- प्रो० सूर्यप्रसाद दीक्षित
हिन्दी के उत्तर मध्य काल की रीति काव्य परम्परा में महाकवि देव की विशिष्ट देन रही है। ब्रज भाषा काव्य में कल्पना की जो उड़ान, साँगोपांग बिम्बों का जो विधान और रूपकों का जैसा अनुष्ठान देव में दिखाई देता है, वैसा प्रायः अन्यत्र नहीं, अनुप्रासों की झड़ी लगा देने में कवि देव सिद्धहस्त थे। एक आचार्य कवि के रूप में, साथ ही कला कवि के रूप में उन्होंने जो रचनाएँ की हैं, वे वस्तुतः हिन्दी की बहुमूल्य सम्पदा है।
महाकवि देव का जन्म सन् १६७३ में जिला इटावा में हुआ था। उनके जीवन वृत्त के सम्बन्ध में अभी बहुत प्रामाणिक तथ्य तो नहीं मिल पाएं हैं, किन्तु अधिकतर विद्वानों द्वारा की गयी खोजों के अनुसार देव का देहावसान सम्वत् १८२४ के आस-पास हुआ था। देव अपने जीवन में कई दरबारों से जुडे रहे। उनके आश्रयदाताओं में से थे। मुगल सम्राट आज+म शाह, दूसरे दिल्ली के भोगी लाल। तीसरे सुजानमणि, चौथे डौडियाखेडा के जमींनदार उद्योत सिंह। पाँचवे फफूँद के राजा कुशल सिंह। छठवें भरतपुर दरबार। सातवें पिहानी के नवाब अकबर अली खाँ आदि। देव के गुरु थे गोस्वामी हित हरिवंश। देव के ग्रन्थों की संख्या भी विवादास्पद है। इतिहासकारों ने ग्यारह से लेकर नब्बे तक की संख्या दी हैं। नवीनतम शोधों के अनुसार उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं - सुख सागर तरंग, देव माया प्रपंच नाटक, वैराग्य शतक, भाव विलास, जाति विलास, रस विलास, सुजान विनोद, प्रेम चन्द्रिका, प्रेम तरंग, कुशल विलास, काव्य रसायन एवं भवानी-विलास आदि। इस प्रकार की रचनाओं को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -१. लक्षण ग्रन्थ २. धार्मिक पौराणिक एवं चरितात्मक लेखन ३. मुक्त काव्य ४. काव्य नाटक।
आचार्य कवि के रूप में देव ने रस के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट चिन्तन किया है। उन्होंने कुल तीन रस स्वीकार किए हैं - १. श्रृंगार २. शान्त तथा ३. वीर। श्रृंगार के प्रति उनका विशेष आग्रह रहा है। भाव विलास, काव्य रसायन, भवानी विलास आदि कृतियों में उन्होंने यों तो कई काव्यांगों का उल्लेख किया है, किन्तु इनमें विशद् विवेचन रस का ही हुआ है।
देव ने इस प्रसंग में कुछ नयी पहल की है-एक तो 'रस रीति' की स्थापना करके और दूसरे 'हरि जस' को रस की कोटि में पहुँचाकर। नायिका भेद के क्षेत्र में देव ने कई क्रान्तिकारी प्रयोग किए हैं। उन्होंने कुल तीन सौ चौरासी भेद नायिकाओं के किए हैं और जातीय आधार पर ग्रामीण जीवन के प्रजावर्ग की स्त्रियों, जैसे-नाइन, बारिन, मालिन आदि की नायिकाओं के स्तर पर प्रतिष्ठित किया है।
अलंकार के क्षेत्र में देव का कुछ अपना मौलिक चिन्तन यत्र-तत्र प्रकट हुआ है। वे यमक तथा अनुप्रास के बडे समर्थक रहे हैं। अपने छन्दों में लगभग चालीस अलंकारों का उन्होंने बारंबार प्रयोग किया है। देव का पिंगल विषयक चिन्तन तथा अनुप्रयोग भी महत्त्वपूर्ण है। यों काव्यशास्त्री की अपेक्षा वे कवि ही अधिक रहे हैं।
देव ने श्रृंगार में तो सर्वाधिक सफलता पायी है। कहीं-कहीं भक्ति, शान्त और करूण प्रसंगों में भी उनकी चित्तवृत्ति पूरी तरह से रमी है। जीवन भर राज्याश्रय के पीछे भटकते हुए एक स्तर पर जब देव को ग्लानि होती है तो वे फूट पड़ते हैं - ''ऐसो हौं जु जानतो कि जैहे तू विषय के संग,/ए रे मन मेरे हाथ पाँव तेरे तोरतो।/आजु लगि केते नर नाहन की नाही सुनि,/नेह सों निहारि हारि बदन निहोरतो।''
अन्तिम पंक्ति में वे कहते हैं - ''भारी प्रेम पाथर नगारो लै गरे सो बाँधि राधावर विरूद के वारिधि में बोर तो।'' वैराग्य शतक में इस प्रकार के कई आत्म कथ्य हैं जहाँ, 'नरिंद' की जगह 'गुबिंद' की याद की गई है।
देव ने नीतिपरक रचनाएँ भी की हैं । उन्होंने कई पौराणिक संदर्भ दिए हैं और जीवन व्यापी अनुभवों के आधार पर पाठकों को कर्तव्य बोध कराया है । कवि का आदर्श रूप प्रस्तुत करते हुए वे कहते है - ''जाके न काम न क्रोध विरोध न लोभ हुवै नहिं छोभ की छाहौं।/सील ससी कविता सविता कविताहि रचै कविताहि कतावौ।''
देव माया प्रपंच में उन्होंने दर्शन का दिग्दर्शन भी कराया है। इससे उनके व्यक्तित्व के वैविध्य का प्रमाण मिलता है।
यों, देव का काव्य भाव और भाषा के कारण ही शिखर पर पहुँचा है। चाहे षटऋतु का वर्णन हो, चाहे नखशिख का, देव कल्पना की ऊँची उड़ान करते हैं। एक छन्द में प्रेमी और प्रेमिका के तादात्म्य का संकेत करते हुए उन्होंने उत्प्रेक्षाओं की पूरी माला ही रच डाली है, जैसे - 'औचक अगाध सिन्धु स्याही को उमगि आयो,/तामे तीनों लोक बूडि गये एक संग ही/गगग/ऐसो मन मेरो मेरे मन में न रह्यो माई,/स्याम रंग ह्वैकै समान्यौ स्यामरंग में॥''
ऐसा ही बिंब विधान 'सखियानि के आनन इन्दुन पै आँखियानि की वन्दनवार तनी' में मिलता है। इस छन्द में उन्होंने श्याम की श्यामता के लिये स्याही के समुद्र, अमावस की रात, जम्बू रस और जमुना जल की सुन्दर उत्प्रेक्षा दी है। रूपक रचना में देव बडे प्रवीण हैं। बसन्त को कामदेव के पुत्र के रूप में चित्रित करते हुए वे कहते हैं - 'डारि दु्रम पालना बिछौना नव पल्लव के,/ सुमन झंगोला सोहै तन छवि भारी दै,/पवन झुलावै केकी कीर बतरावै देव,/कोकिल हिलावै दुलरावै करतारी दै,/पूरित पराग सों उतारा करे राई नोन,/कुन्द कली नायिका लतान सिर सारी दै,/मदन मही जू को बालक बसन्त ताहि,/प्रातहिं जगावत गुलाब चटकारी दै।'
प्रकृति माँ के समूचे परिदृश्य में युवराज बसंत की यह सेवा सुश्रूषा सचमुच इस रूपक में रच बस गयी है। नायक-नायिका के हाव-भाव को देव ने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। जैसे- रीझि-रीझि रहसि हँसि हँसि उठै,/साँसै भरि आँसू भरि कहत दई-दई,/चौंकि-चौंकि, चकि-चकि, उचकि उचकि देव,/जकि जकि बकि बकि परत बई बई॥
अंतिम पंक्ति है - मोहि मोहि मोहन को मन भयो राधिक मय,/राधा मन मोहि मोहि मोहन मयी मयी।''
ध्वन्यात्मकता का प्रयोग देव ने बहुत किया है। एक उदाहरण देखिए - ''सहर सहर सोंधो सीतल समीर डोलै,/घहर घहर घन होरि कै घहरिया।/फहर-फहर होत पीतम को पीत पट लहर लहर होत प्यारी की लहरिया''
देव को अनुप्रास बहुत प्रिय हैं, साथ ही यमक भी। जैसे - देव गुन आरी अमासे भरै अगरी दबाए देत अंगुरी अचल अंग अंगरी।'/लेक लगी बगरी कलंक लग बगरी शखी न संग बगरी शखी न संग बगरी॥
शब्दों की आवृत्ति करके देव ने वाग्विदग्धता प्रदर्शित की है, जैसे -
० कन्जनि कलिनमयी कुन्जनि अलिनमयी गोकुल की गलिन नलिमयी हो गयी।
० बेगि ही बूढ़ि गयी अँखियां पखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी।
० ताखिन ने इन आँखिन ते न कढ्यो वह माखन चाखन हारो।
० रँग राती हरो हहराती लता झुक जाती समीर के झकूनि सों।
० पूरन प्रीति हिये हिरकी खिरकी खिरकीन फिरै खिरकी सी।
उक्ति वैचि×य भी देव की कविता में भरा पड़ा है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
० हौं तो श्याम रंग में चुराय चित चोरा चोरी बोरत तो बोरै पै निचोरत बनै नहीं।
० साँवरे लाल को साँवरे रूप मैं नयननि को कजरा करि राख्यो।
० रावरो रूप भर्यो अँखियान भर्यो सो भर्यो उमड्यो सुभर्यो परै॥
निःसन्देह देव का काव्य उच्चकोटि का है। उसमें उद्भावनाओं का चमत्कार है। इस दृष्टि से यह छन्द तो बहुत ही विलक्षण है - 'फटिक सिलानि सो सुधार्यो सुधार मन्दिर उदधि दधिको सौ उफनाय उमगौ आनन्द।/आरसी सी अम्बर में आभा सी उज्यारी लागै प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लगत चन्द।'
इसमें राधा की दीप्ति के लिये स्फटिक शिला, अमृत, दही के समुद्र, संगमरमर, चाँदनी, नक्षत्र, धूप, मोती, आरसी आदि उपमान आए हैं। सचमुच उस कला में देव का दूसरा कोई सानी नहीं है।
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महाकवि देव का जन्म सन् १६७३ में जिला इटावा में हुआ था। उनके जीवन वृत्त के सम्बन्ध में अभी बहुत प्रामाणिक तथ्य तो नहीं मिल पाएं हैं, किन्तु अधिकतर विद्वानों द्वारा की गयी खोजों के अनुसार देव का देहावसान सम्वत् १८२४ के आस-पास हुआ था। देव अपने जीवन में कई दरबारों से जुडे रहे। उनके आश्रयदाताओं में से थे। मुगल सम्राट आज+म शाह, दूसरे दिल्ली के भोगी लाल। तीसरे सुजानमणि, चौथे डौडियाखेडा के जमींनदार उद्योत सिंह। पाँचवे फफूँद के राजा कुशल सिंह। छठवें भरतपुर दरबार। सातवें पिहानी के नवाब अकबर अली खाँ आदि। देव के गुरु थे गोस्वामी हित हरिवंश। देव के ग्रन्थों की संख्या भी विवादास्पद है। इतिहासकारों ने ग्यारह से लेकर नब्बे तक की संख्या दी हैं। नवीनतम शोधों के अनुसार उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं - सुख सागर तरंग, देव माया प्रपंच नाटक, वैराग्य शतक, भाव विलास, जाति विलास, रस विलास, सुजान विनोद, प्रेम चन्द्रिका, प्रेम तरंग, कुशल विलास, काव्य रसायन एवं भवानी-विलास आदि। इस प्रकार की रचनाओं को चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -१. लक्षण ग्रन्थ २. धार्मिक पौराणिक एवं चरितात्मक लेखन ३. मुक्त काव्य ४. काव्य नाटक।
आचार्य कवि के रूप में देव ने रस के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट चिन्तन किया है। उन्होंने कुल तीन रस स्वीकार किए हैं - १. श्रृंगार २. शान्त तथा ३. वीर। श्रृंगार के प्रति उनका विशेष आग्रह रहा है। भाव विलास, काव्य रसायन, भवानी विलास आदि कृतियों में उन्होंने यों तो कई काव्यांगों का उल्लेख किया है, किन्तु इनमें विशद् विवेचन रस का ही हुआ है।
देव ने इस प्रसंग में कुछ नयी पहल की है-एक तो 'रस रीति' की स्थापना करके और दूसरे 'हरि जस' को रस की कोटि में पहुँचाकर। नायिका भेद के क्षेत्र में देव ने कई क्रान्तिकारी प्रयोग किए हैं। उन्होंने कुल तीन सौ चौरासी भेद नायिकाओं के किए हैं और जातीय आधार पर ग्रामीण जीवन के प्रजावर्ग की स्त्रियों, जैसे-नाइन, बारिन, मालिन आदि की नायिकाओं के स्तर पर प्रतिष्ठित किया है।
अलंकार के क्षेत्र में देव का कुछ अपना मौलिक चिन्तन यत्र-तत्र प्रकट हुआ है। वे यमक तथा अनुप्रास के बडे समर्थक रहे हैं। अपने छन्दों में लगभग चालीस अलंकारों का उन्होंने बारंबार प्रयोग किया है। देव का पिंगल विषयक चिन्तन तथा अनुप्रयोग भी महत्त्वपूर्ण है। यों काव्यशास्त्री की अपेक्षा वे कवि ही अधिक रहे हैं।
देव ने श्रृंगार में तो सर्वाधिक सफलता पायी है। कहीं-कहीं भक्ति, शान्त और करूण प्रसंगों में भी उनकी चित्तवृत्ति पूरी तरह से रमी है। जीवन भर राज्याश्रय के पीछे भटकते हुए एक स्तर पर जब देव को ग्लानि होती है तो वे फूट पड़ते हैं - ''ऐसो हौं जु जानतो कि जैहे तू विषय के संग,/ए रे मन मेरे हाथ पाँव तेरे तोरतो।/आजु लगि केते नर नाहन की नाही सुनि,/नेह सों निहारि हारि बदन निहोरतो।''
अन्तिम पंक्ति में वे कहते हैं - ''भारी प्रेम पाथर नगारो लै गरे सो बाँधि राधावर विरूद के वारिधि में बोर तो।'' वैराग्य शतक में इस प्रकार के कई आत्म कथ्य हैं जहाँ, 'नरिंद' की जगह 'गुबिंद' की याद की गई है।
देव ने नीतिपरक रचनाएँ भी की हैं । उन्होंने कई पौराणिक संदर्भ दिए हैं और जीवन व्यापी अनुभवों के आधार पर पाठकों को कर्तव्य बोध कराया है । कवि का आदर्श रूप प्रस्तुत करते हुए वे कहते है - ''जाके न काम न क्रोध विरोध न लोभ हुवै नहिं छोभ की छाहौं।/सील ससी कविता सविता कविताहि रचै कविताहि कतावौ।''
देव माया प्रपंच में उन्होंने दर्शन का दिग्दर्शन भी कराया है। इससे उनके व्यक्तित्व के वैविध्य का प्रमाण मिलता है।
यों, देव का काव्य भाव और भाषा के कारण ही शिखर पर पहुँचा है। चाहे षटऋतु का वर्णन हो, चाहे नखशिख का, देव कल्पना की ऊँची उड़ान करते हैं। एक छन्द में प्रेमी और प्रेमिका के तादात्म्य का संकेत करते हुए उन्होंने उत्प्रेक्षाओं की पूरी माला ही रच डाली है, जैसे - 'औचक अगाध सिन्धु स्याही को उमगि आयो,/तामे तीनों लोक बूडि गये एक संग ही/गगग/ऐसो मन मेरो मेरे मन में न रह्यो माई,/स्याम रंग ह्वैकै समान्यौ स्यामरंग में॥''
ऐसा ही बिंब विधान 'सखियानि के आनन इन्दुन पै आँखियानि की वन्दनवार तनी' में मिलता है। इस छन्द में उन्होंने श्याम की श्यामता के लिये स्याही के समुद्र, अमावस की रात, जम्बू रस और जमुना जल की सुन्दर उत्प्रेक्षा दी है। रूपक रचना में देव बडे प्रवीण हैं। बसन्त को कामदेव के पुत्र के रूप में चित्रित करते हुए वे कहते हैं - 'डारि दु्रम पालना बिछौना नव पल्लव के,/ सुमन झंगोला सोहै तन छवि भारी दै,/पवन झुलावै केकी कीर बतरावै देव,/कोकिल हिलावै दुलरावै करतारी दै,/पूरित पराग सों उतारा करे राई नोन,/कुन्द कली नायिका लतान सिर सारी दै,/मदन मही जू को बालक बसन्त ताहि,/प्रातहिं जगावत गुलाब चटकारी दै।'
प्रकृति माँ के समूचे परिदृश्य में युवराज बसंत की यह सेवा सुश्रूषा सचमुच इस रूपक में रच बस गयी है। नायक-नायिका के हाव-भाव को देव ने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। जैसे- रीझि-रीझि रहसि हँसि हँसि उठै,/साँसै भरि आँसू भरि कहत दई-दई,/चौंकि-चौंकि, चकि-चकि, उचकि उचकि देव,/जकि जकि बकि बकि परत बई बई॥
अंतिम पंक्ति है - मोहि मोहि मोहन को मन भयो राधिक मय,/राधा मन मोहि मोहि मोहन मयी मयी।''
ध्वन्यात्मकता का प्रयोग देव ने बहुत किया है। एक उदाहरण देखिए - ''सहर सहर सोंधो सीतल समीर डोलै,/घहर घहर घन होरि कै घहरिया।/फहर-फहर होत पीतम को पीत पट लहर लहर होत प्यारी की लहरिया''
देव को अनुप्रास बहुत प्रिय हैं, साथ ही यमक भी। जैसे - देव गुन आरी अमासे भरै अगरी दबाए देत अंगुरी अचल अंग अंगरी।'/लेक लगी बगरी कलंक लग बगरी शखी न संग बगरी शखी न संग बगरी॥
शब्दों की आवृत्ति करके देव ने वाग्विदग्धता प्रदर्शित की है, जैसे -
० कन्जनि कलिनमयी कुन्जनि अलिनमयी गोकुल की गलिन नलिमयी हो गयी।
० बेगि ही बूढ़ि गयी अँखियां पखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी।
० ताखिन ने इन आँखिन ते न कढ्यो वह माखन चाखन हारो।
० रँग राती हरो हहराती लता झुक जाती समीर के झकूनि सों।
० पूरन प्रीति हिये हिरकी खिरकी खिरकीन फिरै खिरकी सी।
उक्ति वैचि×य भी देव की कविता में भरा पड़ा है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
० हौं तो श्याम रंग में चुराय चित चोरा चोरी बोरत तो बोरै पै निचोरत बनै नहीं।
० साँवरे लाल को साँवरे रूप मैं नयननि को कजरा करि राख्यो।
० रावरो रूप भर्यो अँखियान भर्यो सो भर्यो उमड्यो सुभर्यो परै॥
निःसन्देह देव का काव्य उच्चकोटि का है। उसमें उद्भावनाओं का चमत्कार है। इस दृष्टि से यह छन्द तो बहुत ही विलक्षण है - 'फटिक सिलानि सो सुधार्यो सुधार मन्दिर उदधि दधिको सौ उफनाय उमगौ आनन्द।/आरसी सी अम्बर में आभा सी उज्यारी लागै प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लगत चन्द।'
इसमें राधा की दीप्ति के लिये स्फटिक शिला, अमृत, दही के समुद्र, संगमरमर, चाँदनी, नक्षत्र, धूप, मोती, आरसी आदि उपमान आए हैं। सचमुच उस कला में देव का दूसरा कोई सानी नहीं है।
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