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कविता

मूल चन्द सोनकर
तुझे जाने की थी जल्दी ये था बरख़िलाफ़ मेरे
कभी तो बताता क्यों था तू बर ख़िलाफ़ मेरे
करूँ किससे मैं शिकायत है कौन सुनने वाला
सारा जहाँ हुआ है जब बरख़िलाफ़ मेरे
पुरख़ार रास्तों पर किसका करूँ भरोसा
गिरे ही क़दम हुए हैं जब बरख़िलाफ़ मेरे
दुनिया में आने की जब तू न दौड़ जीत पाया
जाने में जीतने को हुआ बरख़िलाफ़ मेरे
तुझे ऐसी क्या थी जल्दी मुँह मोड़ चल दिया जो
अपनों को बख्श देता जो था बरख़िलाफ मेरे
ऐ काश! जान पाता तू मेरी बेबसी को
होता न तब तू शायद यूँ बरख़िलाफ़ मेरे
अल्लाह तेरी रहमत की ये भी बानगी है
मौत-ओ-नफ़स का शज्र : हुआ ख़िलाफ़ मेरे
तेरा लिहाज शायद गिरी बेबसी से हारा
तिरी सीरत-ए-तकल्लुफ किया बरख़िलाफ मेरे
अगर आईना मैं देखूं नजर आये शक्ल-ए-वालिद
बुना क्या कहूंगा क्यों था तू बरख़िलाफ़ मेरे
हूँ गुनाहगार तेरा, पशेमां हूँ बेबसी पर
मुझे तू मुआफ करना ऐ, बरखिलाफ़ मेरे
आऊँगा तुझसे मिलने जब रोज-ए-हश्र को मैं
मिन्नत है तब न होता तू बरखिलाफ़ मेरे
*********************
४८, राज राजेश्वरी, गिलट बाजार, वाराणसी
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Comments

seema sachdeva said…
मुझे आपकी कविता समझाने मे कठिनाई हो रही है , उर्दू शब्दावली का ज्यादा प्रयोग है ,इसलिए लेकिन मई जितना समझी ,उसका भाव और लय बहुत अच्छा लगा ,खासतौर पर निम्न पंक्तियां

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