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खानाबदोश बेगम पंजाबी कहानी

- मनमोहन बाबा
उसका पिता 'नसीरी' कबीले का सरदार था जो कोई-सुलेमान की चरागाहों पर कयालखी के नाम से प्रसिद्ध था। उसकी मां कौन थी? उसे स्वयं नहीं पता था। उसने सुना था कि वह उस कबीले की किसी कदीमी और रहस्यमयी रस्म की उत्पत्ति है। कबीले के लोग किसी दिन विशेष को किसी खुफिया गुफा में जाते हैं और सभी चिराग बुझाकर, सभी कपड़े उतार कर औरतों के साथ बयान न की जाने वाली हरकतें करते हैं। इस रस्म को 'चराग़-गुल' भी कहा जाता था। इसी कारण उसका नाम सौतेली मांओं ने चराग गुल रखा जो बाद में गुलबानो और फिर गुल बेगम हो गया।
गुलबानो यहां कैसे पहुंच गई? इसके बारे में कहा जाता था कि एक दिन एक स्याहपोश औरत आई और एक छोटी सी बच्ची को उसके सामने रख कर चली गई। उसने अपने पिता के तम्बुओं में रह रहीं चार बीवियों में से किसी को भी मां के रूप में नहीं जाना था। ना ही उसे किसी से मां वाला प्यार मिला। उसे घुड़साल में गाते देखकर उसकी मांऐं मुंह बनाकर कहा करतीं - जरूर किसी कंजरी की कोख से जन्मी होगी। वह औरतें गुलबानों को विभिन्न प्रकार के व्यंग्य मारा करतीं, और दिन भर उससे घर बाहर काकाम कराती रहतीं।
इन सब स्थितियों और वातावरण के बावजूद उसकी मांएं उसका मनोबल नहीं तोड़ सकीं। सोलह सत्रह साल की आयु में पहुंचने तकवह एक लम्बी, सुडौल और निपुण घुड़सवार हो गई थी। इस कबीले के किसी भी लड़के या लड़की को घुड़सवारी आए बिना ना तो स्वतन्त्र जीवित रहना सम्भव था और ना ही ब्याह करवाना। यदि निपुण घुड़सवार न हुए तो गुलाम-फरोशों के हाथ पकड़े जाने पर अफगानिस्तान के नगरों मं ले जाकर बेच दिये जाते थे। इस कबीले का कोई लड़का किसी लड़की से तभी विवाह करवाने का हकदार हो सकता था जब वह उस लड़की को घुड़दौड़ में पछाड़ दे। किसी निश्चित दिन किसी लड़की से विवाह करने के दावेदार एक निश्चित स्थान पर आ इकट्ठे होते थे। लड़की एक छोटे आकार का कमान लेकर घोड़े पर दौड़ती। उसके दावेदार उसका पीछा करते। और जो दावेदार उस लड़की का कमान छीन लाता वही उसे अपनी पत्नी बनाने का हकदार हो सकता था।
भेड़ और घोड़े पालना या लूटमार करना दो ही पेशे होते आए थे, कई सौ वर्षों से। चाहे वह नादिरशाह हो, चाहे अहमद शाह अब्दाली, और चाहे तैमूर लंग, वे लोग इनके साथ चल पड़ते और दिल्ली, पंजाब में लूटमार करके अपने खेमों में लौट आते थे। पर जब अंतिम इमली के समय दिल्ली लूटकर लौट रहे अब्दाली को सिखों ने लूटना शुरू कर दिया तो इनकी लूटमार का सिलसिला ही बन्द हो गया।
अब सम्पूर्ण पंजाब में सिखों का राज्य था। अब यह लाहौर सरकार रणजीत सिंह के अधीन थी। सुलहनामे के अनुसार लाहौर सरकार को लगान देते, घोड़े मुहइया करवाते और समय-समय पर फौजी सहायता देने के भी पाबंद थे।
एक दिन लाहौर सरकार का पैगाम आया कि सिख फौजें यूसुफ यई पठानों को सबक सिखाने के लिए चल पड़ी हैं। उन नसीरियों को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह 'अफरीदी' पठानों को यूसुफ यई पठानों से मिलने से रोकें। इस आदेश के अनुसार, कमाल खां ने अफरीदी पठानों पर अचानक हमला कर दिया। बहुत से अफरीदी मारे गए या भाग गए। अफरीदी सरदार का बेटा मारा गया और उसकी एक लाजवाब अरबी घोड़ी को कमाल खां अपने खेमों में ले आया।
'सफेद परी' नामक इस प्रसिद्ध घोड़ी को प्राप्त करके कामल खां बहुत प्रसन्न था - किस्मत के उस हेरफेर से बेखबर, जो कमाल खां को बरबाद करके चराग़ गुल उर्फ गुलबानो को लाहौर पहुंचा देती।
यह घोड़ी क्या थी, जैसे आसमान से उतरी कोई परी हो। सफेद चट रंग, सुडौल, ऊँचा कद, जब दौड़ती तो पैर धरती पर पड़ते नजर ना आते। उसकी गर्दन पर रेशम जैसे अयाल समुद्र की लहरों की तरह हवा में लहराने लगते और सिर इस अंदाज में ऊपर उठा होता जैसे उसे अपने हुस्न पर बहुत घमंड हो।
एक दिन जब गुलबानो एक झरने के किनारे कपड़े धो रही थी तो उसने कुछ सिस सिपाहियों को अपने खेमों की ओर आते देखा। उसने दौड़ कर अपने पिता को यह खबर बता दी। कमाल खां समझ गया कि अवश्य महाराजा रणजीत सिंह को सफेद घोड़ी के विषय में सूचना मिल गई है। उसने उसी समय अपने पुत्र को बुलाया और सफेद परी को उसके साथ कोह-सुलेमान की पहाड़ियों के दूसरी ओर भेज दिया।
महाराजा के घोड़ों का दरोगा 'खुदा बख्श' जब उनके खेमें में पहुंचा तो कमाल खां ने बड़े तम्बू में बैठाया दुम्बे काट कर पकाए गए।
आप हमारे डेरे पर पधारें। हमें खुशी और इज्जत बक्सी कमाल खां ने कहा।
'मुझे भी बहुत खुशी है।' खुदाबख्श ने कहा 'हम खुदा की मेहरबानी से बहुत दिनों के बाद मिले हैं।...'
इसी प्रकार की औपचारिक बातों के बाद खुदाबख्श अपने असली मंतव्य पर आते हुए बोला, 'दरअस्ल बात यह है कि जिन अफरीदियों पर हमला करके आपने उन्हें हराया था, कुछ दिन पूर्व उनका एक प्रतिनिधि महाराजा के पास आया था। उनके सरदार समद खां ने बताया कि उन्हें अपने पुत्र के लड़ाई में मारे जाने का अफसोस तो है ही पर जिस घोड़ी पर वह सवार था उस नायाब घोड़ी 'सफेद परी' की नस्ल उनके पास पुश्तों से चली आ रही है, जिसका रिश्ता हजरत मोहम्मद की घोड़ी से जुड़ता है। समद खां ने यह भी बताया कि यदि सरकार उसकी वह घोड़ी वापस कर दें तो उसके बदले में वह महाराज के सामने सोने की मोहरों का अम्बार लगा देगा।
फिर खुदाबख्श ने कमाल खां की ओर ताकते हुए कहा, 'मेरे यहां आने का मकसद सिर्फ इतना ही है कि आप वह घोड़ी वापस कर दें। समद खां के मुंह से उस घोड़ी की इतनी सिफ्तें सुनकर सरकार का दिल उस घोड़ी पर आ गय है।'
कमाल खां ने उसे यकीन दिलाया कि इस तरह की घोड़ी वह बिलकुल लेकर नहीं आया। चाहें तो वह उनके घुड़साल में देख सकते हैं। वैसे दरोगा खुदाबख्श ने खेमों में पहुंचने से पहले ही अपने कुछ सिख सिपाही घुड़साल की ओर भेज दिये थे। उन्होंने भी आकर बताया था कि उन्होंने वहां कोई सफेद रंग की घोड़ी नहीं देखी। अब खुदाबक्श बोला, 'माशा अल्लाह! यह एक बहुत संजीदा मसला है। आप हमारी दाढ़ियों पर न देखें और हमारा सिर नंगा करके वापस ना भेंजें। मैं सरकार को जाकर क्या मुंह दिखाऊँगा?'
कमाल खां ने जब फिर अपनी मजबूरी और 'सफेद परी' के वहां न होने की बातें की तो खुदाबक्श बोला, 'इस हालात में ना आप कुछ कर सकते हैं, और ना मैं। आगे खुदा जाने या लाहौर सरकार।'
उसकी वाणी में असमर्थता थी और छिपी हुई धमकी भी। खाना-पीना समाप्त होने के बाद कमाल खां ने अपने अंगरखे में से बीस मोहरें निकाल कर खुदाबक्श के सामने रखते हुए कहा, 'मेरे पास एक बहुत बढ़िया शिकारी कुत्ता है और हीरे जड़ी एक खुरासानी तलवार है। यह मैं सरकार के लिए भेंट स्वरूप आपके सुपुर्द करता हूँ।'
''खुदा अपनी सलामत रखे। पर यह काफी नहीं।'' खुदाबक्श ने कहा, 'सरकार को इससे तसल्ली नहीं होनी। आप तो जानते ही है कि सरकार बढ़िया घोड़ियां और दिलफरेब औरतों के कितने शौकीन हैं।'सफेद परी' के हासिल ना होने से उन्हें बहुत मायूसी होगी।'
'बेशक, बेशक, आपकी बात सुनकर मेरे मन में एक विचार आया है। मेरी एक दुख्तर है। महाराजा की मोरा से भी ज्यादा खूबसूरत। गाती भी बहुत अच्छा है। उसको देखकर सरकार सब कुछ भूल जाएंगे।'
'आफरी,आफरी!' खुदाबक्श के मुंह से निकला, 'यदि वह दोरोजा वही है जिसे मैंने इस ओर आते हुए झरने पर देखा था तो मुझे यकीन है कि सरकार मेरी जान बक्श देंगे।'
वास्तव में यह भी कमाल खां की बीवियों की कारस्तानी थी। वे गुलबानों को किसी न किसी प्रकार यहां से निकाल देना चाहती थीं। खुदाबक्श शिकारी कुत्ता और तलवार तो ले गया पर गुलबानों को वहीं छोड़ गया। उस समय उन्हें और भी कई स्थानों पर जाना था। कमाल खां ने यकीन दिलवाया कि इस दशा में वह स्वयं गुलबानो को लेकर लाहौर सरकार के पास उपस्थित हो जायेगा।
खुदाबक्श और सिख घुड़सवारों के वहां से रवाना होते ही कमाल खां ने अपने कबीले वालों को एकत्र करके कहा, 'मुझे इस खुदाबक्श पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। यह सरकार से जाकर कहेगा कि घोड़ी छिपा ली है। सरकार को पता लगते ही वह अपनी सिख सेनाएं इस ओर भेज देंगे। इसलिए उचित यही होगा कि हम अपनी घोड़ियों और परिवार को लेकर किसी ऐसे स्थान पर चले जाएं जहां लाहौर सरकार का डर न हो।'
'देखो ईश्वर की करामात।' एक वृद्ध ने कहा, 'कुछ वर्ष पहले जिन्हें हम लूटते थे और जो हमारे नाम से थर-थर कांपते थे, आज वह सिर पर साफा बांध कर और दाढ़ियां रखकर हमारे लिए हउआ बन गए हैं।'
'मैंने सुना है कि दो सैयद भाई हिन्दुस्तान से भारी फौज लेकर 'घोलइयां' के पास आए हुए हैं, इनका उद्देश्य सिख राज्य समाप्त करके पुनः इस्लाम का झण्डा पूरे पंजाब में फहराने का है।' एक युवक ने कहा।
'तूने एकदम सही बात कही है। मैं भी मनकेड़े जाने की सोच रहा हूं, हाफिज अली बेग़ के पास।' कमाल खां ने उन सबकी ओर देखते हुए कहा।
उसी समय 'सफेद परी' को भी वापस ले आया गया। उन्होंने अपने तम्बू उखाड़े, घोड़ियों पर सामान लादा और मनकेड़े के किले की तरफ चल पड़े। इनका नसीरी कबीला 'घोलसई' कबीले की ही शाखा थी जिनका एक स्वतन्त्र क्षेत्र अटक नदी और काबुल के बीच में था। वह रणजीत सिंह को खिराज के रूप में सालाना धन देते थे। इसके अतिरिक्त लाहौर सरकार का उनके क्षेत्र में कोई हस्तक्षेप नहीं था।
हाफिज अली खां ने पिछले दो वर्षों से लाहौर सरकार को निश्चित खिराज नहीं भेजी थी। जब रणजीत सिंह को पता लगा कि वह हिन्दुस्तानी सैयदों से मिलकर सिख राज्य के विरूद्ध तैयारियां कर रहा है और गुलबानो और सफेद परी भी उसके पास पहुंच गई हैं तो उसने आने की अपने सिख सरदारों के साथ विचार विमर्श किया। सिख सरदार रणजीत सिंह के कंजरी की बेटी मोरां से इश्क उसके साथ विवाह और मोरी के व्यवहार और बेशर्मी वाली हरकतों से बहुत नाराज थे। उन्होंने मोरां की तरफ से रणजीत सिंह का ध्यान हटाने के लिए एक रास्ता ढूंढा कि उनका ध्यान किसी दूसरी ओर लगाया जाए। इस कारण खुदाबक्श और सिख सरदारों ने गुलबानो के सौन्दर्य की तारीफों के पुल बांध दिए। किसी कवि को पैसे देकर उसकी सुन्दरता पर कविताएं भी लिखवा दीं।
कुछ दिनों के बाद ही रणजीत सिंह की फौजों ने मनकेड़े के किले को चारों ओर से घेर लिया। हाफिज अली खां को अपने इस किले के अजित होने का बड़ा गर्व था, पर रणजीत सिंह की रणनीति और सिखों की फौज की बहादुरी के सामने उसकी एक न चली और वह सुलहनामे के लिए तैयार हो गया। पिछले दो वर्षों का खिराज, भारी दण्ड राशि के साथ ही साथ गुलबानो और सफेद परी को देख कर महाराजा की आंखें खुली की खुली रह गईं। तीन-चार दिन बाद वह दोनों के साथ लेकर लाहौर लौट गया।
मनकेड़े से लाहौर पहुंचने के कुछ दिन पूर्व गुलबानो शीशे के सामने बैठी कभी अपने चेहरे की ओर देखती और कभी आने वाले दिनों के बारे में सोचने लगतीं क्या सचमुच मैं इतनी सुन्दर हूँ जितना लोग कहते हैं? सुना है लाहौर के महाराजा की कई रखैलें हैं, कई बेगमें हैं। मैं खानाबदोश और वह राजमहल! उसने मोरां कंजरी के बारे में भी सुन रखा था। वह पहले ही अपनी तथाकथित माताओं के हाथों इतना आतंक और कष्ट झेलती रही थी, और अब ये मोरां जैसी सौतनें! या परवरदिगार! क्या होगा मेरा?'
अचानक पहरेदार ने आकर बताया कि एक औरत उससे मिलने आ रही है। तंबू का पर्दा हटा कर जब वह औरत भीतर आई तो गुलबानो ने पूछा, वह एक अघकड़ औरत थी, खूब रौबदार, उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि जवानी में बहुत खूबसूरत रही होगी। उसने भीतर आ कर गुलबानो को गौर से देखा, होंठ कुछ हिले, पर वह कुछ बोली नहीं।
'मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। पहरेदार बता रहा था कि तुम मेरी कोई रिश्तेदार हो।' गुलबानो ने उसको गौर से देखते हुए और पहचानने का यत्न करते हुए कहा 'रिश्ते बनाए भी तो जा सकते हैं। मैं तेरी कोई रिश्तेदार नहीं हूँ बेटी! केवल एक गुजारिश लेकर तेरे पास आई हूँ।' फिर वह औरत गुलबानो के एकदम निकट आ कर बोली, 'तेरे रिश्तेदारों ने ही तुझे क्या दिया? मैं थोड़ा बहुत जानती हूँ, चरागाहों पर सौतेली माओं के साथ बिताए गए तुम्हारे खराब दिनों के बारे में।'
आप कौन हैं? मेरे बारे में कैसे जानती हैं?
मेरी बात पहले पूरी तरह सुन ले। फिर जो चाहना पूछ लेना। अब तेरे दिन बदलते दिखाई दे रहे हैं। तू पंजाब के महाराजा के हरम की शान बनेगी। तुझे किसी विश्वसनीय बांदी की जरूरत भी पड़ेगी, जो तेरा हर प्रकार का ख्याल रख सके। दुख-सुख के समय तुझे सही सलाह दे सके। शाही महलों के हरम के गहरे षड़यन्त्रों का सामना तुम्हारे जैसी नाजुक और अनुभवहीन औरत कैसे कर सकती है?.. फिर उस औरत ने शाही महलों की दशा और खतरों के बारे में संक्षेप में बताने के बाद कहा, 'मैं भी एकदम अकेली हूँ इस दुनिया में। तेरे साथ मेरी उम्र के अंतिम दिन चैन से बीत जाएं, मेरे लिए यही बहुत है। और मैं कुछ नहीं चाहती।'
गुलबानो कुछ देर बैठी सोचती रही फिर बोली, 'ठीक है। पर सरकार की अनुमति...?'
'मैंने इस विषय में भी सोच लिया है। तुम सरदार से कह देना यह मेरी मौसी है। वास्तव में मैं भी यही कह कर आई हूँ।'
मौसी शब्द सुनते ही गुलबानो ने उस औरत को गौर से देखा। उसकी आंखों में अपने लिए ममता और हमदर्दी देखकर उसने अपने भीतर कुछ उभरता हुआ अनुभव किया। पुनः आइने के सामने खड़े होकर एक बार अपने नैन नक्श और फिर उस औरत के चेहरे की ओर देखा। नाक-आंख, होंठ, सब कितने मिलते जुलते हैं। उसने अपना दिल जोर-जोर से धड़कता हुआ अनुभव किया। एक घुटी-घुटी चाहत, कुछ घुटे हुए शब्द उसकी जबान पर आकर नाचने लगे : 'चराग गुल!' उसके मुंह से निकल गया।
तत्क्षण ही वह उस औरत की बाहों में थी। वह औरत उसका माथा, उसक गाल चूम रही थी और गुलबानो की आंखों में आंसू छलक रहे थे। वह एक ऐसे असीम, अनजाने सुख का अनुभव कर रही थी, जिस सुख से वह अभी तक वंचित थी।
इस औरत यानी गुलबानो की मां का नमा जैनब खातून था। वह जिस विशेष खानाबदोश कबीले की थी, उसमें परिवार की लड़कियों में से कम से कम एक को धन कमाने का साधन बनाया जाता था। वह जो भी था। गुलबानो महाराजा के हरम में आकर गुलबेगम हो चुकी थी। वह कभी-कभी अपनी मां के विषय में सोचती - यदि यह ऐन समय पर न आती तो मेरा क्या होता? या फिर मैं हरम की अन्य रखैलों की तरह एक कोने में बैठ कर अपने दिन काटती या मोरां कंजरी जहर दिलाकर मरवा डालती। जहर देने का उसने कम से कम दो बार प्रयत्न भी किया था।
जैनब खातून ने उसे वह सब गुण सिखाए जिससे रणजीत सिंह जैसे व्यक्ति को खुश रखा और वश में किया जा सकता था। वह मोरां से अधिक सुन्दर थी या नहीं, पर उससे एक मुट्ठी ऊंची अवश्य थी। एक निपुण घुड़सवार तो थी ही। वह मोरां की भांति महाराजा के पीछे घोड़े पर नहीं बैठती थी, बल्कि मराठा पेशवा बाजीराव की प्रेमिका मस्तानी (जो मोरां की भांति किसी कंजरी की बेटी थी) की तरह महाराजा के साथ-साथ दूसरे घोड़े पर बैठ कर जाती थी।
गुलबानो ने लाहौर में आने से कुछ दिनों के भीतर ही सबका मन जीत लिया था। नही जीता था तो मोरां का दिल। गुलबानो की मां ने उसके मन में अच्छी तरह भर दिया था कि यदि इश्क की भावना पर अधिकार कर लिया जाए और बहुत महत्वाकांक्षाएं ना रखी जाएं तो सुखी रहने की सम्भावनाएं अधिक बढ़ जाती हैं। रणजीत सिंह भी उसके सौंदर्य, स्वभाव और सलीके से इतना प्रभावित हुआ कि कुछ दिनों बाद उससे बाकायदा विवाह करवा कर, उसे गुलबानो से गुलबेगम बना दिया।
मोरां कंचनी ईर्ष्या के कारण मन ही मन घुटती रही। जब वह विष दे कर मरवाने में सफल ना हुई तो महाराजा के कान में उसके वियद्ध जहर भरना शुरू कर दिया। कहा कि गुल बेगम बदचलन है, बेवफा और धोखेबाज है।'
'ईष्यालु होकर यूं ही उस बेचारी को बदनाम मत करो।' महाराजा का उत्तर था।
'तो आप आंखें बंद किये रहे तो कोई क्या कर सकता है? पूरी दुनिया जानती है कि आपके फिरंगी जनरल गार्डनर से उसकी यारी है। यदि मुझ पर विश्वास नहीं है तो आप स्वयं जाकर देख लीजिएगा।'
महाराजा ने अपने खुफिया दस्ते को आदेश दिया कि गुल बेगम के पार के चारों ओर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाए। तीसरे दिन उन्होंने आकर मोरां केशक को प्रभावित करते हुए कहा कि उन्होंने दो बार उस फिरंगी को उसके घर आते-जाते देखा है।
'दिन के समय यारात के समय?' महाराजा ने पूछा।
'जी एक बाद दिन में और दूसरी बार रात को।'
'ठीक है।' महाराजा ने अपने क्रोध पर नियंत्रण, रखने का यत्न करते हुए कहा, 'किसी से बताना नहीं।'
रणजीत सिंह को अपने फिरंगी जनरल गार्डनर पर बहुत गर्व था। जो सलाह मश्विरा, हंसी मजाक रणजीत सिंह अपने सिख सरदारो से नहीं कर सकता था, वह उसके साथ कर लेते थे। रणजीत सिंह ने गार्डनर को बुलाकर पूछा, 'मैं यह सब क्या सुन रहा हूँ?'' उसकी वाणी में दुःख था, शिकायत थी और छिपा-छिप क्रोध भी था।
घबराने की अपेक्षा गार्डनर हंस पड़ा।
'इसमें हंसने की क्या बात है? क्या यह सच नही है कि तुम चोरी-छिपे गुलबानो के महल में जतो हो?'
'चोरी छिपे क्यों, मैं तो खुलेआम जाता हूँ।'
रणजीत सिंह कुछ कहने वाले थे कि गार्डनर ने कहा, 'आपको याद होगा कि गुलबानो से विवाह करने के लिए आप पर मैंने दबाव डाला था।'
'हां याद है। पर इस समय इसका जिक्र क्यों?'
गार्डनर कुछ देर चुप बैठा सामने की दीवार को ऐसे देखतारहा जैसे दीवार के पार कहीं दूर देख रहा हो।
'आप तो जानते ही हैं कि आपके पास आने से पूर्व मैं पंद्रह वर्ष तक अफगानिस्तान में घूमता रहा हूं, सिकंदर मिजरा के नाम से।'
'हां।'
'एक बार डाकुओं के हाथों जख्मी होकर मैंने एक खानाबदोश कबीले के डरे में जाकर पनाह ली थी। वहां जिस औरत ने मेरी हर तरह से तीमारदारी की थी वह औरत जैनब खातून थी, गुलबानो की मां जैनब खातून। आप इसकी बिल्लौरी आंखें, गोरा रंग और नाकनक्श गौर से देखे। मुझे पूरा विश्वास है कि इसकी रगों में नसीरी कबीले के सरदार काा नहीं, मेरा लहू दौड़ रहा है...।'
कुछ दिनों के बाद मोरां के साथ भी वही हुआ जो महाराजा ने मोरां के लिए रानी महताब कौर और बुजुर्ग मीर मोहकम दीन के साथ किया था। मोरां को गुजारे लायक जागीर देकर पठानकोट भेज दिया गया। गुल बेगम ने उसके चले जोन के बाद सुख की सांस ली और उसे इस बात की भी तसल्ली थी कि मोरां को राजमहल से निकालने की अपराधी वह स्वयं नहीं थी।
दिन, महीने और साल बीतते चले गए। रणजीत सिंह के राज्य के विस्तार के साथ ही साथ उनके हरम की रखैलों और रानियों की गिनती भी बढ़ती गई। गुलबेगम के घर में महाराजा की बिताई गई रातों की गिनती तो घटी पर उसके प्रति प्रेम और निकटता नहीं घटी, बल्कि गुल बेगम का प्रभाव उस पर गाढ़ा होता गया। कोह सुलेमान की चरागाहों से आई यह खानाबदोश औरत, जिसका शुभारम्भ एक काली, अंधेरी गुफा में हुआ, जो झरनों के किनारे, और हरी भरी ढलानों पर गाते और घुड़सवारी करती बड़ी हुई। कई प्रकार और कई स्थानों पर उसकी सुन्दरता के सौदे हुए, आज लाहौर के राजमहल के षड़यंत्रों का मुकाबला करते हुए, राज्य की गतिविधियों को ध्यान से देखते हुए, वह बहुत दूरदर्शी और अनुभवी हो गई थी। पर अभी भी उसे वह चरागाहों और पर्वतों पर बिताए गए दिन नहीं भूलते थे। उसे जब भी कोई सपना आता तो घोड़े की पीठ पर दोनों हाथ छोड़कर बैठी दौड़ लगाती हुई, या हरी-हरी घास पर नंगे पांव दौड़ते गाते हुए ...।
अंतिम दिनों में महाराजा उस पर अधिक निर्भर होने लगे। राज्य की और पुत्रों की समस्याओं पर सबसे सलाह करने के बाद वह उसके पास आकर अपने मन का भार हलका करते हुए पूछते, 'अब तुम ही बताओ मैं क्या करूं?'
वह भली प्रकार जानती थी उनका इतनी मेहनत और कुर्बानियों से निर्मित राज्य बहुत कच्ची नीवों पर खड़ा है। वह कहती - जब कुछ करने का समय था, तब तो कुछ किया नहीं। अब पछताने से क्या लाभ?'
'मैं जानता हूं। खूब अच्छी तरह जानता हूं। ऐश-ओ-इशरत में पड़कर मैंने अपने बेटे-पोतियों को ना एक बादशाह बनने की शिक्षा दे सका और ना ही भले बुरे की पहचान कर सका।'
'यदि क्रोधित न हो तो एक बात कहूं?'
'अब क्रोध करने का समय गुजर गया गुल बेगम। तुम निधड़क हो कर कहो जो कहना चाहती हो।'
'छोटा मुंह बड़ी बात। आप बादशाह और मैं एक खानाबदोश औरत। पर फिर भी जो समझ सकी हूं, वह यह कि आपने एक विशाल राज्य तो स्थापित कर लिया, जिसकी सीमाएं लद्दाख से अफगानिस्तान तक फैली हुई हैं, पर इनको पक्की नीवों पर खड़ा होने के लिए कोई कायदे-कानून, कोई विधान-नियम नहीं दे सके। आपने अपने राज्य के साथ भी वही व्यवहार किया जो हरम के साथ करते आए हैं।'
महाराजा कुछ देर चुप रहे। फिर बोले, 'आदमी का दुखांत यह है कि जब उसके समझ आती है तो समय बहुत पीछे रह चुका होता है। सिवाए पछताने के और उसके पास कुछ शेष नहीं बचता है।'
गुल बेगम जब यहां आई थी तब केवल एक ही विचार था उसके मन में न कि यहां रहकर सुख के कुछ दिन बिता लेगी। रणजीत सिंह में भी उसे कोई आर्कषण या विशेषता नजर नहीं आई थी। पर समय बीतने के साथ-साथ वह उसके भीतर छिपे रणजीत सिंह को जानने लगी थी, जिसको रणजीत सिंह स्वयं भी भली भांति नहीं समझ सके थे।
एक दिन रणजीत सिंह उसके पास आकर बहुत उदास स्वर में बोले, 'मुझे लगता है कि मैं और अधिक दिन नहीं जी सकूंगा। और मुझे इस विषय में भी कोई भ्रम नहीं है कि यह सिख राज्य मेरे बाद बहुत दिनों तक बना नही रह सकेगा। तुम अभी स्वस्थ हो, बहुत दिनों तक जीवित रहोगी। मेरे बाद तुम्हारा ...?'
'मेरे विषय में आपको अधिक चिंता करने की आवश्यकता नही है।' उसने उत्तर दिया, 'मैं तो पंजाब की इस धरती के समान थी, जिसका कोई वाली, वारिस नहीं था। जिसे कोई भी उठाकर ले जाए, पैरों के नीचे रौंद डाले, जिसको आपने अपना कर चूल्हे में जलने वाली लकड़ी के चंदन बना दिया। जिसको आपने चराग गुल से रोशन चराग़ बना दिया। सारे जहां की खुशियां बक्शी। अब आपके बाद और जीकर मैं अपने सुखद अनुभवों को बेजायका नहीं करना करना चाहती। यही मेरी अंतिम इच्छा है। ...'
कुछ दिनों के बाद ही महाराजा रणजीत सिंह का देहान्त हो गया। दाह संस्कार के समय कांगड़े की मद्दी रानी कुछ अन्य रानियां रखैलों के साथ सुहागिनों वाले लाल कपड़े, लाल चूड़ा पहन कर महाराजा के साथ सती होने के लिए चिता पर जा बैठीं। जब तक गुल बेगम भी सती होने के लिए चिता पर चढ़ी तो राजा ध्यान सिंह और गार्डनर ने उसे नीचे उतारते हुए कहा कि वह मुसलमान है, इसलिए उसे सती होने का अधिकार नहीं है।
महाराजा की एक हुलाइसी नामक बौद्ध मतावलंबी लद्दाखी रानी भी थी। गुलबेगम की उससे खूब बनती थी। रणजीत सिंह की मृत्यु से कुछ दिन बाद गार्डनर ने उसे अपने पास रहने का प्रस्ताव किया। जैनब खातून ने भी यही सलाह दी। पर वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर हुलाइसी रानी के साथ लद्दाख चली गई।
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डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क