अशोक गुप्ता़
गुर्खा फोर्ट की हाइक पर,
जून की भकभकाती गर्मी में,
विक्टर और मैं।
नदी सूखकर
छोटे छोटे टुकड़ों में
सिकुड़ गई थी।
पानी में गोल पत्थरों पर
धूप चमक रही थी।
छोटी छोटी गुलाबी मछलियां
अपने नन्हे मुंहों में पानी
निगलते हुए दौड़ रहीं थीं,
इधर उधर, लाचार और भूखी।
वे कांटे की ओर भागीं,
काला, नुकीला कांटा
उनके आतुर खुले मुंह
को साफ चीर गया।
यह आसान था, बहुत आसान,
हमने कितनी ही पकड़ीं
और उन्हे फेंक दिया,
स्कूल लौटने के रास्ते पर।
गुर्खा फोर्ट की हाइक पर,
जून की भकभकाती गर्मी में,
विक्टर और मैं।
नदी सूखकर
छोटे छोटे टुकड़ों में
सिकुड़ गई थी।
पानी में गोल पत्थरों पर
धूप चमक रही थी।
छोटी छोटी गुलाबी मछलियां
अपने नन्हे मुंहों में पानी
निगलते हुए दौड़ रहीं थीं,
इधर उधर, लाचार और भूखी।
वे कांटे की ओर भागीं,
काला, नुकीला कांटा
उनके आतुर खुले मुंह
को साफ चीर गया।
यह आसान था, बहुत आसान,
हमने कितनी ही पकड़ीं
और उन्हे फेंक दिया,
स्कूल लौटने के रास्ते पर।
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