नगमा जावेद
‘ज़िन्दा मुहावरे’ ज़िन्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया है, यह अतीत हुए दर्द की भूली-बिसरी टीस नहीं.... दर्द का एक सिलसिला जो 1947 से शुरू हुआ और आज भी इस दर्द में कमी नहीं आयी है बल्कि दर्द की शिद्दत बढ़ गयी है।
आज़ादी के 61 सालों बाद भी मुसलमाने को शक की निगाह से देखा जाता है - आख़िर क्यों? उनकी देशभक्ति को कटघरे में किसलिए खड़ा किया जाता है? आज भी उनसे कहा जाता है कि ये देश तुम्हारा नहीं है - पाकिस्तान जाओ! और पाकिस्तान में भी एक लंबा अर्सा गुज़ारने के बावजूद उनके माथे पर ‘मुहाजिर’ का लेबल किसी कलंक की तरह चिपका हुआ है। ये ही वह कड़वी, तल्ख हकीक़तें हैं जिन्हें नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यास में बड़े विषाद के साथ मुखरित किया है। 1992 में लिखा उपन्यास ‘ज़िन्दा मुहावरे’ बँटवारे की कोख से जन्मी एक ‘चीख’ है,
ऐसी चीख जिसकी अनुगंूज आज भी सुनाई देती है। बँटवारे ने मुसलमानों को क्या दिया? एक ज़ख़्म, एक घाव जो आज भी खुला हुआ है। क्यों आज भी मुसलमान नकरदा गुनाहों की सज़ा भोग रहे हैं? लेखिका ने समय और समाज के अन्तर्सम्बन्धों की महीन पड़ताल करते हुए जिस निष्पक्षता और रवादारी का परिचय दिया है वह वाकई स्तुत्य है। जो कुछ मुसलमानों ने इस देश में पाया है उसे भी उन्होंने नज़र अंदाज़ नहीं किया है और जो खोया है या खोते जा रहे हैं उससे भी वह आगाह हैं। किसी भी समस्या को बाइपास कर निकल जाने की सुविधा उन्होंने नहीं ढंूढी है।
लेखिका के चिन्तनशील मस्तिष्क और संवेदनशील हृदय की एक-एक परत ने उस दर्द, कर्ब, पीड़ा और छटपटाहट को अपने भीतर महसूस किया है, जिसे सरहद पार के लोग घूँट-घँूट पीने के लिए मज़बूर हैं। बकौल शायर लम्हों ने ग़लती की है और सदियों ने सज़ा पायी है। तकलीफदेह सच्चाई यह है भारत का मुसलमान दोनों जगह परेशान है - सरहद के इस पार भी और उस पार भी। और इस परेशानी का कारण राजनीति का भद्दा चेहरा है। आज़ादी के वक़्त जो लकीर खींची गयी थी धरती के सीने पर - वह अब चैड़ी खाई बन चुकी है। लेकिन राजनीति को परे सरका कर अगर आम इंसानों के दिलों में झांकें तो वहां अपनत्व है, आत्मीयता है, गर्म जोशी है जो इस बात का रौशन सबूत है कि धरती भले ही बट जाये पर इंसानी रिश्ते नहीं बंटते। रिश्तों की महक को कौन चुरा सकता है?.............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए
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