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संस्कृतियों की मुस्कानें

- प्रो० रमेश कुंतल मेघ
मोनालिसा विश्वविख्यात चित्ररचना है जिसे इटली के विंची ग्राम में पैदा हुए लियोनार्दो (-द विंचि) ने सन्‌ १५०५ में बनाना शुरू किया था। लियोनार्दो ने मिलान शहर में कुछ सर्वश्रेष्ठ पोट्रेट banaa जिनमें गितेव्रा वेंची (१४७८) की छविवाला फार्मूला ही अपनाया किन्तु उसमें मोनालिसा की विश्वमोहक मुस्कान ने रहस्यात्मकता की अथाह गहराई भर दी। इस गहराई को दूर तक फैले भूदृश्य ने भी विचित्रता दी है तथा कंधे से नीचे तक गिरते सम्पूर्ण गाउन ने इस अनुमान को भी बल दिया कि वह गर्भवती है या उसका पीलापन रक्तस्वल्पता (पीलिया) के कारण है। बहरहाल मोनालिसा की रहस्यमय मुस्कान को हमें समझना जरूर चाहिए। वह हमारी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी (इटली मूल की भारतीय) की गंभीर तथा कष्टपायी मुस्कान से भी नितान्त भिन्न है।
लगभग पाँच सौ वर्ष पुरानी मोनालिसा की चित्रकृति की फ्लोरेंसीय कला शैली वाली विशेषताएँ कौन सी हैं? यह भूदृश्य की नदी-पहाड़ों वाली धुँधली पृष्ठभूमि पर उभारवाली ऐसी कृति है जिसमें उन्होंने आकृति का शंकु (पिरामिड) बनाया है। इसमें प्रकाश छाया की धूपछाँह दूरी का सुझाव देती है एवं विभिन्न गाढे-चटक रंगों में समरसता उत्पन्न करती है। तदापि उनके सामने आकृति तथा भूदृश्य के संश्लेष की समस्या अनसुलझी ही बनी रही। इस पोट्रेट में न तो समूह का प्रभावन है (जैसा कि लियोनार्दो मैडोन्नाओं का युगल लेते रहे हैं) और न ही विस्तारित भूदृश्य। अलबत्ता एक ही चेहरे पर विभिन्न भंगिमाओं को अंकित करने में गूढ़ता आई है। कुछ ऐसी ही रहस्यात्मकता उनकी 'दि लास्ट सपर' (१४९९) में दृष्टिगोचर होती है जो आध्यात्मिक हो गई है। जबकि मोनालिसा (की मुस्कान) मात्र रहस्यात्मक है ।
मोनालिसा के गोल चेहरे, उन्नत ललाट, छोटी ठुड्डी के साथ गाल तक फैले हुए पतले लम्बे ओंठ मानों गड्ढे में डूबने का संकेत देते हैं । यह अभिव्यंजना उसके अनुपात में सिद्ध हुई है। शरीर-रचना का घटक तो गाउन में ढँक गया है लेकिन परिदृश्य में हथेलियों का युगल बहुत कुछ अन्य भी कहता है। इन कारणों से मोनालिसा के रचनाविधान में समरसता तथा रहस्यात्मकता है जो उसके 'उस मुख की वह मुस्कान' में शताब्दियों से सारे संसार को सम्मोहित किये हुए हैं ।
एक अन्य रहस्यमय मुस्कान ईजिप्ट में गीजा के पिरामिड क्षेत्र में 'स्फिंक्स' की है। यह ईसा से भी तेरह-चौदह सौ वर्षों पहले की शिल्प-कृति है। स्फिंक्स अर्थात्‌ सिंहनर (अर्थात्‌ मुख मनुष्य का एवं देह सिंह की)! कई मीटर लम्बा यह सिंहनर अपने बंद मोटे ओठों तथा आकर्षक नेत्रों से आज तक इन्द्रजाल फैला रहा है। विद्वानों तथा पुराविदों की टोली सन्‌ १७९८ में नेपोलियन से लेकर आज तक ईजिप्टी कला के इस रहस्य को नहीं सुलझा पाई है। स्फिंक्स के नेत्रों व ओष्ठों की तरह ही दूसरे पिरामिड के निर्माता काराल्पों केफ्रू, राजकुमारी नेफ्रेत या होटेप और अखनाटेन के नेत्र-ओंठ भी रहस्यात्मक हैं । इसी वजह से चित्रकार पाब्ला पिकासो ने अपने कुछ चित्रों में प्राचीन ईजिप्ट की मोटे सुरमे से खिंची गोल काली भौंहों वाली आँखों की अनुकृति की है। ऐसा लगता है कि मृतकों की पूजक ईजिप्टी सभ्यता में सनसनाती खामोशी का स्तंभन सा छाया हुआ है । आधुनिक कला सिद्धान्त में तो इसे मानव का 'सिंहीकरण' कह सकते हैं । एक अंदाज यह भी है कि स्फिंक्स का सिर गीजा के पिरेमिड निर्माता फाराओं सम्राट का हो सकता है। लेकिन आधुनिक कम्प्यूटर-तकनीक द्वारा माप जोखों ने इसे नकार दिया है । स्फिंक्स का अति विशाल आकार भी एक अचंभा है ।
चित्र तथा शिल्प के बाद अब काव्यसाहित्य में मुस्कान-त्रिकोण के तीसरे कोण को लेते हैं : श्रद्धा के 'उस मुख की वह मुस्कान' को! यह मुस्कान सरल ललित यौवन की द्योतक होने के उपरांत त्रिपुरसंहार करके ज्ञान-इच्छा-क्रिया की एकता स्थापित करने वाली त्रिपुरसुन्दरी श्रद्धा की मुस्कान में रूपांतरित हो जाती है । अतः यह आध्यात्मिक है, रहस्यवादी है तथा (पूर्व में) लौकिक भी है।
शुरू के प्रसंग में श्रद्धा का मुख छविधाम है, एक लघु, अचेत ज्वालामुखी की तरह। 'उस' मुख पर 'वह मुस्कान कैसी है? जैसी कि छविधाम मुखमंडल पर ओठों की रक्तकोंपल पर विश्राम लेकर मोर के बाल अरूण की एक अम्लान, अधिक अलसायी किरण हों ।
आगे इसी छायावादी मुस्कान का तांत्रिक विराटीकरण होता है। श्रद्धा त्रिपुरसुंदरी हो जाती है। जो अपनी मुस्कान से तेजस्‌ (ज्वाला) द्वारा त्रिपुरदाह करती है जिसके फलस्वरूप श्यामल कर्मलोक, उज्ज्वल ज्ञान लोक तथा रागारूण इच्छा लोक के त्रिपुर की पृथकता भस्म हो जाती है। भ्रान्तिकारक स्वप्न, स्वाप जागरण भी विलुप्त हो जाते हैं और अंततः इच्छा-क्रिया-ज्ञान में समरसता कायम होती है जिससे 'पुरुष' मनु 'प्रकृति' रूपी श्रद्धा के साथ मिल जाते हैं। यहाँ तंत्रालोक वाली प्रतीक-क्रियाओं का पुंज है - त्रिपुर, त्रिपुरसुन्दरी श्रद्धा (की स्मिति) द्वारा त्रिपुरदाह और फिर इच्छा क्रिया ज्ञान का एकमेल । इस तरह श्रद्धा ने स्मिति का रहस्य खोल दिया। अरूण किरण से ज्योति, ज्योति से ज्वाला द्वारा स्मिति से शक्तितरंगों द्वारा चिति के महाकाल में डावाँडोल होने की दशा द्वारा । यह भी सच है कि कवि प्रसाद ने इस सारे कृत्य को शैव तंत्र के रहस्यवादी चक्र में साधनासिद्ध बनाया है ।
इस तरह सभ्यताओं में मुख और मुस्कानों ने युगों-युगों तक उथल-पुथल मचाई है। हमें यूनानी संस्कृति की 'वह' घटना तो याद ही है जब सुन्दरी हेलेन के 'इस' मुख ने हजारों नौकाओं के लंगर खुलवा दिये थे तथा ईलियम शहर के गगनभेदी शिखरों को भस्मीभूत करवा डाला था। महाकाल के एक महायुद्ध में।
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