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हमारी साझा सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक-कैफी आजमी

- डॉ. प्रभा दीक्षित
आज जब हमारी गंगा-जमुनी तहजीब की साझी सांस्कृतिक विरासत पर लगातार हमले जारी हैं, साम्प्रदायिक फासीवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के धु्रवीकरण ने ''गुजरात- नरसंहार'' जैसे भयावह दृश्य उपस्थित किये हैं ऐसे में हमें कबीर, रहीम, रसखान, मीरा, राही, फिराक गोरखपुरी, फैज अहमद फैज, इकबाल, नियाज अहमद, हशरत मोहानी, मंटो, इस्मत चुगताई, कृश्नचन्दर, नामिक जौनपुरी, साहिर और कैफी आजमी आदि जैसे साहित्यिक, सांस्कृतिक व्यक्तित्वों की प्रासंगिकता को बार-बार दोहराना ही होगा और भावी पीढ़ी के लिये दिशा-बोध प्राप्त करने के लिये इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन करना ही होगा। हमारी बहुआयामी भारतीय संस्कृति को मात्र हिन्दू संस्कृति के रूप में संकुचित करने वाले पुनरुत्थानवादी (सांस्कृतिक राष्ट्रवादी) शायद यह भूल गये हैं कि भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की संस्कृति रही है कि इसकी विभिन्न विरोधी तत्त्वों को आत्मसात्‌ कर एक समन्वित उदारवादी दृष्टिकोण अपनाने की प्रवृत्ति ने ही इसे आज तक जीवित रखा है। मिस्र और यूनान की संस्कृतियाँ अपनी गौरवगाथाओं के साथ ही समय के प्रभाव में विशेष हो गई परन्तु हमारी भारतीय संस्कृति अपनी सहिष्णुता, उदारता, समन्वय, लचीलेपन व मानवीयता के कारण एक लम्बे काल प्रवाह के साथ एकता स्थापित करते हुए न केवल आज तक जीवित रही है बल्कि भारत जैसे विशाल प्रायद्वीप में साम्प्रदायिक व धार्मिक कुचक्रों के बीच आज भी एक सांस्कृतिक एकरूपता सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व को जीवन्त रखने में मदद कर रही है।
हमारी साझा सांस्कृतिक मूल्यों वाली संस्कृति ने विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, मत-मतान्तरों, दार्शनिक, राजनीतिक, विचारों को आत्मसात्‌ करके उसके सकारात्मक पहलुओं को समेटकर मानवता के पक्ष में सदैव ही अपनी जनतांत्रिक, लोकोन्मुख प्रतिबद्धता को साकार किया है। आज राजनीतिज्ञों ने विखंडन और अलगाववादी राजनीति का जो खेल निहित स्वार्थों के लिये प्रारम्भ किया है उसने देश की एकता और अखंडता को ही चुनौती नहीं दी है अपितु हमारे धर्म दर्शन और आध्यात्म की श्रेष्ठता के दंभ को भी झुठला दिया है।
'कैफी आजमी' जैसे व्यक्तित्व को स्मरण करने से पूर्व अपने सांस्कृतिक पतन पर इस 'अरण्य रोदन' का मेरा अभिप्राय केवल इतना ही था कि आजीवन साम्प्रदायिकता के विरूद्ध संघर्ष करने वाला, स्वतंत्रता, समानता और सहअस्तित्व के लिये इंकलाब का आह्‌वान करने वाला यह बागी तेवर वाला वामपंथी शायर, जो खुलेआम घोषणा करता था ''गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आजाद हिन्दुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिन्दुस्तान में मर जाऊँगा'' का यह सपना उनकी आँखों ने ''बाबरी-मस्जिद'' ध्वंस किया था। हमने अपने देश के अमर शहीदों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और खुशहाल समाजवादी धर्मनिरपेक्ष भारत का स्वप्न देखने वाले कवियों, विचारकों, साहित्यकारों के संघर्षों, बलिदानों, सपनों और भावनाओं को जिस निर्ममता से उपेक्षित और खंडित किया है उसके लिये इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा। हमारे कवियों और शायरों ने जिस आजादी के गीत गाये थे जिस सद्भाव और साम्प्रदायिक सांस्कृतिक एकता व बन्धुत्व का स्वप्न देखा था उस कथित आजादी के बाद के पचास वर्षों में ही ''गुजरात-नरसंहार'' जैसे प्रायोजित जनसंहार क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति की साझी विरासत को टुकड़े-टुकडे करता नहीं प्रतीत होता। आज गाँधी, नेहरू, भगत सिंह, सुभाष, फैज, मण्टों, नागार्जुन, निराला आदि जिन्दा होते तो अपनी आँखों से आजाद भारत की दुर्दशा पर आंसू बहाने के सिवा क्या कुछ न करते।
१९१३ या १९१४ को उत्तर-प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव में पैदा होने वाले कैफी आजमी का पूरा जीवन विद्रोह, बगावत और इंकलाब का एक लहराता परचम ही रहा है। एक जमींदार घराने में पैदा होने के बावजूद वे सामंतशाही और जमींदारी उन्मूलन के लिये आजीवन लड़ते रहे। अपनी तीनों बहिनों को टी.वी. की बीमारी से मौत के मुंह में जाते देखने का गहरा सदमा बर्दाश्त करके माँ को दिलासा देने वाले, धार्मिक शिक्षा प्राप्त करके भी धर्म का विरोध करने वाले, शिया मदरसे ''सुलतानुल मदारिस'' में एडमीशन लेने के बावजूद छात्रों की दुर्दशा देखकर छात्र माँगों को लेकर यूनियन बनाकर आंदोलन करने वाले, संस्थान से निकाले जाने पर प्राईवेट पढ़ाई जारी रखने वाले, एस.एफ.आई. के सक्रिय सदस्य बनकर, टे्रड यूनियन वर्कर के रूप में अपने सामाजिक राजनैतिक कैरियर की शुरूआत करने वाले कैफी जब आज हमारे बीच नहीं हैं तब हमें एहसास होता है कि हमने अपने बीच से एक ऐसी शख्सियत को खो दिया है जिसकी इस साम्प्रदायिक विषाक्त माहौल में सबसे ज्यादा जरूरत थी। हमारे समाज की यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हम जिन महापुरुषों के विचारों से प्रेरणा लेते हैं उन्हें पूजा की वस्तु बना देते हैं, जिन कवियों, शायरों, साहित्यकारों से हमें दिशा बोध प्राप्त करना चाहिए उन्हें किताबों के पन्नों में महफूज करके ही अपने कर्तव्य की 'इतिश्री' समझ लेते हैं। बेरहम मौकापरस्ती, संवेदनहीनता, स्वार्थपूर्ण व्यक्तिवाद, अंधे कैरियरवाद ने हमें इस कदर खोखला और विचार शून्य कर दिया है कि हम भले बुरे का विवेक भुलाकर एक अपसंस्कृतिक का अंधानुकरण किये जा रहे हैं। ऐसे कठिन दौर में कैफी जैसे शायर, जिनकी शायरी अपनी जनपक्षधरता के कारण आवाम के दिलों की धड़कन बनी हुई थी, की ना मौजूदगी हमें बार-बार अखरती है।
कैफी की शायरी को किसी विषय विशेष के दायरे में नहीं बांधा जा सकता है फिर भी उनकी बागी नज्में ज्यादा पसंद की गईं। उनकी शायरी का प्रारम्भ धार्मिक कविताओं से हुआ, उन्होंने इश्क-मुहब्बत की जज्बाती शायरी भी लिखी पर उम्र की परिपक्वता के साथ वे सामाजिक सरोकारों के पक्षधर भी बने और समय के साथ उनकी शायरी आवाम के दुःख-दर्दों का प्रामाणिक दस्तावेज सिद्ध हुई। उन्होंने अपनी पहली बागी नज्म छात्र जीवन में उस समय लिखी थी जब वे एक शिया मदरसे में धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिये पिता द्वारा भरती किये गये थे। वहीं अध्ययन करते हुए छात्रों की दुर्दशा देखकर उन्होंने सर्वप्रथम वहाँ पर छात्र यूनियन का निर्माण किया। नज्म लिखते और सुनाते, जो ''कौमी जंग'' में छद्म नाम से प्रकाशित भी हुई। इस राजनीतिक साहित्यिक चेतना का पुरस्कार उन्हें यह मिला कि उनकी माँगें तो मान ली गई पर उन्हें हॉस्टल से निकाल दिया गया। इस समय वे एस.एफ.आई. के सदस्य बन चुके थे और प्राईवेट रूप से पढ़ाई जारी रखने लगे। आगे चलकर वे कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर सदस्य बने। पार्टी ने ही उन्हें बम्बई भेजा। बम्बई में वे टे्रड यूनियन मजदूरों के बीच काम करते रहे और शायरी करते रहे। यहीं इन्होंने 'इप्टा' नाट्य संगठन की नींव डाली और उसके लिये नाटक व गीतादि भी लिखे। ब्रिटिश शासन के खिलाफ देश के माहौल और रूसी क्रांति ने उनके विचारों को गहराई से प्रभावित किया। भारत को मिली कथित आजादी से असंतुष्ट होकर वे इंकलाब का आह्‌वान करते हैं - ''कोई तो हाथ बढ़ाये/कोई तो जिम्मा ले/उस इंकलाब का/जो आज तक हुआ ही नहीं।''
उनकी शायरी में वैचारिक आवेग पूरी कलात्मकता और रागात्मक गीतात्मकता के साथ सहज रूप से गुंफित दिखाई देता है। सहज सरल गीतात्मकता के साथ उनकी शायरी जन-जन की भावनाओं विचारों और संवेगों को वाणी देती है। उनकी शायरी आवाम की शायरी है, सर्वहारा मजदूरों की शायरी है, जनता की उम्मीदों को, उनके सुख-दुख की कहानी है, उनके इंकलाब की आहट है वह भी सीधे सरल और स्पष्ट शब्दों में। जैसे - ''आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है/आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी/सब उठें मैं भी उठूं/तुम भी उठो/तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।''
एक मुस्लिम होने के नाते अल्पमत की मानसिकता और असुरक्षा की भावना ने उन्हें साम्प्रदायिकता के खिलाफ सदा से ही कलम उठाने को प्रेरित किया- ''बस्ती में अपनी हिन्दू-मुसलमां जो बस गये/इंसा की शक्ल देखने को हम तरस गये।''
प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े एक शायर की भाँति उन्होंने शायरी के सामाजिक, राजनैतिक और क्रांतिकारी उद्देश्यों को समझा था। वे जमीनी जुड़ाव के शायर थे। इंकलाब उनका हथियार था, स्वतंत्रता समानता उनकी मंजिल एक नयी सुबह का सपना, एक नये विश्व समाजवाद की परिकल्पना उनकी प्रेरणा थी, पर जब ये सपना टूटता है, साम्प्रदायिक दंगों का कहर बरसता है, इस ना उम्मीदी और अविश्वास के अंधेरे में यह शायर कैसे मायूस होकर भी उम्मीद का दिया जलाये रखता है, इसे सन्‌ ४७ के दंगों की पृष्ठभूमि में लिखी उनकी नज्म ''खानाजंगी'' की पंक्तियों में देखें-''कोई उम्मीद बर नहीं आती/कोई सूरत नजर नहीं आती/सूखती है पड़ोसियों से जान/दोस्तों पर है कातिलों का गुमान/लोग घर से निकलते डरते हैं/रास्ते सायं सांय करते हैं/शहर वीरां है बन्द है बाजार/उड़ता है फिजां में गर्द गुबार/फितरतें शरअ में फसाद नहीं/रहजनी दाखिले जेहाद नहीं/कहके तदबीर बांधकर नीयत/माँओं बहनों की लूट ली इज्जत/गीत गा के महात्माजी के/पेट माँओं के चाक कर डाले/लाश इल्मो अदब की हिकमत की/लाश कल्चर की आदमीयत की।''
इंसानियत की इस दुर्दशा पर शोक व्यक्त करने वाले कैफी इस विषय स्थिति में बिना धैर्य खोये ''खानाजंगी के इस अंधेरे में'' भी ''जल रही है हजार कंदीलें'' कहकर निराशा के अंधेरे में आशा की कंदील जलाते देखे जाते हैं।
वे पूरे विश्वास से कहते हैं- ''फूट की आग हम बुझा देंगे/कत्लो गारतगरी मिटा देंगे।''
एक दूसरी नज्म में भी उनकी इसी जिजीविषा और आशावाद की झलक दिखाई देती है जिसमें बिना तेल बाती के उम्मीद का दिया जल रहा है- ''आया गुस्से का एक ऐसा झौंका/बुझ गये सारे दिये/हाँ मगर एक दिया नाम है जिसका उम्मीद/झिलमिलाता ही चला जाता है।''
एक प्रगतिशील चेतना के इंसान और शायर के लिये यह आवश्यक है कि वह स्वतंत्रता समानता और सहअस्तित्व के सिद्धान्तों पर बुनियादी तौर से यकीन ही न करें बल्कि उन्हें अपनी जिन्दगी का अहम्‌ हिस्सा बनाने का पूरा प्रयास करें। इस संदर्भ में किसी शायर का 'स्त्री विषयक' दृष्टिकोण उसकी जिन्दगी और शायरी में क्या रहा है, यह एक सर्वाधिक आवश्यक व चर्चित बौद्धिक विमर्श है। कैफी के जीवन और शायरी में 'औरत' का स्थान हमेशा बराबरी और संवेदनात्मक साझेदारी का रहा है। उनका अपनी माँ व बहनों से गहरा हमदर्दी भरा संवेदनात्मक (जज्बाती) जुड़ाव, प्रेम विवाह, पुत्र-पुत्री दोनों को समान रूप से फिल्म जगत में काम करने की आजादी आदि बातें उनके जीवन में व्यवहारिक रूप से स्त्री-पुरुष समानता की वकालत करते दिखाई देती है। उनकी शायरी ने भी उसी वक्त जन्म लिया था जब ÷औरत' मर्द के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा ले रही थी। मजाज, ''आँचल को परचम'' बनाने का संदेश देते हैं तो फैज ''पहले सी मुहब्बत न माँग'' कहकर महबूब की नई भूमिका संभालने को कहते हैं पर कैफी ''भारत'' शीर्षक नज्म में उसे उसकी कमजोरियों और गुणों की याद दिलाते हुए अपने साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का आह्‌वान करते हैं- ''उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे/गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए/फर्ज का भेष बदलती है कजा तेरे लिए/कहर है तेरी हरेक नर्म अदा तेरे लिए/जहर ही जहर है दुनिया की हवा तेरे लिए/रूत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे/तू फलातून ओ अरस्तू है तू जोहरा परवी/तेरे कब्जे में है गरइ तेरी ठोकर में जमीं/हा उठा जल्द उठा पाए मुकद्दर से जवीं/मैं भी रुकने का नहीं वक्त भी रूकने का नहीं/उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।''
दुनिया की आधी आबादी (स्त्री) को साथ लिये बिना वास्तविक समाजवाद की कल्पना अधूरी होगी कैफी ये जानते समझते हैं। इसी कारण में वे स्त्री सौन्दर्य के सामंती मानकों की धज्जियाँ उड़ाते हुए उनके सौन्दर्य के समस्त उपादानों को अंधेरे के खिलाफ बगावत के रूप में अपनी नज्म ''नया हुस्न'' में पेश करते हैं जो अधिक प्रामाणिकता, व्यापकता और नयापन लिये हुए है -''ये तेरा पैकरे सीमीं, ये गुलाबी साड़ी/दस्ते मेहनत में शफक बनके उड़ा दी तुझको/जिससे मरहूम है फितरत का जमाले रंगी/तरबियत ने वो लताफत भी सिखा दी तुझको/ये लताफत ये नजाकत, ये अदा ये शोखी/सौ दिये जलते हैं उमड़ी हुई जुलमत के खिलाफ/लबे शादाब पे छलकी हुई गुलजार हंसी/इक बगावत है ये आइने जराहत के खिलाफ।''
कुछ लोग ''अंदेशा'' और ''बेवा की खुदकशी'' जैसे नज्मों के निरीह परम्परागत नारी चित्रण को कैफी की कमजोरी मानते हैं परन्तु वे भूल जाते हैं कि ऐसे संवेदनशील चित्र भी शायर की स्त्री के प्रति गहरी हमदर्दी और जुड़ाव को ही सिद्ध करते हैं।
कैफी ने फिल्मों के लिये भी गीत लिखे पर बिना स्तर गिराये रोमैण्टिक और बगावती दोनों। ये हमारे देश और हमारी व्यवस्था की विडम्बना ही कही जायेगी। जिससे हमारे शायरों को चंद पैसों के लिये, पेट की भूख मिटाने के लिये अपनी कला बेचेनी पड़ती है परन्तु राही और कैफी जैसे शायर फिल्म और बाजार की दुनिया में भी अपने मूल्यों पर टिके रह सके यह भी उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति और जनपक्षधरता का ही जीवन्त प्रमाण है। व्यक्ति और समाज के प्रति उनकी गहरी आस्था का गवाह तो उनका पूरा रचना संसार है। उनकी शायरी और जिन्दगी दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है। वे अपनी शायरी में जिस प्रतिरोध बगावत इंकलाब और सामाजिक बदलाव की बात करते हैं वे उनके निजी जीवन का भी एक हिस्सा रही हैं। छात्र-जीवन में यूनियन बनाने में लगाकर मृत्यु पूर्व अपने पैतृक गाँव मिजवां को आधुनिक रूप से सुविधापूर्ण बनाने के प्रयासों तक उनका सम्पूर्ण जीवन उनके प्रगतिशील विचारों का आइना ही रहा है। ब्रेनट्यूमर व पक्षाघात जैसी बीमारियों से ग्रस्त होने के बावजूद भी न उनकी शायरी की आवाज में कोई कमी आई न उनके संकल्पों का आवेग ही निष्क्रिय हो सका। हाँ कभी-कभी इंसान और समाज की पतनशीलता (गिरावट) देखकर मायूसी में वे अपने सपनों का मोहभंग ईमानदारी से स्वीकार करते हैं - ''मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता/नई जमीन नया आसमां नहीं मिलता/नई जमीन नया आसमां भी मिल जाये/नये बशर का कहीं कुछ निशां नहीं मिलता।''
एक ऐसा शायर जो जिन्दगी भर अपनी शायरी और निजी जिन्दगी की बारीकियों में रोशनी की किरन ढूँढता रहा, आवाम को नये इंकलाब के लिये उकसाता रहा यह वक्त की बेरहमी है कि उम्र के आखिरी मोड़ पर उसे ''बाबरी-मस्जिद'' गिराये जाने जैसी साम्प्रदायिक घटना का गवाह बनना पड़ा। इंसानी एकता और भाईचारे पर यकीन रखने वाले शायर के घायल जज्बातों को हम ''दूसरा बनवास'' जैसी मार्मिक नज्म से पहचान सकते हैं। ये दुर्घटनायें थमती नहीं दिख रही हैं। इनकी अगली कड़ी के रूप में 'गोधरा-कांड व गुजरात नरसंहार' जैसी अमानवीय घटनायें सामने आ चुकी हैं। प्रश्न उठता है हम कैफी जैसे शायरों की प्रासंगिकता पर चर्चा करके ही संतुष्ट होते रहेंगे या उनकी भावनाओं की पीड़ा और सदमों को पूरी संवेदना से महसूस कर कोई सार्थक पहल करेंगे। आज जब भूमण्डलीकरण की आँधी बाजारवाद के साथ धर्म की पुनर्स्थापना का फासीवादी छद्म लेकर अविकसित देशों को आर्थिक उपनिवेश बना रही है, ऐसे में क्या हम उस शायर के विश्वास को जीवित रख सकेंगे जो हमें साझा संस्कृति की विरासत सौंपकर मौत की गहरी नींद में सो गया है पर जाते-जाते हमें हमारा फर्ज याद दिलाना नहीं भूलता-
''कर चले हम फिदा जानोतन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।''
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