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गुमशुदा

प्रताप दीक्षित
रघुवीर शरण के लिए ये अवकाश के क्षण थे। निश्चिंतता के भी। ऐसी स्थितियाँ कम ही होतीं। अधिकाँशतः खाली समय में, जिसकी इफ़रात होती, उनके हाथों में कागज और पेन रहता। चारों ओर छोटी-छोटी पर्चियों का ढेर लग जाता। वे एकाग्र मन से जाने क्या जोड़ा-घटाया करते। वर्तमान से कटे, आने वाले पलों से बेपरवाह।
सामान्यतः बँधी-बँधायी आमदनी वालों का लेखा-जोखा मात्रा खर्चों की कतर-ब्योंत एक सीमित रहता है। उन्हें भी प्रतिमाह एक निर्धारित राशि प्राप्त होती। खर्र्चे भी लगभग निश्चित। परन्तु वे आय के हिसाब-किताब के अलावा, आकस्मिक स्रोतों से होनेवाली आमदनी की संभावना का ध्यान रखते।
उन्हें लगता, जिन्दगी का क्या भरोसा? उन्हें कुछ हो गया तो! पक्षपात या हृदय का दौरा तो आज आम हो गया है। इसके अतिरिक्त नौकरी से निलम्बन की आशंका, बेटी के संभावित विवाह, पुत्रा के लिए एक अद्द नौकरी या रोजगार का जुगाड़। अनेकों समस्याएँ थीं, जहाँ एकमुश्त रकम की जरूरत पड़ सकती थी। वे अक्सर हिसाब फैलाते-प्राविडेण्ट फण्ड से अग्रिम पच्चीस हजार, बैंक की फिक्स्ड डिपॉजिट दस हजार, शेयर्स के...बचत खाते में शेष तीन सौ-कुल जोड़...
जोड़ने के बाद आने वाले योग की राशि किसी भी एक मद के लिए पर्याप्त सिद्ध न होती। किसी समय एक मित्रा के कहने पर, उन्होंने एक कम्पनी के शेयर्स खरीद लिए थे। वे समाचार-पत्रा में नियमित रूप से आर्थिक पृष्ठ पर नजर रखते। भाव में मन्दी होने पर चिन्तित, इसके विपरीत मुदित। सुरक्षा का एहसास। जहाँ कही इस सम्बन्ध में चर्चा होती, वे सजग हो जाते। कभी-कभी बीच में टोककर अपनी आशंकाओं का निराकरण करने का प्रयास भी करते।
कुछ दिनों में वे यदा-कदा लॉटरी के एक-दो टिकट भी खरीदते, जिनमें पुरस्कार की राशि बड़ी और इनाम खुलने की तिथि काफी दिनों बाद की होती। कम से कम उस दिन तक आशान्वित तो रहा जा सके। ताड़ की भाँति बढ़ती बेटी, एम.ए. पास बेरोजगार पुत्रा, मकान में एक कमरा बनवाकर किराए पर उठाना अथवा गाँव में गिरवी पड़ी जमीन छुड़ाने के लिए पिता को रुपए भेजना...सुरसा की भाँति फैलती जरूरतें! प्राथमिकता तय न कर पाने के कारण, कल्पना में इन सबमें संगति बैठाने की कोशिश करते।
दफ्तर में सहयोगी महँगाई भत्ते, सी.सी.ए. अथवा वेतन-निर्धारण में होने वाली विसंगतियों के सम्बन्ध में उनकी राय लेते। इस बारे में उनकी कोई अनुभवगत पृष्ठभमि नहीं थी। विद्यार्थी तो वे दर्शन और साहित्य के रहे थे। कदाचित्‌ कभी कविताएँ भी लिखते थे। परन्तु सतत्‌ अभ्यास और लम्बे समय तक कर्मचारी संगठन में सक्रियता के चलते वह इन मामलों में पारंगत हो गए थे। इसका शुमार इस कदर उनकी आदतों में हो गया था कि विगत कुछ वर्षों से यूनियन में नए आए युवा पदाधिकारियों का वर्चस्व और संगठन से एक प्रकार से दरकिनार कर दिये जाने के बावजूद भी वे किसी को मना कर पाते।
दिनचर्या में सुबह का अखबार, मन्दिर जाना तथा शाम को टी.वी. देखना तो शामिल था ही, संस्कारों के कारण गीता पाठ भी।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्‌य कर्मणः
कर्म किए बिना निस्तार भी तो नहीं था। ये यन्त्रावत्‌ एक ही मनःस्थिति में सभी कार्य निपटाते। जिस निस्संगता के साथ वे रात में पत्नी के साथ सोते, दिन में उसी निस्संगता के साथ अक्सर निर्णय लेते-बहुत हो चुका घर-परिवार...!
उस दिन में भी वे निश्ंिचत थे। शेयर बाजार उछाल पर था। खर्चों का मिलान अन्तिम पैसे तक मिल चुका था। घर में भी कुछ विपरीत घटित नहीं हुआ था। वे दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फीचर-फिल्म देखने की तैयारी में थे। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई पुजारी धूप-दीप-नैवेद्य के साथ पूजा-अर्चना की तैयारी करता है।
दूरदर्शन पर अभी गुमशुदा व्यक्तियों के सम्बन्ध में सूचित किया जा रहा था। यूँ उनका ध्यान इस ओर न भी जाता, परन्तु एक तो फुरसत और दूसरे पुरस्कार के उल्लेख ने उनका ध्यान आकृष्ट कर ही लिया।
...पुरुषोत्तम लाल, उम्र लगभग साठ वर्ष, औसत शरीर, सामान्य कद, गेहुंआ रंग, कोई निशान तथा पहचान का चिद्द उपलब्ध नहीं। अमुक तारीख से...'
सूचना देने के लिए टेलीफोन नम्बर, एक व्यापारिक संस्थान का पता तथा आकर्षक ईनाम देने की घोषणा भी की गई थी। पुरुषोत्तम लाल जी का चित्रा कुछ धुँधला-सा था। चित्रा से उनकी उम्र का सही पता नहीं चल रहा था। एक साधारण-सा बूढ़ा आदमी।
उन्होंने गौर से देखा। कहीं देखा-सा लगा उन्हें!
...अरे! यह विज्ञापन तो पिछले ही सप्ताह किसी अखबार में देखा है! उठावनी', रस्मपगड़ी', अंतिम अरदास' आदि की विज्ञप्तियों के बीच गुमशुदा का यह विज्ञापन भी दुबका हुआ था। वे सचेत हो उठे। पत्नी, पुत्रा, पुत्री सबको आवाज दे डाली। उन सबके कमरे में आने तक सूचना समाप्त हो गयी थी। उन्होंने पुराने अखबार माँगे। दुर्भाग्य कि सम्बन्धित अखबार न मिल सका।
इस घर में माँगने पर कुछ मिलता भी है? अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है!
कोई सुन रहा है मेरी बात?' इस बार भी उनकी आवाज में कडुवाहट थी।
सुन लिया है। आखिर उस मुए, पढ़े, बासी अखबार में क्या धरा है?'
तुम लोग नहीं समझोगे!'
उनका टी.वी. देखने का मजा किरकिरा हो गया। मन न लगा।
रघुवीर शरण ने बहुत प्रयास किए, पर अखबार न मिलना था, न ही मिला। उन्हें तो ठीक से अखबार का नाम और तारीख भी याद नहीं। पता नहीं घर, दफ्तर या किसी लायब्रेरी में...कहीं देखा तो जरूर था। अब याददाश्त भी तो इस उम्र में साथ नहीं देती। इश्तिहार की हल्की-सी झलक उनके जेहन में थी।
उन्होंने सोचा, प्रयास करने में हर्ज ही क्या है। पुरस्कार की राशि नहीं मिलेगी तो पास से क्या जाता है? उचित राशि दस हजार से कम तो भला क्या होगी! बड़े लोग हैं, अधिक भी हो सकती है। पर उन्हें शंका हुई, कई बड़े आदमी मक्खीचूस भी होते हैं। कहीं सूखा-सा धन्यवाद देकर, दो-चार सौ ही न पकड़ा दें।
रघुवीर शरण सोचने लगे...यदि पहले न भी रहा हो तो भी इस उम्र तक आदमी धार्मिक होना शुरू हो ही जाता है। बढ़ती आयु जंगल में हाँकेवालों की तरह दौड़ाती है। मन जंगली जानवर-सा भयाक्रांत मन्दिर, इस-उस आश्रम, गुरु तक, न जाने कहाँ-कहाँ दौड़ता फिरता है।
अवश्य किसी ऐसी ही जगह होंगे। पिछले दिनों नगर में एक प्रख्यात कथावाचक संत का आगमन हुआ था। उनके प्रवचन में हजारों की संख्या में लोग उपस्थित होते, दीक्षा लेते। किताबें, कैसेट, ताबीज, लॉकेट, खरीदते। बुढ़ऊ जरूर वहाँ होंगे।
रघुवीर शरण प्रतिदिन प्रवचन-स्थल पर पहुँच जाते। उनकी खोज आरम्भ हो जाती। प्रवचन चलता रहता।
वे मनोयोग के साथ चारों ओर चक्कर लगाते। किताबों, कैसेट के स्टॉल...यहाँ तक कि साथ के पार्क में भी नजर डाल आते। कार्यक्रम के बाद भारी भीड़ छूटती। वे चेहरों को निहारते। पहचानने की कोशिश जारी रखते। धक्के भी खाते। कई बार उन्हें लगा कि वांछित सफलता मिली, लेकिन यह उनका भ्रम मात्र होता।
इसी दौरान वे मन्दिरों, गंगा-घाटों, आश्रमों में भी चक्कर लगा आए, लेकिन निराशा ही हाथ लगी।
पहले उन्होंने नहीं सोचा था कि काम इतना मुश्किल होगा। वे सोचने लगे-पुरुषोत्तम लाल जाएँगे कहाँ? सम्पन्न परिवार, उम्र के हिसाब से परहेजी सही, भरपेट भोजन, करने को भरपूर आराम। क्या मन ऊब नहीं जाता होगा? अवश्य ही ऊब गया होगा! वे व्यस्त होते गये। सुबह से शाम, कभी रात तक भी बाजारों, पार्क, रेस्तराँ में घूमते रहते बूढ़े, बच्चे एक समान। जीभ पर नियंत्राण नहीं रह पाता। क्या पता किसी हलवाई, चाटवाले या रेस्तराँ में ही दिख जाएँ! उनका बजट गड़बड़ाने लगा। वे किसी भीड-भाड़वाले होटल, दुकान में ऐसी जगह बैठ जाते जहाँ वे दूर तक का नजारा ले सकें।
वेटर थोड़ी-थोड़ी देर में पूछ जाता, साहब कुछ और?
अन्त में वे उठ जाते।
एक दिन उनके मन में आया कि हो न हो, किसी अस्पताल में भी देख लिया जाए। उन्हें सुनी-सुनाई घटनाएँ याद आईं, जिसमें स्मृति का लोप हो जाता है। नगर में कई अस्पताल थे। अक्सर मरीज सोए हुए मिलते। उन्हें कठिनाई होती। वैसे भी लेटे हुए सभी एक जैसे लगते। कई दिनों तक जाना पड़ा, पर परिणाम कुछ न निकला।
उन्हें लगा कि क्यों न रेड-लाइट इलाके में भी एक चक्कर लगा आएँ? इस आयु में बुझते दीपक की लौ एकाएक तेज हो जाती है। शरीर तो साथ नहीं देता, पर मन तो लगता, कभी-कभी, आदमखोर बन जाता है। यद्यपि यह बदनाम इलाका पुलिस ने जाने कब खाली करा लिया था, बरसों से धन्धा बन्द सुना जाता था, फिर भी उनकी हिम्मत गली में जाने की न पड़ी।
अब तो उन पर धुन सवार हो गई थी। एक जुनून-सा। पुरस्कार का ख्याल तो जाने कब उनके मन से निकल गया था। वे सोचते रहते कि पुरुषोत्तम लाल किस हाल में होंगे? पास में पैसे बचे हैं या नहीं? पकी उम्र के रईस आदमी हैं, सम्भवतः माँग सकते नहीं किसी से।
कहीं भूखे-प्यासे न पड़े हों! घर क्यों छोड़ा? किसी पारिवारिक समस्या के कारण? वसीयत के लिए पुत्रों, परिवारवालों से कोई टकराव तो नहीं है? अब तो कपड़े भी चीकट हो गये होंगे। पत्नी है या नहीं? बच्चों को वास्तव में फिक्र है तो दुबारा विज्ञापन क्यों नहीं दिया?
वे खोए हुए रहते। उनके शौक टी.वी., पान सब छूट गए। गीता-पाठ में भी नागा हो जाता। उनका खाना, सोना सब अनियमित होता गया। कई-कई दिनों तक दाढ़ी न बनाते। बनाने की फुर्सत ही न मिलती। कपड़े न बदलते। घर में पत्नी, बेटे, बेटी सब परेशान रहते।
क्या हो गया है? पहले तो ऐसे न थे। दफ्तर से वापस थके-हारे आते। कुछ दिनों से तो जाने-आने का कोई समय ही नहीं रहा...।
एक दिन उनके सहकर्मी वर्मा जी ढूँढते हुए घर आए, तब परिवारवालों को पता चला, कई दिनों से ऑफिस गए ही नहीं थे। पूछने पर भड़क जाते, तुम्हें क्या? तुम सबके लिए पूरा जीवन लगा दिया। किसी को फिक्र है?
जाने क्या-क्या एक ही साँस में कह जाते! रात में नींद न आती। कभी कोई पुस्तक उठाते, पर मन न लगता। झुँझलाते। कभी सोने के पहले या सोती पत्नी को जगाकर अजीब-अजीब प्रश्न पूछते। कहते, आखिर इस आयु में लोग कहाँ गायब हो जाते हैं?....यदि मैं घर छोड़कर जाऊँ तो बता सकती हो, कहाँ जाऊँगा?
पत्नी नींद में जवाब देती, ÷क्या हो गया है तुम्हें! खुद तो नींद आती नहीं, पर मुझे तो सोने दो।'
रघुवीर शरण ने ऑफिस से एक सप्ताह की छुट्टी बढ़वा ली। उनसे एक चूक हो गयी थी। उन्हें रेलवे-स्टेशन, प्लेटफॉर्म पहले ही देख लेना चाहिए था। बिना ठिकाने का आदमी कहाँ रहेगा!
वे पुनः उत्साहित हो गए। प्लेटफॉर्म पर तो बरसों गुजारे जा सकते हैं। भीड़ में किसका ध्यान जाता है? वे प्लेटफॉर्म टिकट ले स्टेशन पर बने रहते। एक प्लेटफॉर्म से दूसरे पर। गाड़ियों का अन्तहीन सिलसिला। कोई न कोई टे्रन आती या छूटती रहती। वे कम्पार्टमेंट में झाँककर देखते। थक जाते तो किसी खाली बेंच पर सुस्ता लेते। एक दिन तो हद हो गई। उनके हाथ पर सिक्का रखकर, ÷बाबा, आगे बढ़ो!' कहता एक युवक जल्दी में चला गया था।
वे थके लौटे थे। घर में पत्नी, पुत्रा आदि सभी की मुद्राएँ सामान्य नहीं थीं। पत्नी अपनी बेटी से फुसफुसा रही थी, किसी ने जरूर कुछ करा दिया है। कोई जादू-टोना।
रात गहरा आई थी। वे चुपचाप अन्दर कमरे में जाकर बैठ गए। थकावट से चूर। जूते उतार पैरों को अपने हाथों से दबाते, निढ़ाल बिस्तर पर लुढ़क गए। शरीर से ज्यादा क्लांत मन, विचार-शून्य। धुँधली दृष्टि डे्रसिंग टेबिल के आईने पर पड़ी। सामने एक दाढ़ी बढ़ा, असमय वृद्ध, काला पड़ गया रंग! उन्हें कहीं देखा हुआ लगा। गौर से दुबारा देखा तो हतप्रभ रह गए।
पत्नी, पुत्र, पुत्री....आज सभी कारण जान लेने पर आमादा थे। पत्नी कमरे में आई। बाकी लोग दरवाजे पर ही ठिठके थे। वह अवाक्‌ रह गई। रघुवीर शरण फूट-फूटकर हिचकियाँ लेते हुए रो रहे थे।

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