संजीव ठाकुर
याद आ जाते हैं
दफ़्न कर दिए गए बहादुर शाह के पूत मुझे
जब भी गुज़रता हूँ खूनी दरवाजे से।
दहशत भरी निगाह से उसे देखता
सड़क पार कर अब देखता हूँ।
नाले के किनारे बैठी रहती है एक बुढ़िया
कुछ फदफदाती,
मिट्टी की हाड़ी को पत्तों से झरकाती।
कुछेक दाने हड़िया में खदकते रहते हैं
मेरी समझ में नहीं आता
वह वहीं बैठी रहती है हरवक्त
कहाँ से आता है अन्न फिर
उसकी हांड़ी मैं खदकने को?
क्या ‘ऊपर वाला’....?
कल रात
जब मैं ठंड के कारण
नींद से जागा,
याद आ गई वह बुढ़िया!
खोल लगे कंबल से
मेरा जाड़ा भागता नहीं
शेष भाग पत्रिका में..............
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