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Showing posts from November, 2009

राही मासूम रजा और आधा गाँव

राही मासूम रजा और आधा गाँव - प्रो० जोहरा अफ़जल राही मासूम रजा एक ऐसे आधुनिक रचनाकार थे जिनकी रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति है। चाहे वह उनका उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो अथवा निबन्ध। उनकी सभी रचनाओं में समय की अनुगूँज सुनाई देती है। राही के उपन्यासों में आधा गाँव टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद,सीन ७५, दिल एक सादा कागज,कटरा बी आरजू, असन्तोष के दिन और नीम का पेड़ में से सबसे अधिक चर्चित उपन्यास आधा गाँव है। राही ने इस उपन्यास में गंगौली गाँव की वास्तविक कथा के माध्यम से १९३७ से १९५२ तक के समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ और उसकी परिवर्तनशील स्थितियों का वितान रचा है। राही का यह उपन्यास हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। आधा गाँव आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने उत्तर प्रदेश के एक गाँव गंगौली के आधे टुकड़े को ही अपना कथा क्षेत्र बनाया है, जिसका वह स्वयं भोगता एवं जानकार है। हिन्दी उपन्यास जगत्‌ में शायद पहली बार मुस्लिम जनजीवन का यथार्थ अपने विविध रंगों में उसकी अच्छी और बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुआ है, जिसने

सिक्का बदल गया

कृष्णा सोबती खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिये शाहनी जब दरिया के किनारे पहुँची तो पौ फट रही थी। असमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रखे और ‘श्री राम’ ‘श्री राम’ करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनींदी आँखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी। चनाब का पानी आज भी पहले-सा सर्द था, लहरें-लहरों को चूम रही थीं। सामने कश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भँवरों से टकराकर कगार गिर रहे थे लेकिन दूर दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी। शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाईं तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पाँवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी। आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहाँ नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है ! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दरिया के किनारे वह दुल्हन बनकर उतरी थी और आज.... आज शाह जी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं.

शऊर की दहलीज: दहलीज लाँघने की कोशिश

से. रा. यात्री शऊर की दहलीज प्रेमकुमार द्वारा उर्दू के चर्चित एवं शीर्षस्थ रचनाकारों से समय-समय पर किए गए साक्षात्कार की प्रस्तुति है। जाहिर है कि ये सब अपने-अपने क्षेत्रा के विशेषज्ञ हैं। यह एक तरह का एक ऐसा पारम्परिक एवं अन्तरंग संवाद है जिसमें प्रश्नोत्तरी का पारम्परिक रूप सिरे से गायब है। साक्षात्कर्त्ता पाठक और रचनाकार के मध्य हल्के से सूक्ष्म संकेत छोड़कर अलग हट जाता है और दोनों की एक-दूसरे की मानसिकता में आवाजाही का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। शऊर की दहलीज में कुल नौ साहित्यकारों का आत्मस्वरूप उभर कर आया है। इनमें विधागत वैविध्य का भी विस्तार दिखाई पड़ता है। आले अहमद सुरूर उर्दू साहित्य के एक उम्रदराज रचनाकार हैं। प्रेमकुमार ने दस बारह प्रश्नों में ही सुरूर साहब की सृजनशीलता के छह-सात दशकों का व्यक्तित्व और कृतित्व अपनी सम्पूर्णता में रेखांकित कर दिया है। इस साक्षात्कार अथवा संवाद की विशेषता यह भी है कि यह एक ऐसी विभूति से किया गया है जो अठ्ठासी वर्ष को पार किए बैठी है, वार्धक्य के अलावा वह पक्षाघात की व्याधि से भी पीड़ित है। यह सुरूर साहब की अनथक जुझारूपन की वृत्ति ही है कि

किस्मत का उपहास

SEEMA GUPTA हर बीता पल इतीहास रहा, जीना तुझ बिन बनवास रहा ये चाँद सितारे चमके जब जब इनमे तेरा ही आभास रहा चंचल हुई जब जब अभिलाषा, तब प्रेम प्रीत का उल्लास रहा, तेरी खातिर कण कण पुजा पत्थरों में भगवन का वास रहा विरह के नगमे गूंजे कभी कभी सन्नाटो का साथ रहा गुजरे दिन आये याद बहुत "किस्मत" का कैसा उपहास रहा.