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खूबसूरत शहर

- मो. इकबाल
स्वराज नाइट शिफ्ट कर के जब काम लौटा तो सुबह के सात बज रहे थे। घर से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर उसने एक बहुत बड़ी बेचैन भीड़ को देखा, जो पुलिस वालों से बहस कर रही थी। और उन झुग्गियों की तरफ़ इशारे कर रही थी, जिनमें उसका भी घर था, क़रीब आया तो देखा कि जहां कल तक जिन्दगी से भरपूर एक बस्ती थी, वहां से ऊँचे धूल के बादल उठ रहे थे। बुल्डोजर चलने की गड़गड़ाहट और गिरती-चरमराती हुई झुग्गियों का शोर उभर रहा था। सारी बस्ती एक मल्बे के चटियल मैदान में बदलती जा रही थी। जैसे उसमें जिन्दगी का कोई अंश भी बाक़ी न हो। हर तरफ तबाही ही तबाही थी। भीड़ में अनगिनत चेहरे उसके जानने वालों और पड़ोसियों के थे। उन्हें देखकर वह भी बेचैन हो उठा और इस तोड़-फोड़ का कारण जानने की कोशिश करने लगा। कुछ ही क्षणों में उसे पता चला कि झुग्गी कॉलोनी जिसमें वो रहता है कोर्ट के आर्डर के कारण तोड़ी जा रही है। ये सुनकर उसका दिमाग़ चकराने लगा और उसको अपनी जवान बेटी और नन्ही-सी नतनीं की फिक्र सताने लगी।
स्वराज की समझ में ये नहीं आ रहा था कि पिछली रात नौ बजे जब वह ड्यूटी करने के लिए झुग्गी से निकला था तो सब कुछ नॉर्मल था। उसकी बेटी अन्जू जिस पर उसके शराबी पति के मर जाने के बाद मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था, अपनी तीन बरस की बच्ची को सुलाने की कोशिश कर रही थी। पड़ोस से बच्चों के रोने, बरतनों के खड़खड़ाने और जोर-जोर से बातें करने की प्रतिदिन की तरह आवाज आ रही थी। सब कुछ रोज जैसा ही था। अब सुबह को इस भीड़ में रहकर उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि रात में ऐसा क्या हुआ कि सब कुछ उजड़ गया। पुलिस फोर्स बिल्कुल दीवार की तरह सबको रोके हुए खड़ी थी और झुग्गियों की तरफ़ जाने की किसी भी कोशिश को पूरी ताक़त से, डंडों और लाठियों की सहायता से नाकाम बना रही थी। उसने इस भीड़ में अपनी बेटी अन्जू और नन्हीं अनीता को तलाश करने की पूरी कोशिश की। पड़ोसी और अन्य झुग्गी कॉलोनी वाले जो भी मिले उनसे उन दोनों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की लेकिन कोई उसकी मदद न कर सका। सबने ये बताया कि जब तीन बड़े-बड़े बुल्डोजर तेजी से इलाके की तरफ़ आते हुए दिखाई दिए तो उनकी आवाज सुनकर बहुत लोग नींद से जाग गए और बाहर निकलकर ये देखने आए कि मामला क्या है। ये प्रातःकाल का समय था। मगर हजारों पुलिस वाले और सरकारी कर्मचारी झुग्गी कॉलोनी को अपने घेरे में ले चुके थे। कुछ ही मिंटों में लाउडस्पीकर पर सरकारी अफसरों ने ये ऐलान करना शुरू कर दिया कि'' कुछ ही क्षणों में इस गैरक़ानूनी झुग्गी कॉलोनी को हाईकोर्ट के आदेशानुसार तोड़ दिया जाएगा। आप सब लोगों को हुक्म दिया जाता है कि कॉलोनी तुरन्त ख़ाली कर दें'' पहले तो किसी की समझ में कुछ भी नहीं आया। लेकिन लोगों को हालत समझने में देर न लगी। एक भगदड़-सी मच गई और प्रत्येक व्यक्ति ने अपने घर का सामान और बच्चों को लेकर निकलने की कोशिश की। लेकिन वक्त इतना कम था और घबराहट इतनी ज्यादा कि बहुत कुछ वहीं रह गया। कुछ लोगों ने इस कार्रवाई को लड़कर या बुल्ड़ोजरों के सामने लेट कर रोकने की भी कोशिश की। औरतों ने अपनी भड़ास गालियों और कोसनों से निकाली। मगर पुलिस की ताक़त इतनी ज्यादा थी कि उनकी लाठियों के सामने कुछ भी शक्तिहीन साबित हुआ। पुलिस ने किसी को नहीं छोड़ा जिस ओर से भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की गई उसे जबरदस्त शक्तियों से कुचल दिया गया। पुलिस ने गालियों का जवाब लाठियों से और पत्थरों का जवाब हवाई फ़ायर से दिया। जिन लोगों ने जत्था बनाकर और रूकावटें लगाकर बाधा डालने की कोशिश की उन्हें पुलिस ट्रक और जीपों के नीचे कुचल देने की धमकियाँ देकर और भरपूर पिटाई करके रास्ते से हटा दिया गया। पुलिस के पास शक्तियाँ इतनी जबरदस्त थीं कि उन लाचार, निहत्थे और बिखरे लोगों के लिए घुटना टेकने के अलावा कोई रास्ता न था।
स्वराज को सुबह की इन सारी बातों को सुनने के बाद अंजू और अनीता की और भी फ़िक्र हुई। वह परेशान था कि उस तोड़-फोड़ में अंजू इतनी छोटी सी बच्ची को लेकर कहाँ गई होगी और उसकी झुग्गी में जो रोज काम आने वाला जरूरी सामान था, उसका क्या हुआ। वह इसी उधेड़-बुन में था कि भीड़ से आवाज आई -''पुलिस से पंगा लेना बेकार है आओ नेता जी के पास चलते हैं। वही हमारी मदद करेंगे।'' बाक़ी लोगों ने भी इसका समर्थन किया और ये तय किया कि नेता जी से ही मदद मांगी जाए - ''हमने पिछले इलेक्शन में न केवल उनको वोट दिये थे बल्कि पूरे क्षेत्रा में उनके लिए प्रचार का काम भी मिलजुल कर किया था। क्या वो हमारे इस आड़े वक्त में काम नहीं आएंगे?''
ये सारी गुफ्तुगू सुनकर स्वराज के दिमाग़ में एक उमीद की किरण पैदा हुई। वह पिछले दस सालों से नेताजी को जानता था। पहले वो पास की पक्की बस्ती में एक छोटे से मकान में रहते थे और साइकिल की मरम्मत की दुकान चलाते थे, किसी जानने वाले के द्वारा उनकी पहुँच इलाके के एम.एल.ए. तक हुई और उन्हें एम.एल.ए. का कार्यकर्ता बनने में फायदा नजर आया। कुछ ही दिनों में वह पार्टी वर्क़र बन गए और पार्टी की ''नीतियों के समर्थक'' जबकि वास्तव में, उनकी समझ में न तो पार्टी की नीतियाँ ही आती थीं और न ही उनका कारण। उन दिनों नेताजी राम प्रकाश, स्वराज के बहुत निकट रहे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि स्वराज भी पार्टी का सदस्य बन जाता। वो पार्टी के एजेण्डे और पॉलीसी के अनुसार मंदिर आन्दोलन में लोगों को एक जुट करने का काम करते थे। मगर एक काम के लिए वह स्वराज को राजी नहीं कर पाये क्योंकि उसके सवालों का जवाब नेताजी के पास नहीं था। स्वराज ये कहता था कि - ''रामजी के लाखों मंदिर हिन्दुस्तान के हर हिस्से में मौजूद हैं एक और मंदिर बना लेने से देश का क्या भला हो सकता है। दूसरी बात ये कि भगवान तो मन में बसते हैं, मंदिरों में नहीं ...'' राम प्रकाश को ये सब बातें नागवार लगती थी। लेकिन उनके पास कोई जवाब नहीं था। वो ख़ामोश हो जाते। वैसे भी स्वराज से झगड़े का कोई कारण नहीं था। क्योंकि दोस्ती और अपनेपन में वह राम प्रकाश की बात टालता नहीं था और राम प्रकाश के लिए भी ये फ़ायदे का सौदा था।

मंदिर आन्दोलन में जज्बात को उभारकर पार्टी ने भरपूर राजनीतिक लाभ उठाया। पार्टी आगे बढ़ी तो राम प्रकाश की भी क़िस्मत जागी। वह जल्द ही इलाके की पार्टी का अध्यक्ष बन गया और आने वाले चुनाव में, उसे चुनाव लड़ने का मौका भी मिला, जो उसने पार्टी के जज्बाती नारों की मदद से सरलतापूर्वक जीत लिया। उसकी इस सफलता में पुराने साथियों और दोस्तों का बड़ा हाथ था।
एम.एल.ए. बनने के बाद राम प्रकाश को बड़ी सरकारी कोठी मिली और वह इलाक़ा छोड़कर उसमें चले आये। अब वह एक सफ़ल और व्यस्त नेता थे। उसके पास इलाके की छोटी-छोटी समस्याएं और प्रतिदिन होने वाली परेशानियों को हल करने के लिए समय नहीं था। अब वह इलाके में तब ही आते थे जब उनके सम्मान में कोई सभा की जाती या केन्द्रीय पार्टी के किसी बड़े लीडर की रैली के लिए भीड़ इकट्ठी करनी होती।
इन सारी सच्चाइयों से स्वराज अच्छी तरह परिचित था लेकिन ये यक़ीन जरूर था कि राम प्रकाश इतनी बड़ी मुसीबत में पुराने सम्बन्धों के आधार पर उसकी मदद जरूर करेगा।
भीड़ का एक बड़ा हिस्सा जिसमें औरतें भी शामिल थीं, स्वराज और चार-पाँच दूसरे लोगों की अगुआई में नेताजी राम प्रकाश के घर पर जाने का फैसला किया। ये सभी लोग अलग-अलग बसों में बड़ी मुश्किल से नेताजी की कोठी पर पहुँचे। उस समय सुबह के दस बज रहे थे। सिक्युरिटी गार्ड ने बताया कि इस समय नेताजी किसी से नहीं मिलेंगे। उन्हें इसेम्बली पहुँचने की जल्दी है। आप लोग शाम को आइयेगा। यदि उन्हें फुर्सत होगी तो आप को बुला लेंगे। ये सुनकर स्वराज जैसे फट पड़ा - ''नेता जी से कहो, स्वराज उनसे मिलने आया है।''
शोर सुनकर कोठी के अंदर से दो नौकर निकल आए और जोर से बोले - ''आप लोग धीरे बोलें, नेताजी नाराज हो रहे हैं।''
स्वराज की बात सुनकर सिक्युरिटी गार्ड पर कोई असर न हुआ। भीड़ बेचैन होने लगी। सबको उमीद थी स्वराज की बात को नेताजी तक पहुँचाया जायेगा। लेकिन नेताजी के स्टाफ के लिए प्रतिदिन जैसी बात थी। प्रतिदिन कई-कई लोग आते थे और नेताजी से अपने रिश्ते की गहराई बयान करके उनसे तुरन्त मिलने की इच्छा प्रकट करते थे। इस पृष्ठभूमि में स्वराज और उसके साथ भूखी नंगी भीड़ की क्या औक़ात थी। नेताजी से मिलने की उमीद ख़त्म होने से भीड़ में बेचैनी बढ़ गई और इसी दौरान एक नौजवान ने पत्थर उठाकर खिड़की के शीशे पर फेंका और शीशा चकनाचूर हो गया। इत्तेफाक़ से ये नेताजी राम प्रकाश का अपना कमरा था। जहाँ पर वो एसेम्बली जाने के लिए तैयार हो रहे थे। पत्थर और टूटते शीशे के अचानक शोर ने उनके पारे को आसमान पर पहुँचा दिया और वो आपे से बाहर होकर अपने स्टाफ पर चिल्लाने लगे। कुछ ही क्षणों में घर का नौकर भागा हुआ आया। भीड़ और उसके रवैये के बारे में एक छोटी सी रिपोर्ट दी। ये सुनकर नेताजी का गुस्सा और बढ़ गया। और वो चिल्लाते हुए बाहर आए। सामने स्वराज और दूसरे जाने माने चेहरों को देखकर एक क्षण ठिठके और अपनी आवाज+ को धीमी करते हुए कहा कि - ''ये कोई वक्त और तरीक़ा है आने का'' पिछले कुछ घंटों के हालात और रात भर जागने के कारण स्वराज का दिमाग हांडी की तरह उबल रहा था। उससे राम प्रकाश का रवैया बर्दाश्त न हुआ और चिल्ला कर बोला -
''हमारे लिए ये जिन्दगी और मौत की घड़ी है और आपको आने का वक्त और तरीके की शिकायत है। क्या हमने हर अच्छे-बुरे वक्त में आपका साथ नहीं दिया था? अपने दिन-रात की अथक मेहनत हमने बिना किसी परिश्रमिक के की। जो आपकी सफलता की इसी सीढ़ी तक पहुँचाने के लिए जिम्मेवार है। आज जब हम बेघर कर दिये गये हैं। हमारे घरों को तोड़ दिया गया है। हमारी बस्ती को उजाड़ दिया गया है। हमारे बच्चे लापता हैं और हमारा सब कुछ लुट चुका है और पुलिस ने हमारे ऊपर जुल्म ढाए हैं। क्या आप हमारी मदद नहीं करेंगे?''
ये सुनकर राम प्रकाश ने धीमी आवाज में कहा - ''स्वराज अपने दो-तीन साथियों के साथ मेरे ऑफिस में बैठो और बाकी भीड़ बंगले से बाहर जा के सड़क पर इंतजार करे।''
ये सुनकर नौकर ने ऑफिस का दरवाजा खोला, स्वराज और उसके तीन साथियों को ऑफिस में बैठा दिया गया। सिक्युरिटी गार्ड ने डण्डे के इशारे से बाक़ी लोगों को बंगले के गेट से बाहर निकल जाने का इशारा किया। नेताजी अन्दर चले गए। स्वराज और उसके साथी लगभग पन्द्रह-बीस मिनट तक बेचैनी से नेताजी के आने का इंतजार करते रहे। हर लम्हे का इंतजार उनके लिए बहुत भारी था। लेकिन ये क्या कर सकते थे। लगभग आधे घंटे के बाद इंतजार ख़त्म हुआ और अन्दर वाले दरवाजे पर नेताजी देखे गए। नेताजी के चेहरे पर गुस्सा, झुंझलाहट और बेबसी के मिले-जुले भाव नजर आ रहे थे। उन्होंने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा - ''बताइये मैं आप लोगों के लिए क्या कर सकता हूँ? जो कुछ भी आप लोगों के साथ हुआ है उसका सम्बन्ध हमारी केन्द्रीय सरकार और उसके प्रशासन से नहीं है ये तो हाईकोर्ट के ऑर्डर के अनुसार हुआ है। जिसको रोकना या इस बारे में कुछ कर पाना हमारी पार्टी के बस से बाहर है, क्योंकि सरकार हमारी पार्टी की नहीं है और ये सब कुछ कांग्रेस की जनविरोधी पॉलीसियों के कारण हो रहा है। इस मामले में हमारे हाथ पूरी तरह बंधे हुए हैं। इस कार्रवाई को रोका नहीं जा सकता। मैं अगर आप लोगों की किसी और तरह से मदद कर सकूं तो बताइये।''
नेताजी का ये भाषण सुनकर उन चारों का दिमाग घूमने लगा और चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देने लगा। इसी बेबसी की हालत में स्वराज ने धीमी आवाज में कहा-''मेरी बेटी अंजू और नतनी लापता है। मैंने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की मगर तलाश नहीं कर सका...
राम प्रकाश ने उसे सांत्वना देते हुए कहा - ''फ़िक्र मत करो, मिल जाएंगे। मैं इलाके के ए.सी.पी. से बात करता हूँ। शाम तक कुछ न कुछ पता चल ही जाएगा।''
स्वराज के तीनों साथी जो बिना किसी हल के मीटिंग का अंत होता देख रहे थे उनकी बेचैनी बढ़ गई। रमेश ने अंदेशे से पूछा - ''मगर हमारे घरों का क्या होगा? हम कहाँ जायेंगे? ये कैसा लोकतंत्रा है कि आप लोग वोट माँगने के बजाये अपनी जिन्दगी संवारते हैं...?''
ये सुनकर नेताजी बोले - ''देखो भाई मैं तुम्हारे बीच से ही आया हूँ और तुम्हारी समस्याएं और परेशानियों को अच्छी तरह जानता हूँ मगर क्या किया जाये, हर साल लाखों लोग दिल्ली की ओर प्रस्थान करते हैं और दिल्ली शहर देश की राजधानी होने के बावजूद गंदगी, प्रदूषण और भीड़-भाड़ से बरबाद हुआ जाता है। हमारी सरकार और पार्टी ने अरबों रुपये खर्च करके दिल्ली शहर को खूबसूरत और दुनिया भर के लिए नमूना बनाने की भरपूर कोशिश की। मगर हम लोग इसमें सफल तब ही हो सकते हैं जब आप लोग हमारी मदद करें...''
सुरेन्द्र ये सुनकर आक्रोश और तेज स्वर में बोला - ''आप लोग दिल्ली शहर को सुन्दर बनाने की बात तो करते हैं मगर लाखों आवाम उसका सुख भोगने के बजाये अपनी रोजी और सर पर की छत तक गवां देती हैं।
स्वराज जो अभी तक ये गुफ्तुगू ख़ामोशी से सर झुका कर सुन रहा था। लगभग उखड़े हुए स्वर में बोला - ''नेताजी, आपको मालूम है मेरा नाम स्वराज क्यों है...?'' जवाब का इंतजार किये बिना अपने ही विचारों में मगन बोलता ही रहा - ''मेरे पिताजी बस्ती जिला के एक छोटे से गांव में अपनी थोड़ी सी जमीन जोता करते थे। जब गाँधी जी ने देश की स्वतंत्राता के लिए आन्दोलन चलाया तो अनपढ़ और ग़रीब होने के बावजूद गाँधी जी की आवाज पर आजादी की लड़ाई अर्थात्‌ आन्दोलन में शामिल हो गए थे। लाठियाँ खाई थीं और जेल भी गए थे। सम्पूर्ण स्वराज का सुन्दर सपना उनके लिए इतना मीठा था कि उसी दौरान आजाद हिन्दुस्तान की इतनी खूबसूरत तस्वीर खींचा करते थे और पास पड़ोस के सभी लोग उस सुन्दर सपने के पूरा होने का बेचैनी से इंतजार करते थे। जब मैं ये सब कुछ याद करता हूँ और आजादी के ५६ साल बाद अपनी हालत पर नजर डालता हूँ तो अपने पिताजी की सादगी और कम बुद्धि पर बहुत दुख होता है। उनके उस समय के सपनों और आज की वास्तविकता के बीच का फ़ासला शायद उतना ही है जितना स्वर्ग और नर्क के बीच का।''
नेताजी ने स्वराज की बात काटते हुए कहा - ''आप लोग धोखा खा गए, ये सब दूसरी समयवादी पार्टियों की ५० साल की ग़लत पॉलीसियों का परिणाम है। उसने आवाम को धोखा दिया। देश का बंटवारा कराया और मुसलमानों को खुश रखने के लिए हिन्दुओं के साथ कट्टरपन की नीति अपनाई। इस देश में बहुसंख्यक होने के बावजूद हिन्दू असुरक्षित है और मुसलमान बदमाशी पर उतारू रहते है। जब उन्हें पाकिस्तान मिल गया था तो इस देश की करोड़ों नौकरियों पर उनको कब्जा जमाने की इजाज+त क्यों दी गई। आप लोग हमारी पार्टी का साथ दें तो हम हिन्दुओं का सम्मान और पहचान के साथ गौरव की जि+न्दगी बिताने का मौका देंगे।''
रमेश बोला-''क्यों धोखा देते हैं। मस्जिद तोड़ने में हमने आपका भरपूर साथ दिया। इस बात को ग्यारह साल हो गये। आपने अपना कौन सा वायदा पूरा किया? छः साल से तो केन्द्र में आपकी ही सरकार है। हमारी जिन्दगी के हालात पहले से कहीं ज्यादा ख़राब हैं। अगर सड़कें बनी हैं तो हम उस पर चलाने के लिए गाड़ी कहाँ से लाएं? अगर टेलीफोन की संख्या देश में कई गुना बढ़ी है तो उससे हमें क्या फायदा? हमारे पास तो दो वक्त की रोटी और सर पर छत का इंतजाम करने के लिए भी पैसा नहीं है। कम्प्यूटर हमारे किस काम का?''
नेताजी इस बात पर नाराज हुए और बोले - ''आप लोग बहुत स्वार्थी हैं। सिर्फ अपना सोचते हैं, अरे भाई कुछ देश का भी सोचो। इस तरक्की से दुनिया में भारत का गौरव कितना बढ़ा है। आप लोगों को क्या मालूम। भारत की तरक्क़ी के दुनिया में हर तरफ़ चर्चे हैं। अटल जी की जय-जयकार हो रही है।''
स्वराज ये गुफ्तुगू सुनकर जल-भुन गया और चिढ़ कर बोला - ''आपका मतलब है कि बाइस ग़रीब बेसहारा औरतों को एक साड़ी के लिए अपनी जान गंवानी पड़ती है, शायद यही भारत की महानता को उजागर करता है। देश के प्रधानमंत्री इतने समय से इस इलाके से चुने जा रहे हैं यदि वहाँ पर जनता की बदहाली की ये स्थिति है तो देश में क्या हो रहा होगा? यदि देश की राजधानी में पुलिस हमारे ऊपर इतनी अत्याचार कर सकती है तो बाक़ी देश का तो ऊपर वाला ही मालिक है। नेताजी आप से केवल इतना कहा है कि ये बड़ी-बड़ी बातें जो हम बरसों से सुनते आ रहे हैं इसे छोड़कर छोटी-छोटी मौजूदा समस्याओं का हल तलाश करने की कोशिश करें। इस समय जो समस्या हमारे सर पर छत और हमारी बुनियादी जीवन की आवश्यकताऐं हासिल करने और पाने की है, और मेरे लिए तो मेरी बच्ची और नतनी की उसके लिए क्या करूं? हमें आपकी मदद चाहिए। भगवान के लिए हमारा साथ दें।''
नेताजी जो अब तक बुनियादी समस्याओं पर गुफ्तुगू करने से बचने की कोशिश कर रहे थे। इतने सीधे सवाल सुनने के बाद उन्हें अपने दिन की व्यवस्तता को याद कराने में ही टालने का रास्ता नजर आया, बोले - ''भाई! एसेम्बली में मेरी बहुत ही महत्त्वपूर्ण मीटिंग थी जिसके लिए आप लोगों के कारण मैं डेढ घंटा लेट हो चुका हूँ। अभी आप लोग चलें, मैं शाम तक आप लोगों के लिए कुछ करने की कोशिश करूँगा।''
नेताजी उन लोगों को भेजने के बाद अपनी कुर्सी पर आँखें बंद कर के हालात का जाइजा लेने लगे। उनके राजनीतिक दिमाग़ में बहुत जल्दी वाक़िये से जुड़े हुए फायेदे और नुक़सान का हिसाब क्षणों में लगा लिया था। इन हालात का फ़ायदा उठा कर वह पार्टी और अपनी राजनीतिक पोजीशन को मजबूत कर सकते थे और जेब भरने के रास्ते भी निकाल सकते थे। लेकिन इन नाजुक वक्त में अपनी राजनीतिक बिसात पर सोच समझकर चालें चलने का वक्त था। वर्ना साले विरोधी पार्टी वाले सारी मलाई ले उडेंगे। इन हालात में उन्होंने पुलिस और अफ़सर शाही से मिलकर मौके से फायदा उठाने की योजना बनानी शुरू कर दी।
नेताजी राम प्रकाश ने दिन की दूसरी व्यस्तता को रद्द करके अपना समय इस मामले से जुड़ी राजनीतिक बिसात पर लगाने के लिए सोचा। इन हालात में इलाके के पार्टी वर्करों से बात करना फिजूल नजर आया। इसलिए सबसे पहले उन्होंने हालात की तफसील जानने के लिए इलाके के थाने के एस.एच.ओ. को फोन किया। उससे हालात जानने और दूसरे पार्टी के प्रोग्राम की तफ़सील प्राप्त करने के बाद उनका अंदेशा कई गुना बढ़ गया। उन्होंने तुरन्त राज्य के पार्टी अध्यक्ष से बात करने की कोशिश की। परन्तु वह शहर में नहीं थे। इसके बाद ऐसेम्बली में अपने पार्टी के लीडर को टेलीफोन करके हालात की जानकारी दी और तुरन्त कुछ करने की जरूरत पर जोर दिया। लेकिन पार्टी के लीडर की इस मामले में ज्यादा दिलचस्पी न पाकर वह निराश हो गए। उन्होंने अपनी पार्टी के कई दूसरे एम.एल.ए. को फोन करके स्थिति से अवगत कराया और पार्टी की दिलचस्पी न लेने की शिकायत की, साथ ही ये समझाने की कोशिश भी की कि ऐसी स्थिति में उन सबकी पोजीशन भी अपने-अपने इलाके में खराब हो सकती है। शाम तक वह अपने पाँच साथी एम.एल.ए. को इस बात पर राजी करने में सफल हो गए कि वो एक टीम बनाकर केन्द्रीय शहरी-विकास मंत्री महोदय से मिलेंगे परन्तु जब पता चला कि वह विदेश छुट्टी मनाने गए हैं तो उनकी झुंझलाहट देखने के क़ाबिल थी।

स्वराज और सुरेन्द्र आदि नेताओं के बंगले से निकल कर जब बाहर आए तो उनके चेहरे लटके हुए थे और बाहर इंतजार करती हुई भीड़ को सुनाने के लिए उनके पास कोई अच्छी रिपोर्ट न थी। इस परेशानी की हालत में वापस अपने इलाके में जाने का और अपने बाक़ी साथियों से विचार विमर्श करने का फैसला किया। जब ये लोग वापस पहुँचे तो दोपहर हो चुकी थी। वहाँ पहुँचने पर उन्हें हालात कुछ बदले-बदले नजर आए। पुलिस पहले की ही तरह इलाके को घेरे खड़ी थी और टूटी हुई झुग्गियों के पास किसी को जाने की इजाजत न थी। मगर दूसरी पार्टी वालों ने बाहर एक रिलीफ़ कैम्प लगा दिया था। जहाँ मुफ्त का खाना बाँटा जा रहा था। वापस आने वाली भूखी-प्यासी भीड़ के लिए ये बहुत बड़े इनाम से कम न थी। कैम्प को चलाने वालों ने इस सबका स्वागत किया और पेट भर के खाना दिया। खाना खत्म होने के बाद कुछ पार्टी लीडर आए और उनसे कहा कि - ''भाईयों आप लोगों के साथ जयादती हुई और हम आप लोगों का दुख समझते हैं। पिछले इलेक्शन में आपकी कॉलोनी के अधिकतर लोगों ने वोट दूसरी पार्टी को दिया था मगर फिर भी हम आप की मदद को पहले आए। आपके घर को तोड़े जाने में हमारी राज्य सरकार का कोई हाथ नहीं है क्योंकि ये सब कुछ कोर्ट के ऑर्डर से हुआ है मगर हमारी सरकार ये कोशिश कर रही है कि आप लोगों की पूरी तरह से मदद की जाए। हमारे मुख्यमंत्री और शहरी विकास मंत्री आप लोगों से मिलना चाहते हैं ताकि आपकी समस्याओं को हल किया जा सके।''
इस सारी गुफ्तुगू का बस्ती के लोगों पर बहुत ही जबरदस्त असर हुआ और पार्टी जिन्दाबाद के नारे फ़िजा में बुलंद होने लगे। स्वराज की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी बेटी और नतनी को किस तरह तलाश करे। उसने बड़ी बे-दिली से रिलीफ़ कैम्प में कुछ निवाले जहर मार किए। क्योंकि उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने सोचा कि ''कम से कम अंजू और अनिता की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस स्टेशन में तो कर ही दूँ।'' वह ये सोचकर इलाके की पुलिस चौकी में गया और दोनों की गुमशुदगी के बारे में ड्यूटी अफ़सर से रिपोर्ट लिखने की विनती की। ड्यूटी अफ़सर से अंजू की उम्र और दूसरी निजी बातों के बारे में प्रश्न पूछने के बाद हंस कर बोला-''जा घर जा, यार के साथ भाग गई होगी। कुछ दिनों में वापस आ जाएगी।''
जब स्वराज ने उनकी बातों में पे ऐतराज करने की कोशिश की तो उसने गालियों की बौछार करने के बाद कहा-''ऐसे मामले हमारे पास रोज आते हैं, क्या पुलिस फोर्स तुम्हारी बस्तियों की आवारा लौंडियों को तलाश करने के लिए ही रह गई हैं। भाग जा यहाँ से।'' यह सुनकर स्वराज की आँखों में आँसू तैरने लगे और दुखी होकर वापस रिलीफ़ कैम्प में आ गया। लगभग चार बजते-बजते सामने के मैदान में एक स्टेज बना दिया गया और हजारों की संख्या में पार्टी के झंडे चारों ओर लहराने लगे। आस पास की झुग्गी-झोपड़ी कालोनियों से भी काफ़ी संख्या में लोगों को जमा किया गया और पाँच बजे तक बड़ी राजनीतिक पब्लिक मीटिंग की तैयारी पूरी हो चुकी थी। मुख्यमंत्री और शहरी विकास मंत्री के पहुँचने में भी देर न लगी। धुआंधर भाषण शुरू हो गये। प्रत्येक भाषणकर्ता इस बात पर जोर दे रहा था कि ये शहर की गरीब जनता के खिलाफ केन्द्रीय सरकार, विशेष रूप से शहरी विकास मंत्री का हाथ हो सकता है, इसको नाकाम बनाएं। मुख्यमंत्री, शहरी विकास मंत्री और दूसरे लीडरों ने जनता की लड़ाई में अपनी जान तक कुर्बान करने के वायदे कर डाले और आखिर में मुख्यमंत्री ने तालियों की गूंज में ये ऐलान किया, ''वह सारे लोग जो यहाँ से उजाड़े गये हैं उन्हें राज्य-सरकार की तरफ से दस-दस गज जमीन दी जाएगी।''
ये सारी कार्रवाई देखने के बाद उन सब लोगों की बहुत उमीदें बंधी थीं क्योंकि यहाँ पर जिन्दगी और मौत का सवाल था। अगले वक्त की रोटी और शाम को सर छुपाने के लिए सर पर छत की जरूरत थी। जो भी इस तत्कालीन आवश्यकता को पूरा करने की उमीद दिला दे उसी को अपना माई-बाप बनाने में आफ़ियत है। यहाँ मामला मूर्ख बनने का नहीं था बल्कि जिन्दा रहने के संघर्ष का था। इसीलिए जय-जय कार और नारे की गूंज में जिन्दगी का अंश नजर आया। पिछले ५६ साल के तजुर्बे याद करके दिल परेशान करने से कुछ हासिल नहीं हो सकता था।
जलसे में हुए ऐलान सुनने के बाद स्वराज को कुछ सुकून का एहसास हुआ कि कम से कम सर छुपाने की जगह तो मिल जाएगी। मगर एक तनाव के कम होते ही उसको अपनी बेटी और नतनी की फिक्र व्यग्रता से सताने लगी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? कहां जाए उन्हें तलाश करने? और उसके लिए किसकी मदद ले? इसी बीच उसे रिलीफ़ कैम्प और जलसे के व्यवस्थापकों में एक से उसका सामना हुआ और उसने अपनी परेशानी उससे बयान कर दी। कुछ ही लम्हों में वो इलाके के पार्टी अध्यक्ष के सामने खड़ा था जो पूरे जज्बात के साथ अपनी हमदर्दियों का इज्हार कर रहा था। जल्द ही लोगों का एक समूह जमा हो गया और लापता ''माँ-बेटी'' की तलाश न कर पाने के लिए ''पुलिस हाय-हाय'' के नारे गूंजने लगे और ये भीड़ नारेबाजी करती हुई पुलिस स्टेशन की तरफ़ चल पड़ी। पुलिस स्टेशन पर पहुँच कर पार्टी अध्यक्ष महोदय अपने कुछ चम्चों और स्वराज को लेकर एस.एच.ओ. के कमरे में चले गए। एस.एच.ओ. बड़ी गरमजोशी और अपनाइयत से मिला। तुरन्त चाय आदि का इंतजाम किया गया और एस.एच.ओ. ने सम्मानपूर्वक कहा--''श्रीमान इतनी भीड़ लाने की क्या जरूरत थी। मुझ को बुलवा लिया होता। मैं इस सिलसिले में कुछ करता हूँ...''
पुलिस स्टेशन के स्टाफ ने स्वराज का बयान लिया और एफ.आई.आर. दर्ज किया। स्वराज का दिल बहुत बेचैन था। उसने कहा - मैं अपनी टूटी हुई झुग्गी देखना चाहता हूँ। शायद मेरी बेटी और नतनी वहाँ कहीं फंस गये हो-पुलिस वालों ने उसका मजाक उड़ाया और कहा - ''वहाँ कोई कैसे हो सकता है? वो इलाक़ा तो खाली करा लिया गया था।'' ये तमाम कार्रवाई चल ही रही थीं कि अचानक एस.एच.ओ. के टेलीफोन की घंटी बजी और दूसरी तरफ से उनके मातहत पुलिस वालों ने बताया कि टूटी हुई झुग्गियों के मलवे से एक औरत और एक छोटी सी बच्ची की लाश बरामद हुई है। एस.एच.ओ. के दिमाग़ में अचानक बिजली कौंध गई और वो परेशान हो गये, इसलिए नहीं कि दो मजलूम इंसानों की लाशें बरामद हुई थीं बल्कि इसलिए कि इसकी सफ़ाई कौन-कौन और कैसे-कैसे देगा ताकि अपनी-अपनी नौकरियाँ बचाई जा सकें। टेलीफोन रखने के बाद एस.एच.ओ. पार्टी लीडर को एक दूसरे कमरे में ले गया और उसे फोन पर मिलने वाली सूचना के बारे में बताया। एस.एच.ओ. के चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी और उसी हाल में वह पार्टी अध्यक्ष से बार-बार कह रहा था - ''मैंने हमेशा आपका साथ दिया है आज आपको मुझे इस मुसीबत से निकालना होगा...''
अध्यक्ष महोदय ने भी उसे यक़ीन दिलाया कि - ''यदि वो उसके कहे पर चलता रहेगा तो वह उसकी जरूर मदद करेगा...''
वो दोनों लाशें वाकई अंजू और अनीता की थीं। अंजू सूर्योदय से पहले जब शौच आदि के लिए दूर मैदान में गई तो नन्हीं अनीता गहरी नींद में सो रही थी। अंजू के वापस आने से पहले ही झुग्गियां तोड़ने का काम शुरू हो चुका था। सरकारी अधिकारी और पुलिस, लाउडस्पीकर पर ऐलान करने के बाद इस बात से संतुष्ट हो गये कि झुग्गियां खाली हो चुकी हैं। नन्हीं अनीता गहरी नींद में अपनी बचपन का लुत्फ उठा रही होगी, इसका किसी को ख्+याल नहीं था। मगर अंजू ने वापस आते वक्त जब बढ़ते हुए बुल्डोजर को अपनी झुग्गी की तरफ आते हुए देखा तो उसकी ममता बेचैन हो उठी और चिल्लाते और रोते हुए अपनी झुग्गी में घुसकर अपनी बच्ची को बचाने की कोशिश करने लगी। बढ़ते हुए बुल्डोजर की आवाज टूटती दीवारों और गिरती हुई छतों का शोर इतना ज्यादा था कि चिल्लाती और बिलबिलाती अंजू की आवाज कोई न सुन सका। दो मासूम जानें सरकारी लापरवाही की भेंट चढ़ गईं।
बिलबिलाते रोते स्वराज को सांत्वना देने वालों के अलावा कोई न बचा था। इस घटना की जाँच के लिए एक कमीशन बनाया गया। जिसने पाँच साल के बाद यानी स्वराज की मृत्यु के डेढ साल बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की। जिसमें कहा गया था - ''ये केवल एक हादसा था और इसके लिए किसी को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता...''
बस्ती एक बार फिर से आबाद थी...!
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