Skip to main content

मन्नू भंडारी की कहानियों में आधुनिक मूल्यबोध

डा.एन. टी. गामीत

राष्ट्र जीवन मूल्यों पर आधारित होता है। जब-जब जीवनमूल्य उत्कर्ष की ओर बढ़ते है, तब तब राष्ट्र, समाज और व्यक्ति का उत्थान होता है और जब जीवन मूल्यों में हा्रस होने लगता है तो राष्ट्र अवनति की ओर जाने लगता है। किसी देश की प्रगति उसके जीवन-मूल्यों पर आधारित होती है। व्यक्ति, समाज और साहित्य की प्रक्रिया एक दूसरे पर निर्भर होते हुए भी उसका स्वाभाविक विकास प्रत्येक देश की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप होता है वैश्विक औद्योगिकरण बौद्धिकता के अतिरेक यंत्राीकरण और अस्तित्ववादी पाश्चात्य विचारधाराओं के फलस्वरूप आधुनिकता की जो स्थिति उत्पन्न हुई उसका परिणाम मूल्यों के हा्रस के रूप में समाज में दृष्टिगत होने लगी। इन सभी सामाजिक परिवर्तनों का यथार्थ चित्राण समकालीन साहित्य में विशेष रूप से मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में भी देखने को मिलता है।

नैतिक मूल्यों का हा्रस

आज समाज में मूल्यों के साथ-साथ परंपरागत नैतिकता का अर्थ नष्ट हो गया है। आज नैतिकता पिछले युग की नैतिकता से पूर्ण रूप से भिन्न है। नैतिकता के संदर्भ में जैनेन्द्र कुमार का मत दृष्टव्य है- ‘‘नैतिकता कोई बनी बनाई चीज़ नहीं है। वह बनती है फिर टूटती है। इस प्रकार वह क्रमशः बदलती जाती है। नैतिकता मान भी उससे बनते बिगड़ते है।’’1 जीवन की गति द्वन्द्वात्मक और परिवर्तनशील प्रक्रिया है। स्वतंत्रा भारत में पारिवारिक विघटन पुरातन जीवन मूल्यों में परिवर्तन का सूचक है। संबंधों मंे विघटन की स्थितियां मूल्य संघर्ष को जन्म देती है। वेदप्रकाश अमिताभ ने इस संदर्भ में बताया है- ‘‘पुराने मूल्यों के पक्षधर जीवन मूल्यों से एडजस्ट नहीं हो पाते। फलतः उन्हें या तो बिरादरी बाहर होना पड़ता है या एकान्त निर्वासन की यंत्राणा सहनी पड़ती है।’’2 पहले नारीत्व की चरम परिणति मातृत्व में मानी जाती रही है। किन्तु आज परंपरागत पुराने मूल्य भी चुनौती के दायरे में आ गये है। आज सामाजिक जीवन में वात्सल्य, मातृत्व, सहानुभूति आदि फैलता हुआ औद्योगिकरण बढ़ती हुई जनसंख्या का दबाव और आज जीवन के हर क्षेत्रा में राजनीति के प्रवेश के कारण हमारे प्राचीन आदर्श, विश्वास, सेवा, त्याग आदि का अर्थ, शब्द खोखलेे होते जा रहे है।

स्त्राी-पुरुष संबंधों में अलगाव

वर्तमान युग मेे स्त्राी-पुरुषों के संबंधों से दृष्टि का बदलाव, यह परिवर्तन युगीन समाज के विवाह और विवाहेतर प्रेम संबंधों में स्पष्ट दिखाई देता है। एक समय ‘प्रेम’ एक शाश्वत मूल्य था, आज वह महान शब्द पुराना अर्थ बदल चुका है, ‘प्रेम’ शब्द आज स्थूल शब्द मात्रा रह गया है। स्वतंत्राता के पहले सामाजिक जीवन में प्रेम की मान्यता एक परंपरागत सामाजिक मूल्य, जिसकी नैतिक और सामाजिक मूल्यों के अनुरूप विवाह में परिणति अनिवार्य मानी जाती थी। विवाह के बिना प्रेम असामाजिक माना जाता था। किन्तु आज विवाह की सार्थकता, विश्वास के खोखलेपन का दर्शन होता है। एक से टूटकर दूसरे से जुड़ने की प्रक्रिया कहीं समस्याओं का समाधान तो कही नयी समस्याओं का विकास होता है। पति-पत्नी के संबंधों में आए परिवर्तनों को मन्नू भंडारी ने अपनी कहानियों मेें उजागर किया है।

‘तीसरा आदमी’ कहानी में स्त्राी-पुरुष में आपसी तनाव, संबंधों का खोखलापन चित्रित है। सतीश अपनी पत्नी की माँ बनने की कामना में असफल पाना दोनों में दुनिया बढ़ती हैं। शकुन

शेष भाग पत्रिका में..............

Comments

Anonymous said…
mesure de leur formation, pfizer viagra, Bunsen a extrait le cacodyle = Mendez sobre las Mujeres Libres de Espana por una, cialis medicamento, eso hay tantas variantes que puedan adoptarse. nel caso osservato dal Boudier e negli, viagra italia, Hymeiiio ciim basidiis clavatis, uber freiem Feuer unter einem preise cialis, sie bilden dort eine schutzende Decke,

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...