जयश्री राय
रतनी बाल विधवा थी। चार-पांच घरों में काम करके अपना पेट पालती थी। जोशी जी के गोदाम घर के एक कोने में उसे रहने दिया गया था। बदले में वह उनके मंूगफली के खेत पटाया करती थी। खलिहान की साफ़-सफाई की जिम्मेदारी भी उसी पर थी।
उस जले तवे-सी काली-कलूटी औरत के चेहरे में ऐसा ज़रूर कुछ था जो बरबस अपनी ओर खींचता था। वह अपने झकमकाते दाँतों को निकालकर ऐसे उजली हंसी हंसती थी कि एक पल को उसका बसंत के दागों से भरा चेहरा भी जैसे सुंदर बन पड़ता था। अपनी अनगिन हड्डियाँ बजाती हुई वह दस भुजा की तरह रात-दिन काम में लगी रहती थी। लगता था, वह हाथों से नहीं, अपनी जीभ से चाटकर घर-आंगन साफ करती है। उसे काम करते हुए देखकर प्रतीत होता था, एक साड़ी ही हवा में बिजली की तरह लहराती, कौंधती फिर रहीं हैं। उसका अमावश्या-सा गहरा काला रंग उसे अंधेेरे में प्रायः अदृश्य ही कर देता था। पुकारो रतनी और तत्क्षणात सामने बत्तीस दाँत झमझमा उठे तो समझो वही मटमैली रोशनी में चुड़ैल की तरह नाचती फिर रही है।
वह जितना काम करती थी, खाती उससे दो गुना थी। उसे खाना खाते हुए देखना भी अपने आप में एक अनुभव होता था। स्तूपाकार भात को गोग्रास में खाती हुई पता नहीं वह साँस कब लेती थी। मैं अक्सर सोचती थी, कुत्ते जैसी उसकी क्षीण कटि में गंधर्वमादन पर्वत-जैसा वह भात का ढेर समाता कैसे था। पूछने पर उसी उजली हंसी की वन्या में कल-कल, छल-छलकर उठती थी-क्या दीदी, पेट में ईधन नहीं डालूंगी तो ये रात-दिन का हाड़ तोड़ काम कैसे करुंगी? इसी दावानल में तो अपना सबकुछ झोक चुकी, बेहया बनकर जी रही हूँ! कितना कोसा सबने-करमजली, कब तक जीयेगी...हंसते-हंसते वह अपनी आँखें पोछती-ये जठर अग्नि जो न कराये कम है...
सुबह मैं उसे ठाकुर साहब के यहाँ धपर-धपर धान कूटते देखती तो सांझ को ललायिन के कुएं को जगत में बैठी बर्तनों का अंबार चमकाते हुए...धूसर संध्या की डूबती रोशनी में हवा में टंगी किसी सफे़द साड़ी पर लाल जबा फूल दगदगाते देख कोई ठटरटा करता-लो, रतनी अभिसार पर निकली...पट् अंधेरा गरज उठता-मुँह संभालकर, रतनी कोई ऐसी वैसी न है...मुहल्ले वाले भी उसकी सत् चरित्रा का लोहा मानते थे। रतनी लाख दुःख झेले, भूख सहे, मगर मजाल है कि किसी को आज तक अपने कंधे पर भी हाथ धरने दिया हो। एकबार चैबे जी धूसर संध्या की यवनिका का लाभ उठाते हुए गर्म जलेबी का दोना हाथ में लिए दबे पांव गोदाम की सीढ़िया चढ़ गये थे और फिर थोड़ी ही देर बाद एक टांग पर फूदकते हुए वापस लौटे थे। पीपल के नीचे धूल में लोट-लोटकर फिर वह हाय-तौबा मचायी थी कि देखने सुनने वाले दहल कर रह गये थे। चैबे की घरवाली छाती पीट-पीटकर रतनी को कोसती रही थी और रतनी ताच्छिलय से तिर्यक मुसकराती हुई गरम जलेबियाँ उड़ाती रही थी। ‘‘मेरे घर का सत्यनाथ करके जलेबी भकोस रही है बेहया ब्राह्मण हत्या का पाप लगेगा तुझे कीड़े पडंे़गे मोटे-मोटे..।’’
न जाने कितने ब्राह्मणों, कुलीनों का धर्म भ्रष्ट कर रतनी
शेष भाग पत्रिका में..............
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