Skip to main content

नगाड़े की तरह बजते शब्द

डा. शान्ती नायर



आज जिस समय में हम जी रहे हैं उसमें आहलादों और उल्लासों की तरंगों से बढ़कर अवसाद की अन्तर्धारा ही अधिक मुखर रही है। तमाम सरल परिपाश्र्वा के बावजूद एक जटिल और अपरिभाषेय परिवेश हमारा सच बनता जा रहा है। हम प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं, इस ओर हमारी लालसा रही है कि अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का हमारा दृश्यपट हमेशा मनमोहक रहे, परन्तु हमारे जीवन का दृश्यपट उतना सुहाना और मनमोहक कभी नहीं रहा। अर्थात् एकाध धनात्मक बिन्दुओं के बीच असंख्य गलतियों की गिरफ़्त मेें हमारा जीवन लुढकता चला जा रहा है।

इन पस्थितियों में जब हम देखते हैं कि तमाम ऊष्माएँ धीरे-धीरे ठंडी होकर जम जाती है और मनुष्य, ‘समझौते के सिवा कोई रास्ता नहीं’ का एलान कर खोल में सिमटता नज़र आता है, वहीं भीतर की गरमी को बनाये रखकर एक समझौताहीन युद्ध के लिए तैयार खड़ी नज़र आती हैं निर्मला पुतुल। निर्मला पुतुल का काव्य संकलन है ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’। अड़तीस कविताओं के इस संकलन में समकालीन दौर का शायद ही कोई ऐसा प्रसक्त विषय हो जो छूट गया हो। स्त्राी, दलित, आदिवासी, विकास, पर्यावरण, भूमण्डलीकरण, राजनीतिक, हस्तक्षेप, व्यवस्था का खोखलापन सभी कुछ इस संकलन की कविताओं में आये है और खासियत इस बात में है कि देखने की दृष्टि कवयित्राी की निजी है और गहरी संवेदना से युक्त भी।

जीवन संघर्ष में दृढ़ विश्वास रखते हुए कविता को इस संघर्ष के एक अंग के रूप में स्वीकार करने वाली निर्मला पुतुल के स्वर को स्त्री स्वर करार दिया जाता है। इस नज़रिये से ही देखने का प्रयास पहले किया जाये तो हम पाते है कि इन कविताओं में जहाँ वैचारिक प्रतिबद्धता है तो वही समाज को बदलते की बेचैनी भी है ‘नगाडे़ की तरह बजते शब्द’ संकलन में संकलित लगभग एक तिहाई कविताओं ‘क्या तुम जानते हो’, ‘अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्राी’, ‘आदिवासी स्त्रिायाँ’, ‘कुछ मत कहो सजोनी किस्कू’, ‘क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए’, ‘अपने घर की तलाश में’, ‘ये वे लोग हैं जो, ‘मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो’, ‘एक बार फिर’, ‘पिछलू बूढ़ी’, ‘मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में’, ‘सुगिया’- में स्त्री के शिल्प को लिया गया है पर इन कविताओं की चेतना लोकतान्त्रिाक है। उत्पीड़ित मनुष्यता के संघर्ष के रूप में इसे देखा जा सकता है यहाँ कविता पारम्परिक बिम्बों को भेदती हुई सामाजिक बन जाती है।

इक्कीसवीं सदी की चैखट को पार करते हुए जब हम उत्तर आधुनिक समय को लेकर बहस और गोष्ठियाँ चला रहे हैं, तब भी आदिम आकुलताएँ स्त्री के सामने ज्यों कि त्यों हैं। पहले यहाँ अपने अस्तित्व को बनाये रखने का संघर्ष है तो उसके बाद प्रगति और विकास की लड़ाई शुरू होती है। हर दर्जे की औरत में यह लड़ाई मौजूद है। लड़ाई के धनत्व का अन्तर भले ही हो।

आदिवासी स्त्री बाहर से तो शोषण की शिकार होती ही है साथ ही शोषण का यह दीमक कबीले में फैल कर उसके घर तक भी पहुँचकर उसे खा जाता है। ‘कुछ मत कहो

शेष भाग पत्रिका में..............



Comments

Popular posts from this blog

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ महिला कथाकार

ममता कालिया समकालीन रचना जगत में अपने मौलिक और प्रखर लेखन से हिन्दी साहित्य की शीर्ष पंक्ति में अपनी जगह बनाती स्थापित और सम्भावनाशील महिला-कहानीकारों की रचनाओं का यह संकलन आपके हाथों में सौंपते, मुझे प्रसन्नता और संतोष की अनुभूति हो रही है। आधुनिक कहानी अपने सौ साल के सफ़र में जहाँ तक पहुँची है, उसमें महिला लेखन का सार्थक योगदान रहा है। हिन्दी कहानी का आविर्भाव सन् 1900 से 1907 के बीच समझा जाता है। किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमती’ 1900 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह हिन्दी की पहली कहानी मानी गई। 1901 में माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’; 1902 भगवानदास की ‘प्लेग की चुड़ैल’ 1903 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और 1907 में बंग महिला उर्फ राजेन्द्र बाला घोष की ‘दुलाईवाली’ बीसवीं शताब्दी की आरंभिक महत्वपूर्ण कहानियाँ थीं। मीरजापुर निवासी राजेन्द्रबाला घोष ‘बंग महिला’ के नाम से लगातार लेखन करती रहीं। उनकी कहानी ‘दुलाईवाली’ में यथार्थचित्रण व्यंग्य विनोद, पात्र के अनुरूप भाषा शैली और स्थानीय रंग का इतना जीवन्त तालमेल था कि यह कहानी उस समय की ज...