विकेश निझावन
एकाएक सर्दी बढ़ आई थी।शायद कहीं आसपास बर्फ पड़ने लगी है।ईश्वर ने खिड़की के ऊपर पड़ी तिरपाल को खिड़की के आगे पलट दिया।इमली हंस पड़ी।बोली- तेरी इस तिरपाल से सर्दी कम हो जाएगी क्या?
-कम क्यों न होगी! ईश्वर जरा गुस्से से बोला- सर्दी कम करने के लिए आदमी और क्या कर सकता है। ओढ़न ही तो ओढ़ सकता है।
-वही तो मैं कह रही हूं।जल्दी से लिहाफ में आ जा।इस वक्त बाहर निकलने का मौसम नहीं है।ओढ़न ओढ़नी है तो अपने ऊपर ओढ़।जरा ठंड ने पकड़ लिया तो यों ही अकड़ जाएगा।
–तुझे भी कुछ न कुछ बोलने की आदत हो गई है।बेमतलब बात करती हो।
-मेरी बातों के मतलब बाद में निकालना।पहले रजाई ओढ़ ले।
ईश्वर सच में कांप रहा था।झट से रजाई में घुस सिकुड़ सा गया।काफी देर तक इमली कुछ न बोली तो उसे ही बोलना पड़ा- अरी इस उम्र में आकर भी तू मेरी बातों पर गुस्सा होने लगती है।
-कैसी बात करते हो! गुस्सा मैं करती हूं या तुम? मैं तो तुम्हारा गुस्सा देखती हुई चुप हो गई।
-तू ठीक कहती है।मुझे सच में अब कभी-कभी बहुत गुस्सा आने लगता है।याद है पिछली बार जब डाक्टर को दिखाया था तो उसने कहा था ब्लड-प्रेशर ज्यादा होने के कारण गुस्सा आने लगता है।
-तुम्हारा डाक्टर तो पागल है जी। ब्लड-प्रेशर बढ़ने से गुस्सा नहीं आया करता।गुस्सा करने से ब्लड-प्रेशर बढ़ता है।इमली ने तर्क किया।
- तू कब से डाक्टरनी बन गई? ईश्वर ने भी सवाल रख दिया।
-जब से तुम मरीज बने हो।इमली खिसिया दी।ईश्वर सब समझता है।इमली आजकल जानबूझ कर उसे तंग करती है।वैसे कभी-कभी ईश्वर को अच्छा भी लगता है।अगर इस बुढ़ापे में इमली खिजियाने वाली स्वभाव की हो जाती तो जीना दूभर हो जाता।ईश्वर तनिक इमली की ओर खिसकता हुआ बोला- तू भी रजाई अच्छी तरह से ओढ़ ले।कहीं फिर सारी रात कल की तरह हाय-हाय करती रह जाए।
-कहां जी वो तो टांग की नस पे नस चढ़ आई थी इसीलिए कराहती रह गई।अब ठीक हूं मैं।
-ठंड से दौबारा नस चढ़ गई तो?
-नहीं अब नहीं चढ़ने की।सबेरे मंगो ने तेल से मालिश कर दी थी।
-शुक है तू ठीक हो गई।नहीं तो रोशन और लाडी को खबर करनी पड़ती।
-खबर काहे की! मैं भला मरने वाली थी क्या?
-अरी इस उम्र में किसी का कोई भरोसा नहीं।लोग तो हंसते-हंसते चल निकलते हैं।तू तो अब सत्तर से ऊपर की होने को आ रही।
-मैं सत्तर से ऊपर की हो रही तुम तो मेरे से सात बरस बड़े हो।
-तो तू सोचती है पहले मैं...
-राम-राम! कैसी बात करते हो जी। मैंने तो ऐसा न कहा न सोचा। जाऊंगी तो पहले मैं ही।पर अभी नहीं।
-जीवन से इतना मोह रखा हुआ है क्या?
-मोह तो रहता ही है।वो भी अपने लिए थोड़े न! बच्चों को कैसे छोड़ सकते हैं हम।और आगे बच्चों के बच्चे...!
इमली दबे से हंसी। उसकी हंसी में कोई खनक न थी।एकाएक ईश्वर बोला- जब बच्चों ने हमें छोड़ दिया तो हम उन्हें क्यों नहीं छोड़ पा रहे? ईश्वर की बात को इमली ने जैसे अनसुना कर दिया। बोली -याद है उस रोज़ छुटकी क्या कह रही थी?
-क्या कह रही थी?
-दोनों बेटियों के संग बड़ी खुश है।
-खुश तो होगी ही। बेटियां जो हैं उसकी।
-उसने एक बात और भी याद दिलाई थी।
-वो क्या?
-कहने लगी जब मैं छोटी थी न अम्मा तू जब भी मुझे बाजार से गुड़िया लेकर देती थी तो मैं अड़ जाती थी कि मुझे एक नहीं दो गुड़ियां चाहिएं।एक हंसने वाली और एक रोने वाली।बस भगवान ने मेरी वही बात सुन ली।अब देखो न अम्मा जब एक हंसती है तो दूसरी रोने लग जाती है।
– अभी बच्चियां जो हुईं।
– हां वही तो। उसकी सास भी बहुत खुश है।
-तो?
अब इमली फिर चुप! ईश्वर फिर परेशान हो आया।अब भला क्या हुआ इसे? उसने कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं कहा।
-तू कुछ सोच रही है क्या? ईश्वर ने ही चुप्पी तोड़ी।
-हां!
-क्या भला?
-अपनी भी तो पहली दो बेटियां ही हुई थीं।
-सो तो!
-तुम्हारी मां ने कैसा विलाप किया था।
-वो जमाना और था।
-हो सकता है! पर शुक परमात्मा का तीसरा श्रवण हो गया।वरना मुझे तो घर निकाला मिल गया होता।और आज यहां पर तुम किसी दूसरी के साथ बैठे इस सर्दी को ताप रहे होते। इस बार इमली की हंसी में खनक थी।
ईश्वर हंस पड़ा।बोला- कितना अच्छा होता एक जन्म में दो मिल जातीं।
-अपने होते तो नहीं आने देनी थी मैंने।इमली जरा कड़क होती बोली।
-तुम्हारे बाद आ जाती।
-फिर मेरे लिए टेसु बहाते होना था तुमने।
ईश्वर समझ नहीं पा रहा था आज इमली कहां की ले बैठी।सहसा बोला- तू ठीक कहती है।पर एक बात तो बता?
-क्या भला?
-तू सोचती है श्रवण के आने से हम सुखी हो गए?
-सुख का तो पता नहीं।खुशी तो हुई थी।अम्मा भी श्वास छोड़ते समय ढेरों बलइयां दे गई थीं।
एकाएक इमली गम्भीर हो आई- कहीं तुमने श्रवण का दिल से तो नहीं लगाया हुआ?
-दिल से लगा कर क्या करूंगा।जब तक जान है तब तक आस है।कभी थोड़ा समय निकाल कर आ जाए तो आंखों को ठंडक मिल जाएगी।
-इमली जैसे पिघल सी गई। बोली- एक बार कह कर तो देखो उसे।
-तू क्या सोचती है मैंने कहा नहीं उसे।ईश्वर तनिक रूआंसा हो आया- पिछले महीने दो बार टैलीफोन पर कह चुका हूं।कहने लगा अब मैं बच्चा नहीं हूं बाऊजी।कितने झमेले हैं मेरे को आप क्या जानें।
ईश्वर खी-खी करके हंसने लगा फिर जैसे अपने आप से ही बोला- कम्बख़त कहता है मैं अब बच्चा नहीं हूं।इतना नहीं समझता बच्चे तो मां-बाप के लिए हमेशा ही बच्चे रहते हैं।
-इस बार देखना मैं कहूंगी तो दौड़ा चला आएगा।इमली ने रिरियाती सी आवाज़ में कहा।
-हांऽऽ! खाक़ दौड़ा चला आएगा।वह तो सिर्फ उसी दिन दौड़ा चला आएगा जिस दिन कोई उसे ख़बर करेगा कि हममें से कोई एक हमेशा के लिए विदा ले गया।
-कैसी बात करते हो जी।अगर मां-बाप बच्चों का सोचते हैं तो बच्चे भी मां-बाप का बराबर सोचते हैं।बस कुछ मजबूरियां होती हैं उनकी।
-मजबूरियां! ईश्वर की आवाज ज़रा दब सी गई थी- कैसी मजबूरियां? ईश्वर अंधेरे में ही अपनी बुझी-सी आंखों से इमली की ओर देखने लगा।
आजकल लड़कों को नौकरी से फुर्सत कहां मिलती है।और फिर लड़के तो बंट जाते हैं न।एक तरफ मां-बाप दुसरी तरफ उनकी अपनी गर-गृहस्थी।किसकी सुनें किसकी न सुनें।
-क्या हम इस दौर से नहीं गुज़रे? ईश्वर की आवाज पूरी तरह से टूटी हुई थी।
-तब जमाना ओर था। अब जमाना बदल गया है।
-जमाना बदला है इन्सान तो वही है।
-इन्सान बदलता है तो जमाना बदलता है न जी।आजकल औरत की भी झेलनी पड़ती है।अंग्रोजी पढ़ी-लिखी औरत होगी तो उसकी माननी तो पडेग़ी न! बस यही सब है अपने श्रवण के साथ। जैसे है चलने दो उन्हें।अपने में वे दोनों खुश हैं।
ईश्वर के पास इस वक्त न कोई सवाल था न कोई जवाब।बस इतना ही कहा- तू इतना अच्छा कैसे सोच लेती है सब?
इमली कुछ नहीं बोली।लेकिन ईश्वर की बात पर कहीं भीतर तक खिल आई थी।
ईश्वर ने जरा करवट बदली- तेरा नाम इमली किसने रखा था?
-अब मैं क्या जानूं! मां-बाप ने ही रखा होगा।
-लेकिन इमली क्यों रखा?
-वही बात आ गई न जी! लड़कियों का पैदा होना तो किसी के गले न उतरता था। बस मैं भी उन्हें गले की फांस ही लगी हूंगी ।
-वैसे तेरा नाम तो बर्फी होना चाहिए था।
-बर्फी! क्यों?
-इमली तो खट्टी होती है न।
-तो मैं क्या मीठी हूं?
-हां!
-छोड़ो न! इस उम्र में ऐसी बातें!
-सर्दी कितनी है बातों से थोड़ी गर्मी आ जाएगी।ईश्वर ने पुनथ इमली की ओर मुंह फेर लिया।रजाई में पूरी तरह से दुबकता सा बोला- लगता है आसपास कहीं बर्फ जोरों से गिरने लगी है। इमली कुछ नहीं बोली। उस पर भी सर्दी का बराबर असर हो रहा था।उसने भी लिहाफ पूरी तरह से ओढ़ लिया।
... ... ...
पुलिस ग्राउंड के सामने अम्बाला शहर-१३४००३ हरियाणा
-कम क्यों न होगी! ईश्वर जरा गुस्से से बोला- सर्दी कम करने के लिए आदमी और क्या कर सकता है। ओढ़न ही तो ओढ़ सकता है।
-वही तो मैं कह रही हूं।जल्दी से लिहाफ में आ जा।इस वक्त बाहर निकलने का मौसम नहीं है।ओढ़न ओढ़नी है तो अपने ऊपर ओढ़।जरा ठंड ने पकड़ लिया तो यों ही अकड़ जाएगा।
–तुझे भी कुछ न कुछ बोलने की आदत हो गई है।बेमतलब बात करती हो।
-मेरी बातों के मतलब बाद में निकालना।पहले रजाई ओढ़ ले।
ईश्वर सच में कांप रहा था।झट से रजाई में घुस सिकुड़ सा गया।काफी देर तक इमली कुछ न बोली तो उसे ही बोलना पड़ा- अरी इस उम्र में आकर भी तू मेरी बातों पर गुस्सा होने लगती है।
-कैसी बात करते हो! गुस्सा मैं करती हूं या तुम? मैं तो तुम्हारा गुस्सा देखती हुई चुप हो गई।
-तू ठीक कहती है।मुझे सच में अब कभी-कभी बहुत गुस्सा आने लगता है।याद है पिछली बार जब डाक्टर को दिखाया था तो उसने कहा था ब्लड-प्रेशर ज्यादा होने के कारण गुस्सा आने लगता है।
-तुम्हारा डाक्टर तो पागल है जी। ब्लड-प्रेशर बढ़ने से गुस्सा नहीं आया करता।गुस्सा करने से ब्लड-प्रेशर बढ़ता है।इमली ने तर्क किया।
- तू कब से डाक्टरनी बन गई? ईश्वर ने भी सवाल रख दिया।
-जब से तुम मरीज बने हो।इमली खिसिया दी।ईश्वर सब समझता है।इमली आजकल जानबूझ कर उसे तंग करती है।वैसे कभी-कभी ईश्वर को अच्छा भी लगता है।अगर इस बुढ़ापे में इमली खिजियाने वाली स्वभाव की हो जाती तो जीना दूभर हो जाता।ईश्वर तनिक इमली की ओर खिसकता हुआ बोला- तू भी रजाई अच्छी तरह से ओढ़ ले।कहीं फिर सारी रात कल की तरह हाय-हाय करती रह जाए।
-कहां जी वो तो टांग की नस पे नस चढ़ आई थी इसीलिए कराहती रह गई।अब ठीक हूं मैं।
-ठंड से दौबारा नस चढ़ गई तो?
-नहीं अब नहीं चढ़ने की।सबेरे मंगो ने तेल से मालिश कर दी थी।
-शुक है तू ठीक हो गई।नहीं तो रोशन और लाडी को खबर करनी पड़ती।
-खबर काहे की! मैं भला मरने वाली थी क्या?
-अरी इस उम्र में किसी का कोई भरोसा नहीं।लोग तो हंसते-हंसते चल निकलते हैं।तू तो अब सत्तर से ऊपर की होने को आ रही।
-मैं सत्तर से ऊपर की हो रही तुम तो मेरे से सात बरस बड़े हो।
-तो तू सोचती है पहले मैं...
-राम-राम! कैसी बात करते हो जी। मैंने तो ऐसा न कहा न सोचा। जाऊंगी तो पहले मैं ही।पर अभी नहीं।
-जीवन से इतना मोह रखा हुआ है क्या?
-मोह तो रहता ही है।वो भी अपने लिए थोड़े न! बच्चों को कैसे छोड़ सकते हैं हम।और आगे बच्चों के बच्चे...!
इमली दबे से हंसी। उसकी हंसी में कोई खनक न थी।एकाएक ईश्वर बोला- जब बच्चों ने हमें छोड़ दिया तो हम उन्हें क्यों नहीं छोड़ पा रहे? ईश्वर की बात को इमली ने जैसे अनसुना कर दिया। बोली -याद है उस रोज़ छुटकी क्या कह रही थी?
-क्या कह रही थी?
-दोनों बेटियों के संग बड़ी खुश है।
-खुश तो होगी ही। बेटियां जो हैं उसकी।
-उसने एक बात और भी याद दिलाई थी।
-वो क्या?
-कहने लगी जब मैं छोटी थी न अम्मा तू जब भी मुझे बाजार से गुड़िया लेकर देती थी तो मैं अड़ जाती थी कि मुझे एक नहीं दो गुड़ियां चाहिएं।एक हंसने वाली और एक रोने वाली।बस भगवान ने मेरी वही बात सुन ली।अब देखो न अम्मा जब एक हंसती है तो दूसरी रोने लग जाती है।
– अभी बच्चियां जो हुईं।
– हां वही तो। उसकी सास भी बहुत खुश है।
-तो?
अब इमली फिर चुप! ईश्वर फिर परेशान हो आया।अब भला क्या हुआ इसे? उसने कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं कहा।
-तू कुछ सोच रही है क्या? ईश्वर ने ही चुप्पी तोड़ी।
-हां!
-क्या भला?
-अपनी भी तो पहली दो बेटियां ही हुई थीं।
-सो तो!
-तुम्हारी मां ने कैसा विलाप किया था।
-वो जमाना और था।
-हो सकता है! पर शुक परमात्मा का तीसरा श्रवण हो गया।वरना मुझे तो घर निकाला मिल गया होता।और आज यहां पर तुम किसी दूसरी के साथ बैठे इस सर्दी को ताप रहे होते। इस बार इमली की हंसी में खनक थी।
ईश्वर हंस पड़ा।बोला- कितना अच्छा होता एक जन्म में दो मिल जातीं।
-अपने होते तो नहीं आने देनी थी मैंने।इमली जरा कड़क होती बोली।
-तुम्हारे बाद आ जाती।
-फिर मेरे लिए टेसु बहाते होना था तुमने।
ईश्वर समझ नहीं पा रहा था आज इमली कहां की ले बैठी।सहसा बोला- तू ठीक कहती है।पर एक बात तो बता?
-क्या भला?
-तू सोचती है श्रवण के आने से हम सुखी हो गए?
-सुख का तो पता नहीं।खुशी तो हुई थी।अम्मा भी श्वास छोड़ते समय ढेरों बलइयां दे गई थीं।
एकाएक इमली गम्भीर हो आई- कहीं तुमने श्रवण का दिल से तो नहीं लगाया हुआ?
-दिल से लगा कर क्या करूंगा।जब तक जान है तब तक आस है।कभी थोड़ा समय निकाल कर आ जाए तो आंखों को ठंडक मिल जाएगी।
-इमली जैसे पिघल सी गई। बोली- एक बार कह कर तो देखो उसे।
-तू क्या सोचती है मैंने कहा नहीं उसे।ईश्वर तनिक रूआंसा हो आया- पिछले महीने दो बार टैलीफोन पर कह चुका हूं।कहने लगा अब मैं बच्चा नहीं हूं बाऊजी।कितने झमेले हैं मेरे को आप क्या जानें।
ईश्वर खी-खी करके हंसने लगा फिर जैसे अपने आप से ही बोला- कम्बख़त कहता है मैं अब बच्चा नहीं हूं।इतना नहीं समझता बच्चे तो मां-बाप के लिए हमेशा ही बच्चे रहते हैं।
-इस बार देखना मैं कहूंगी तो दौड़ा चला आएगा।इमली ने रिरियाती सी आवाज़ में कहा।
-हांऽऽ! खाक़ दौड़ा चला आएगा।वह तो सिर्फ उसी दिन दौड़ा चला आएगा जिस दिन कोई उसे ख़बर करेगा कि हममें से कोई एक हमेशा के लिए विदा ले गया।
-कैसी बात करते हो जी।अगर मां-बाप बच्चों का सोचते हैं तो बच्चे भी मां-बाप का बराबर सोचते हैं।बस कुछ मजबूरियां होती हैं उनकी।
-मजबूरियां! ईश्वर की आवाज ज़रा दब सी गई थी- कैसी मजबूरियां? ईश्वर अंधेरे में ही अपनी बुझी-सी आंखों से इमली की ओर देखने लगा।
आजकल लड़कों को नौकरी से फुर्सत कहां मिलती है।और फिर लड़के तो बंट जाते हैं न।एक तरफ मां-बाप दुसरी तरफ उनकी अपनी गर-गृहस्थी।किसकी सुनें किसकी न सुनें।
-क्या हम इस दौर से नहीं गुज़रे? ईश्वर की आवाज पूरी तरह से टूटी हुई थी।
-तब जमाना ओर था। अब जमाना बदल गया है।
-जमाना बदला है इन्सान तो वही है।
-इन्सान बदलता है तो जमाना बदलता है न जी।आजकल औरत की भी झेलनी पड़ती है।अंग्रोजी पढ़ी-लिखी औरत होगी तो उसकी माननी तो पडेग़ी न! बस यही सब है अपने श्रवण के साथ। जैसे है चलने दो उन्हें।अपने में वे दोनों खुश हैं।
ईश्वर के पास इस वक्त न कोई सवाल था न कोई जवाब।बस इतना ही कहा- तू इतना अच्छा कैसे सोच लेती है सब?
इमली कुछ नहीं बोली।लेकिन ईश्वर की बात पर कहीं भीतर तक खिल आई थी।
ईश्वर ने जरा करवट बदली- तेरा नाम इमली किसने रखा था?
-अब मैं क्या जानूं! मां-बाप ने ही रखा होगा।
-लेकिन इमली क्यों रखा?
-वही बात आ गई न जी! लड़कियों का पैदा होना तो किसी के गले न उतरता था। बस मैं भी उन्हें गले की फांस ही लगी हूंगी ।
-वैसे तेरा नाम तो बर्फी होना चाहिए था।
-बर्फी! क्यों?
-इमली तो खट्टी होती है न।
-तो मैं क्या मीठी हूं?
-हां!
-छोड़ो न! इस उम्र में ऐसी बातें!
-सर्दी कितनी है बातों से थोड़ी गर्मी आ जाएगी।ईश्वर ने पुनथ इमली की ओर मुंह फेर लिया।रजाई में पूरी तरह से दुबकता सा बोला- लगता है आसपास कहीं बर्फ जोरों से गिरने लगी है। इमली कुछ नहीं बोली। उस पर भी सर्दी का बराबर असर हो रहा था।उसने भी लिहाफ पूरी तरह से ओढ़ लिया।
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