कुलवंत सिंह
रात तन्हा थी न तुम दिन को सज़ा-ए-मौत दो
पास आ जाओ न तुम मुझको सज़ा-ए-मौत दो
इश्क में तेरी अदाओं ने मुझे कैदी किया
हुस्न-ए-जलवों से न तुम मुझको सज़ा-ए-मौत दो
हम तो तेरे थे सदा फिर चाल तूने क्या चली
दूर कर मुझसे न तुम सबको सज़ा-ए-मौत दो
रात काली छा गई हर ओर बरबादी हुई
है नहीं गलती न तुम उसको सज़ा-ए-मौत दो
दूरियां दिल में नहीं हैं, दूर हम क्यों फिर हुए
सुन मुझे रोता न तुम खुद को सज़ा-ए-मौत दो
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