प्रताप दीक्षित
घण्टी बनजे पर उसने फोन उठाया था। दूसरी ओर केवल मौन का विस्तार था। वह ''हैलो-हैलो'' करती थी। कल से तीसरी बार ऐसा हुआ था। उसके चेहरे पर एक पल के लिए तनाव भरी झुंझलाहट के भाव आए परन्तु उसने उन्हें यत्नपूर्वक दबा लिया। वह चाहती तो फोन न उठातीं परंतु दिनचर्या के अलिखित से नियम की तहत इस तरह के सभी कार्य उसके नाम थे। दरवाजे की बेल बजने पर दरवाजा खोलना, पोस्टमैन से पत्र प्राप्त करना, धोबी के कपड़े मिलाना आदि-आदि। ड्राइंग रूम में मेहमानों के आने पर चाय की ट्रे लेकर वह ही हाजिर होती।
पिता जनार्दन राव को अपनी व्यस्तताएं थीं। मस्तमौला ठहाके लगाने वाले। एक अर्द्धसरकारी उपक्रम में अधिकारी थे। दफ्तर से जो समय बचता वह सामाजिक गतिविधियों में बीतता। अक्सर साहित्य और संगीत गोष्ठियां आयोजित होतीं। घर की जिम्मेदारी से एक प्रकार से मुक्त। वह स्वयं भी एक अच्छे वायलिन वादक थे। मम्मी को दोहरी जिम्मेदारी सम्हालनी पड़ती। नगरपालिका के स्कूल में अध्यापकी और घर की संपूर्ण व्यवस्था - उनके कथनानुसार - एक वही थीं जो निभा रही थीं।
उसने याद करने की कोशिश की कि ब्लैंक कॉल का यह सिलसिला कब से चल रहा था। स्मृतियों के द्वार पर दस्तक देते सिलसिले तो और भी थे। उन्हें वह क्रमबद्ध नहीं करना चाहती थी। परंतु अयाचित मेहमानों की तरह वे, बार-बार, आ उपस्थित होते हैं। दीदी की शादी के दो दिनों पहले सुवीर का फोन आया था। उसके हलो के जवाब में पहले तो वह मौन रहा। कुछ क्षण बाद उसने बताया था कि वह उसकी दीदी-समिधा से बात करना चाहता है। समिधा घर में नहीं थी। अगली बार फोन आने पर जब उसने कुछ कहना चाहा था तो सुवीर ने ठण्डे स्वर में कहा था, ''मैं तुमसे किसी तरह की बात नहीं करना चाहता।''
वह अपमान से हतप्रभ रह गई थी। उसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी। आखिर उसका दोष क्या है? क्या यही कि उसकी अपनी विचारधारा है। वह स्वयं के अस्तित्व और व्यक्तित्व निर्माण की आकांक्षा रखती है। पुरुष कितना भी शिक्षित हो, आधुनिकता का दिखावा करता हो। मुखौटा उतरते ही रूढ़िग्रस्त आदिम पुरुष में परिवर्तन हो जाता है। यदि ऐसा न होता तो सुवीर ऐसा आधुनिक, शिक्षित, कलाकार, सामाजिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्षरत पुरुष कछुए की भांति अपने खोल में क्यों सिमट जाता। उसका मन आक्रोश से भर उठता वह क्यों आम लड़कियों की तरह नहीं है। स्वतन्त्र व्यक्तित्व, आत्मनिर्भरता, समानता - यह सब किताबी बातें हैं। कोरे सिद्धान्त मात्र।
क्या वही दुनियां में अकेली लड़की है। घर में उकसी दीदी, चचेरी, फुफेरी बहनें हैं कि नहीं सब की सब पढ़ाई पूरी करती या पढ़ाई पूरी कर विवाह के लिए प्रतीक्षारत। माता-पिता द्वारा तय किए घर में दान-दहेज के साथ विदा हो जाएंगी। ससुराल से लौट वहां की प्रशंसा अथवा सास नन्दों की बुराई करेंगी। वह मुंह बिचकाती। क्या यही जिन्दगी है?
सूरत शक्ल से एकदम सामान्य परंतु चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक। पेण्टिंग, कविता, पत्रकारिता आदि की सनकें।
माँ अक्सर झुंझलाती, ''पूरे बाप के लक्षण हैं। उनकी तो पुरुष होने के नाते कट गई, तेरी कैसे पार लगेगी!''
वह कभी हंस देती तो कभी गुस्से में जवाब देती, ''तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी।''
लड़कियों के विवाह के प्रति पति की लापरवाही देख वह स्वयं इस ओर प्रयासरत रहतीं। रिश्तेदारी, बिरादरी में कौन लड़का क्या कर रहा है। किसकी नौकरी लग गई है। वह पूरी खबर रखने का प्रयास करती। आजकल सरकारी नौकरी मिलती कहां है? एम०आर० भी चलेगा। पति के पास दफ्तर के काम से आने वाले लड़कों, साहित्य-संगीत की गोष्ठियों मे आए युवाओं के संबंध में वह पति से जानकारी लेने का पूरा प्रयास करती। शिष्ट, सौम्य सुवीर अपीन विनम्रता, व्यवहार कुशलता के कारण उस समय ही उनका स्नेहपात्र बन गया था जब उन्हें पता भी नहीं था कि सुवीर न केवल अविवाहित बल्कि उनकी बिरादरी का ही था।
इकहरे बदन और गहरे सांवले रंग के सुवीर को घर परिवार से सम्पन्न भी नहीं कहा जा सकता था। परंतु उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था लोग उसकी ओर आकृष्ट हो उठते। उसके विचारों में सामाजिक परिवर्तन के लिए ज्वाला धधकती।
माँ ने सुवीर को लेकर भविष्य की योजनाएं बनानी चाही थीं। उन्हें दूसरी ओर पुत्री वंदना की विशेष चिंता थी। बड़ी, समिधा, को तो उसके रूप, शील, स्त्रियोचित गुणों के दम पर विवाह के बाजार में उचित मूल्य देकर वर मिलना बहुत कठिन नहीं था परंतु वन्दना की चेहरे की गहरी जन्मजात झाईयां जो चेहरे से शुरू होकर गले से नीचे तक फैली हुई थी, देखने वालों की प्रश्नवाचक दृष्टि मुखर कर देती।
उन्होंने सांवले, सामान्य परिवार के सुवीर और वंदना की जोड़ी-मेड फॉर ईच अदर मानते हुए - स्वयं तय कर ली थी।
उन्होंने पति से इस विषय पर एक दो बार बात करनी चाही। पति वायलिन के तार कस रहे होते या दफ्तर की किसी फाइल मे सिर गड़ाए होते। पति सिर उठा कर राय देते, ''इतनी जल्दी क्या है? अभी तो पढ़ ही रही है। उन्हें अपना कैरियर बनाने दो पहले।'' कह कर वह फिर अपने काम में लग जाते।
अन्ततः पति की ओर से निराश होकर एक दिन उन्होंने स्वयं सुवीर से इस विषय पर बात की थी। सुवीर ने विनम्रता के साथ कहा था -
''आंटी, आपके परिवार से जुड़ना मेरा सौभाग्य होगा। परंतु अभी तो मैं कुछ कर भी नहीं रहा हूँ। रिसर्च पूरी होने में भी अभी देर है।'' उसने वंदना का चित्र, दूसरे नगर में रहते अपने परिवार में दिखाने के लिए ले लिया था। वह परिवार का एक सदस्य बन गया था। अक्सर उसे खाने पर रोक लिया जाता। पारिवारिक समस्याओं पर उससे विचार विमर्श किया जाता। परिवार मे किसी की अस्वस्थता हो या बड़ी बेटी समिधा के लिए वर की तलाश। सुवीर की मदद आवश्यक होती।
मि० दयाल को तो उस विकासक्रम का, लंबे समय तक, पता ही नहीं था। यदि पता रहा भी होता तो इसमें कोई कोई विशेष अन्तर पड़ता, इसमें शक है। उनकी गोष्ठियां, बहस, ठहाके पूर्ववत् चल रहे थे।
वंदना ने भी जागते हुए रंगीन सपने बुनना शुरू कर दिया था। सुवीर सदा की भांति आता रहा। ड्राइंग रूम में सबके साथ टी०वी० देखते, बहस करते अथवा एक दूसरे की कविता सुनते। अकेले होने पर भी हंसी मजाक होता। कभी विशेष अर्थ लिए संवाद भी। आंखों में अनलिखे प्रश्न, जिज्ञासाएं, कुछ कहने को आतुरता होती।
फिर एक दिन अचानक सब कुछ बदल गया था।
उस दिन सुवीर ने वंदना और समिधा को एक रेस्ट्रा में आमंत्रित किया था। वहां सुवीर का एक मित्र भी था। औपचारिक बातचीत के बाद सुवीर ने वंदना से उसकी बीमारी, उकसे इलाज के संबंध में पूछा था। इस संबंध में चर्चा से वह सदा कुंठित हो जाती थी। वंदना ने अपना दुपट्टा हटा लिया था। कमीज के ऊपरी बटन खोल कर नीचे के बटन खोने का उपक्रम किया था।
''अरे यह क्या कर रही हो।'' सुवीर और उसका मित्र दूसरी ओर देखने लगे थे। समिधा आश्चर्यचकित थी।
''नहीं पहले सब कुछ स्पष्ट हो जाना चाहिए। जिससे बाद में किसी गलतफहमी की गुंजायश न रह जाए।'' फिर वंदना ने रूक कर कहा था, ''इस बीमारी का नाम न्यूरो फाईक्रोमा है। ल्यूकोडर्मा नहीं - जैसा आम लोग समझते हैं। यह छूत की बीमारी नहीं होती। परन्तु इसका अभी तक उपचार नहीं ढूँढ़ा जा सका है। आप भली-भाँति विचार कर, मित्रों-सम्बन्धियों को एक ही बार में दिखाकर उनकी अनुमति से निर्णय लें। किसी प्रकार की दया की जरूरत मुझे नहीं है।'' उसके स्वर में यथार्थ की निसप्रहता और तुर्शी एक साथ महसूस किए जा सकते थे।
वातावरण में स्तब्धता व्याप्त हो गई थीं सुवीर का सांवला रंग काला पड़ गया था वह हतप्रभ हो गया। उसने कुछ हकलाते हुए कहने की कोशिश की थी, ''मेरा मतलब यह नहीं था ...। मैं तो यूं ही ...।''
वह उनकी आखिरी मुलाकात थी।
सुवीर ने माँ से कहा था, ''मैं तो उसकी बीमारी के बाद भी तैयार था। परन्तु उसका यह व्यवहार, बात का तरीका, कटाक्ष! जहां तक मैं समझता हूँ कि मेरे परिवार के साथ उसका निर्वाह मुश्किल ही होगा।'' अपनी विवशता बताते हुए उसने समिधा के साथ अपनी सहमति दी थी।
वंदना मुसकराई थी,, ''इस बहाने की क्या आवश्यकता है। संबंध आपसी सहमति से होते हैं। उन्हें यदि गूंगी गुड़िया, करवाचौथ वाली संगिनी चाहिए तो आधुनिकता, स्त्री-स्वातंत्र्य आदि की कोरी बातों का दिखावा क्यों? आखिर दुनिया के इतने सारे पुरुष इसी तरह की स्त्रियां चाहते हैं ना! वह तो यह दिखावा भी नहीं करते। आप समिधा की शादी उनसे कर दें दोनों ही सुखी रहेंगे।''
समिधा ने पहली बार में ही साफ इंकार कर दिया था। सुवीर का आना धीरे-धीरे बंद हो गया था। उसने समिधा के इंस्टीट्यूट में मिल कर अपनी बात कहनी चाही थी। परन्तु समिधा की न हाँ में नहीं परिवर्तित हुई। सुवीरने अपने मित्र से दयाल जी से भी कहलाया था। उनकी गंभीरता मित्र के सामने पिघल गई थी। उन्होंने भावुक होकर कहा था, ''जब से मुझे इस संबंध में जानकारी हुई है, मैं स्वयं अनिर्णय की सिथति में हूँ। सुवीर जैसा सुपात्र पाकर मैं गौरवान्वित होता। परंतु मैं अपनी बात किसी पर आरोपित कैसे कर सकता हूँ। फिर एक टूटे हुए सपने की नींव पर दूसरा आशियाना बसाना क्या इतना सहज होता है।
कुछ दिनों बाद समिधा का विवाह तय हो गया था। इसके पहले पिता ने उससे सुवीर के विषय में अंतिम राय पूछी थी। विवाह में सुवीर नहीं आ सका था। अपने प्रोजेक्ट के संबंध में देश की सीमान्त आदिवासी इलाके में था।
कभी-कभी सुवीर के पत्र और फोन दयाल जी के लिए आते। फोन का रिसीवर उसके द्वारा उठाए जाने पर एक दीर्घ निःश्वास का आभास होता और फोन कट जाता। उसने फोन उठाना बंद कर दिया था। जीवन क्रम सामान्य होने लगा था। वह अपनी रिसर्च में व्यस्त हो गई थी।
उस दिन फोन की घण्टी देर तक बजती रही थी। वह बैठी रही। उसका इंट्यूशन कह रहा था कि फोन सुवीर का ही होगा। घर में कोई नहीं था। वही उठी। दूसरी ओर, उसकी आशंका थी, वही मौन का अन्तराल वह एक दो बार हलो-हलो कह कर फोन काटने को थी कि तभी दूसरी ओर से सुवीर की आवाज आई थी, ''वंदना फोन रखना मत मैं तुमसे ही बात करना चाहता हूँ।''
उसके चेहरे के भाव पल प्रतिपल बदल रहे थे। सातों महासागरों की अथाह लहरें उसके अंदर हिलोंरे ले रहीं थी। उसने सोचा यह निर्णय का एक क्षण केवल उसके भविष्य का क्षण नहीं है बल्कि पूरी सृष्टि की अस्मिता का क्षण है। उसकी आंखें आंसुओं से भरी थीं। वह अपने अंदर निरन्तर बजते रिकार्ड की तरह कहना चाहती थी - मैं तुमसे कोई बात नहीं करना चाहती। लेकिन वह कह नहीं सकी थी। कुछ कहने के पहले ही दूसरी ओर की बात सुनकर वह खिलखिला कर हंस दी थी। अब ऐसी लड़की-हाथ में फोन, आंखों में झर-झर करते आंसू और होठों पर खिलखिलाहट - देखकर कोई पागल न कहता तो और क्या कहता भला!-
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