखा है। यह एक बहुत बड़ी हकीकत है कि हम या तो धर्म से डरते हैं या फिर उसके द्वारा दूसरों का शोषण करते हैं या उसे सत्ता समझ लेते हैं, जबकि धर्म केवल योजनाबद्ध तरीके से जीवन जीने का एक रास्ता है। आज धर्म को समझना हमारे लिए बेहद जरूरी हो जाता है क्योंकि उसका गलत प्रयोग इन्सानों की जिन्दगी को बेहद दुश्वार बना रहा है। इसलिए मेरे लिए ये कहानियाँ लिखना बहुत जरूरी था, ताकि मैं वह सारे कानून जो इन्सान के फायदे में जाते हैं, उन्हें अपने लेखन का माध्यम बना साहित्य द्वारा एक नये संघर्ष की शुरुआत कर सकूँ और उस ‘ऐन्शण्ट व़िज्डम’ से लाभ उठा सकूँ जो हमारा अतीत है और वर्तमान पर बुरी तरह हावी है। मुझे विश्वास है कि पाठक इन कहानियों के मानवीय पीड़ा को एक अलग दृष्टि से महसूस करेंगे जो इन्सान की आदिम जरूरत और धर्म के बनाये कानून के बीच सन्तुलन बनाने में उसे पीसती है। वह चक्रव्यूह में फँसा न तो पूरी तरह धर्म का पालन कर पाता, है न ही जिन्दगी को अपनी तरह जीने का हौसला पैदा कर पाता है, क्योंकि एक सच सबसे बड़ा है कि रोज उगनेवाली जिन्दगी हर कानून और विचारधारा से आगे निकल जाती है। तब यह पुरातन बुद्धिमानी अपने-आप बोसीदा होकर तहखाने में इतिहास बन बिसर जाती है। मगर जब तक आपकी याद का हिस्सा है तब तक उसका सही सन्दर्भ जानना जरूरी है। पैगम्बर-ए-इस्लाम को केवल बेटी का पिता होने के कारण अरब समाज, जो लड़की को जिन्दा गाड़ देता था, उन्हें ‘अबतर’ का नाम दे बैठा था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘दुमकटा’ और दूसरा अर्थ ‘बेऔलादा’ था। इस अपमान पर कुरान में आयत है, जिसमें खुदा फरमाता है कि जो उन्हें इस उपाधि से नवाजते हैं वह नहीं जानते हैं कि उस पैगम्बर की असली औलादें वह ‘उम्मत’ होंगी जो उनकी अनुयायी होंगी। खुदा ने अपने बनाये बन्दों को औरत-मर्द की शक्ल दी है। मगर उन्हें छोटा या बड़ा नहीं बनाया है, जिसकी जिन्दा मिसाल ‘मेराज’ है। पैगम्बर बर्राक नामक घोड़ी पर सवार हो ख़ुदा से मिलने गये थे, जिसके लम्बे-लम्बे बाल, जेवरों और सिर पर रखे ताजवाला औरत का चेहरा था और बाकी धड़ घोड़े का था, जिस पर दो सफेद पंख लगे हुए थे। यहाँ पर प्रश्न उठ सकता है कि अरबी घोड़ा ताकत और फुरती में कई बुलडोजरों के बराबर आँका जाता है। फिर यह जिम्मेदारी ‘मादा’ ने क्यों निभायी। खुदा की इस बराबरी को मद्देनजर रखते हुए पैगम्बर ने अनेक दुश्वारियों और कड़ी आलोचना से गुजरने के बावजूद अपने समय के विरुद्ध जा, सारे कानून औरत के फायदे में बनाये थे। पैगम्बर की बेटी ‘सय्यदा’ की नस्ल से अपने को पहचानवाने वाले सय्यदों का यह कहना कि कानून बनाया उन्हींने ही है। और अपनी इसी पहचान के कारण शिया समाज में सय्यदों का रुतबा है। उनका सीना और हाथ चूमना वास्तव में उस औरत के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना है जिसकी व्यक्तिगत जिन्दगी एक उदाहरण थी, जिसके दामन पर नमाज अदा की जा सकती थी, बचपन के उस खौफ को जहन से निकालने में मेरे अध्ययन ने मेरी सहायता की, जिसने स्थिति को साफ कर यह बताया कि औरत को गुलाम बनाने की एक गहरी साजिश है जिसमें वर्ग-विशेष धर्म का गलत प्रयोग कर रहा है। चूँकि मैं उसी सय्यदों में से हूँ जो अपनी पहचान किसी मर्द से न बनाकर बीबी सय्यदा से जोड़ता है तो मुझे यह कहने का साहस जुटाना होगा कि उन सारे शरीयत पेश करनेवाले वास्तव में धर्म के दोस्त हैं या दुश्मन ? इन्सानियत के हामी हैं या बरबरियत के ? यह औरत को स्वतन्त्रता देना चाहते हैं या कैदखाना ? मेरे लिए शताब्दी के अन्त में, जिसे मैं ‘औरत की अर्द्धशताब्दी’ नाम दे सकती हूँ, खड़े होकर यह सवाल करना बहुत जरूरी लगता है कि चौदह सौ वर्ष पहले ‘औरत’ को देखने का खुला नजरिया हजार नकाबों से क्यों ढक दिया गया है, जब इन्सान ने एक लम्बा सफर पूरा कर अनेक उपलब्धियों से भरा अंजाम दे रखा है ?आज के इस दौर में मेरी अपनी भी जिम्मेदारी है-अपने लेखन, समय और उस वर्ग के प्रति जो पीड़ित है, और इसलिए भी कि मैं उसी सिलसिले की एक कड़ी हूँ, और यह मेरा कर्तव्य भी है। इसलिए उन सारे कानूनों को, जो इन्सान के, विशेषकर औरत के, फायदे में जाते हैं, लबबैक कहती हूँ और अपनी आवाज में पाठकों की आवाज की गूँज सुनने की आशा रखती हूँ, जो मेरी तरह इन विचारों से सहमति रखते हैं; क्योंकि यहाँ मसला केवल औरत का नहीं है बल्कि उन इन्सानी पीढ़िय़ों का है, जो उसके आगोश में आँख खोलती और परवरिश पाती हैं।
नयी दिल्ली14 जनवरी, 1998 -नासिरा शर्मा
ख़ुदा की वापसी
फरजाना युनिवर्सिटी से लौटकर जैसे ही घर में दाखिल हुई, हवा में तैरती शादी की तारीख के पक्की होने का सन्देशा उसे दालान की चौकी पर रखे मिठाई के झाबे ने दे दिया। दिल चाहा कि जल्दी से एक लड्डू मुँह में रख ले, फिर दूसरे पल वह झिझक गयी। उस पर नजर पड़ते ही आँगन में बिखरे कबाड़ को छाँटती हुई चन्दा तेजी से उठी और चहककर बोली, ‘‘बन्नी आ गयी....’’फरजाना उसके इस हमले से घबरा-सी गयी। घर की सभी औरतें अपना-अपना काम छोड़ बड़े दालान की तरफ आने लगीं। बड़ी फूफी को उसने आदाब किया। उन्होंने उसकी बलाएँ ले गले लगाया, खाला अम्मी ने माथा चूमा, तभी चन्दा ने गाना गाना शुरू कर दिया-बन्नी तेरी आँखें सुरमेदानी...‘‘चुप कमब्खत, गला है कि फटा बाँस’’, अम्मी ने उसे झिड़का।‘‘बेगम साहब, नेग-निछावर कुछ मिलिहे कि नाही ?’’ वह अपना गाना छोड़ आँचल फैलाकर सबके सामने घूमने लगी।‘‘यह मुई हरफन-मौला है। एक वक्त में मिरासिन, नायन, मनिहारिन सब बन जाती है।’’ बड़ी फूफी ने पर्स से नोट निकाल उसके आँचल में डाला। ‘‘कोई काम तो लोगन का हमरी वजह से रुकत तो नाही है’’, कहती हुई चन्दा आगे जाकर फिर आँगन का कबाड़ छाँड़ने लगी थी। ‘‘सारे दिन की थकी-हारी आयी है। कैसा नन्हा-सा मुँह निकल आया है, दुल्हन ! जरा शब्बो से कहो, कुछ शरबत-नाश्ता लाये’’, बड़ी फूफी ने फरजाना के चेहरे पर हाथ फेरा। फूफी के कहने से फरजाना की भूख उभर आयी। उसने झाबे को ताका। कोई और दिन होता, तो वह झपट्टा मारकर लड्डू उठाती, पैर हिला-हिलाकर खाती, मगर यह तो उसकी...‘‘कल सुबह पुताईवाले आवे को हैं और ई चौधराइन सुबह से सामान छाँट नाहीं पायी है।’’ शब्बो बड़बड़ायी और नाश्ते की सेनी लेकर आँगन पार करने लगी। ‘‘तोका एक चीज न देबै, समझी कल्लो की माई !’’ चन्दा चिढ़ गयी। थोड़े हैं, जो कूड़ा-करकट सँभालें’’। शब्बो मटकती हुई आगे बढ़ी और चौकी पर सेनी रखी और लौटी। ‘‘हम जैसे जानित नाही हैं का, कि तोका देनेवाले बहुत हैं गुइयाँ’’, कहकर चन्दा जोर से हँसी। उसके कटाक्ष पर शब्बो के तेवरी पर बल पड़ गये। तड़पकर बोली, ‘‘तोहरे दिमाग मा कीड़े हैं, जो गन्दी बात सोचत है। अरे, हमार मतलब रहा...।’’‘‘छोड़ कल्लू की माई, तोहार मतलब हम सब जानित हैं’’, इतना कह चन्दा हँसती हुई सामान छाँटने लगी। शब्बो ने खिसियाकर उसको ताका, फिर तेजी से रसोई की तरफ कदम बढ़ाये और पटरा जोर से पटका। ‘‘तुम लोगों की जबान कभी बन्द रहेगी ?’’ अम्मी ने दोनों को डाँटा। फरजाना कमरे में पहुँचकर उलझने लगी। बेकरारी में इधर-उधर चक्कर लगा वह धम्म से बिस्तर पर बैठ सोचने लगी कि आखिर वह इतनी आसानी से शादी के लिए राजी क्यों हो गयी। उसे एम.ए. करना था। आई.ए.एस. में बैठना था। अम्मी-अब्बू को एक लड़का क्या पसन्द आ गया, उन्होंने आँखें ही फेर लीं। उन्हें अब कुछ भी याद नहीं, न अपना वायदा, न उसका सपना...मेरी शादी है, मगर मुझसे ही नहीं पूछा गया। बस....शाम को चिराग जलने के बाद घर के मर्द भी नहा-धोकर आँगन में आन बैठे। फूफी जान और खाला अम्मी मिठाई का आधा झाबा घरों में भेजकर अब बैठी सुस्ता रही थीं। आँगन के किनारे की पलँग पर फरमाना भी आकर लेट गयी थी और हाथ में पकड़ी पत्रिका को पढ़ने में व्यस्त दिख रही थी, मगर उसके कान सबकी बातों की तरफ लगे हुए थे।‘‘मेहर की रकम पक्की हो गयी, इरशाद ?’’ बड़ी फूफीजान ने भाई से पूछा। ‘‘आपका इन्तजार था। अभी तक सारी शादियाँ घर में हुई थीं। रस्म के मुताबिक चौदह हजार बँधता था’’‘‘चौदह की गिनती मुबारक ठहरी, चौदह मासूमीन का नम्बर है, मगर यह शादी तो गैरों में हो रही है’’, फूफी ने फिक्र जाहिर की। ‘‘इस हिसाब से फूफी जान, एक लाख चौबीस हजार पर मेहर बँधना चाहिए, बड़ा मुबारक नम्बर है।’’ फिरोज ने गहरी आवाज बना फूफी को ताका।‘‘कैसे ?’’ फूफी ने बड़ी-बड़ी आँखें घुमायीं।‘‘अरे, अभी तक जितने इमाम हुए हैं, उनकी गिनती एक लाख चौबीस हजार है।’’ फिरोज ने बड़ी गम्भीरता से कहा।‘‘कहता तो ठीक है’’, फूफीजान सोच में डूब गयीं।‘‘बिजनेस ठीक चल रहा है उनका, वे लोग मान जाएँगे फूफीजान’’, फिरोज चहका। ‘‘कब से दूसरों की जेब टटोलने लगे हो ? अरे, जो अपने खानदान में होता चला आया है, उसकी बात करो’’, खाला चिढ़कर बोलीं। ‘‘लाख भी क्या ज्यादा है बाजी ? जमाना अब वह तो रहा नहीं कि बीबी के निकाह की तरह तीन रुपये में मेहर बँध जाए। हजार खतरे हैं, रोज नयी-नयी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। लड़की की कुछ तो मजबूती होनी चाहिए, ले-देकर इकलौती तो बेटी है’’, माँ ने धीरे से कहा। ‘‘कल शाम मौलवी इमाम आये थे। कहने लगे कि मेहर जितना ज्यादा बँधवा लो, उससे क्या फायदा ! लड़केवाले शान में आकर राजी हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें देना तो एक छदाम नहीं है। दिल को बहलाना है, जितने का बँधवा लो, वरना इस्लाम के मुताबिक तो निकाह के फौरन बाद मेहर की रकम की अदायगी का हुक्म है, मगर यहाँ सुनता कौन है। सब नये-नये कानून अपनी सहूलियत की वजह से बना रहे हैं। नाम इस्लाम का ले रहे हैं, मगर मैं सोचती हूँ, चाहे पहले या चाहे बाद में, देनेवाले तो देते हैं। मेरा ही देखो, मकान मेहर के एवज में दे गये तुम्हारे बहनोई। अपने किनारे इज्जत से बैठी हूँ। यही हाल फिज्जा का है, अमरूद और आम के दोनों बाग मेहर में मिले हैं। चैन से रोटी खा रही है।’’ बड़ी फूफी बोली। ‘‘वह तो पचास, पचहत्तर जितनी रकम हम चाहेंगे, वे उस पर राजी हो जाएँगे। इतना पीछे पड़े हैं, कहते हैं, असगर मास्टर की इतनी इज्जत है लड़की पढ़ी-लिखी है। हमें ऐसा ही घर चाहिए था, जिससे हमारी शान बढ़े। पैसा तो हाथ का मैल है। इसलिए दहेज में फूटी कौड़ी नहीं चाहिए’’, इरशाद ने कहा।‘‘ऐ है, उनके चाहने से क्या होता है ! क्या हम अपनी लड़की नंगी बुच्ची रुख्सत करेंगे....अरे वाह’’, बड़ी फूफी तमक उठी।‘‘मुझे लगता है शम्मो, पचास हजार मुनासिब रहेगा। फिर, आपस में एतमाद की बात भी होती है। बाकी खुदा भरोसे छोड़ते हैं !’’ खाला बोली। ‘‘ठीक है..पचास मुनासिब गिनती है...एक लाख पर शायद वे राजी न हों। बेकार में बात खाली जाए या फिर बेकार की बदमजगी हो’’, इरशाद ने सोचते हुए कहा।‘‘बदमजगी कैसी ? पचास हजार की औकात क्या है आज, कल तो खाक होगी’’, अम्मी ने कहा।‘‘फूफीजान, एक लाख चौबीस हजार...पूरे चौहत्तर हजार का घाटा है’’, फिरोज ने धीरे से कहा। ‘‘चुप नासपीटे ! हर बात में मजाक’’, बड़ी फूफी खफा होने के अन्दाज से मन्द-मन्द मुसकराती हुई बोलीं और भतीजे का सिर गोद में रखकर सहलाने लगीं। ‘‘मर्द-औरत के रिश्ते में मोहब्बत के अलावा अब हजार तरह की गुत्थियाँ उलझ चुकी हैं, वरना ये सब उलझनें हमें परेशान क्यों करें ?’’ इरशाद ने कहा। फरजाना सबकुछ सुनकर भिन्ना रही थी। सबको रकम की पड़ी है। मेहर कितना बँधेगा, बरी में कितने जोड़े, जेवर, शक्कर और मेवे के कितने घड़े आएँगे, मगर कोई नहीं पूछता कि क्या वह मुझे आगे पढ़ने देंगे ? युनिवर्सिटी जाने देंगे ? आई.ए.एस.के मुकाबले में बैठने देगें ? उसका क्रोध आँसू की शक्ल में बहने लगा। कैसी शान से दोस्तों के सामने कहती थी, मैं अभी शादी नहीं करूँगी, पढ़ूँगी, मगर...‘‘न रो बेटी, सबको एक दिन बाबुल छोड़ना पड़ता है। रंक हो या शाह, सबको बेटी बिदा करनी पड़ती है।’’ कहकर खाला रो पड़ीं और उनके साथ सबकी आँखें भर आयीं। फरजाना सबसे जान छुड़ा पैर पटकती कमरे की तरफ भागी और गुस्से में भर कारनिस पर रखे पुरस्कार में मिले कप और शील्ड की कतार को जमीन पर फेंका, फ्रेम किया सर्टीफिकेट उतारा। अगर चन्दा हाथ न पकड़ लेती, तो वह भी चकनाचूर हो जाता।
निवेदन
कहानी ‘ख़ुदा की वापसी’ लिखते हुए मुझे कई तरह के खौफ ने घेर रखा था। जब हर तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा हो, उस समय मेरी यह कहानी कहीं उसी का गान न समझ ली जाए और उसमें छिपी जिन्दगी की पीड़ा पाठकों के मन को छू न सके, इस खौफ के बावजूद मैं खतरा मोल लेने को तैयार थी। क्योंकि मुझे शिद्दत से महससू हो रहा था कि हमने काफी समय उन अधिकारों को पाने के संघर्ष में गँवा दिया, जिसके लिए हमारा समाज, धर्म और मानसिकता तैयार नहीं थे, मगर हमने उन अधिकारों की तरफ ध्यान नहीं दिया जो हमें मिले हुए हैं और हम उनसे बेखबर सिर्फ इसलिए हैं कि पुरुषप्रधान समाज उसे हमें देना नहीं चाहता है। मुझे लगा, बेहतर है कि हम मिले अधिककारों को पहले हासिल करें, फिर जो नहीं हैं उनका सवाल उठाएँ।दूसरा खतरा मुझे उन कठमुल्ला सियासतदानों से था जो सच की परदाकुशाई से भड़ककर कोई फतवा न दे बैठें। इसलिए मैंने खुदा की वापसी के दोनों मौलवी किरदारों को बिलकुल उसी तरह पेश किया जैसे कि वे हैं। उनसे मैंने पूछ लिया था कि क्या वह मेरी कहानी के ‘पात्र’ बनना पसन्द करेंगे और किसी भी परेशानी के समय बआवाज बुलन्द औरत के अधिकारों की हिमायत करेंगे ? दोनों बखुशी राजी हुए और मुझे यह लिखते हुए खुशी हो रही है कि वह कहानी न केवल पसन्द की गयी बल्कि हजारों औरतों के अहसास की जबान बनी; क्योंकि उस कहानी में मेरा सबसे अहम सवाल था कि लड़की को उन बातों की तालीम क्यों नहीं दी जाती है जिस पर उसकी जिन्दगी के महत्त्वपूर्ण मुद्दे टिके हुए हैं। (जब फरजाना की तरह मुसीबत में पड़ती है तो धर्म-ग्रन्थों को पलटती है)। यदि औरत को अपनी लड़ाई खुद लड़नी है तो फिर अपने लिए बनाये शरीयत कानून का पूरा ज्ञान और देश के अन्य धर्म-कानूनों को भी जानना जरूरी है, तभी वह अपनी लड़ाई लड़ सकती है और एक-दूसरे की मदद कर सकती है वरना दूसरों के भरोसे रही तो उसको वही मिलेगा जो दूसरे उसे देना चाहेंगे। पूरी दुनिया में अनेक औरतें अपनी-अपनी तरह से यह लड़ाई लड़ रही हैं। उनके द्वारा किये गये सर्वे की रिपोर्ट पढ़ने से पता चलता है कि शरीयत के नाम पर कैसे-कैसे जुल्म ढाकर औरतों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है। इस्लाम ने यदि औरतों को बराबरी का अधिकार दे रखा है तो फिर वह अपने समाज, परिवार में इस तरह कैद क्यों रखी जाती हैं ? एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान माँ के नाम से होगी बाप के वंशवृक्ष से नहीं, फिर उसी औरत को आखिर प्रताड़ित कौन कर रहा है-रियासत, समाज, अज्ञानता ? जवाब साफ है कि वह मर्द है जो औरत के अधिकार का हनन करता है। मगर क्या औरत कम कसूरवार है जो अपने अधिकारों को लेना नहीं जानती है, उसको समझती नहीं है, उसको पढ़ती और दूसरी औरत को बताती नहीं है ?इन कहानियों को लिखने के पीछे केवल आक्रोश नहीं बल्कि मेरी एक मानसिकता भी है, जो मेरे गहरे सन्ताप को इंगित करती है, जो मेरे अन्दर बचपन से एक खौफ की शक्ल में घर कर गया था, जिसने मुझे धार्मिक अनुष्ठानों से दूर रखा; क्योंकि मेरे लिए धर्म का अर्थ था फसाद, घुटन, जड़ता आडम्बर और कठमुल्लापन। खौफ जो मेरे अन्दर परत-दर-परत जमता जा रहा था, वह बगावत की शक्ल में हर बन्धन को तोड़ने पर उकसाता रहता था। इसके बावजूद कि मेरे संस्कार उस परिवार के थे जो शिया और सय्यद था, जहाँ कबला की त्रासदी उनकी सोच का अहम हिस्सा थी, जहाँ जून की तपती दोपहर में ठण्डा पानी पीते हुए ‘मौला तेरी प्यास के सदके’ जैसे जुमले आम थे। मोहर्रम से चहल्लुम तक पूरे दो माह हक की लड़ाई में शहीद हुसैन के सोग में काला कपड़ा पहन अमामबाड़े के सामने नौहा, मरसिया, सोज हदीस, पढ़ना जिन्दगी का हिस्सा था। उसमें सौन्दर्यबोध था, साहित्य था, लय और संगीत था। रंग और दस्तकारी थी, हुनर और सृजन था, तिलिस्म और दर्शन था। गर्जकि इतिहास का यह काल-खण्ड कहीं आपको अभिभूत किये रहता था। दो माह के इस हसीन प्रदर्शन के बाद सब-कुछ बदल जाता था। वह ओज और ऊँचाई कहीं खो जाती थी फिर वही मामूली समस्याएँ थीं, वहीं घटियापन। सब हुसैन की कुर्बानी को भूलकर नेकी करना, दूसरों के लिए बलिदान करना भूल जाते थे। यह विरोधाभास ऐसा था जिसने मेरे इस विश्वास को पुख्ता कर दिया कि यदि मुझे इन्सान बने रहना है तो मुझे धर्म से दूर रहना होगा और किसी भी ख़ुदा के आगे सिजदा नहीं करना होगा। मेरे अपने अनुभव और फैसले से अलग एक पूरा देश है, जिसकी अस्सी प्रतिशत जनता का विश्वास धर्म और पवित्र ग्रन्थों में है। शाहबानों के केस में हम देख चुके थे कि आम आदमी को हमारी हमदर्दी, हमारा संघर्ष, हमारी लड़ाई कहीं प्रभावित नहीं कर पायी जितना मौलवियों के वक्तव्य। और वहीं पर महसूस हुआ था कि हम आम आदमी से बहुत दूर हैं। बौद्धिक स्तर पर हम उनके लिए जितने भी बेचैन हों, मगर वास्तविकता यह है कि हमारे बीच कोई संवाद नहीं है। इस सत्य को जानने के बाद लग था कि यदि मुझे इस वर्ग के लिए कुछ करना है तो मुझे संघर्ष का तरीका बदलना पड़ेगा। इन्हीं की जबान, आस्था, सोच और रहन-सहन के अनुसार अपनी कलम उठानी पड़ेगी और उनको उस खौफ से निकालना होगा जिसे धर्म-ग्रन्थों और ख़ुदा का आदेश बनाकर कठमुल्लाओं ने उन पर थोप रखा है। यह एक बहुत बड़ी हकीकत है कि हम या तो धर्म से डरते हैं या फिर उसके द्वारा दूसरों का शोषण करते हैं या उसे सत्ता समझ लेते हैं, जबकि धर्म केवल योजनाबद्ध तरीके से जीवन जीने का एक रास्ता है। आज धर्म को समझना हमारे लिए बेहद जरूरी हो जाता है क्योंकि उसका गलत प्रयोग इन्सानों की जिन्दगी को बेहद दुश्वार बना रहा है। इसलिए मेरे लिए ये कहानियाँ लिखना बहुत जरूरी था, ताकि मैं वह सारे कानून जो इन्सान के फायदे में जाते हैं, उन्हें अपने लेखन का माध्यम बना साहित्य द्वारा एक नये संघर्ष की शुरुआत कर सकूँ और उस ‘ऐन्शण्ट व़िज्डम’ से लाभ उठा सकूँ जो हमारा अतीत है और वर्तमान पर बुरी तरह हावी है। मुझे विश्वास है कि पाठक इन कहानियों के मानवीय पीड़ा को एक अलग दृष्टि से महसूस करेंगे जो इन्सान की आदिम जरूरत और धर्म के बनाये कानून के बीच सन्तुलन बनाने में उसे पीसती है। वह चक्रव्यूह में फँसा न तो पूरी तरह धर्म का पालन कर पाता, है न ही जिन्दगी को अपनी तरह जीने का हौसला पैदा कर पाता है, क्योंकि एक सच सबसे बड़ा है कि रोज उगनेवाली जिन्दगी हर कानून और विचारधारा से आगे निकल जाती है। तब यह पुरातन बुद्धिमानी अपने-आप बोसीदा होकर तहखाने में इतिहास बन बिसर जाती है। मगर जब तक आपकी याद का हिस्सा है तब तक उसका सही सन्दर्भ जानना जरूरी है। पैगम्बर-ए-इस्लाम को केवल बेटी का पिता होने के कारण अरब समाज, जो लड़की को जिन्दा गाड़ देता था, उन्हें ‘अबतर’ का नाम दे बैठा था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘दुमकटा’ और दूसरा अर्थ ‘बेऔलादा’ था। इस अपमान पर कुरान में आयत है, जिसमें खुदा फरमाता है कि जो उन्हें इस उपाधि से नवाजते हैं वह नहीं जानते हैं कि उस पैगम्बर की असली औलादें वह ‘उम्मत’ होंगी जो उनकी अनुयायी होंगी। खुदा ने अपने बनाये बन्दों को औरत-मर्द की शक्ल दी है। मगर उन्हें छोटा या बड़ा नहीं बनाया है, जिसकी जिन्दा मिसाल ‘मेराज’ है। पैगम्बर बर्राक नामक घोड़ी पर सवार हो ख़ुदा से मिलने गये थे, जिसके लम्बे-लम्बे बाल, जेवरों और सिर पर रखे ताजवाला औरत का चेहरा था और बाकी धड़ घोड़े का था, जिस पर दो सफेद पंख लगे हुए थे। यहाँ पर प्रश्न उठ सकता है कि अरबी घोड़ा ताकत और फुरती में कई बुलडोजरों के बराबर आँका जाता है। फिर यह जिम्मेदारी ‘मादा’ ने क्यों निभायी। खुदा की इस बराबरी को मद्देनजर रखते हुए पैगम्बर ने अनेक दुश्वारियों और कड़ी आलोचना से गुजरने के बावजूद अपने समय के विरुद्ध जा, सारे कानून औरत के फायदे में बनाये थे। पैगम्बर की बेटी ‘सय्यदा’ की नस्ल से अपने को पहचानवाने वाले सय्यदों का यह कहना कि कानून बनाया उन्हींने ही है। और अपनी इसी पहचान के कारण शिया समाज में सय्यदों का रुतबा है। उनका सीना और हाथ चूमना वास्तव में उस औरत के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना है जिसकी व्यक्तिगत जिन्दगी एक उदाहरण थी, जिसके दामन पर नमाज अदा की जा सकती थी, बचपन के उस खौफ को जहन से निकालने में मेरे अध्ययन ने मेरी सहायता की, जिसने स्थिति को साफ कर यह बताया कि औरत को गुलाम बनाने की एक गहरी साजिश है जिसमें वर्ग-विशेष धर्म का गलत प्रयोग कर रहा है। चूँकि मैं उसी सय्यदों में से हूँ जो अपनी पहचान किसी मर्द से न बनाकर बीबी सय्यदा से जोड़ता है तो मुझे यह कहने का साहस जुटाना होगा कि उन सारे शरीयत पेश करनेवाले वास्तव में धर्म के दोस्त हैं या दुश्मन ? इन्सानियत के हामी हैं या बरबरियत के ? यह औरत को स्वतन्त्रता देना चाहते हैं या कैदखाना ? मेरे लिए शताब्दी के अन्त में, जिसे मैं ‘औरत की अर्द्धशताब्दी’ नाम दे सकती हूँ, खड़े होकर यह सवाल करना बहुत जरूरी लगता है कि चौदह सौ वर्ष पहले ‘औरत’ को देखने का खुला नजरिया हजार नकाबों से क्यों ढक दिया गया है, जब इन्सान ने एक लम्बा सफर पूरा कर अनेक उपलब्धियों से भरा अंजाम दे रखा है ?आज के इस दौर में मेरी अपनी भी जिम्मेदारी है-अपने लेखन, समय और उस वर्ग के प्रति जो पीड़ित है, और इसलिए भी कि मैं उसी सिलसिले की एक कड़ी हूँ, और यह मेरा कर्तव्य भी है। इसलिए उन सारे कानूनों को, जो इन्सान के, विशेषकर औरत के, फायदे में जाते हैं, लबबैक कहती हूँ और अपनी आवाज में पाठकों की आवाज की गूँज सुनने की आशा रखती हूँ, जो मेरी तरह इन विचारों से सहमति रखते हैं; क्योंकि यहाँ मसला केवल औरत का नहीं है बल्कि उन इन्सानी पीढ़िय़ों का है, जो उसके आगोश में आँख खोलती और परवरिश पाती हैं।
नयी दिल्ली14 जनवरी, 1998 -नासिरा शर्मा
ख़ुदा की वापसी
फरजाना युनिवर्सिटी से लौटकर जैसे ही घर में दाखिल हुई, हवा में तैरती शादी की तारीख के पक्की होने का सन्देशा उसे दालान की चौकी पर रखे मिठाई के झाबे ने दे दिया। दिल चाहा कि जल्दी से एक लड्डू मुँह में रख ले, फिर दूसरे पल वह झिझक गयी। उस पर नजर पड़ते ही आँगन में बिखरे कबाड़ को छाँटती हुई चन्दा तेजी से उठी और चहककर बोली, ‘‘बन्नी आ गयी....’’फरजाना उसके इस हमले से घबरा-सी गयी। घर की सभी औरतें अपना-अपना काम छोड़ बड़े दालान की तरफ आने लगीं। बड़ी फूफी को उसने आदाब किया। उन्होंने उसकी बलाएँ ले गले लगाया, खाला अम्मी ने माथा चूमा, तभी चन्दा ने गाना गाना शुरू कर दिया-बन्नी तेरी आँखें सुरमेदानी...‘‘चुप कमब्खत, गला है कि फटा बाँस’’, अम्मी ने उसे झिड़का।‘‘बेगम साहब, नेग-निछावर कुछ मिलिहे कि नाही ?’’ वह अपना गाना छोड़ आँचल फैलाकर सबके सामने घूमने लगी।‘‘यह मुई हरफन-मौला है। एक वक्त में मिरासिन, नायन, मनिहारिन सब बन जाती है।’’ बड़ी फूफी ने पर्स से नोट निकाल उसके आँचल में डाला। ‘‘कोई काम तो लोगन का हमरी वजह से रुकत तो नाही है’’, कहती हुई चन्दा आगे जाकर फिर आँगन का कबाड़ छाँड़ने लगी थी। ‘‘सारे दिन की थकी-हारी आयी है। कैसा नन्हा-सा मुँह निकल आया है, दुल्हन ! जरा शब्बो से कहो, कुछ शरबत-नाश्ता लाये’’, बड़ी फूफी ने फरजाना के चेहरे पर हाथ फेरा। फूफी के कहने से फरजाना की भूख उभर आयी। उसने झाबे को ताका। कोई और दिन होता, तो वह झपट्टा मारकर लड्डू उठाती, पैर हिला-हिलाकर खाती, मगर यह तो उसकी...‘‘कल सुबह पुताईवाले आवे को हैं और ई चौधराइन सुबह से सामान छाँट नाहीं पायी है।’’ शब्बो बड़बड़ायी और नाश्ते की सेनी लेकर आँगन पार करने लगी। ‘‘तोका एक चीज न देबै, समझी कल्लो की माई !’’ चन्दा चिढ़ गयी। थोड़े हैं, जो कूड़ा-करकट सँभालें’’। शब्बो मटकती हुई आगे बढ़ी और चौकी पर सेनी रखी और लौटी। ‘‘हम जैसे जानित नाही हैं का, कि तोका देनेवाले बहुत हैं गुइयाँ’’, कहकर चन्दा जोर से हँसी। उसके कटाक्ष पर शब्बो के तेवरी पर बल पड़ गये। तड़पकर बोली, ‘‘तोहरे दिमाग मा कीड़े हैं, जो गन्दी बात सोचत है। अरे, हमार मतलब रहा...।’’‘‘छोड़ कल्लू की माई, तोहार मतलब हम सब जानित हैं’’, इतना कह चन्दा हँसती हुई सामान छाँटने लगी। शब्बो ने खिसियाकर उसको ताका, फिर तेजी से रसोई की तरफ कदम बढ़ाये और पटरा जोर से पटका। ‘‘तुम लोगों की जबान कभी बन्द रहेगी ?’’ अम्मी ने दोनों को डाँटा। फरजाना कमरे में पहुँचकर उलझने लगी। बेकरारी में इधर-उधर चक्कर लगा वह धम्म से बिस्तर पर बैठ सोचने लगी कि आखिर वह इतनी आसानी से शादी के लिए राजी क्यों हो गयी। उसे एम.ए. करना था। आई.ए.एस. में बैठना था। अम्मी-अब्बू को एक लड़का क्या पसन्द आ गया, उन्होंने आँखें ही फेर लीं। उन्हें अब कुछ भी याद नहीं, न अपना वायदा, न उसका सपना...मेरी शादी है, मगर मुझसे ही नहीं पूछा गया। बस....शाम को चिराग जलने के बाद घर के मर्द भी नहा-धोकर आँगन में आन बैठे। फूफी जान और खाला अम्मी मिठाई का आधा झाबा घरों में भेजकर अब बैठी सुस्ता रही थीं। आँगन के किनारे की पलँग पर फरमाना भी आकर लेट गयी थी और हाथ में पकड़ी पत्रिका को पढ़ने में व्यस्त दिख रही थी, मगर उसके कान सबकी बातों की तरफ लगे हुए थे।‘‘मेहर की रकम पक्की हो गयी, इरशाद ?’’ बड़ी फूफीजान ने भाई से पूछा। ‘‘आपका इन्तजार था। अभी तक सारी शादियाँ घर में हुई थीं। रस्म के मुताबिक चौदह हजार बँधता था’’‘‘चौदह की गिनती मुबारक ठहरी, चौदह मासूमीन का नम्बर है, मगर यह शादी तो गैरों में हो रही है’’, फूफी ने फिक्र जाहिर की। ‘‘इस हिसाब से फूफी जान, एक लाख चौबीस हजार पर मेहर बँधना चाहिए, बड़ा मुबारक नम्बर है।’’ फिरोज ने गहरी आवाज बना फूफी को ताका।‘‘कैसे ?’’ फूफी ने बड़ी-बड़ी आँखें घुमायीं।‘‘अरे, अभी तक जितने इमाम हुए हैं, उनकी गिनती एक लाख चौबीस हजार है।’’ फिरोज ने बड़ी गम्भीरता से कहा।‘‘कहता तो ठीक है’’, फूफीजान सोच में डूब गयीं।‘‘बिजनेस ठीक चल रहा है उनका, वे लोग मान जाएँगे फूफीजान’’, फिरोज चहका। ‘‘कब से दूसरों की जेब टटोलने लगे हो ? अरे, जो अपने खानदान में होता चला आया है, उसकी बात करो’’, खाला चिढ़कर बोलीं। ‘‘लाख भी क्या ज्यादा है बाजी ? जमाना अब वह तो रहा नहीं कि बीबी के निकाह की तरह तीन रुपये में मेहर बँध जाए। हजार खतरे हैं, रोज नयी-नयी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। लड़की की कुछ तो मजबूती होनी चाहिए, ले-देकर इकलौती तो बेटी है’’, माँ ने धीरे से कहा। ‘‘कल शाम मौलवी इमाम आये थे। कहने लगे कि मेहर जितना ज्यादा बँधवा लो, उससे क्या फायदा ! लड़केवाले शान में आकर राजी हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें देना तो एक छदाम नहीं है। दिल को बहलाना है, जितने का बँधवा लो, वरना इस्लाम के मुताबिक तो निकाह के फौरन बाद मेहर की रकम की अदायगी का हुक्म है, मगर यहाँ सुनता कौन है। सब नये-नये कानून अपनी सहूलियत की वजह से बना रहे हैं। नाम इस्लाम का ले रहे हैं, मगर मैं सोचती हूँ, चाहे पहले या चाहे बाद में, देनेवाले तो देते हैं। मेरा ही देखो, मकान मेहर के एवज में दे गये तुम्हारे बहनोई। अपने किनारे इज्जत से बैठी हूँ। यही हाल फिज्जा का है, अमरूद और आम के दोनों बाग मेहर में मिले हैं। चैन से रोटी खा रही है।’’ बड़ी फूफी बोली। ‘‘वह तो पचास, पचहत्तर जितनी रकम हम चाहेंगे, वे उस पर राजी हो जाएँगे। इतना पीछे पड़े हैं, कहते हैं, असगर मास्टर की इतनी इज्जत है लड़की पढ़ी-लिखी है। हमें ऐसा ही घर चाहिए था, जिससे हमारी शान बढ़े। पैसा तो हाथ का मैल है। इसलिए दहेज में फूटी कौड़ी नहीं चाहिए’’, इरशाद ने कहा।‘‘ऐ है, उनके चाहने से क्या होता है ! क्या हम अपनी लड़की नंगी बुच्ची रुख्सत करेंगे....अरे वाह’’, बड़ी फूफी तमक उठी।‘‘मुझे लगता है शम्मो, पचास हजार मुनासिब रहेगा। फिर, आपस में एतमाद की बात भी होती है। बाकी खुदा भरोसे छोड़ते हैं !’’ खाला बोली। ‘‘ठीक है..पचास मुनासिब गिनती है...एक लाख पर शायद वे राजी न हों। बेकार में बात खाली जाए या फिर बेकार की बदमजगी हो’’, इरशाद ने सोचते हुए कहा।‘‘बदमजगी कैसी ? पचास हजार की औकात क्या है आज, कल तो खाक होगी’’, अम्मी ने कहा।‘‘फूफीजान, एक लाख चौबीस हजार...पूरे चौहत्तर हजार का घाटा है’’, फिरोज ने धीरे से कहा। ‘‘चुप नासपीटे ! हर बात में मजाक’’, बड़ी फूफी खफा होने के अन्दाज से मन्द-मन्द मुसकराती हुई बोलीं और भतीजे का सिर गोद में रखकर सहलाने लगीं। ‘‘मर्द-औरत के रिश्ते में मोहब्बत के अलावा अब हजार तरह की गुत्थियाँ उलझ चुकी हैं, वरना ये सब उलझनें हमें परेशान क्यों करें ?’’ इरशाद ने कहा। फरजाना सबकुछ सुनकर भिन्ना रही थी। सबको रकम की पड़ी है। मेहर कितना बँधेगा, बरी में कितने जोड़े, जेवर, शक्कर और मेवे के कितने घड़े आएँगे, मगर कोई नहीं पूछता कि क्या वह मुझे आगे पढ़ने देंगे ? युनिवर्सिटी जाने देंगे ? आई.ए.एस.के मुकाबले में बैठने देगें ? उसका क्रोध आँसू की शक्ल में बहने लगा। कैसी शान से दोस्तों के सामने कहती थी, मैं अभी शादी नहीं करूँगी, पढ़ूँगी, मगर...‘‘न रो बेटी, सबको एक दिन बाबुल छोड़ना पड़ता है। रंक हो या शाह, सबको बेटी बिदा करनी पड़ती है।’’ कहकर खाला रो पड़ीं और उनके साथ सबकी आँखें भर आयीं। फरजाना सबसे जान छुड़ा पैर पटकती कमरे की तरफ भागी और गुस्से में भर कारनिस पर रखे पुरस्कार में मिले कप और शील्ड की कतार को जमीन पर फेंका, फ्रेम किया सर्टीफिकेट उतारा। अगर चन्दा हाथ न पकड़ लेती, तो वह भी चकनाचूर हो जाता।
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