- प्रो० रामदेव शुक्ल
देखिए डॉक्टर ! आप भले आदमी है, और अच्छे डॉक्टर । मैं आपके संपर्क में एक महीने से हूँ । आपने क्या कोई ऐसा लक्षण मुझमें देखा कि मैं सिजोफ्रेनिया या ऐसे किसी रोग से पीड़ित हूँ?
ओह नो ! आप ही बताइए, ऐसा मैंने कभी कुछ कहा आपसे? डॉक्टर प्रेम ने जवाब दिया।
'तब आप मेरा किस बात का इलाज कर रहे हैं?'
'इलाज कहाँ कर रहा हूँ ? आपको कोई दवा, इंजेक्शन, कोई ट्रीटमेन्ट कभी दिया? जनरल टॉनिक और नींद आने में मदद करने वाली एक टेबलेट । इससे बहुत ज्यादा दवाइयाँ तो आजकल वे लोग खाते रहते हैं जो अपने को बिल्कुल ठीक समझते हैं ।' डॉक्टर की बात पूरी होते ही दोनों हँस पडे ।
वैभव की हँसी थमी तो उन्होंने कहा, 'लेकिन इतना तो सच है न कि एक महीन से मैं आपके नर्सिंग होम में हूँ और आप मेरे किसी रोग के बारे में खोज कर रहे हैं ।'
'इतना तो सच है । लेकिन इसी के साथ इतना सच और भी है कि आप जैसे कैरियर वाले युवक को इस तरह नहीं रहना चाहिए ।' डॉक्टर ने गंभीरता के साथ कहा ।
'यानी तुरन्त नौकरी, शादी, बच्चों, प्रोमोशन के दुश्चक्र में जुट जाऊँ? ऐसा करूँ तभी नार्मल माना जाऊँ?' हल्के आक्रोश के साथ वैभव ने पूछा ।
'लोग तो ऐसा ही मानते हैं ।' इसी को सामाजिक मान्यता प्राप्त है । हर माँ बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा सफल जीवन बिताए ।' डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा ।
'डॉक्टर साहब! मैं सफल की तुलना में सार्थक जीवन जीना चाहता हूँ ।' दृढ़ निश्चय के साथ वैभव ने कहा । 'और उसी सार्थकता के साथ खोज में जब सबसे पहले अपने अस्तित्व पर विचार करता हूँ तो जानते हैं, क्या पाता हूँ?' - वैभव निःसंकोच बोलते गये - ÷मैं ज्यों-ज्यों समझने बूझने लायक होता गया, कुछ सपने मुझे लगभग रोज आने लगे । उनमें सबसे ज्यादा डरावना वह सपना है, जिसमें मुझे लगता है कि मैं जन्म लेना चाहता हूँ और मुझे बाहर से ठेलकर रोक दिया जा रहा है । दूसरा डरावना सपना है - मैं पाखाने पेशाब में लिथड़ा पड़ा हूँ । बराबर निकलने की कोशिश करता हूँ, बदबू से दम घुटता रहता है, मगर उस गंदगी से छूट नहीं पाता। सपने और भी आते हैं, एक से एक डरावने, किन्तु ये दोनों सपने बार-बार आते हैं । इनसे घिरकर पसीन-पसीने हो जाता हूँ । जब नींद खुलती है, थोड़ी राहत मिलती है, यह जानकार कि चलो सपना ही था, खतम हो गया । इन सपनों और अपने माँ बाप के साथ अपने संबंध को देखता हूँ तो समझ में आता है कि नफरत और हिंसा से ही मेरे अस्तित्व की रचना हुई है । आप क्या चाहते हैं कि आगे भी यही क्रम चलता रहे?
'इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि आप जैसा जीनियस सार्थक जीवन की तलाश करे, मगर अभी हाल यह है कि एक हफ्ते से आप सोये नहीं हैं । मैं चाहता हूँ, आपका खाना-सोना कुछ नार्मल हो जाये तब आगे के प्रोग्राम बनाएँ।'
बाहर कुछ आहट हुई । डॉक्टर प्रेम बाहर गये और तुरन्त एक वृद्ध को साथ लेकर लौट आए ।
(२)
अस्सी वर्षीय वृद्ध की आँखे झरने लगीं । डॉक्टर प्रेम परेशान हो गये । उन्होंने अपने पिता की उम्र से बडे बुजुर्ग के आँसू पोंछ डाले । उनके दोनों हाथों को अपनी हथेलियों के बीच दबाकर उन्हें सहलाते रहे । वृद्ध की रूलाई रूकी । उन्होंने डॉक्टर की आँखों में सीधे देखकर पूंछा, 'बताओ डॉक्टर ! क्या हुआ है मेरे पोते को? बच्चे को बचा लोगे न?
डॉक्टर प्रेम अपने नाम को सार्थक करते हैं मरीजों के साथ । जो उनको दिखाकर जाता है, वही कहता है कि आधी बीमारी तो इस डॉक्टर से बात करते ही ठीक हो जाती है । डॉक्टर से जब उनकी इस खूबी की तारीफ़ की जाती है तो वे कहते हैं, 'इसमें कोई खास बात नहीं। मैंने माँ बाप, दादा-दादी, नाना-नानी, किसी के प्रेम का स्पर्श कभी नहीं पाया । अनाथालय में पला, बढ़ा उपन्यासों और कहानियों में पढ़कर जाना कि माँ का प्यार ऐसा होता है, पिता का प्यार वैसा । नाना-नानी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं । दादा-दादी तो बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहते हैं।' यह सब मेरे लिये सपने की बातें हैं ।'
यह सब कहते हुए डॉक्टर प्रेम अचानक कहीं खो जाते हैं । आँखे सामने देखती हुई भी कहीं नहीं देखती, कुछ नहीं देखतीं । कुल पल बाद लौटकर सामने वाले को बताते हैं - 'मैं डॉक्टर क्यों बना, बताऊँ? सोचता था कि डॉक्टर बन जाऊँगा तो सब लोग मेरे पास आयेंगे । उनको अच्छा कर दूँगा तो प्यार करेंगे मुझसे । बूढ़ों में कोई मेरा दादा निकल आयेगा कोई नाना।'
'अच्छा, आप बताइये, मेरे दादा हैं या मेरे नाना? 'इतनी मासूमियत के साथ डॉक्टर ने पूछा कि पलभर पहले हिचकियाँ ले-लेकर रोने वाले वृद्ध सुदर्शन जी हँस पडे+ । डॉक्टर प्रेम ने कहा - 'आप अपने पोते को देख रहे हैं? कितनी गहरी नींद में सो गया? एक हफ्ते से बिल्कुल नहीं सो रहा था । आपने इनका माथा सहलाया, तभी इनके चेहरे का भाव बदल गया । आपके स्पर्श में कोई जादू है क्या?'
'क्यों नहीं सो पा रहा था? कुछ कारण समझ में आता है डॉक्टर?' सुदर्शन जी व्यग्र हो गये। बोले, 'कारण पता चल जाये तो कुछ उपाय करूँ ।'
डॉक्टर प्रेम गंभीर हो गये । अनायास उनके मुँह से निकल पड़ा - 'दादा जी!' तुरन्त झेप कर चुप हो गये । सुदर्शन जी ने उनके असमंजस को समझ लिया, तुरन्त बोल पडे, 'हाँ बेटा! तुमने तो खुद ही पक्का कर लिया कि मैं तुम्हारा दादा ही हूँ । बोलो ! और हाँ आगे से मैं भी तुम्हें न डॉक्टर कहूँगा, न आप । तुम प्रेम हुए । मैं हुआ तुम्हारा दादा । अब बताओ इस नौजवान को किस बात की इतनी बेचैनी है कि ये सो नहीं पा रहा है ।'
दादा को इस तरह पा लेने की खुशी डॉक्टर प्रेम की आँखों से चमकने लगी । कोई और समय होता तो बच्चा बनकर दादा जी के साथ खेलने लग जाते, पर बीस-बाईस वर्ष के युवक के रोग की पहचान कर रहे हैं, उसकी गंभीरता ने उन्हें चिन्तित बनाये रखा । कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने याद करते हुए - 'दादा जी! पहली बात तो यह कि आजकल कौन सा नौजवान परेशान नहीं है? सबकी अपनी-अपनी परेशानियाँ हैं । किसी को रोजगार की परेशानी है, किसी को प्रेम प्यार की । कोई अपने माँ-बाप से परेशान है, कोई......।'
'ठहरो बेटा ।' सुदर्शन जी ने डॉक्टर को बीच में ही रोक दिया । डॉक्टर कुछ समझ न सके। चुप हो रहे । सुदर्शन जी ने कुछ धीमी आवाज में कहा - 'तुम इसके माँ-बाप से मिले हो?'
'माँ से तो कभी नहीं मिला । इनके पापा इन्हें लेकर यहाँ आये थे । इनके कुछ मेडिकल टेस्ट रिपोर्ट और प्रेस्क्रिप्संस दे गये । कह गये कि फिक्र न करें । बस बच्चे को ठीक कर दें। उन्होंने दस हजार रूपये एडवांस जमा कर दिये और चले गये । रोज एक बार फोन करके पूछते हैं कि कैसा चल रहा है? कल जब मैंने उन्हें बताया कि कई दिन से वे जाग रहे हैं और कभी-कभी कुछ बहकने लगे हैं तो उन्होंने बताया कि मेरे पिता जी गाँव से आ रहे हैं । उनको बहुत मानता है । वो पोते को बहुत प्यार करते हैं । उनके आने का असर जरूर होगा ।'
डॉक्टर चुप हो गये यह देखकर कि सुदर्शन जी की आँखें फिर उमड़ पड़ीं । डॉक्टर ने इतने वृद्ध को कभी इस तरह बिलख कर रोते न देखा हो, यह बात नहीं मगर दर्द से छटपटाते हुए का बिलखना, चीखना या फूट-फूट कर रोना कुछ और होता है । इन वृद्ध का इस तरह आँसू बहाना कुछ और तरह का है, खासतौर से तब जब इनको कोई शारीरिक कष्ट नहीं है । मन ही मन डॉक्टर प्रेम अपनी भूल सुधारने लगे, सबसे ज्यादा रूलाने वाली तो मन की पीड़ा ही होती है, उसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं । अपने को मन की अगम अतल गहराई वाली दुनिया में खींचकर बाहर ले आने के बाद डॉक्टर ने कहा, वैभव अपने मम्मी पापा के साथ नहीं रहते, यह आपको मालूम है दादा जी?
'बेटा ! वह तो कभी नहीं रहा । कह सकते हो कि उन दोनों ने कभी इसे अपने पास रहने ही नहीं दिया ।' सुदर्शन जी इतनी बात कहकर चुप हो गये, जैसे थक कर पस्त हो गये हों। डॉक्टर को लगा, दादा जी से बात करके अपने रोगी के मन की गाँठे खोलने में उन्हें सफलता मिलेगी । आगे सुनने की उत्सुकता आंखों में भरकर डॉक्टर प्रेम ने वैभव (और अब अपने भी) दादा जी की ओर देखा।'
'जब यह बच्चा सात महीने का था तो गाँव से मैं इसे देखने आया था ।' पूरे चौबीस घंटे रेल का सफर करके पहुँचा था । साथ में तुम्हारी दादी भी थी । उन्होंने चाहा था कि बच्चे की पैदाइश गाँव में हो, मगर मेरे बेटे बहू को गाँव जहर लगता था । दोनों ने साफ मना कर दिया। हम लोग भी शहर के बड़े अस्पतालों और बड़े डॉक्टरों की बात सुनकर चुप हो गये । पोता हुआ है सुनकर जो खुशी हुई उसका जश्न गाँव में मनाते हुए हम दोनों चिट्ठी पर चिट्ठी लिखते रहे कि दो चार दिन के लिये बच्चे को लेकर चले आओ । कई बार तार दिया । उन दिनों आज की तरह फोन की सुविधा नहीं थी । चिट्ठी और तार से ही अपनी बात कह सकते थे। सात महीने बीतने पर भी जब हम लोगों की बात नहीं सुनी तो मन मारकर पोते का मुँह देखने शहर आये । जानते हो क्या हुआ?' प्रश्न करके झटके से सुदर्शन जी रूक गये ।
'क्या हुआ ?' डॉक्टर ने तुरन्त पूछा जैसे कहानी सुनते बच्चे कहानी के किसी नये मोड़ पर चौंककर पूछते हैं, 'तब क्या हुआ?'
आगे की घटना बताने से पहले वृद्ध का चेहरा तमतमा गया । कुछ देर वे बीस-इक्कीस साल पहले से पक रहे गुस्से से बाहर आने की कोशिश करते रहे । सम्हलने में वक्त लगा । फिर बताया कि जब वे लोग शहर पहुँचे तो पता चला कि उनका पोता तो वहाँ है ही नहीं । 'कहाँ है?' पूछने पर जवाब मिला कि वह तो चार महीने का था, तब से अपनी नानी के पास रहता है । बुढ़िया तो बिफर उठी । पूछा, 'वहाँ दूध किसका पीता है? और तू कैसी माँ है । इतने छोटे बच्चे को कलेजे से चिपका कर रखे बिना तुझे नींद कैसे आती है?' सास की कड़वी बात का जवाब न देना पडे इसलिये बहू उठकर यह कहती हुई बाथरूम चली गयी कि मुझे आफिस पहुंचने में देर हो जायेगी । हमारा बेटा उससे बड़ा अफसर ठहरा । उसे भी आफिस जाने की जल्दी थी, मगर वह रूककर हम दोनों को यह समझाता रहा कि बच्चे को माँ-बाप से अलग करना वह भी नहीं चाहता था । लेकिन उनके चाहने से क्या होता ? पालना तो माँ को ही था और वह न उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, न रात में जाग-जागकर उसके गीले कपड़े बदलने को तैयार थी । उसने अपनी माँ से बात की । उन्होंने भी समझाने की कोशिश की - 'इतना छोटा बच्चा सबसे ज्यादा माँ की गोद में ही सुखी रह सकता है । कम से कम सालभर पाल लो, उसके बाद कहोगी तो मैं इसे अपने पास ले जाऊँगी ।' वह अपनी माँ की बात भी नहीं मानी । रोने धोने लगी तो माँ को ले जाना पड़ा ।
सुदर्शन जी की साँस फूलने लगी । डॉक्टर प्रेम देख पा रहे थे कि बच्चे के साथ हुए अन्याय की बात करते-करते उनका क्रोध बार-बार फुफकार उठता था । सामने बैठे वृद्ध की तकलीफ भी वे समझ पा रहे थे, साथ ही यह भी समझ रहे थे कि वैभव के बचपन की बातें विस्तार से जानबूझ कर ही उसका सही निदान और उपचार कर पायेंगे । उन्होंने कोमलता के साथ पूछा- 'तब क्या हुआ दादा जी?' संबोधन से खिल उठे सुदर्शन जी ने बताया कि उसी दिन हम दोनों लौट आए । ऐसे बेटे बहू के पास रहना पाप जैसा लगा । घर लौट आने के बाद से ही वृद्धा की भूख कम होने लगी । रात-दिन माँ से अलग कर दिये गये पोते के बारे में सोचती और कलपती रहती । फिर एक प्रोग्राम बनाया गया कि बच्चे को देखने के लिये उनके ननिहाल ही चले चलते हैं । एक दिन हम दोनों वहाँ पहुँचे गये । समधी-समधिन को आश्चर्य हुआ, खुशी भी हुई । हम लोग बच्चे को देखने इतनी दूर से चलकर आये । बच्चा झूले में पड़ा हुआ था और लगातार रोये जा रहा था । उसकी नानी बूढ़ी और कमजोर । घर में उनके पति उनसे भी बूढ़े । उनके बेटे-बेटी अपनी-अपनी गृहस्थी अलग शहरों में जमाये हुए । कभी कभार आकर देख लेने या चिट्ठी-पत्री से हालचाल ले लेने से ज्यादा कोई संबंध नहीं ।
सुदर्शन जी ठहरे । अपने आप उन्होंने कहा, 'ठीक वैसे ही जैसे हमारे साहबजादे हमारी खबर लेते हैं । अब जमाना ही ऐसा हो गया है तो कोई क्या कर सकता है?' वे बेचारे बूढ़ा-बूढ़ी इतने छोटे बच्चे को अकेले अपने दम पर पाल रहे थे यही बहुत था । डॉक्टर प्रेम व्यग्र हो उठे । कथारस से अधिक उनको अपने मनोरोगी के अतीत में झाँकने का मौका मिल रहा था । उन्होंने पूछ लिया - दादा जी! बच्चा लगातार रोता क्यों जा रहा था ?
वृद्ध सुदर्शन जी फिर भावुक हो गये । उन्होंने बताया जब किसी तरह पुचकारने, गोद में लेने, हिलाने-डुलाने, मुँह से दूध की बोतल लगाने से बच्चे को रोना नहीं रूका तो तुम्हारी दादी ने उसकी कमर पर लिपटे मोटे प्लास्टिक को देखा । वह कमर में और दोनों जांघों में इस तरह कसकर फिट था कि कहीं से हवा तक अंदर बाहर नहीं आ जा सकती थी । गर्मियों के दिन थे । उसकी नानी से पूछा - 'यह क्या है? और क्यों बाँधा गया है?' बच्चे की नानी ने बताया कि बच्चा बार-बार पेशाब-पखाना करता रहता है । मैं अकेली बूढ़ी औरत ठहरी । दिन भर कहाँ तक धोती रहूँ । इसलिये बाँध दिया है । एक बार सवेरे खोलकर साफ कर देती हूँ और दूसरा बाँध देती हूँ । एक बार शाम को बाँध देती हूँ ।' तुम्हारी दादी ने तुरन्त बच्चे के ईद-गिर्द लिपटा प्लास्टिक नोंचकर फेंका, उसके नीचे रूई जैसा कुछ था, बच्चे के टट्टी पेशाब से चिपटा हुआ। उसे एक ओर फेंककर तुम्हारी दादी ने बच्चे को नहलाया। उसे पोंछकर ज्योंही उन्होंने अपने कंधे पर रक्खा, बच्चा सो गया और घंटों सोता रहा ।
तुम्हारी दादी रोती जाती थी और अपने भाग्य को कोसती जाती थी । वृद्धा रिश्ते में समधिन ठहरीं । उनसे उनकी या उनकी बेटी की शिकायत किस तरह करतीं ? समधिन सब कुछ समझ रही थीं । और बार-बार अपने बुढ़ापे को कोस रही थीं । साथ-साथ यह भी कहती जाती कि मेरी बेटी पागल है जो इतने छोटे बच्चे को अपने से अलग रख रही है। बिलख कर उन्होंने कहा, मैं अपनी कोखजायी औलाद से हार गयी हूँ ।' एक बार तो उन्होंने यह भी कह दिया कि हमारा जमाई भी तो वैसा ही है । नहीं तो बीबी की इस तरह गुलामी क्यों करता ? वह भी नहीं चाहता था कि बच्चे को माँ से अलग किया जाये, मगर मेरी बेटी के आगे वह बोल कहाँ पाता है ।' अपने बेटे के बारे में सुनकर माँ-बाप को कैसा लगा होगा, यह सोच सकते हो ।' कहकर सुदर्शन जी दर्द भरी मुस्कान में बदल गये ।
डॉक्टर प्रेम ने उत्सुकता जतायी - 'फिर क्या हुआ दादा जी? क्या आप लोग बच्चे को साथ ले आये?' सुदर्शन जी आहत स्वर में बोले, 'ले जाना चाहते थे। एक महीने तक वहीं रह गये। इस बीच तार देकर बेटे बहू से पूछा गया कि बच्चे को लेकर गाँव जाना चाहते हैं, क्यों क्या करें!' उधर से कोई जवाब नहीं आया । अपने मन में भी डरने लगे कि शहरी हवा में जन्मा बच्चा गाँव में पता नहीं कैसे रहे । कुछ हो जाये और गाँव कस्बे के डॉक्टर न सम्भाल पाये तो हम कौन सा मुँह दिखायेंगे । कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि एक दिन बातचीत में एक उपाय सूझ गया । मैं अपने समधी से कह रहा था कि कोई दाई मिल जाती तो बच्चे को सम्भालती । जवाब में उन्होंने दाई की तनखाह की समस्या जताई । तुरन्त मैंने कहा कि दाई की व्यवस्था कीजिये उसकी तनखाह मैं हर महीने मनीआर्डर से भेज दिया करूँगा । कुछ संकोच के साथ वे लोग तैयार हो गये । दाई आई । तनखाह पक्की हुई । मैंने एक महीने का एडवांस दिया और कह दिया कि हर महीने भेजता रहूँगा । मेरी पत्नी ने दाई के सामने एक शर्त रखी कि बच्चे का टट्टी पेशाब तुरन्त धोना होगा । उसकी कमर में प्लास्टिक नहीं चढ़ेगा । वह मान गयी । हम लोग लौट आये । तब से दो साल तक पैसे भेजते रहे ।
बच्चा दाई के हाथ पलता रहा । कभी-कभी चिट्ठी के साथ लिफाफे में उसकी फोटो आ जाती ।
इस बीच बेटे ने मेरे पास आने या चिट्टी लिखने की कभी जरूरत नहीं समझी । एक दिन समधी जी की चिट्ठी मिली कि दाई के लिये पैसे न भेंजे । बच्चे को उसके माँ-बाप अपने पास ले गये हैं । हम लोग मन ही मन सोचते रहते कि अब वह ढाई साल का हो गया, अब तीन का हो गया और कल्पना करते रहते कि ऐसे बोलता होगा, वैसे चलता होगा । देखने को आँखें तरस रही थीं ।
अपने बेटे-बहू के पास जाने की हिम्मत नहीं होती थी । समधी जी को चिट्ठी लिखकर पूछा कि बच्चा कैसा है और कहाँ है, तो जवाब मिलता कि दिन भर बच्चों को सम्हालने और खेल सिखाने वाली किसी दुकान में रहता है । उस दुकान को क्रेच कहा जाता है । मेरे बेटे-बहू की तरह काम पर जाने वाले साहब, मेम लोग अपने बच्चों को दिन भर वहीं छोड़कर आते हैं । इसके लिये मोटी रकम देनी पड़ती है ।
धीरे-धीरे हम लोग बच्चे के आकर्षण से छूटते गये । अनुभव इसी को तो कहा जाता है कि जिस अभाव या दुख का इलाज न हो, उसे सहन करते हुए जीने की अदात डाल ली जाये । बाद में पता चला कि बच्चे को ऐसे स्कूल में डाल दिया गया है, जो बोर्डिंग स्कूल कहलाता है। बच्चे की देखभाल से लेकर उसके खाने-पहनने, दवा-पानी, खेलकूद और पढ़ाई-लिखाई सबके लिये पैसे भरने होते हैं । ऐसे स्कूलों में वे ही लोग अपने बच्चों को भेजते हैं, जिनके पास बहुत पैसे होते हैं।' गहरी साँस छोड़ते हुए सुदर्शन जी चुप हो गये ।
'एक बात और दादा जी!' डॉक्टर प्रेम ने वैसी ही गहरी साँस छोड़कर भारी गले में कहा, मैं समझता था कि मैं ही अभागा हूँ जिसने कभी माँ-बाप का स्पर्श नहीं पहचाना । अब समझता रहा हूँ कि आपके पोते वैभव की तरह बहुत से बच्चे ऐसे होते हैं जिनके माँ बाप के पास धन तो होता है, वह प्यार नहीं होता जो वे बच्चे को दे पाते । उनके भाग्य में प्यार का वह अमृत भी नहीं होता, जो बच्चों से माँ बाप को मिलता है ।' डॉक्टर चुप हो गये । वृद्ध सुदर्शन जी पहले से ही चुप थे । कुछ देर दोनों वैसे ही शब्दहीन बैठे रहे । दोनों के भीतर अपने-अपने भोगे हुए अनकहे दुखों का हाहाकार मचल रहा था । दोनों अपने-अपने अनुभव के आलोक में वैभव के मन को समझने की कोशिश कर रहे थे ।
(३)
वैभव इतनी गहरी नींद सोने के बाद स्वस्थ और तरोताजा हो गये । डॉक्टर बोले, 'आज आपको बहुत अच्छी नींद आई? 'हाँ डॉक्टर साहब । याद नहीं, कब से इतनी अच्छी तरह नहीं सोया था । आपने नींद की कोई दवा दी थी क्या? डॉक्टर ने सिर झटकते हुए इनकार किया -नहीं, नहीं कोई दवा नहीं दी थी । आप अपने आप सो गये । आप के दादा जी आये । वे कुछ देर आपका माथा सहलाते रहे । और देखते-देखते आप गहरी नींद में चले गये ।
'कहाँ है बाबा?' कुछ चौंकते हुए वैभव ने पूछा । कुछ धुँधली छाया की तरह बाबा के आने की याद आई । बहुत कम देखा है उन्हें, पर जिसे घरवालों का प्यार जैसा कुछ कहा जाता है, उसका आभास उन्हीं के पास रहने पर होता है ।' 'मैंने अपने घर पहुँचा दिया है । आप गहरी नींद में थे । मैंने उनसे कहा कि चलकर नहा धो लें, नाश्ता कर लें । वैभव के जागते ही मैं आपको बुला लूँगा । कहिये तो अब बुला लाऊँ?' डॉक्टर ने पूछा ।
डॉक्टर का घर और नर्सिंग होम एक दूसरे से लगे हुए हैं । डॉक्टर का नौकर उनके घर का काम करता है । खाना बनाने खिलाने से लेकर घर की देखभाल सब उसी के जिम्मे । सुदर्शन जी अपने बेटे बहू के घर न जाकर सीधे चिट्ठी में लिखा पता पढ़कर नर्सिंग होम चले आये थे । डॉक्टर प्रेम ने बहुत आग्रह करके वैभव के सो जाने के बाद उनको नहाने खाने के लिये तैयार किया था । वैभव नर्सिंग होम के कमरे में रहते थे । डॉक्टर की बात पर हाँ कहने के साथ ही वैभव ने कहा, 'यहाँ मत बुलाइए । चलिए मैं भी वहीं चलता हूँ । मुझे ऐसी कोई बीमारी तो है नहीं कि चल फिर न सकूँ।'
डॉक्टर ने हँसते हुए कहा, 'यह तो और अच्छी बात है । वहीं चलते हैं । रही बीमारी होने की बात तो असलियत यह है कि आप बीमार हैं ही नहीं । कभी-कभी बहुत सोचने के कारण कुछ तनाव आ जाते हैं। ' वैभव की भौंहे सिकुड़ने को हुईं किन्तु वे सहज बने रहे । दोनों सुदर्शन जी के पास आ गये । उन्होंने भोजन कर लिया था और नौकर से कह रहे थे कि जाकर देख आओ वैभव जगे कि नहीं ।
दादा जी को देखकर वैभव कुछ पल ठिठके रह गये । दादाजी कुर्सी से उठते, उससे पहले ही वैभव उनकी गोद में गिरकर उनसे चिपट गये । डॉक्टर प्रेम की आँखें उमड़ने लगीं । वे चुपचाप एक कुर्सी पर बैठकर वह दृश्य देखने लगे जो उनके अपने जीवन में कभी नहीं आया था ।
सुदर्शन जी गोद में दुबके पोते की पीठ सहलाते रहे । वैभव दोनों बाँहों से दादा जी की कमर को घेरकर मुँह उनकी गोद में छिपाये रहे । बहुत देर बाद दादाजी ने वैभव को उठाकर सीधा बैठा दिया । अब दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे थे । दोनों के मुख पर सुख और संतोष छलक पडे थे । डॉक्टर प्रेम ने वैभव को इतना शांत कभी नहीं देखा था ।
वैभव का चेहरा हल्का सा बदला । उन्होंने दादा जी से सीधा सवाल किया 'दादा जी! मैं आपका बेटा क्यों नहीं हुआ?' हँसकर सुदर्शन जी ने कहा, 'तुम हमारे बेटे ही तो हो ।' 'नहीं दादा जी! आपके और मेरे बीच जो दो आदमी हैं, जिन्हें मेरा माँ-बाप कहा जाता है, उनको तो कोई बच्चा चाहिए ही नहीं था ।'
हाँफ गये वैभव । चुप हो गया । आँखें बंद करके निष्पंद पड़ गये । डॉ० प्रेम ने सुदर्शन जी को बताया, क्रोध और हिंसा से जलते रहते हैं । माँ-बाप की शक्ल नहीं देखना चाहते । पहले उन लोगों की जो भी गलती रही हो, अब तो बेचारे पछता रहे हैं ।
सुदर्शन जी इतना कहकर खामोश हो गये, 'अपना और बच्चों का जीवन बरबाद करने के लिये क्या ऐसी एक ही ग़लती काफी नहीं होती?
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ओह नो ! आप ही बताइए, ऐसा मैंने कभी कुछ कहा आपसे? डॉक्टर प्रेम ने जवाब दिया।
'तब आप मेरा किस बात का इलाज कर रहे हैं?'
'इलाज कहाँ कर रहा हूँ ? आपको कोई दवा, इंजेक्शन, कोई ट्रीटमेन्ट कभी दिया? जनरल टॉनिक और नींद आने में मदद करने वाली एक टेबलेट । इससे बहुत ज्यादा दवाइयाँ तो आजकल वे लोग खाते रहते हैं जो अपने को बिल्कुल ठीक समझते हैं ।' डॉक्टर की बात पूरी होते ही दोनों हँस पडे ।
वैभव की हँसी थमी तो उन्होंने कहा, 'लेकिन इतना तो सच है न कि एक महीन से मैं आपके नर्सिंग होम में हूँ और आप मेरे किसी रोग के बारे में खोज कर रहे हैं ।'
'इतना तो सच है । लेकिन इसी के साथ इतना सच और भी है कि आप जैसे कैरियर वाले युवक को इस तरह नहीं रहना चाहिए ।' डॉक्टर ने गंभीरता के साथ कहा ।
'यानी तुरन्त नौकरी, शादी, बच्चों, प्रोमोशन के दुश्चक्र में जुट जाऊँ? ऐसा करूँ तभी नार्मल माना जाऊँ?' हल्के आक्रोश के साथ वैभव ने पूछा ।
'लोग तो ऐसा ही मानते हैं ।' इसी को सामाजिक मान्यता प्राप्त है । हर माँ बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा सफल जीवन बिताए ।' डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा ।
'डॉक्टर साहब! मैं सफल की तुलना में सार्थक जीवन जीना चाहता हूँ ।' दृढ़ निश्चय के साथ वैभव ने कहा । 'और उसी सार्थकता के साथ खोज में जब सबसे पहले अपने अस्तित्व पर विचार करता हूँ तो जानते हैं, क्या पाता हूँ?' - वैभव निःसंकोच बोलते गये - ÷मैं ज्यों-ज्यों समझने बूझने लायक होता गया, कुछ सपने मुझे लगभग रोज आने लगे । उनमें सबसे ज्यादा डरावना वह सपना है, जिसमें मुझे लगता है कि मैं जन्म लेना चाहता हूँ और मुझे बाहर से ठेलकर रोक दिया जा रहा है । दूसरा डरावना सपना है - मैं पाखाने पेशाब में लिथड़ा पड़ा हूँ । बराबर निकलने की कोशिश करता हूँ, बदबू से दम घुटता रहता है, मगर उस गंदगी से छूट नहीं पाता। सपने और भी आते हैं, एक से एक डरावने, किन्तु ये दोनों सपने बार-बार आते हैं । इनसे घिरकर पसीन-पसीने हो जाता हूँ । जब नींद खुलती है, थोड़ी राहत मिलती है, यह जानकार कि चलो सपना ही था, खतम हो गया । इन सपनों और अपने माँ बाप के साथ अपने संबंध को देखता हूँ तो समझ में आता है कि नफरत और हिंसा से ही मेरे अस्तित्व की रचना हुई है । आप क्या चाहते हैं कि आगे भी यही क्रम चलता रहे?
'इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि आप जैसा जीनियस सार्थक जीवन की तलाश करे, मगर अभी हाल यह है कि एक हफ्ते से आप सोये नहीं हैं । मैं चाहता हूँ, आपका खाना-सोना कुछ नार्मल हो जाये तब आगे के प्रोग्राम बनाएँ।'
बाहर कुछ आहट हुई । डॉक्टर प्रेम बाहर गये और तुरन्त एक वृद्ध को साथ लेकर लौट आए ।
(२)
अस्सी वर्षीय वृद्ध की आँखे झरने लगीं । डॉक्टर प्रेम परेशान हो गये । उन्होंने अपने पिता की उम्र से बडे बुजुर्ग के आँसू पोंछ डाले । उनके दोनों हाथों को अपनी हथेलियों के बीच दबाकर उन्हें सहलाते रहे । वृद्ध की रूलाई रूकी । उन्होंने डॉक्टर की आँखों में सीधे देखकर पूंछा, 'बताओ डॉक्टर ! क्या हुआ है मेरे पोते को? बच्चे को बचा लोगे न?
डॉक्टर प्रेम अपने नाम को सार्थक करते हैं मरीजों के साथ । जो उनको दिखाकर जाता है, वही कहता है कि आधी बीमारी तो इस डॉक्टर से बात करते ही ठीक हो जाती है । डॉक्टर से जब उनकी इस खूबी की तारीफ़ की जाती है तो वे कहते हैं, 'इसमें कोई खास बात नहीं। मैंने माँ बाप, दादा-दादी, नाना-नानी, किसी के प्रेम का स्पर्श कभी नहीं पाया । अनाथालय में पला, बढ़ा उपन्यासों और कहानियों में पढ़कर जाना कि माँ का प्यार ऐसा होता है, पिता का प्यार वैसा । नाना-नानी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं । दादा-दादी तो बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहते हैं।' यह सब मेरे लिये सपने की बातें हैं ।'
यह सब कहते हुए डॉक्टर प्रेम अचानक कहीं खो जाते हैं । आँखे सामने देखती हुई भी कहीं नहीं देखती, कुछ नहीं देखतीं । कुल पल बाद लौटकर सामने वाले को बताते हैं - 'मैं डॉक्टर क्यों बना, बताऊँ? सोचता था कि डॉक्टर बन जाऊँगा तो सब लोग मेरे पास आयेंगे । उनको अच्छा कर दूँगा तो प्यार करेंगे मुझसे । बूढ़ों में कोई मेरा दादा निकल आयेगा कोई नाना।'
'अच्छा, आप बताइये, मेरे दादा हैं या मेरे नाना? 'इतनी मासूमियत के साथ डॉक्टर ने पूछा कि पलभर पहले हिचकियाँ ले-लेकर रोने वाले वृद्ध सुदर्शन जी हँस पडे+ । डॉक्टर प्रेम ने कहा - 'आप अपने पोते को देख रहे हैं? कितनी गहरी नींद में सो गया? एक हफ्ते से बिल्कुल नहीं सो रहा था । आपने इनका माथा सहलाया, तभी इनके चेहरे का भाव बदल गया । आपके स्पर्श में कोई जादू है क्या?'
'क्यों नहीं सो पा रहा था? कुछ कारण समझ में आता है डॉक्टर?' सुदर्शन जी व्यग्र हो गये। बोले, 'कारण पता चल जाये तो कुछ उपाय करूँ ।'
डॉक्टर प्रेम गंभीर हो गये । अनायास उनके मुँह से निकल पड़ा - 'दादा जी!' तुरन्त झेप कर चुप हो गये । सुदर्शन जी ने उनके असमंजस को समझ लिया, तुरन्त बोल पडे, 'हाँ बेटा! तुमने तो खुद ही पक्का कर लिया कि मैं तुम्हारा दादा ही हूँ । बोलो ! और हाँ आगे से मैं भी तुम्हें न डॉक्टर कहूँगा, न आप । तुम प्रेम हुए । मैं हुआ तुम्हारा दादा । अब बताओ इस नौजवान को किस बात की इतनी बेचैनी है कि ये सो नहीं पा रहा है ।'
दादा को इस तरह पा लेने की खुशी डॉक्टर प्रेम की आँखों से चमकने लगी । कोई और समय होता तो बच्चा बनकर दादा जी के साथ खेलने लग जाते, पर बीस-बाईस वर्ष के युवक के रोग की पहचान कर रहे हैं, उसकी गंभीरता ने उन्हें चिन्तित बनाये रखा । कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने याद करते हुए - 'दादा जी! पहली बात तो यह कि आजकल कौन सा नौजवान परेशान नहीं है? सबकी अपनी-अपनी परेशानियाँ हैं । किसी को रोजगार की परेशानी है, किसी को प्रेम प्यार की । कोई अपने माँ-बाप से परेशान है, कोई......।'
'ठहरो बेटा ।' सुदर्शन जी ने डॉक्टर को बीच में ही रोक दिया । डॉक्टर कुछ समझ न सके। चुप हो रहे । सुदर्शन जी ने कुछ धीमी आवाज में कहा - 'तुम इसके माँ-बाप से मिले हो?'
'माँ से तो कभी नहीं मिला । इनके पापा इन्हें लेकर यहाँ आये थे । इनके कुछ मेडिकल टेस्ट रिपोर्ट और प्रेस्क्रिप्संस दे गये । कह गये कि फिक्र न करें । बस बच्चे को ठीक कर दें। उन्होंने दस हजार रूपये एडवांस जमा कर दिये और चले गये । रोज एक बार फोन करके पूछते हैं कि कैसा चल रहा है? कल जब मैंने उन्हें बताया कि कई दिन से वे जाग रहे हैं और कभी-कभी कुछ बहकने लगे हैं तो उन्होंने बताया कि मेरे पिता जी गाँव से आ रहे हैं । उनको बहुत मानता है । वो पोते को बहुत प्यार करते हैं । उनके आने का असर जरूर होगा ।'
डॉक्टर चुप हो गये यह देखकर कि सुदर्शन जी की आँखें फिर उमड़ पड़ीं । डॉक्टर ने इतने वृद्ध को कभी इस तरह बिलख कर रोते न देखा हो, यह बात नहीं मगर दर्द से छटपटाते हुए का बिलखना, चीखना या फूट-फूट कर रोना कुछ और होता है । इन वृद्ध का इस तरह आँसू बहाना कुछ और तरह का है, खासतौर से तब जब इनको कोई शारीरिक कष्ट नहीं है । मन ही मन डॉक्टर प्रेम अपनी भूल सुधारने लगे, सबसे ज्यादा रूलाने वाली तो मन की पीड़ा ही होती है, उसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं । अपने को मन की अगम अतल गहराई वाली दुनिया में खींचकर बाहर ले आने के बाद डॉक्टर ने कहा, वैभव अपने मम्मी पापा के साथ नहीं रहते, यह आपको मालूम है दादा जी?
'बेटा ! वह तो कभी नहीं रहा । कह सकते हो कि उन दोनों ने कभी इसे अपने पास रहने ही नहीं दिया ।' सुदर्शन जी इतनी बात कहकर चुप हो गये, जैसे थक कर पस्त हो गये हों। डॉक्टर को लगा, दादा जी से बात करके अपने रोगी के मन की गाँठे खोलने में उन्हें सफलता मिलेगी । आगे सुनने की उत्सुकता आंखों में भरकर डॉक्टर प्रेम ने वैभव (और अब अपने भी) दादा जी की ओर देखा।'
'जब यह बच्चा सात महीने का था तो गाँव से मैं इसे देखने आया था ।' पूरे चौबीस घंटे रेल का सफर करके पहुँचा था । साथ में तुम्हारी दादी भी थी । उन्होंने चाहा था कि बच्चे की पैदाइश गाँव में हो, मगर मेरे बेटे बहू को गाँव जहर लगता था । दोनों ने साफ मना कर दिया। हम लोग भी शहर के बड़े अस्पतालों और बड़े डॉक्टरों की बात सुनकर चुप हो गये । पोता हुआ है सुनकर जो खुशी हुई उसका जश्न गाँव में मनाते हुए हम दोनों चिट्ठी पर चिट्ठी लिखते रहे कि दो चार दिन के लिये बच्चे को लेकर चले आओ । कई बार तार दिया । उन दिनों आज की तरह फोन की सुविधा नहीं थी । चिट्ठी और तार से ही अपनी बात कह सकते थे। सात महीने बीतने पर भी जब हम लोगों की बात नहीं सुनी तो मन मारकर पोते का मुँह देखने शहर आये । जानते हो क्या हुआ?' प्रश्न करके झटके से सुदर्शन जी रूक गये ।
'क्या हुआ ?' डॉक्टर ने तुरन्त पूछा जैसे कहानी सुनते बच्चे कहानी के किसी नये मोड़ पर चौंककर पूछते हैं, 'तब क्या हुआ?'
आगे की घटना बताने से पहले वृद्ध का चेहरा तमतमा गया । कुछ देर वे बीस-इक्कीस साल पहले से पक रहे गुस्से से बाहर आने की कोशिश करते रहे । सम्हलने में वक्त लगा । फिर बताया कि जब वे लोग शहर पहुँचे तो पता चला कि उनका पोता तो वहाँ है ही नहीं । 'कहाँ है?' पूछने पर जवाब मिला कि वह तो चार महीने का था, तब से अपनी नानी के पास रहता है । बुढ़िया तो बिफर उठी । पूछा, 'वहाँ दूध किसका पीता है? और तू कैसी माँ है । इतने छोटे बच्चे को कलेजे से चिपका कर रखे बिना तुझे नींद कैसे आती है?' सास की कड़वी बात का जवाब न देना पडे इसलिये बहू उठकर यह कहती हुई बाथरूम चली गयी कि मुझे आफिस पहुंचने में देर हो जायेगी । हमारा बेटा उससे बड़ा अफसर ठहरा । उसे भी आफिस जाने की जल्दी थी, मगर वह रूककर हम दोनों को यह समझाता रहा कि बच्चे को माँ-बाप से अलग करना वह भी नहीं चाहता था । लेकिन उनके चाहने से क्या होता ? पालना तो माँ को ही था और वह न उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, न रात में जाग-जागकर उसके गीले कपड़े बदलने को तैयार थी । उसने अपनी माँ से बात की । उन्होंने भी समझाने की कोशिश की - 'इतना छोटा बच्चा सबसे ज्यादा माँ की गोद में ही सुखी रह सकता है । कम से कम सालभर पाल लो, उसके बाद कहोगी तो मैं इसे अपने पास ले जाऊँगी ।' वह अपनी माँ की बात भी नहीं मानी । रोने धोने लगी तो माँ को ले जाना पड़ा ।
सुदर्शन जी की साँस फूलने लगी । डॉक्टर प्रेम देख पा रहे थे कि बच्चे के साथ हुए अन्याय की बात करते-करते उनका क्रोध बार-बार फुफकार उठता था । सामने बैठे वृद्ध की तकलीफ भी वे समझ पा रहे थे, साथ ही यह भी समझ रहे थे कि वैभव के बचपन की बातें विस्तार से जानबूझ कर ही उसका सही निदान और उपचार कर पायेंगे । उन्होंने कोमलता के साथ पूछा- 'तब क्या हुआ दादा जी?' संबोधन से खिल उठे सुदर्शन जी ने बताया कि उसी दिन हम दोनों लौट आए । ऐसे बेटे बहू के पास रहना पाप जैसा लगा । घर लौट आने के बाद से ही वृद्धा की भूख कम होने लगी । रात-दिन माँ से अलग कर दिये गये पोते के बारे में सोचती और कलपती रहती । फिर एक प्रोग्राम बनाया गया कि बच्चे को देखने के लिये उनके ननिहाल ही चले चलते हैं । एक दिन हम दोनों वहाँ पहुँचे गये । समधी-समधिन को आश्चर्य हुआ, खुशी भी हुई । हम लोग बच्चे को देखने इतनी दूर से चलकर आये । बच्चा झूले में पड़ा हुआ था और लगातार रोये जा रहा था । उसकी नानी बूढ़ी और कमजोर । घर में उनके पति उनसे भी बूढ़े । उनके बेटे-बेटी अपनी-अपनी गृहस्थी अलग शहरों में जमाये हुए । कभी कभार आकर देख लेने या चिट्ठी-पत्री से हालचाल ले लेने से ज्यादा कोई संबंध नहीं ।
सुदर्शन जी ठहरे । अपने आप उन्होंने कहा, 'ठीक वैसे ही जैसे हमारे साहबजादे हमारी खबर लेते हैं । अब जमाना ही ऐसा हो गया है तो कोई क्या कर सकता है?' वे बेचारे बूढ़ा-बूढ़ी इतने छोटे बच्चे को अकेले अपने दम पर पाल रहे थे यही बहुत था । डॉक्टर प्रेम व्यग्र हो उठे । कथारस से अधिक उनको अपने मनोरोगी के अतीत में झाँकने का मौका मिल रहा था । उन्होंने पूछ लिया - दादा जी! बच्चा लगातार रोता क्यों जा रहा था ?
वृद्ध सुदर्शन जी फिर भावुक हो गये । उन्होंने बताया जब किसी तरह पुचकारने, गोद में लेने, हिलाने-डुलाने, मुँह से दूध की बोतल लगाने से बच्चे को रोना नहीं रूका तो तुम्हारी दादी ने उसकी कमर पर लिपटे मोटे प्लास्टिक को देखा । वह कमर में और दोनों जांघों में इस तरह कसकर फिट था कि कहीं से हवा तक अंदर बाहर नहीं आ जा सकती थी । गर्मियों के दिन थे । उसकी नानी से पूछा - 'यह क्या है? और क्यों बाँधा गया है?' बच्चे की नानी ने बताया कि बच्चा बार-बार पेशाब-पखाना करता रहता है । मैं अकेली बूढ़ी औरत ठहरी । दिन भर कहाँ तक धोती रहूँ । इसलिये बाँध दिया है । एक बार सवेरे खोलकर साफ कर देती हूँ और दूसरा बाँध देती हूँ । एक बार शाम को बाँध देती हूँ ।' तुम्हारी दादी ने तुरन्त बच्चे के ईद-गिर्द लिपटा प्लास्टिक नोंचकर फेंका, उसके नीचे रूई जैसा कुछ था, बच्चे के टट्टी पेशाब से चिपटा हुआ। उसे एक ओर फेंककर तुम्हारी दादी ने बच्चे को नहलाया। उसे पोंछकर ज्योंही उन्होंने अपने कंधे पर रक्खा, बच्चा सो गया और घंटों सोता रहा ।
तुम्हारी दादी रोती जाती थी और अपने भाग्य को कोसती जाती थी । वृद्धा रिश्ते में समधिन ठहरीं । उनसे उनकी या उनकी बेटी की शिकायत किस तरह करतीं ? समधिन सब कुछ समझ रही थीं । और बार-बार अपने बुढ़ापे को कोस रही थीं । साथ-साथ यह भी कहती जाती कि मेरी बेटी पागल है जो इतने छोटे बच्चे को अपने से अलग रख रही है। बिलख कर उन्होंने कहा, मैं अपनी कोखजायी औलाद से हार गयी हूँ ।' एक बार तो उन्होंने यह भी कह दिया कि हमारा जमाई भी तो वैसा ही है । नहीं तो बीबी की इस तरह गुलामी क्यों करता ? वह भी नहीं चाहता था कि बच्चे को माँ से अलग किया जाये, मगर मेरी बेटी के आगे वह बोल कहाँ पाता है ।' अपने बेटे के बारे में सुनकर माँ-बाप को कैसा लगा होगा, यह सोच सकते हो ।' कहकर सुदर्शन जी दर्द भरी मुस्कान में बदल गये ।
डॉक्टर प्रेम ने उत्सुकता जतायी - 'फिर क्या हुआ दादा जी? क्या आप लोग बच्चे को साथ ले आये?' सुदर्शन जी आहत स्वर में बोले, 'ले जाना चाहते थे। एक महीने तक वहीं रह गये। इस बीच तार देकर बेटे बहू से पूछा गया कि बच्चे को लेकर गाँव जाना चाहते हैं, क्यों क्या करें!' उधर से कोई जवाब नहीं आया । अपने मन में भी डरने लगे कि शहरी हवा में जन्मा बच्चा गाँव में पता नहीं कैसे रहे । कुछ हो जाये और गाँव कस्बे के डॉक्टर न सम्भाल पाये तो हम कौन सा मुँह दिखायेंगे । कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि एक दिन बातचीत में एक उपाय सूझ गया । मैं अपने समधी से कह रहा था कि कोई दाई मिल जाती तो बच्चे को सम्भालती । जवाब में उन्होंने दाई की तनखाह की समस्या जताई । तुरन्त मैंने कहा कि दाई की व्यवस्था कीजिये उसकी तनखाह मैं हर महीने मनीआर्डर से भेज दिया करूँगा । कुछ संकोच के साथ वे लोग तैयार हो गये । दाई आई । तनखाह पक्की हुई । मैंने एक महीने का एडवांस दिया और कह दिया कि हर महीने भेजता रहूँगा । मेरी पत्नी ने दाई के सामने एक शर्त रखी कि बच्चे का टट्टी पेशाब तुरन्त धोना होगा । उसकी कमर में प्लास्टिक नहीं चढ़ेगा । वह मान गयी । हम लोग लौट आये । तब से दो साल तक पैसे भेजते रहे ।
बच्चा दाई के हाथ पलता रहा । कभी-कभी चिट्ठी के साथ लिफाफे में उसकी फोटो आ जाती ।
इस बीच बेटे ने मेरे पास आने या चिट्टी लिखने की कभी जरूरत नहीं समझी । एक दिन समधी जी की चिट्ठी मिली कि दाई के लिये पैसे न भेंजे । बच्चे को उसके माँ-बाप अपने पास ले गये हैं । हम लोग मन ही मन सोचते रहते कि अब वह ढाई साल का हो गया, अब तीन का हो गया और कल्पना करते रहते कि ऐसे बोलता होगा, वैसे चलता होगा । देखने को आँखें तरस रही थीं ।
अपने बेटे-बहू के पास जाने की हिम्मत नहीं होती थी । समधी जी को चिट्ठी लिखकर पूछा कि बच्चा कैसा है और कहाँ है, तो जवाब मिलता कि दिन भर बच्चों को सम्हालने और खेल सिखाने वाली किसी दुकान में रहता है । उस दुकान को क्रेच कहा जाता है । मेरे बेटे-बहू की तरह काम पर जाने वाले साहब, मेम लोग अपने बच्चों को दिन भर वहीं छोड़कर आते हैं । इसके लिये मोटी रकम देनी पड़ती है ।
धीरे-धीरे हम लोग बच्चे के आकर्षण से छूटते गये । अनुभव इसी को तो कहा जाता है कि जिस अभाव या दुख का इलाज न हो, उसे सहन करते हुए जीने की अदात डाल ली जाये । बाद में पता चला कि बच्चे को ऐसे स्कूल में डाल दिया गया है, जो बोर्डिंग स्कूल कहलाता है। बच्चे की देखभाल से लेकर उसके खाने-पहनने, दवा-पानी, खेलकूद और पढ़ाई-लिखाई सबके लिये पैसे भरने होते हैं । ऐसे स्कूलों में वे ही लोग अपने बच्चों को भेजते हैं, जिनके पास बहुत पैसे होते हैं।' गहरी साँस छोड़ते हुए सुदर्शन जी चुप हो गये ।
'एक बात और दादा जी!' डॉक्टर प्रेम ने वैसी ही गहरी साँस छोड़कर भारी गले में कहा, मैं समझता था कि मैं ही अभागा हूँ जिसने कभी माँ-बाप का स्पर्श नहीं पहचाना । अब समझता रहा हूँ कि आपके पोते वैभव की तरह बहुत से बच्चे ऐसे होते हैं जिनके माँ बाप के पास धन तो होता है, वह प्यार नहीं होता जो वे बच्चे को दे पाते । उनके भाग्य में प्यार का वह अमृत भी नहीं होता, जो बच्चों से माँ बाप को मिलता है ।' डॉक्टर चुप हो गये । वृद्ध सुदर्शन जी पहले से ही चुप थे । कुछ देर दोनों वैसे ही शब्दहीन बैठे रहे । दोनों के भीतर अपने-अपने भोगे हुए अनकहे दुखों का हाहाकार मचल रहा था । दोनों अपने-अपने अनुभव के आलोक में वैभव के मन को समझने की कोशिश कर रहे थे ।
(३)
वैभव इतनी गहरी नींद सोने के बाद स्वस्थ और तरोताजा हो गये । डॉक्टर बोले, 'आज आपको बहुत अच्छी नींद आई? 'हाँ डॉक्टर साहब । याद नहीं, कब से इतनी अच्छी तरह नहीं सोया था । आपने नींद की कोई दवा दी थी क्या? डॉक्टर ने सिर झटकते हुए इनकार किया -नहीं, नहीं कोई दवा नहीं दी थी । आप अपने आप सो गये । आप के दादा जी आये । वे कुछ देर आपका माथा सहलाते रहे । और देखते-देखते आप गहरी नींद में चले गये ।
'कहाँ है बाबा?' कुछ चौंकते हुए वैभव ने पूछा । कुछ धुँधली छाया की तरह बाबा के आने की याद आई । बहुत कम देखा है उन्हें, पर जिसे घरवालों का प्यार जैसा कुछ कहा जाता है, उसका आभास उन्हीं के पास रहने पर होता है ।' 'मैंने अपने घर पहुँचा दिया है । आप गहरी नींद में थे । मैंने उनसे कहा कि चलकर नहा धो लें, नाश्ता कर लें । वैभव के जागते ही मैं आपको बुला लूँगा । कहिये तो अब बुला लाऊँ?' डॉक्टर ने पूछा ।
डॉक्टर का घर और नर्सिंग होम एक दूसरे से लगे हुए हैं । डॉक्टर का नौकर उनके घर का काम करता है । खाना बनाने खिलाने से लेकर घर की देखभाल सब उसी के जिम्मे । सुदर्शन जी अपने बेटे बहू के घर न जाकर सीधे चिट्ठी में लिखा पता पढ़कर नर्सिंग होम चले आये थे । डॉक्टर प्रेम ने बहुत आग्रह करके वैभव के सो जाने के बाद उनको नहाने खाने के लिये तैयार किया था । वैभव नर्सिंग होम के कमरे में रहते थे । डॉक्टर की बात पर हाँ कहने के साथ ही वैभव ने कहा, 'यहाँ मत बुलाइए । चलिए मैं भी वहीं चलता हूँ । मुझे ऐसी कोई बीमारी तो है नहीं कि चल फिर न सकूँ।'
डॉक्टर ने हँसते हुए कहा, 'यह तो और अच्छी बात है । वहीं चलते हैं । रही बीमारी होने की बात तो असलियत यह है कि आप बीमार हैं ही नहीं । कभी-कभी बहुत सोचने के कारण कुछ तनाव आ जाते हैं। ' वैभव की भौंहे सिकुड़ने को हुईं किन्तु वे सहज बने रहे । दोनों सुदर्शन जी के पास आ गये । उन्होंने भोजन कर लिया था और नौकर से कह रहे थे कि जाकर देख आओ वैभव जगे कि नहीं ।
दादा जी को देखकर वैभव कुछ पल ठिठके रह गये । दादाजी कुर्सी से उठते, उससे पहले ही वैभव उनकी गोद में गिरकर उनसे चिपट गये । डॉक्टर प्रेम की आँखें उमड़ने लगीं । वे चुपचाप एक कुर्सी पर बैठकर वह दृश्य देखने लगे जो उनके अपने जीवन में कभी नहीं आया था ।
सुदर्शन जी गोद में दुबके पोते की पीठ सहलाते रहे । वैभव दोनों बाँहों से दादा जी की कमर को घेरकर मुँह उनकी गोद में छिपाये रहे । बहुत देर बाद दादाजी ने वैभव को उठाकर सीधा बैठा दिया । अब दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे थे । दोनों के मुख पर सुख और संतोष छलक पडे थे । डॉक्टर प्रेम ने वैभव को इतना शांत कभी नहीं देखा था ।
वैभव का चेहरा हल्का सा बदला । उन्होंने दादा जी से सीधा सवाल किया 'दादा जी! मैं आपका बेटा क्यों नहीं हुआ?' हँसकर सुदर्शन जी ने कहा, 'तुम हमारे बेटे ही तो हो ।' 'नहीं दादा जी! आपके और मेरे बीच जो दो आदमी हैं, जिन्हें मेरा माँ-बाप कहा जाता है, उनको तो कोई बच्चा चाहिए ही नहीं था ।'
हाँफ गये वैभव । चुप हो गया । आँखें बंद करके निष्पंद पड़ गये । डॉ० प्रेम ने सुदर्शन जी को बताया, क्रोध और हिंसा से जलते रहते हैं । माँ-बाप की शक्ल नहीं देखना चाहते । पहले उन लोगों की जो भी गलती रही हो, अब तो बेचारे पछता रहे हैं ।
सुदर्शन जी इतना कहकर खामोश हो गये, 'अपना और बच्चों का जीवन बरबाद करने के लिये क्या ऐसी एक ही ग़लती काफी नहीं होती?
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