ललित मंडोरा
नासिरा जी के नाम से परिचित था। वह बड़ों के साथ छोटों पर यानी बच्चों के लिए भी लिखती हैं, इसका भी पता था क्योंकि मैं उन्हें चम्पक, नन्दन बाल पत्रिकाओं में पढ़ चुका था मगर नासिरा जी इंसान कैसी होंगी, इसका कोई अन्दाज़ा नहीं था जबकि उनका चित्रा उन रचनाओं के साथ छपे बारहा देख चुका था। याद करें कि कब नासिरा जी के रूबरू हुआ तो याद आता है कि वह मानव अधिकार पर आयोजित ट्रस्ट की कार्यशाला थी जो भोपाल में होना तय पाई थी। नासिरा जी और पंजाबी की लेखिका बंचित कौर को एक साथ भोपाल पहुँचना था। उस समय डा. वर्षादास (प्रख़्यात अभिनेत्री नदिता दास की माँ नेशनल बुक ट्रस्ट में मुख्य सम्पादक एवं संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत थीं।) वह हमारे साथ थीं। उस कार्यशाला में हिन्दी के वरिष्ठ कथाकारों को बुलाया गया था। मधुकर सिंह, रमेश थानवी, गिरीश पंकज। कार्यशाला में उठते-बैठते महसूस हुआ कि नासिरा जी स्वभाव में सहज हैं। एक बड़ी लेखिका का इतना सरल होना भी वाकई आचंभित करना खासकर तब और जब उस कार्यशाला की अन्य लेखिका की बिखरी कहानी को समेटते संवारते देखता।
भोपाल शहर से दूर होटल में ठहरने का इंतज़ाम यह सोचकर किया गया था ताकि लेखक वर्ग कहीं निकल ही न सके और पूरे ध्यान और समर्पण से इस विषय पर सुन्दर कहानियाँ दे। इस कार्यशाला में नासिरा जी को दो कहानियाँ पसन्द की गई पहली ‘पढ़ने का हक़’ और दूसरी ‘सच्ची सहेली’। इन दोनों कहानियों को नवसाक्षरों के सामने पढ़कर पाण्डुलिपि को सम्पूर्ण स्वीकार करना था ताकि वह भाषा के साथ कहानी के केन्द्र में उठाई समस्या को उन लोगों द्वारा कसौटी पर कसे जिनके लिए यह कहानी लिखी गई है। नासिरा जी की दोनों कहानियाँ पसन्द कीं। सुझाव पर उन्होंने बिना झिझके वह तेवरी पर बल डाले, हिम्मत की जगह हौसला लिखना स्वीकार किया। नासिरा जी जितनी सौभ्य एवं गम्भीर लगती हैं उतना ही उनमें सेन्स आॅफ ह्यूमर है। इसका अन्दाज़ा उनके साथ रहकर ही लगता है जब आप या तो मुस्कराए बिना नहीं रहते या फिर ज़ोर का ठहाका लगाए बिना। बतौर मिसाल खाने का इन्तज़ाम मेरे ज़िम्मे था सो मैंने पूछा खाने पर ‘पीली’ दाल चलेगी। उनका जवाब था ‘‘नीली दाल भी ठीक रहेगी।’’
उनके स्वभाव की गर्मी और नर्मी ने मुझे जहाँ प्रभावित किया वहीं उनसे भय भी भागा और इच्छा हुई कि एक साक्षात्कार उनसे लूँ। दिल्ली लौटते हुए ‘ट्रेन में उनका साथ रहा। वह इच्छा भी पूरी हुई। चलती ट्रेन की गति बैकग्राउन्ड म्यूज़िक की तरह उनके जवाब और मेरे सवाल के संग मेरे छोटे से टेप रिकार्डर में टेप होती रही। मेरे बैग में बच्चों के खिलौने देख उन्होंने मेरे परिवार के बारे में पूछा और मुझे महसूस हुआ कि जो यात्रा लेखिका के आतंक से शुरू हुई थी वह एक इन्सानी मिठास पर ख़त्म हुई।
दिल्ली पहुँच कर मैं अपनी पत्नी के संग उनके सरिता विहार वाले फ्लैट में मिलने गया। वक़्त तेज़ी से बीत रहा था। इस बीच मेरा एक कविता संग्रह ‘दीवार पर टंगी तस्वीर’ नाम से आया और मेरे कहने पर उन्होंने उसकी समीक्षा लिखी जो गगनांचल में छपी। उनको इस बर्ताव ने मुझे महसूस कराया कि उनमें नए लिखने वालों के प्रति प्रोत्साहन एवं अपनापन है। उनका जुड़ाव ट्रस्ट से कई स्तरों पर बढ़ रहा था। इस बीच उनसे मुलाक़ात जामिया के रिसोर्स सेंटर की कार्यशाला में हुई। जहाँ उनकी कहानी ‘गिल्लो बी’ और ‘धन्यवाद धन्यवाद’ पसन्द की गई और मुझे जाने क्यों अफ़सोस हुआ और मैंने नासिरा जी से कह भी दिया कि ‘गिल्लो बी’ कहानी काश हम, यानी नेशनल बुक ट्रस्ट छापता और तब उन्होंने वर्षों पुरानी एक बात बताई कि उनकी कहानी- ‘एक थी सुल्ताना’
सुल्ताना जो वर्कशाप में पास होकर भी नहीं छप पाई थी। क्यांेकि उसका विषय गुज़ारा भत्ता और तलाक़ थी। बात आई गई हो गई मगर उनके ज़हन में वह बात फिर उभरी जब उनकी दोनों पुस्तकों के मुख्य पृष्ठ पर न उनका नाम था और न कापीराइट उनका था। यह सब हमारे साथ भी घटा था। बुरा भी लगा था। तब उन्होंने फ़ोन कर न केवल रिसोर्स सेन्टर जामिया में अपनी नाराज़गी जताई बल्कि इस बात की निन्दा भी की वहाँ लेखक से उसका कापीराइट ले लिया जाता है। नासिरा जी एक राइटर के अधिकार को समझने वाली ही महिला नहीं हैं बल्कि उनका विश्वास इस बात पर भी है कि यदि हमने मुद्दों पर आवाज़ न उठाई तो आने वाली पीढ़ी को अपने लेखकीय अधिकारों के लिए ख़ासी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। और वह फिर रिसोर्स सेंटर जामिया नहीं गई मगर बहुत से लेखक गए।
कुछ वर्षों बाद जयपुर में की गई एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन राज्य संदर्भ-केन्द्र, जयपुर ने अपने प्रांगण में किया था जिसकी पंक्तियाँ आज भी मुझे याद हैं। उन्होंने कहा था ‘‘नवसाक्षर लेखन के लिए ऐसे लेखकों का चयन किया जाना चाहिए जो अपनी ज़मीन से जुड़े हुए हों और नवसाक्षरों के मनोविज्ञान से परिचित हों’’ इस बैठक में रमेश थानवी, प्रो. अजित कुमार जैन, डाॅ. भगवतीलाल व्यास, डा. नन्द भारद्वाज, कमला नाथ शास्त्राी ने अपने विचार रखे थे। सबसे मिलती-जुलती बिना थके वह हमारे साथ बाज़ार घूमती रहीं। ज्वेलरी की दुकानों, चादरों, चूरन व नमकीन के स्वाद का अवलोकन करती रहीं थीं। नासिरा जी के वैविध्य को समझने का हम सबको मौका दे रहा और मैं सुबह की घटना के बारे में सोच .............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए
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