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रास्ता इधर से भी जाता है

सुरेश पंडित

स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध जितने सरल सहज स्वाभाविक दिखाई देते हैं उतने होते नहीं। उनकी जटिलता दुबोधिता व अपारदर्शिता को सुलझाने, समझने व सही तरीक़े से देख पाने के उद्यम प्राचीनकाल से दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों, विचारकों और लेखकों द्वारा किये जाते रहे हैं लेकिन आज तक कोई उन्हें सुनिश्चित तौर पर स्पष्ट शब्दों में व्याख्यायित नहीं कर पाया है। दोनों के बीच आकर्षण तो सामान्य रूप से स्वीकार कर लिया जाता है लेकिन उसकी परिणति घोर अरुचि में कैसे हो जाती है, कैसे एक दूसरे के लिये कुछ भी बलिदान करने को उद्यत ये दोनों इतने विकर्षण ग्रस्त हो जाते हैं कि एक दूसरे का मुँह तक देखना पसन्द नहीं करते इस रहस्य का पता लगाना आज भी पूरी तरह संभव नहीं दिखाई दे रहा है। मनुष्य ने प्रकृति के रहस्यों का पता लगाकर उनमें ही अनेक पर विजय पा ली है या पाने की ओर अग्रसर हैं पर मनुष्य की प्रकृति अभी तक उसके लिये अज्ञेय बनी हुई है।

स्त्राी-पुरुष को परस्पर एक सूत्रा में बांधे रखने के लिये ही कद्चित विवाह नाम की संस्था बनी होगी। यह संस्था अनेक बुराइयों, दोषों, कमजोरियों के बावजूद आज तक इसलिये चली आ रही है क्योंकि इसका कोई बेहतर, सर्व सन्तुष्टिदायक विकल्प सामने नहीं आया है। यह बात नहीं है कि इसका कभी विरोध नहीं हुआ है या इसे ख़ारिज करने की चेष्टाएँ नहीं हुई हैं लेकिन इसके बरक्स जो कुछ भी रखने की कोशिश हुई वह इससे बदतर नहीं तो इस जैसी भी साबित नहीं हुई। ‘कांट्रेक्ट मैरिज’ और ‘लिविंग टुगैदर’ जैसे प्रयोग इसलिये आम लोगों को स्वीकार्य नहीं हुए क्योंकि उनमें भी स्त्राी-पुरुष के संबंधों की संवेदनशीलता को बनाये रखना, तन और मन की लालसाओं को पूरा करना संभव नहीं हुआ है। आज दोनों के सामने विडंबना यह है कि वे विवाह को नकारना भी चाहते हैं लेकिन ऐसा कर नहीं सकते क्योंकि इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। जो लोग विवाह कर लेते हैं वे भी दुखी हैं और जो नहीं करते या कर पाते वे भी। आखि़र ऐसा क्या है जो दोनों को किसी हाथ में चैन ही नहीं रहने देता।

इस प्रश्न को केन्द्र में रखकर दुनिया भर के लेखकों ने बहुत-सा साहित्य रचा है और यह आज भी रुका नहीं है। विवाहित जीवन के आदर्श और विवाहजन्य कठिनाइयों से बर्बाद होते दाम्पत्य तथा वैवाहिक मर्यादाओं का अतिक्रमण कर सम्बन्ध बनाते स्त्राी पुरुषों को लेकर लिखे गये अनेक आख्यान जहाँ विश्व साहित्य की धरोहर बन गये हैं वहीं समाज ने उन्हें निन्दा, आलोचना का पात्रा बनाकर छोटी बड़ी अदालतों में घसीटकर चर्चित भी बना दिया है। दरअसल सदियों से चली आ रही विवाह-प्रथा से विभिन्न समाजों के सदस्य इतने अनुकूलित हो गये हैं कि इसकी परिधि से परे बनाये जाने वाले संबन्धों को ये किसी सूरत में हज़म कर ही नहीं पाये। किसी स्त्राी/पुरुष का समय रहते विवाह न होना, वैवाहिक जीवन का सफल न होना, विवाह विच्छेद होना, वैवाहिक प्रतिबद्धता का उल्लंघन करना आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो सभी समाजों में आजकल सामान्य हो चली हैं। फिर भी इन्हें सहज रूप मे स्वीकार करने में आज भी भद्र लोग हिचकते हैं और विवाह की मर्यादा को बनाये रखने पर ज़ोर देते हैं यह जानते हुए भी कि ऐसा करना कई बार जानलेवा भी साबित होता रहता है।

विख़्यात कथाकार नासिरा शर्मा का 1987 में पहली बार प्रकाशित उपन्यास ‘शाल्मली’ आज बीस-इक्कीस साल बाद भी पहले जैसी ताज़गी लिये हुए पठनीय बना हुआ है तो इसका कारण उनका कहानी कहने का चमत्कारिक कौशल उतना नहीं है जितना एक ऐसी चिरन्तन समस्या को नये परिप्रेक्ष्य में इस तरह रखना है कि अधिकतर पाठक इसे पढ़ते हुए स्वयं को कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में इससे जुडा़ महसूस करें। उन्हें लगे कि इससे विरूपित शाल्मली या नरेश कई बार कैसी ही प्रतिक्रिया करते हैं जैसी वे स्वयं भी उन परिस्थितियों में करते हैं लेखिका प्रकाशक की घोषणा है कि यह आज की समर्थ नारी को नये आयाम देने वाली शाल्मली की मर्म कथा है। पर ऐसा कुछ इसमें नहीं है। नारी तो हमेशा से ही समर्थ रही है। यह बात अलग है कि उसके सामथ्र्य का रूप समयानुसार बदलता रहा है और उसने अक्सर अपने सामथ्र्य को पहचानते हुए भी उसे ‘असर्ट’ करने में विशेष रुचि नहीं दिखाई है। समर्थ नारी को नये आयाम देने वाली भी कोई ख़ास बात इसमें दिखाई नहीं देती। कहानी की शुरुआत उसी शीतयुद्ध से होती है जो प्रायः हर एकल परिवार वाले घर में चलता रहता है पर बाहर से दिखाई नहीं देता। वैसे भी लोगों को दूसरों के घरों में झाँकने की आदत नहीं रह गई है और न इतना समय ही उन्हें मिल पाता है। साथ ही वे यह भी समझने लगे हैं कि हर घर में चूल्हें प्रायः एक ही तरह से जलते हैं।

विवाह के कुछ दिनों बाद ही शाल्मली को तरह-तरह से यह बोध कराया जाता है कि नरेश पति है और वह पत्नी। उसे पहला झटका तब लगता है जब इन दोनों शब्दों के निहितार्थ ‘स्वामी’ और ‘दासी’, ‘रक्षक’ और ‘रक्षिता’ के रूप में उसे बताये जाते हैं। वह चाहती है कि विवाहजन्य इन आत्मीय संबन्धों को पति पत्नी के पारम्परिक रिश्तों से अलग रखे। पारस्परिक समझ और बराबरी के स्तर पर इस नये जीवन को जीने की एक सुगम राह बनाये। लेकिन अकेले उसके सोचने से क्या होता है। जब तक नरेश स्वयं इस तरह सोचना नहीं शुरू करता तब तक कुछ भी बदला नहीं जा सकता। वह भला ऐसा क्यों सोचे। उसे न तो ऐसा सोचने के संस्कार मिले हैं और न ऐसे साहित्य से उसका वास्ता पड़ा है जो उसे बताता कि वास्तव में इन दोनों शब्दों के समयानुरूप क्या अर्थ हैं या होने चाहिये। इसीलिये उसका संवाद ही इन शब्दों से शुरू होता है - ‘तुम ठहरी एक आधुनिक विचार की महिला... विचारों में स्वतंत्र, .............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए

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