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अंजुमन आरा से डॉ. फ़ीरोज एवं डॉ. जुल्फ़िकार की बातचीत

डॉ. अंजुमन आरा 'अंजुम' ए.एम.यू. के वीमेन्स कॉलेज में उर्दू रीडर के पद से सेवामुक्त हुई हैं। आपने उर्दू, अरबी और अंग्रेजी से एम.ए. किया। आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सदस्या तथा बज्मे ख्वातीन की अध्यक्ष जैसी कई पदों पर आसीन हैं। आपको कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है। जैसे-आल इण्डिया मीर अकादमी का 'इम्तियाजे मीर', 'तेवर' सहारनपुर(एन.जी.ओ.), बिहार उर्दू अकादमी पटना से उर्दू साहित्य पर आपके लेखन पर पुरस्कार दिए गए हैं। आगाहर्श काश्मीरी पर लिखी पुस्तक पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने पुरस्कृत किया। इसके अतिरिक्त आपने बच्चों के लिए काफ़ी पुस्तकें लिखी हैं।(सं.)
आपकी शिक्षा का आगाज कहाँ से शुरू होता है?
मेरी शिक्षा का आगाज बदायूँ (उ.प्र.) से हुआ। हमारे वालिद का तबादला मुरादाबाद में हो गया। हाई स्कूल प्राइवेट किया। गोकुल दास इंटर कॉलेज, मुरादाबाद से इंटर पास किया। बी.ए. से पी-एच.डी. तक की शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विश्विविद्यालय में हुई।
उर्दू भाषा और साहित्य से सम्बन्ध का खुलासा कीजिए।
उर्दू हमें विरासत के रूप में मिली। हमारे दादा अच्छे फारसी दा और हमारे वालिद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट थे। ममेरे बड़े भाई इसी विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र में प्रोफेसर थे। इन्हीं सबकी सोबत से शौक पैदा हुआ।
आपका आदर्श?
मेरे बड़े भाई प्रो. फजुर्रहमान गुन्नौरी जो हदीस, कुरआन, अंग्रेजी, फारसी, अरबी, लॉ सभी के जानकार हैं उनके अकादमिक ही नहीं बल्कि उनकी हमदर्दी, अपनापन और कदम-कदम पर उन्होंने प्रोत्साहित किया है। जबकि वह मौलाना हैं लेकिन कभी भी उन्होंने मुझे पढ़ाई के सिलसिले में रूकावट पैदा नहीं की बल्कि मेरी हिम्मत अफजाई की।
हमारे देश में मुस्लिम लड़कियाँ पर्दा अपनी स्वेच्छा से या दबाव से करती हैं या उन पर जोर डाला जाता है?
सवाल तुम्हारा जरा अजीब है। शुरू से मुसलमानों में ही नहीं बल्कि हिन्दुओं में भी पर्दा होता रहा है। हिन्दू महिलाएं पहले घूंघट में रहती थीं। पर्दा दबाव से नहीं बल्कि पूरी सोसायटी में होने की वजह से उनमें ख्वाहिश पैदा हुई। पर्दा औरत की इज्जत की हिफाजत करता है। आजकल देखें बेपदर्गी है बेहयाई है उसका अंजाम हो रहा है आये दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि औरतों के साथ बलात्कार हो रहा है, कत्ल हो। इन सबके पीछे बेपदर्गी ही है।
पर्दे को लेकर आप क्या सोचती हैं?
पर्दा में रहकर सभी काम किया जा सकता है। किसी प्रकार की कोई रूकावट नहीं होती है। जो लोग कहते हैं कि पर्दा औरत की तरक्की में रूकावट है वह एक भ्रम है।
पर्दे का मतलब क्या है। शरीर कितना ढका होना चाहिए। स्पष्ट बताइए?
'टॉप टू बॉटम' पूरा शरीर ढका होना चाहिए। इसमें दो तरह के विचार है, एक यह कि चेहरा भी ढका रहना चाहिए दूसरा कहता है कि चेहरा खोला जा सकता है। जो चेहरा ढके रहे हैं उन पर भी एतराज नहीं करना चाहिए और जो खोल रहे हैं उन पर नहीं। हाथ और पैर खुले रहने चाहिए और बाकी हिस्सा सर से पांव तक ढके रहना चाहिए। अगर बुर्का भी नहीं है तो लिबास ढीला हो जिसमें शरीर ढका हुआ है यानी तंग नहीं है वो भी ठीक है ऊपर से स्कार्फ या चादर ओढ़ी जा सकती है। इसके लिए यह पाबन्दी नहीं है कि बुर्का ही हो इसके पीछे मतलब यही है कि अपोजिट सेक्स अटरेक्ट न हो। ताकि समाज में फितना फसाद नहीं हो। यानी एक तरह से बुराई और बेहयायी को रोकने के लिए पर्दा होता है।
कुछ लोगों का विचार है कि पर्दा करने से आधुनिक युग में काम करने में रूकावट आती है। इस बारे में आपकी क्या राय है?
भई यह बात जो कह रखी है इस बारे में मेरी राय बिल्कुल मुख्तलिफ है। मेरे ख्याल से पर्दे से किसी काम में कोई रूकावट नहीं आती। मैं खुद ही बुर्का ओढ़ती हूँ, उसी में बाइक चलाई है, हिन्दुस्तान में और विदेशों में भी मैं बुर्के में आई गई हूँ। हमने तो बुर्के में अपने आपको सेफ भी महसूस किया है और कम्फरटेबिल भी। बुर्के में एक सहूलियत यह भी रहती है कि उसमें कपड़ों की क्रिज और प्रेस पर ज्यादा ध्यान देना नहीं पड़ता है। इसमें आराम महसूस होता है। यूनीवर्सिटी में लड़कियाँ बुर्के में रहकर बाआसानी पढ़ाई करती हैं, इस सिलसिले में चन्द शेर पढ़ती हूँ -
औरत की अहमियत का निगेवान है दुपट्टा
औरत के लिए फर्क का सामान है दुपट्टा
पर्दे से जो बाहर है वो औरत ही नहीं है
औरत के लिए इज्जतो ईमान है दुपट्टा।
आप कई संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं। इन सभी संस्थाओं में महिलाओं की स्थिति क्या है?
जहाँ-जहाँ हम गए वहाँ-वहाँ मुस्लिम ख्वातीन को अपने हुकूक और फरायज का अमूमन पता नहीं है। इसमें हमारे भाइयों का भी दायित्व या जिम्मेदारी बनती है कि उन तक पहुँचायें। हमें कमी यह भी महसूस होती है कि मुसलमानों में तालीम की बड़ी कमी है। खासतौर से ख्वातीन की तालीम की। इसकी एक वजह गरीबी भी है। हमारी लड़कियाँ चाहती हैं कि उन्हें आगे बढ़ने के अवसर मिले और हमें सर्विस भी मिले। आज का माहौल ऐसा है कि हम चार मील अपनी लड़की को अकेले नहीं भेज सकते। वालदैन नहीं चाहते हैं कि जिस लड़की की परवरिश उन्होंने अच्छी तरह की है उसकी जिन्दगी मुतासिर हो। हालाँकि अब तालीम का रुझान औरतों में बढ़ रहा है। कस्बों और छोटे शहरों में उसकी कमी है।
बड़े शहरों में महिलाओं की क्या स्थिति है?
वहाँ पर भरपूर मुवाके हैं जिनका महिलाएं फायदा उठा रही हैं। सिर्फ शिक्षा में ही नहीं बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाएं काम कर रही हैं। अगर उन्हें मौका मिले तो अपनी प्रतिभा दिखाती ही हैं। आजकल टी.वी. चैनल पर न्यूज रीडर है, ऐन्कर्स है जिनमें महिलाएं अपना लोहा मनवा रही है। हमारी लड़कियों में एफिसेंस है, हौसला है, तहजीब भी है, ख्वाइश भी है और कुछ कर जाने की हिम्मत भी है।
आप मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सदस्या भी हैं। यह बोर्ड महिलाओं के बारे में क्या दृष्टिकोण रखता है?इस बोर्ड में लगभग ३५ महिला सदस्य हैं और इसमें बढ़ोत्तरी की जा रही है। इसमें महिलाएं खुलकर इजहारे ख्याल करती हैं। चाहे निकाह हो, तलाक हो या विरासत सम्बन्धी समस्याओं पर महिलाओं से विचार-विमर्श किया जाता है। खासतौर से इस्लामी मआसरात पर औरत का जबर्दस्त रोल समझा जाता है क्योंकि औरत ही किसी समाज या खानदान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होतीं है। औरत का जहन अगर सही तरह का काम कर जाए तो समाज बहुत तेजी के साथ बदल सकता है। इस बोर्ड में महिलाएं अपनी बात खुलकर रखती हैं और इस बोर्ड के अधिकारी उनकी बात को सुनते हैं और अमल में लाते हैं।
सैद्धान्तिक रूप से इस्लाम में महिलाओं का अधिकार अच्छा खासा है परन्तु व्यवहार के धरातल पर?इसलाम में औरतों को जितनी सहूलियतें, अधिकार और मौके दिए हैं उतना कोई और धर्म नहीं दे सकता है क्योंकि वह कवानीन किसी इंसान के बनाये हुए नहीं है बल्कि अल्लाह के द्वारा दिए गए हैं। इसलिए अल्लाहताला ने हर तरह का ख्याल रखा है। उनकी फितरत का उनके जज्बात का और लिमिटेशन भी रखी गयी है लेकिन इसमें कोई शक नहीं है जो इस्लाम धर्म ने दिया है वह कोई हमें नहीं दे सकता है लेकिन हमारे जो अमल है जिन्दगी के वह पामाल हो गए हैं उसकी वजह यह है कि यहाँ पर औरतों को अपने हुकूक नहीं मालूम हैं। महिलाओं में जानकारी की कमी है और वह खुद जानना नहीं चाहती हैं। अब औरतों में अहसास पैदा हो रहा है कि हमें अपने हुकूक और जानकारियां पता होनी चाहिए। औरत को विरासत में हक मिला है लेकिन हमारे समाज में औरत शर्म महसूस करती है कि वह अपना हिस्सा ले।
इसका मतलब यह हुआ कि महिलाओं की निष्क्रियता भी एक कारण है?
हाँ! एक वजह खुद औरतों की नाजानकारी है इसमें एक बात यह है कि मगरिब की जो बातें आ रही हैं उससे औरतें ज्यादा मुतास्सिर हो रही हैं। तो समझती हैं कि पश्चिम में जो आजादी है वो ज्यादा अच्छी है, वहाँ औरत को सब कुछ मिल रहा है, हालाँकि पढ़ने वाले, देखने वाले, सुनने वाले जानते हैं कि वहाँ औरत की क्या पोजीशन है। इतनी आजादी के बावजूद उसका बाहैसियत माँ, बाहैसियत बीवी, बाहैसियत बेटी उसका कोई मुकाम नहीं है। वैसे अब औरतों को अहसास हो रहा है कि इस्लाम उनहें बहुत सारे हुकूक दिये है अब वो पढ़-लिख भी रही है। औरत को प्रॉपर्टी में हक मिला है विरासत में हक मिला है लेकिन हमारी सोसाइटी ऐसी बनी है जिसमें एक औरत यह शर्म महसूस करती है कि वो अपने बाप से हिस्सा ले या अपने भाई से हिस्सा ले।
सम्पत्ति में मुस्लिम महिलाओं के हिस्सेदारी का सिद्धान्त तो है लेकिन आम चलन में तो नहीं नजर आता।
जी!
दिया नहीं जाता या महिलाएँ लेती नहीं हैं?
न वो लेती हैं और वो देते हैं। ये मांगती ही नहीं और वो भी देते नहीं हैं बिना मांगे। अगर वो देना चाहें तो उन्हें कोई रोक भी नहीं सकता। इसी तरह औरतें लेना चाहें तो उन्हें कोई भी नहीं रोक सकता। लेकिन दोनों का जहन यह बना हुआ है कि लड़कियां कहती हैं कि हम क्या करें।
इस्लाम धर्म के अनुसार महिलाओं का धर्म क्या है?
यह सवाल तो यह हुआ कि क्या होना चाहिए। बाहैसियत बेटी, उसकी खिदमत करना है और अपने मां-बाप, भाई-बहन की। शादी के बाद अपने शौहर की खिदमत गुजारी है और सबसे बड़ी बात यह है कि अपने बच्चों को परवरिश करना। एक औरत एक कौम तैयार करती है। किसी कौम को बनाने वाली औरत ही अगर वो सही है शिक्षित है यानी उसे ट्रेनिंग सही मिली है तो वो ही पूरी कौम तैयार कर देती है। यह उसकी जबरदस्त जिम्मेदारी होती है। इसीलिए नकल्ले ने कहा था कि आप मुझे अच्छी माँए दीजिए मैं आपको अच्छी फौज दूँगा। खानदान के बनाने में और फिर समाज के बनाने में औरत का बहुत बड़ा रोल है। अगर हम उसे नेगलेक्ट करते हैं तो समझिए कि हम दुनिया की आधी आबादी की तरक्की रोक रहे हैं। औरत समाज में मरकजी किरदार अदा करती है। बच्चों की परवरिश का जो रोल है वो औरत ही अदा कर पाती है, बाप नहीं कर सकता।
सुना है कि पिछले दिनों सुनार संगठन ने ये निर्णय लिया है कि बुर्के में आने वाली औरतों को सोना नहीं बेचेंगे तो आपकी दृष्टि से यह फैसला कहां तक उचित है?
पहला तो यह फैसला ही बहुत गलत है। यह तो इस्लाम को बदनाम करने की सिर्फ साजिश है। वो इसलिए कि यह सिर्फ बुर्के को कंडम करने की बात है और कुछ बात नहीं है। यह संगठन का फैसला बहुत ही गलत है। इसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। ये तो एक तौहीन है मुस्लिम औरतों की। उसके साथ-साथ बुर्के की तौहीन है, आप बुर्के में क्यों नहीं देगे। बुर्के का मतलब होता क्या है शायद उन्हें यही नहीं मालूम है। बुर्के का मतलब यह नहीं है कि काला ही हो, कोई भी रंग हो जो जिस्म को ढक सके। सर से लेकर पैर तक जिस्म ढकना चाहिए।
क्या कानून बनाकर महिलाओं के प्रति जो घटनाएं हो रही है उन्हें रोका जा सकता है?
बाज चीजें कानून के काबू में नहीं आती। कानून सिर्फ मददगार साबित हो सकता है लेकिन जब तक मर्दों का जहन यह न हो कि यह काम मजहब के खिलाफ है, समाज के खिलाफ है। मारना-पीटना मुनासिब नहीं है जब तक वो खुद नहीं समझेंगे तब तक कानून क्या करेगा। जब तक जहन नहीं बदलेंगे, खुदा का खौफ़ पैदा नहीं होगा। तब तक कुछ नहीं हो पायेगा।

Comments

Unknown said…
aapne bahut achcha likha hai. iske bare me mai shighra hi apne blog par likhunga yakin maniye meri prerna aapki post hi rahegi thanx

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