विजय रंजन
हमसे रहती है तू क्यों ख़फा ज़िन्दगी??
पहले हमको तू इतना, बता ज़िन्दगी!!
कितनी दिलकश है बन्दिश, तेरे सामने,
कैसे तुझको कहूँ, बेवफा, ज़िन्दगी??
स्वप्न के गाँव में हम हुए दर-ब-दर,
कौन बतलाएगा--अब पता ज़िन्दगी??
हम चले थे जहाँ से वहीं हैं अभी,
अपना हासिल है बस, रास्ता ज़िन्दगी!!
रिश्ता काजर का सुन्दर करे आँख को,
हमको ऐसा दिखा, आईना ज़िन्दगी!!
एक शायर को दे न सफे-दर-सफे,
दे दे उसको मगर, हाशिया ज़िन्दगी!!
उसको तारीफ़ की है जरूरत भी क्या,
जिसको कहना है बस-मर्सिया ज़िन्दगी!!
आज ‘रंजन’ कहे एक अच्छी ग़ज़ल,
दे सके गर तो दे-क़ाफ़िया ज़िन्दगी!!
शेष भाग पत्रिका में..............
हमसे रहती है तू क्यों ख़फा ज़िन्दगी??
पहले हमको तू इतना, बता ज़िन्दगी!!
कितनी दिलकश है बन्दिश, तेरे सामने,
कैसे तुझको कहूँ, बेवफा, ज़िन्दगी??
स्वप्न के गाँव में हम हुए दर-ब-दर,
कौन बतलाएगा--अब पता ज़िन्दगी??
हम चले थे जहाँ से वहीं हैं अभी,
अपना हासिल है बस, रास्ता ज़िन्दगी!!
रिश्ता काजर का सुन्दर करे आँख को,
हमको ऐसा दिखा, आईना ज़िन्दगी!!
एक शायर को दे न सफे-दर-सफे,
दे दे उसको मगर, हाशिया ज़िन्दगी!!
उसको तारीफ़ की है जरूरत भी क्या,
जिसको कहना है बस-मर्सिया ज़िन्दगी!!
आज ‘रंजन’ कहे एक अच्छी ग़ज़ल,
दे सके गर तो दे-क़ाफ़िया ज़िन्दगी!!
शेष भाग पत्रिका में..............
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