बशीरुद्दीन एम. मदरी
÷÷वृत्तियों की भिन्नता के बीच जो मार्ग निकल सकेगा वही लोक रक्षा का मार्ग होगा। वह धर्म का चलता हुआ मार्ग होगा। जिससे शिष्टों का आदर, दीनों पर दया, दुष्टों का दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, वही सर्वांगीण मार्ग होगा।''१ इस नीति तथ्य के बावजूद भी विशेषकर जिस राजनीति की कुर्सी हथियाने में जात-पाँत का फासा फेंककर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की प्रवृत्ति को वृत्ति समझ लिया जाए जिससे यह प्रश्न उभरता है दुष्ट किसको कहा जाए, दीन कौन है? दया की वर्षा किस पर बरसाई जाय? ये सब मुद्दे हमें आज सोचने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी है। वह अपनी बुद्धि के बल से संसार की सुख-संपत्ति का अधिकारी माना जाता है। अपने गुणों से वह अन्य जीवधारियों से अधिक विकास कर गया है। नए-नए आविष्कारों तथा अपने निर्माण कौशल द्वारा उसने नैसर्गिक सृष्टि की शोभा सौ गुणी बढ़ा दी है। इसलिए उसे वसुंधरा के भोग करने का अधिकार है। इस कारण संसार की सब सामग्रियाँ मनुष्य के सुख के लिए बनाई गई हैं। मनुष्य इन अधिकारों एवं बुद्धिबल द्वारा सबका स्वामी अवश्य है। परंतु मनुष्यता इन सबसे ऊपर है। केवल शक्ति द्वारा अधिकार प्राप्त कर लेना एक बात है। और सद्गुण द्वारा किसी के मन को वश में कर लेना दूसरी। सद्गुण की मोहिनी शक्ति का पद बहुत ऊँचा है। मनुष्य का ऐसा ही सद्गुण है जिसकी ओर विश्व का हृदय अपने आप खिंचा जाता है।
÷÷उच्च पद के साथ उसका एक उत्तरादायित्व होता है। वह उत्तरादायित्व अपने और शक्ति का दूसरों के कल्याण के लिए प्रयोग करना है।''२ अपने सुख प्राप्ति के लिए काम करना स्वार्थ है, स्वार्थ स्वभावतः सभी प्राणियों में पाया जाता है। परंतु परार्थ के लिए उद्यत होना विकसित विचारों तथा उदारभावनाओं के बिना असंभव है। यही परार्थ भावना मनुष्य को मनुष्य बनाती है और उसे इस लोक से ऊँचा उठाकर सुखान्त बना देती है। पराये दुख में सहानुभूति दिखाना, जीवमात्रा के कल्याण की इच्छा रखना, परोपकार के लिए त्याग दिखाना, पीड़ितों की रक्षा में अपनी शक्ति लगाना, पतितों को उठाना और दुष्टों का दमन करना ऐसे सद्गुण हैं जो मनुष्य की विभूति है।३ इस तरह उपर्युक्त कथन के चिंतन-मनन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य का सबसे भूमण्डलीकरण युग में प्रवेश हो पाया तब से उसके मौलिक विचारों में और भी विपरीत-सा भाव दिखाई देने लगे। परिणामस्वरूप उसकी मनमानी इंसानियत की जड़ों को झकझोरने लगी और तो और प्रत्येक बात जात-पाँत के रंग से रंगी जाने लगी। जिस तरह वैयक्तिक रूप से हारा थका हुआ मनुष्य अंत में भगवान की शरण में जाकर अपने आपको संतृप्त मानता है, उसी भांति समाज के गतिचक्र में वह चेतना शक्ति लाने की दिशा में उसे अनिवार्य होकर तत्त्वज्ञान की शरण में जाना होगा, जिसकी सच्चाई से मनुष्य तथा समाज को संतृप्ति का आभास मिल सकता होगा। मनुष्य की अब तक यह धारणा बनी हुई थी कि तत्त्वज्ञान का राज्यशासन विधि से कोई संबंध नहीं, सामाजिक और औद्योगिक उन्नति के साथ भी तत्त्वज्ञान का कोई सरोकार नहीं।
किन्तु इसका ठोस उत्तर यही होगा कि भारतीय ऋषि मुनि सब मानवीय व्यवहारों को तत्त्वज्ञान के साथ सुसंगत समझते थे। इस कारण उनके धर्मशास्त्रा, वैद्यशास्त्रा, यंत्राशास्त्रा, राजनीति शास्त्रा आदि सभी शास्त्रा तत्त्वज्ञान के सुदृढ़ आधार पर ही रचे गये थे। उदाहरण स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीता का प्रत्यक्ष अनुभव तथा मानवीय व्यवहार में आने वाला शास्त्रा समझना होगा जिसमें गुप्त रीति से राज्यविधा पर जोर दिया गया है। आत्मा-परमात्मा का वर्णन या परमात्मा और प्रकृति के नियमों को ही राज्य व्यवहार में परिणत करके देखने से राजविधा हो जाती है। इसकी पुष्टि में उद्धृत श्लोकों के आधार पर तत्त्वज्ञान के साथ कहे गये राजनीति के सिद्धान्तों की विवेचना करना होगा- ÷÷अव्यक्तमूर्तिना इदं सर्व जगत् ततम्''४ यानी अव्यक्त परमेश्वर द्वारा ही सम्पूर्ण जगत् का विस्तार हुआ है और वह उसमें व्याप्त है। अर्थात् अदृश्य जीवात्मा द्वारा यह शरीर अणु को जीवित रखता है। विश्व में परमात्मा और देह में जीवात्मा का यह कार्य दर्शनीय है। वैसे तो भगवान अपनी अव्यक्त सत्ता से सबका विस्तार करता है, जो राजा-मंत्राी राजगद्दी पर बैठता है वह अमूर्त राजसत्ता व्यक्त रूप से व्यापक नहीं हो सकती। राजसत्ता भी अव्यक्त है, जो राजा-मंत्राी राजगद्दी पर बैठता है वह अमूर्त राजसत्ता का सगुण साकार रूप है। यह आकार व्यक्ति मंत्राी या राजा कहलाता है। तथापि उसकी शक्ति मर्यादित है। जो सच्ची राजसत्ता है वह इस व्यक्ति की सत्ता से अधिक बड़ी और अधिक प्रभावशाली है। राजगद्दी पर बैठने वाला व्यक्ति जीवित रहे या मर जाय किंतु यह अमूर्त राजसत्ता राज्य में अनेक रूपों में कार्य करती रहती है और राज्य को फैलाती है। परंतु उस ईश्वर में सब भूत मात्रा है, वह ईश्वर उन भूत मात्राों में नहीं जैसे उदाहरण स्वरूप- ÷÷तटस्थानि सर्वभूतानि न च तत्तेष्ववस्थितम्।''५ सभी पदार्थ उस ईश्वर के शक्ति के आधार पर आश्रित है। अन्य सब पदार्थ उसके आधार पर टिके हुए हैं। उसी भाँति व्यक्ति में जीवात्मा के बल पर सब इंद्रिय, शरीर के सब अवयव अपने अपने स्थान पर निर्धारित हैं। किन्तु इसका मतलब ऐसा नहीं होगा कि इंद्रिय और अवयव के आश्रय से जीवात्मा की सत्ता है। ठीक इसी तरह राज्य शासन में सम्राट की सत्ता से सब पदाधिकारी कार्य करते हैं। तभी तो प्रजा की उन्नति तथा राष्ट्र की उन्नति हो सकती है। लेकिन पदाधिकारियों या प्रजा के कार्य व्यवहार पर राजा की सत्ता अवलंबित नहीं है, वह स्वतंत्रा है।
राजसत्ता से राज्य के सब कार्य चलते हैं। राजसत्ता उत्तम हो तो छोटा-सा भी राज्य बड़ा प्रबल और प्रभावशाली हो जाता है, वेद, उपनिषद् और गीता आदि शास्त्राों में जो परमेश्वर और प्रकृति का वर्णन आता है, वह केवल परमेश्वर का व्यवहार जानने के लिए नहीं है, क्योंकि केवल परमेश्वर के कार्य-व्यवहार को जानने में मनुष्य मात्रा का कल्याण होने की संभावना नहीं है। मनुष्य को नर से नारायण बनना है, अतः परमेश्वर के व्यवहार को अपनी मानवीय व्यवहार में अर्थात् राज्य व्यवहार में ढालना चाहिए।
निष्कर्ष में इतना कहना पर्याप्त होगा कि जीवात्मा, परमात्मा के योग से राष्ट्रात्मा बलिष्ठ हो सकता है। आज मनुष्य के अटूट संबंध इस बात का दोहरा रहे है- हज+ारों वर्षों से है मनुष्य का वजूद/आज फिर एक बार पड़ रही ज+रूरत/इसकी इंसान-इंसान के लिए।
एक नैतिक और आध्यात्मिक स्रोत है जो अनन्तकाल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस सारे देश में बहता रहा है- ÷अमरतत्त्व' जिससे हमारी सूखी हड्डियों में नई मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नये प्राण फूंककर मुर्झाये हुए दिलों को फिर से खिला दिया। यह अमरत्व सत्य और अहिंसा का होकर केवल इसी देश के लिए नहीं- अपितु मानव-मात्रा के जीवन के लिए आवश्यक हो गया है। जब से इस देश में प्रजातंत्रा की स्थापना हो चुकी तब से हर एक व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्रा है- इसी के बलबूते वह अपना पूरा विकास कर सके अंदाज से फूट और बैर का बीज बोया था आज इसे देश में दूसरे अंदाज से अपनाने की स्थिति पैदा हो रही है जिससे बहुत कुछ रूकावटें पैदा हो सकती है। इस संदर्भ में ऋग्वेद के उस सूक्त के माध्यम से उन्हें समझाना-÷÷सं गच्छध्वं सं वदध्वं संवो मनांसि जानताम्।/समानीव आकृतिः समाना हृदयानि वः।/समानमस्ततो मनो ययावः सुसहासति।''६
यानी तुम समान मन वाले हो और तुम्हारे कर्म समान हो। तुम्हारे हृदय और मन भी समान हो, तुम समान गतिवाले होकर सब प्रकार से सुगंठित हो।
संदर्भ-
१. प्रो. महेन्द्र प्रताप/डॉ. कैलाशचन्द्र अग्रवाल, निबंध निकष, पृ. ७१
२. गोकुलचन्द शर्मा, निबन्धादर्श, पृ. ९९
३. वही, पृ. १०२
४. श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक ४
५. वही
६. संपादक-श्रीराम शर्मा, ऋग्वेद सूक्त १९१, ऋग्वेद चतुर्थ खंड, संस्करण १९९९
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