- डॉ० सरला अग्रवाल
सुधा काफी समय से जगह-जगह आवेदन पत्र भेज रही थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद उसे कहीं नौकरी नहीं मिल पा रही थी। साल भर पूर्व पति की फैक्ट्री भी अचानक चलते-चलते बन्द हो गई तो पूरे परिवार के भरण-पोषण का प्रश्न उसके सम्मुख मुँह बाये खड़ा हो गया। उसकी अपनी नौकरी भी उसी फैक्ट्री से जुड़ी थी, इस कारण वह भी बेकार हो गई थी।
जुलाई का महीना था, बच्चों के स्कूल की भारी भरकम फीस, जमा करने का समय था, साथ ही उनकी पुस्तकें - कापियाँ तथा यूनिफार्म आदि भी खरीदनी थी, कई खर्चे सिर पर थे। जीवन के ऐसे भयंकर उतार-चढ़ाव देखकर सुधा हताश हो चली थी। छोटे-छोटे बच्चों का साथ कहीं कोई सहारा नहीं, मानों मंझदार में पड़ी नैया का कोई खिवैया ही न हो।
एक स्थानीय नये खुले कॉलिज का विज्ञापन निकलने पर उसने अपना आवेदन पत्र तुरन्त वहाँ भेज दिया। अगले ही दिन वहाँ पर 'वॉक इन' इन्टरव्यू था। वह वहाँ जा पहुँची। भाग्य से उसका इन्टरव्यू बहुत अच्छा हुआ। उसे जीवन में आशा की सुनहरी किरणें प्रस्फुटित होती दिखाई देने लगीं।
इकोनोमिक्स की लेक्चरशिप के लिए साक्षात्कार देकर जब वह कमरे से बाहर निकली तो प्रतीक्षारत अभ्यर्थियों में उसे एक दुबली-पतली लड़की दिखाई दी। उसे वह चेहरा पहले कभी देखा हुआ सा लगा ... वह उस लड़की के पास चली गई। देखा, लड़की की बायीं बाँह ब्लाउज में से निर्जीव सी झूल रही है ... चेहरे पर चोट के कई निशान थे। एक पैर घसीट कर वह चल पा रही थी। ''इसे कहीं देखा है'', उसने अपने मस्तिष्क पर जोर देते हुए सोचा। पर सामने पड़ने पर उसी से उसका नाम पूछ लिया।
''अपर्णा'' उसने बताया।
''यहाँ किस विषय के लिए आई हो तुम?''
''इकोनोमिक्स के लिए''। उसने उत्तर दिया।
''तुम्हें कुछ तकलीफ है?'' उसे शरीर पर दृष्टिपात करते हुए सुधा ने उससे पूछ लिया, पर तब ही उसके नेत्रों के सम्मुखी पाँच-छः महीने पूर्व का एक दृश्य साकार हो उठा .. वह बाजार से कुछ सामान खरीद कर घर वापस जा रही थी, तभी सामने सड़क पर उसे काफी भीड़ जमा दिखाई दी ... पास जाने पर यही लड़की वहाँ घायल अवस्था में अचेत पड़ी दिखाई दी थी। इसकी लूना पास ही क्षत-विक्षत दशा में पड़ी थी। एक ट्रक इसे टक्कर मार कर साफ बच निकला था। लोगों में खलबली मची थी। पुलिस केस बन गया था। उसी बात को स्मरण करके सुधा के मुँह से वह वाक्य निकल पड़ा था, ''तुम्हें कुछ तकलीफ है?'' इस पर उस लड़की ने बड़ी सहजतापूर्वक उत्तर दिया ...।
''नहीं, अब तो ठीक हो गई हूँ मैं'', उसके स्वर में उत्साह भरा था।
''ओह! याद आया। पाँच छः महीने पूर्व गुमानपुरा चौराहे पर तुम्हारा ही तो एक्सीडेंट हुआ था ट्रक से, क्यों?''
''हाँ''
''अब ठीक हो? वह बाँह?''
''हाँ, मेरी बाँह को लकवा मार गया है। पैर में कुछ तकलीफ है, पर वैसे अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ। पहले वाली नौकरी तो मेरी छूट गई ... ये प्राइवेट स्कूलों वाले ...पर घर बैठ कर कब तक काम चल सकता है? मन भी तो नहीं लगता खाली बैठे..फिर...''
''सच ही कहती हो अपर्णा! मेरी जगह यह नौकरी भगवान् करे तुम्हें ही मिले।''
सुधा ने कहा और मन ही मन सोचने लगी कि इसके साथ इतना कुछ घटित हो जाने पर भी इस नन्हीं बालिका की इतनी हिम्मत? यह अब भी जीवन के प्रति आश्वस्त है और मैं पूर्णतया स्वस्थ होने पर भी निराश हो रही हूँ...। नहीं ... जीवन में अंधेरा - उजाला, सुख - दुख, आशा-निराशा तो चलते ही रहते हैं इनसे अपना मन हल्का थोड़ी न करना चाहिए ...। काश! यह नौकरी मेरी जगह अपर्णा को ही मिले। इकोनोमिक्स विषय के लिए यहाँ केवल दो ही प्रत्याशी तो आये हैं, सोचते हुए सुधा ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और तेजी से घर की ओर चल दी। मन ही मन उसने निर्णय ले लिया था कि अब वह अपना भाग्य कहीं और ही आजमायेगी।
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