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Showing posts from April, 2009

मेरे ही लिए

डा. महेंद्र भटनागर शिशिर की मूक ठण्डी रात — मेरे ही लिए ! . सितारे सब अपरिचित वृक्ष सोये सामने बस एक तम का गात — मेरे ही लिए ! . न जाने किन अक्षम्य अभूत पापों का कुफल ; मधुलोक खोया हर मनुज, पर, मात्र मैं — परिश्रान्त विह्नल ! . यह अकेली स्तब्ध बोझिल हिम ठिठुरती रात — मेरे ही लिए !

अप्रत्याशित

डा. महेंद्र भटनागर सदा.... सदा की तरह नव मेघों के उपहारों की लेकर बाढ़ आया आषाढ़ ; पर, तीव्र पिपासाकुल चातक ने कुछ न कहा, सूनी-सूनी आँखों से बस देखता रहा, आगत का स्वागत नहीं किया, जीवन-रस नहीं पिया ! . सदा....सदा की तरह झर-झर सावन बरसा, रतिकर कंपित वक्षस्थल ले उमड़ीं तड़पीं श्याम घटाएँ हरित सजल आँचल फैलाये, पर, नृत्य मयूरों ने नहीं किया, भादों बीत गया नीरस मौन गगन ने कजली गीतों का स्वर नहीं दिया। . सदा... सदा की तरह आयीं शारद-ज्योत्स्ना रातें शीतल। याद दिलाने मांसल विधु-वदनी की बातें ! पर, शुक्लाभिसारिका निज गृह से नहीं हिली, पथ — सुनसान बनाये प्रति निशि जागा, शान्त सरोवर में नहीं मोरपंखी कहीं चली ! . सदा...सदा की तरह लह-लह मधु-माधव आया, नव पल्लव रंग-बिरंगे पुष्पों के गजरे लाया पर, वासन्ती नहीं खिली, मधुकण्ठी की पीड़ा भी नहीं सुनी ! . बोझिल तिथियों का, धूमिल स्मृतियों का, एक बरस बी...त...ग...या...!

प्रश्न

डा. महेंद्र भटनागर किसने अनास्था के हज़ारों बीज मानस-भूमि पर छितरा दिये ? . किसने हमारी अचल निष्ठा के विरल अनमोल माणिक संशयावह राह पर बिखरा दिये ? . रीती अश्रद्धा के नुकीले शूल चरणों में चुभा विश्वास की अक्षय धरोहर छीन ली ? किसने अचानक खोखले दर्शन-कथन से, सत्य अनुभव-सिद्ध जीवन-मान्यताओं की अकुण्ठित ज्ञान-गुरुता हीन की ? . किसने विनाशक आँधियों के वेग से विचलित किये उन्नत गगन-चम्बी हमारी लौह-आस्था के शिखर ?

प्रश्न

डा. महेंद्र भटनागर किसने अनास्था के हज़ारों बीज मानस-भूमि पर छितरा दिये ? . किसने हमारी अचल निष्ठा के विरल अनमोल माणिक संशयावह राह पर बिखरा दिये ? . रीती अश्रद्धा के नुकीले शूल चरणों में चुभा विश्वास की अक्षय धरोहर छीन ली ? किसने अचानक खोखले दर्शन-कथन से, सत्य अनुभव-सिद्ध जीवन-मान्यताओं की अकुण्ठित ज्ञान-गुरुता हीन की ? . किसने विनाशक आँधियों के वेग से विचलित किये उन्नत गगन-चम्बी हमारी लौह-आस्था के शिखर ?

विक्षोभ

डा. महेंद्र भटनागर इच्छाएँ हमारी — त्रस्त हैं, उद्विग्न हैं, आकार पाने के लिए ! . आसंग इच्छाएँ — जिन्हें हमने बड़े ही यत्न से गोपन-सुरक्षित स्थान पर रक्खा सदा वांछित अनागत की प्रतीक्षा में ! . विविक्षित भावनाएँ आकुलित हैं, आक्रमित हैं, वास्तविक अनुभूति का आधार पाने के लिए ! . पर, वायुमण्डल में न जाने किस तरह की अश्रुवाही वाष्प है परिव्याप्त ; जिससे हम विवश हैं मूक रोने के लिए, आक्रोश तृष्णा भार ढोने के लिए !

पुस्तक उपलब्ध (हिन्दी के मुस्लिम कथाकार )

पुस्तक उपलब्ध मूल्य 200(25प्रतिशत छूट के साथ) भूमिका डॉ० मेराज अहमद:सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति मुस्लिम कथाकार और उनकी हिन्दी कहानियाँ कहानियाँ हसन जमाल : चलते हैं तो कोर्ट चलिए मुशर्रफ आलम जौक़ी : सब साजिन्देएखलाक अहमद जई : इब्लीस की प्रार्थना सभा हबीब कैफी : खाये-पीये लोग तारिक असलम तस्नीम : बूढ़ा बरगद अब्दुल बिस्मिल्लाह : जीना तो पड़ेगा असगर वजाहत : सारी तालीमात मेहरून्निसा परवेज : पासंग नासिरा शर्मा : कुंइयांजान मेराज अहमद : वाजिद साँई अनवर सुहैल : दहशतगर्द आशिक बालौत : मौत-दर-मौत शकील : सुकून मौ० आरिफ : एक दोयम दर्जे का पत्र एम.हनीफ मदार : बंद कमरे की रोशनी

अनभिव्यक्त

डा. महेंद्र भटनागर व्यक्ति — अपनी अकल्पित हर व्यथा की सर्व-परिचित परिधि ! . किंचित् अनाकृत अतिक्रमण अपने-पराये के लिए रे अतिकथा, अरुचिकर अतिकथा ! . अनुभूत जीवन-वेदना बस बाँध रक्खो पूर्व निर्धारित परिधि में, व्यक्ति के परिवेश में, अवचेतना के देश में।

अपेक्षित

डा. महेंद्र भटनागर सरस अधरों पर प्रफुल्लित कंज-सी मुसकान हो ! या उमंगों से भरा मधु-गान हो ! . मुसकान की मधु-गान की अभिशप्त इस युग में कमी है ! अत्यधिक अनवधि कमी है ! मात्र — नीरव नील होठों पर बड़ी गहरी परत हिम की जमी है ! . प्रत्येक उर में वेदना की खड़खड़ाती है फ़सल, आह्लाद-बीजों का नहीं अस्तित्व, केवल झनझनाते अंग, मानव चित्र-रेखा-वत् खोजता सतरंग !

संवर्त

डा. महेंद्र भटनागर पथ का मोड़ भाता है मुझे ! . बहुत लम्बी डगर से ऊब जाता हूँ, अकारण ही थकावट की शिथिलता में न समझे डूब जाता हूँ ! सनातन एक-से पथ पर नयापन जब नज़र आता नहीं मुझसे चला जाता नहीं ! . तभी तो हर नवागत मोड़ का स्नेहिल हृदयहारी भाव-भीना मुग्ध स्वागत ! इसमें हर्ज़ क्या है — पथ का मोड़ यदि इतना सुहाता है मुझे ? पथ का मोड़ भाता है मुझे !

जीवनी

डा. महेंद्र भटनागर चित्र जो अतीत धुन्ध में समा गया — उसे पुनः-पुनः उरेहना। . जो बिखर गया जगह-जगह व्यतीत राह पर — उसे विचार कर समेटना। . जो समाप्त-प्राय — बार-बार चाह कर उसे सहेजना। . रीति-नीति काव्य की नहीं ! . जीवनी : विगत प्रवाह, जी चुके। काव्य: वर्तमान वेगवान जी रहे।

टूटा व्यक्तित्व

डा. महेंद्र भटनागर बचपन में किसी ने यदि — न देखा स्नेह-सिंचित दृष्टि से अति चाव से, और पुचकारा नहीं भर अंक वत्सल-भाव से, तो व्यक्ति का व्यक्तित्व निश्चित टूटता है। . यौवन में नहीं यदि — पा सका कोई प्रणयिनी संगिनी का प्रेम: निश्छल एकनिष्ठ अनन्य ! जीवन — शुष्क बोझिल मरुस्थल मात्र तृष्णा-जन्य ! तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व अन्दर और बाहर से बराबर टूटता है। . वृद्ध होने पर नहीं देती सुनायी यदि — प्रतिष्ठा-मान की वाणी, न सुनना चाहता कोई स्व-अनुभव की कहानी, मूक इस अन्तिम चरण पर व्यक्ति का व्यक्तित्व सचमुच, चरमराता है सदा को टूट जाता है !

स्व-रुचि

डा. महेंद्र भटनागर फोटो में मुझे अपनी शक़्‍ल नहीं भायी ! मैंने पुनः बड़े उत्साह से अपने चित्रा खिँचवाये — भिन्न-भिन्न पोज़ दिये, फोटोग्राफ़र के संकेतों पर गम्भीरता कम कर मुसकराया भी, चेहरे पर भावावेश लाया भी, पर पुनः मुझे उन फोटुओं में भी अपनी शक़्ल नहीं भायी, तनिक भी स्व-रुचि को रास नहीं आयी ! . पर, क्या वे शक्लें मेरी नहीं ? क्या वे बहुरंगी पोज़ मेरे नहीं ? . वस्तुतः हम फोटो में यथार्थ आकृति नहीं, अपने सौन्दर्य-बोध के अनुरूप अपने को चित्रित देखना चाहते हैं, अपने ऐबों को गोपित या सीमित देखना चाहते हैं !

भले ही

डा. महेंद्र भटनागर भले ही — काटती हों चेतना को, दंश जैसी ये तुम्हारी डाह-संकेतक उपेक्षा-बोधनी दृग-भंगिमाएँ ! . भले ही — सालती हों मर्म को उपहास-प्रेरित ये तुम्हारी अग्नि-शर-व्यंग्योक्तियों की क्रूर-धर्मी यातनाएँ ! सामने प्रस्तुत विकर्षण-युक्त प्रतिमाएँ ! . इन्हें पहचानता हूँ, आदि से इतिहास इनका जानता हूँ। है सही उपचार इनका पास मेरे, कुछ नहीं बनता-बिगड़ता आज यदि ठहरी रहें ये क्षितिज घेरे !

प्रतिज्ञा-पत्र

डा. महेंद्रभटनागर टूट गिरने दो पीड़ाओं के पहाड़ बार-बार अमर्त्य व्यक्तित्व मैं अविदलित रहूंगा ! . आसमान पर घिरने दो वेगवाही स्याह बदलियाँ, गरजने दो सर्वग्रही प्रचण्ड आँधियाँ लौह का अस्तित्व मैं अपराजित रहूंगा ! . लक्ष-लक्ष वृश्चिकों के डंक-प्रहार, उठने दो अंग-अंग में विष-दग्ध लहरें ज्वार व्रतधर सहिष्णु मैं अविचलित रहूंगा !

पुनर्वार

डा. महेंद्र भटनागर मैं एक वीरान बीहड़ जंगल में रहता हूँ, अहर्निश निपट एकाकीपन की असह्य पीड़ा सहता हूँ ! . मैंने यह यंत्रणा-गृह कोई स्वेच्छा से नहीं वरा, मैंने कभी नहीं चाहा निर्लिप्त निस्संग जीवन का यह जँगलेदार कठघरा ! . जिसमें शंकाओं से भरा सन्नाटा जगता है, जीना अर्थ-हीन अकारण-सा लगता है ! . समय-असमय जब दहक उठते हैं मुझमें हिंस्र पशुता के अग्नि-पर्वत, प्रतिशोध-प्रतिहिंसा के लावा नद जब लहक उठते हैं आहत क्षत-विक्षत चेतना पर, तब यह वीरान बीहड़ जंगल ही निरापद प्रतीत होता है ! . (सचमुच कितना बेबस मानव के लिए अतीत होता है !) . यह गुंजान वन यह अकेलापन मेरी विवशता है ! मुझे विवशता की पीड़ा सहने दो, . दहने दो, दहने दो ! . जंगल जल जाएंगे, लौह-कठघरे गल जाएंगे ! . मैं आऊंगा फिर आऊंगा, निज को विसर्जित कर सामूहिक चेतना का अंग बन अन्तहीन भीड़ में मिल जाऊंगा ! . स्व के दंश जहाँ तिरोहित हो जाएंगे, या अवचेतना की अथाह गहराइयों में सो जाएंगे !