Skip to main content

साहित्य सम्राट: मंुशी प्रेमचंद

डा. मजीद शेख



साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी की लोकप्रियता दिनोंदिन देश-विदेश में भी बढ़ रही हैं। चूंकि उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारूण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। इनके उपन्यासों और कहानियों में कृषि प्रधान समाज, जातिप्रथा, महाजनी व्यवस्था, रूढ़िवाद की जो गहरी समझ देखने को मिलती है,उसका कारण ऐसी बहुत-सी परिस्थितियों से प्रेमचंद का स्वयं गुज़रना था।

प्रेमचंद जी का जन्म बनारस के समीपवर्ती (चार मील दूर) लमही नामक ग्राम में 31 जुलाई सन् 1880 ई. में एक निम्न मध्य श्रेणी के कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता अजायबलाल डाकखाने मंे मुंशी थे जिनका वेतन पच्चीस-तीस रुपये मात्रा था। खेत-खलिहानों में घूमते, गुल्ली-डण्डा, आती-पाती खेलते, उस्ताद मौलवी को चिढ़ाते-लिजाते गरीबी में उनका बचपन बीता था। सनातन धर्मी कर्मकाण्ड से आर्य समाज उन्हें अच्छा लगा। इसी कारण तो आपने बालविधवा ‘शिवरानी देवी’ से विवाह किया। सन् 1920 ई. के बाद महात्मा गांधी के व्यक्तित्व, व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन और उदात्त नैतिक मूल्यों से वे बेहद प्रभावित थे। गांधी-दर्शन से प्रभावित होने के बाद वे विधवा-विवाह के विरोधी बन गए थे। अपने मित्रा रघुवीर सिंह जी को एक पत्रा में लिखा था- ‘‘मैंने विधवा का विवाह कराके (स्वयं विधवा से विवाह करके?) हिन्दू नारी को आदर्श से गिरा दिया था। उस वक्त जवानी की उम्र थी और सुधार की प्रवृत्ति जोरों पर थी।’’ सन् 1917 ई. की रूसी बोलशेविक क्रांति ने उन्हें नए सिरे से सोचने को बाध्य किया। गांधीवादी और समाजवादी अवधारणाओं का अंतर्विरोध उनकी रचनाओं में प्रायः मिलता हैं। डाॅ. सूर्यनारायण रणसंुभे जी के शब्दों में- ‘‘सच्चे अर्थाें में प्रेमचंद ‘कलम के सिपाही’ थे। व्यक्तिगत ज़िंदगी में कही पर भी कृत्रिमता नहीं, पांडित्य प्रदर्शन नहीं। झरने की सी सहजता और स्वाभाविकता है। यही स्वाभाविकता साहित्य में भी है। इस कारण वे एक ‘महान् साहित्यकार’ थे, उससे भी अधिक वे ‘महामानव’ थे।’’ उनके साहित्य-कर्म के संबंध में डाॅ. रामविलास शर्मा जी लिखते हैं- ‘‘प्रेमचंद उन लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं से बाहर के साहित्य-प्रेमी हिन्दुस्तान को पहचानते हैं और हिन्दुस्तान उनपर गर्व करता है, दुनिया की शांति-प्रेमी जनता गर्व करती है, सोवियत-संघ के आलोचक मुक्त कण्ठ से उनका महत्त्व घोषित करते हैं, हम हिन्दी-भाषी प्रदेश के लोग उन पर खासतौर से गर्व करते हैं, क्योंकि वह सबसे पहले हमारे थे, जिन विशेषताओं को उन्होंने अपने कथा-साहित्य में झलकाया हैं, वे हमारी जनता की जातीय विशेषताएँ थीं।

प्रेमचंद जी ने साहित्य के उद्देश्य के संबंध में लिखा हैं- ‘‘साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ दी गई हैं, पर मेरे विचार से उसकी सर्वाेत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है। चाहे वह निबंध के रूप में हो, चाहे कहानियों के या काव्य के, उसे हमारे जीवन

शेष भाग पत्रिका में..............

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क