- मूलचन्द सोनकर
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हमारे शास्त्र कन्या-संभोग और बलात्कार के लिये भी प्रेरित करते हैं। मनुस्मृति के अध्याय ९ के श्लोक ९४ में आठ वर्ष की कन्या के साथ चौबीस वर्ष के पुरुष के विवाह का प्रावधान है। ‘भारतीय विवाह का इतिहास'(वि.का. राजवाडे) के पृष्ठ ९१ पर उद्धृत वाक्य ‘‘चौबीस वर्ष का पुरुष, आठ वर्ष की लड़की से विवाह करे, इस अर्थ में स्मृति प्रसिद्ध है। विवाह की रात्रिा में समागम किया जाय, इस प्रकार के भी स्मृति वचन हैं। अतः आठ वर्ष की लड़कियाँ समागमेय हैं, यह मानने की रूढ़ि इस देश में थी, इसमें शक नहीं।'' इसी पुस्तक के पृष्ठ ८६-८७ तथा ९० के नीचे से चार पंक्तियों को पढ़ा जाय तो ज्ञात होता है कि कन्या के जन्म से लेकर छः वर्ष तक दो-दो वर्ष की अवधि के लिये उस पर किसी न किसी देवता का अधिकार होता था। अतः उसके विवाह की आयु का निर्धारण आठ वर्ष किया गया। क्या इससे यह संदेश नहीं जाता कि कन्या जन्म से ही समागमेय समझी जाती थी क्योंकि छः वर्ष बाद उस पर से देवताओं का अधिकार समाप्त हो जाता था। यम संहिता और पराशर स्मृति दोनों ही रजस्वला होने से पूर्व कन्या के विवाह की आज्ञा देते हैं (खट्टर काका पृष्ठ १०१) निम्न श्लोक देखें-प्राप्ते तु द्वादशे वर्षे यः कन्यां न प्रयच्छति/मासि मासि रजस्तयाः पिब्रन्ति पितरोऽनिशम्। (यम संहिता)
यदि कन्या का विवाह नहीं होता और यह बारह वर्ष की होकर रजस्वला हो जाती है तो उसके पितरों को हर माह रज पीना पड़ेगा-रोमकाले तु संप्राप्ते सोमो सुंजीथ कन्यकाम/रजः काले तुः गंधर्वो वद्दिस्तु कुचदर्शने।
रोम देखकर सोम देवता, पुष्प देखकर गंधर्व देवता और कुच देखकर अग्नि देवता कन्या का भोग लगाने पहुँच जायेंगे।
जिस धर्म के देवता इतने बलात्कारी, उस धर्म के अनुयायी तो उनका अनुसरण करेंगे ही। कुंती के साथ सूर्य के समागम का विवरण राजवाडे के शब्दों में इस प्रकार है,-’वनपर्व' के ३०७वें अध्याय में सूर्य कहता है- ‘‘हे कुंती, कन्या शब्द की उत्पत्ति, कम् धातु से हुई और इसका अर्थ है- चाहे जिस पुरुष की इच्छा कर सकने वाली। कन्या स्वतंत्र है, स्त्रियों और पुरुषों में किसी प्रकार का परदा या मर्यादा न होना- यही लोगों की स्वाभाविक स्थिति है, विवाहादि संस्कार सब कृत्रिम हैं, अतः तुम मेरे साथ समागम करो, समागम करने के बाद तुम पुनरपि कुमारी ही, अर्थात् अक्षत योनि ही रहोगी।'' (वही, पृष्ठ ८९-९०) और देवराज इन्द्र द्वार बलात्कार के किस्से तो थोक के भाव मौजूद है।
यह रहा, तथाकथित पूज्य वेदों, पुराणों, महाभारत इत्यादि का स्त्रियों के प्रति रवैये की छोटी-सी बानगी। संस्कृत वाङ्मय के ग्रन्थ अथवा साहित्यिक रचनायें अथवा उनसे प्रेरित श्रृंगारिक कवियों की श्रृंगारिक भाषायी रचनाओं से लेकर आधुनिकता का लिबास ओढ़े चोली के पीछे क्या है.... ‘अथवा' मैं चीज बड़ी हूँ मस्त-मस्त..... तक के उद्घोष में स्त्री-पुरुष बराबर के साझीदार हैं। इन कृतियों में से होकर एक भी रास्ता ऐसा नहीं जाता जिस पर चलकर स्त्री सकुशल निकल जाये, फिर भी वह इनके प्रति सशंकित नहीं है तो इस पर गहन, गम्भीर विमर्श होना चाहिये। सबसे बड़ी विडम्बना तो स्त्रियों का कृष्ण के प्रति अनुराग है जबकि स्त्रियों के साथ कृष्ण-लीला इनके चरित्र का सबसे कमजोर पहलू है। ब्रह्म वैवर्त में कृष्ण का राधा या अन्य गोपियों के साथ संभोग का जैसा वर्णन है, उसको पढ़कर उनके आचरण को अध्यात्म की भट्ठी में चाहे जितना तपाया जाये, उसे नैतिकता के मापदण्ड पर खरा नहीं ठहराया जा सकता।
मनु स्मृति संभवतः ऐसा अकेला ग्रन्थ है जिनसे भारतीय मेधा को न केवल सबसे अधिक आकर्षित किया अपितु व्यवहार-जगत् में उसकी मानसिकता को ठोस एवं स्थूल स्वरूप भी प्रदान किया। भारतीय मेधा अर्थात् भारतीय राज्य-सत्ता और उसके द्वारा पोषित सामंती प्रवृत्तियों का गंठजोड़, जिसके हाथ में मनु ने मनुस्मृति के रूप में, ‘करणीय और अकरणीय' का औचित्य-विहीन संहिताकरण करके एक क्रूर और अमानवीय हथियार पकड़ा दिया और उसे धर्म-सम्मत मनमानी करने का निर्णायक अवसर प्रदान कर दिया। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मनुस्मृति का सबसे घातक दुष्परिणाम यह हुआ कि इसने पहले से ही क्षीण होती जा रही संतुलन-शक्तियों का समूल विनाश कर दिया। शूद्र (वर्तमान दलित) और स्त्री के लिये दंड-विधान के रूप में ऐसे-ऐसे प्रावधान किये गये कि इनका जीवन नारकीय हो गया।
विषय-वस्तु के बेहतर प्रतिपादन के लिये थोड़ा विषयान्तर समीचीन दिखता है। मनु-स्मृति में हमें तीन बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं। पहला, वर्ण-व्यवस्था का पूर्ण विकसित और अपरिवर्तनीय स्वरूप (मनु १०.४) दूसरा, राक्षस या असुर जाति का विलोपीकरण और तीसरा देवताओं के अनैतिक आचरण को विस्थापित करके उनकी कल्याणकारी इतर शक्तियों के रूप में स्थापना। वर्ण-व्यवस्था का सिद्धान्त आर्यों की देन है जो ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से प्रारम्भ होता है और सभी अनुवर्ती ग्रन्थों में जगह पाता है। स्त्रियों की भाँति राक्षसों की भी उत्पत्ति वर्ण-व्यवस्था से नहीं होती। सुर और असुर के मध्य लड़े गये तमाम युद्धों का वर्णन वैदिक साहित्य में भरे पड़े हैं। रामायण काल तक राक्षस मिलते हैं, महाभारत काल में विलुप्त हो जाते हैं। महाभारत काल में कृष्ण के रूप में ईश्वर अवतार लेते हैं। गीता में अपने अवतार का कारण अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना करना बताते हैं। प्रत्यक्ष विनाश वे अपने मामा कंस का करते है। महाभारत युद्ध की विनाश-लीला के नायक होते हुए भी इस युद्ध में उनकी भूमिका राम की तरह नहीं है। कृष्ण का मामा होने के कारण कंस को राक्षस कहा जाय तो सबसे बड़ी अड़चन यह आयेगी कि कृष्ण को भी राक्षस कहना पड़ेगा लेकिन थोड़ा-सा ध्यान दें तो इस गुत्थी को सुलझाना बहुत आसान है। राम और रावण के बीच लड़ा गया युद्ध निश्चित रूप से आर्यों के बीच लड़ा गया अन्तिम महायुद्ध था जिसमें आर्यों की सबसे बड़ी कूटनीतिक विजय यह थी कि आर्य राम की सेना अनार्य योद्धाओं की थी और रावण की पारिवारिक कलह चरम पर थी। इसका प्रत्यक्ष लाभ राम को यह मिला कि उन्हें घर का भेदी ही मिल गया और लंका ढह गयी। आर्य संस्कृति की विजय हुई लेकिन वर्चस्व स्थापित नहीं हो सका होगा। क्योंकि विभीषण चाहे जितना बड़ा राम भक्त राह हो, तो अनार्य ही न और फिर रावण की पटरानी मंदोदरी ही उसकी पटरानी बनी। क्या विभीषण कभी उससे आँख मिला पाया होगा? क्या कभी मंदोदरी यह भुला सकी होगी कि वह जिस कायर की पत्नी है उसी के विश्वासघात ने उसके प्रतापी पति की हत्या करवाई थी।
इस कड़ी को कृष्ण द्वारा कंस के संहार से जोड़कर देखें तो स्थिति यह बनती है कि अनार्यों की बची-खुची शक्ति के सम्पूर्ण विनाश के लिये इस बार घर से ही नायक को उठाया गया। यह इस बात से सिद्ध है कि कृष्ण के नायकत्व या संयोजकत्व में जितने भी युद्ध लड़े गये सभी पारिवारिक थे। अतः यह कहा जा सकता है कि अनार्य आपस में लड़कर विनाश को प्राप्त हुए और वर्ण से बाहर की दलित जातियाँ उन्हीं की ध्वंसावशेष हैं। इस सम्पूर्ण विजय के बाद आचरण हीन देवता स्वयं को कल्याणकारी इतर शक्ति के रूप में स्थापित कराने में सफल हो गये तो क्या आश्चर्य।
मनु स्मृति शांति काल की रचना प्रतीत होती है जिसमें शासन-व्यवस्था के संचालन और समाज को नियंत्रित करने का प्रावधान है। स्पष्ट है कि इसका डंडा वर्णेतर जातियों पर पड़ना था और पड़ा भी। दलित और स्त्री उन सभी सुविधाओं और अवसरों से वंचित कर दिये गये जो उनके बौद्धिक-क्षमता के विकास में सहायक थे। इस प्रकार मनु स्मृति से भी यह सिद्ध होता है कि दलित और स्त्री वर्ण-व्यवस्था के बाहर का समुदाय है।
हमारे शास्त्र कन्या-संभोग और बलात्कार के लिये भी प्रेरित करते हैं। मनुस्मृति के अध्याय ९ के श्लोक ९४ में आठ वर्ष की कन्या के साथ चौबीस वर्ष के पुरुष के विवाह का प्रावधान है। ‘भारतीय विवाह का इतिहास'(वि.का. राजवाडे) के पृष्ठ ९१ पर उद्धृत वाक्य ‘‘चौबीस वर्ष का पुरुष, आठ वर्ष की लड़की से विवाह करे, इस अर्थ में स्मृति प्रसिद्ध है। विवाह की रात्रिा में समागम किया जाय, इस प्रकार के भी स्मृति वचन हैं। अतः आठ वर्ष की लड़कियाँ समागमेय हैं, यह मानने की रूढ़ि इस देश में थी, इसमें शक नहीं।'' इसी पुस्तक के पृष्ठ ८६-८७ तथा ९० के नीचे से चार पंक्तियों को पढ़ा जाय तो ज्ञात होता है कि कन्या के जन्म से लेकर छः वर्ष तक दो-दो वर्ष की अवधि के लिये उस पर किसी न किसी देवता का अधिकार होता था। अतः उसके विवाह की आयु का निर्धारण आठ वर्ष किया गया। क्या इससे यह संदेश नहीं जाता कि कन्या जन्म से ही समागमेय समझी जाती थी क्योंकि छः वर्ष बाद उस पर से देवताओं का अधिकार समाप्त हो जाता था। यम संहिता और पराशर स्मृति दोनों ही रजस्वला होने से पूर्व कन्या के विवाह की आज्ञा देते हैं (खट्टर काका पृष्ठ १०१) निम्न श्लोक देखें-प्राप्ते तु द्वादशे वर्षे यः कन्यां न प्रयच्छति/मासि मासि रजस्तयाः पिब्रन्ति पितरोऽनिशम्। (यम संहिता)
यदि कन्या का विवाह नहीं होता और यह बारह वर्ष की होकर रजस्वला हो जाती है तो उसके पितरों को हर माह रज पीना पड़ेगा-रोमकाले तु संप्राप्ते सोमो सुंजीथ कन्यकाम/रजः काले तुः गंधर्वो वद्दिस्तु कुचदर्शने।
रोम देखकर सोम देवता, पुष्प देखकर गंधर्व देवता और कुच देखकर अग्नि देवता कन्या का भोग लगाने पहुँच जायेंगे।
जिस धर्म के देवता इतने बलात्कारी, उस धर्म के अनुयायी तो उनका अनुसरण करेंगे ही। कुंती के साथ सूर्य के समागम का विवरण राजवाडे के शब्दों में इस प्रकार है,-’वनपर्व' के ३०७वें अध्याय में सूर्य कहता है- ‘‘हे कुंती, कन्या शब्द की उत्पत्ति, कम् धातु से हुई और इसका अर्थ है- चाहे जिस पुरुष की इच्छा कर सकने वाली। कन्या स्वतंत्र है, स्त्रियों और पुरुषों में किसी प्रकार का परदा या मर्यादा न होना- यही लोगों की स्वाभाविक स्थिति है, विवाहादि संस्कार सब कृत्रिम हैं, अतः तुम मेरे साथ समागम करो, समागम करने के बाद तुम पुनरपि कुमारी ही, अर्थात् अक्षत योनि ही रहोगी।'' (वही, पृष्ठ ८९-९०) और देवराज इन्द्र द्वार बलात्कार के किस्से तो थोक के भाव मौजूद है।
यह रहा, तथाकथित पूज्य वेदों, पुराणों, महाभारत इत्यादि का स्त्रियों के प्रति रवैये की छोटी-सी बानगी। संस्कृत वाङ्मय के ग्रन्थ अथवा साहित्यिक रचनायें अथवा उनसे प्रेरित श्रृंगारिक कवियों की श्रृंगारिक भाषायी रचनाओं से लेकर आधुनिकता का लिबास ओढ़े चोली के पीछे क्या है.... ‘अथवा' मैं चीज बड़ी हूँ मस्त-मस्त..... तक के उद्घोष में स्त्री-पुरुष बराबर के साझीदार हैं। इन कृतियों में से होकर एक भी रास्ता ऐसा नहीं जाता जिस पर चलकर स्त्री सकुशल निकल जाये, फिर भी वह इनके प्रति सशंकित नहीं है तो इस पर गहन, गम्भीर विमर्श होना चाहिये। सबसे बड़ी विडम्बना तो स्त्रियों का कृष्ण के प्रति अनुराग है जबकि स्त्रियों के साथ कृष्ण-लीला इनके चरित्र का सबसे कमजोर पहलू है। ब्रह्म वैवर्त में कृष्ण का राधा या अन्य गोपियों के साथ संभोग का जैसा वर्णन है, उसको पढ़कर उनके आचरण को अध्यात्म की भट्ठी में चाहे जितना तपाया जाये, उसे नैतिकता के मापदण्ड पर खरा नहीं ठहराया जा सकता।
मनु स्मृति संभवतः ऐसा अकेला ग्रन्थ है जिनसे भारतीय मेधा को न केवल सबसे अधिक आकर्षित किया अपितु व्यवहार-जगत् में उसकी मानसिकता को ठोस एवं स्थूल स्वरूप भी प्रदान किया। भारतीय मेधा अर्थात् भारतीय राज्य-सत्ता और उसके द्वारा पोषित सामंती प्रवृत्तियों का गंठजोड़, जिसके हाथ में मनु ने मनुस्मृति के रूप में, ‘करणीय और अकरणीय' का औचित्य-विहीन संहिताकरण करके एक क्रूर और अमानवीय हथियार पकड़ा दिया और उसे धर्म-सम्मत मनमानी करने का निर्णायक अवसर प्रदान कर दिया। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मनुस्मृति का सबसे घातक दुष्परिणाम यह हुआ कि इसने पहले से ही क्षीण होती जा रही संतुलन-शक्तियों का समूल विनाश कर दिया। शूद्र (वर्तमान दलित) और स्त्री के लिये दंड-विधान के रूप में ऐसे-ऐसे प्रावधान किये गये कि इनका जीवन नारकीय हो गया।
विषय-वस्तु के बेहतर प्रतिपादन के लिये थोड़ा विषयान्तर समीचीन दिखता है। मनु-स्मृति में हमें तीन बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं। पहला, वर्ण-व्यवस्था का पूर्ण विकसित और अपरिवर्तनीय स्वरूप (मनु १०.४) दूसरा, राक्षस या असुर जाति का विलोपीकरण और तीसरा देवताओं के अनैतिक आचरण को विस्थापित करके उनकी कल्याणकारी इतर शक्तियों के रूप में स्थापना। वर्ण-व्यवस्था का सिद्धान्त आर्यों की देन है जो ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से प्रारम्भ होता है और सभी अनुवर्ती ग्रन्थों में जगह पाता है। स्त्रियों की भाँति राक्षसों की भी उत्पत्ति वर्ण-व्यवस्था से नहीं होती। सुर और असुर के मध्य लड़े गये तमाम युद्धों का वर्णन वैदिक साहित्य में भरे पड़े हैं। रामायण काल तक राक्षस मिलते हैं, महाभारत काल में विलुप्त हो जाते हैं। महाभारत काल में कृष्ण के रूप में ईश्वर अवतार लेते हैं। गीता में अपने अवतार का कारण अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना करना बताते हैं। प्रत्यक्ष विनाश वे अपने मामा कंस का करते है। महाभारत युद्ध की विनाश-लीला के नायक होते हुए भी इस युद्ध में उनकी भूमिका राम की तरह नहीं है। कृष्ण का मामा होने के कारण कंस को राक्षस कहा जाय तो सबसे बड़ी अड़चन यह आयेगी कि कृष्ण को भी राक्षस कहना पड़ेगा लेकिन थोड़ा-सा ध्यान दें तो इस गुत्थी को सुलझाना बहुत आसान है। राम और रावण के बीच लड़ा गया युद्ध निश्चित रूप से आर्यों के बीच लड़ा गया अन्तिम महायुद्ध था जिसमें आर्यों की सबसे बड़ी कूटनीतिक विजय यह थी कि आर्य राम की सेना अनार्य योद्धाओं की थी और रावण की पारिवारिक कलह चरम पर थी। इसका प्रत्यक्ष लाभ राम को यह मिला कि उन्हें घर का भेदी ही मिल गया और लंका ढह गयी। आर्य संस्कृति की विजय हुई लेकिन वर्चस्व स्थापित नहीं हो सका होगा। क्योंकि विभीषण चाहे जितना बड़ा राम भक्त राह हो, तो अनार्य ही न और फिर रावण की पटरानी मंदोदरी ही उसकी पटरानी बनी। क्या विभीषण कभी उससे आँख मिला पाया होगा? क्या कभी मंदोदरी यह भुला सकी होगी कि वह जिस कायर की पत्नी है उसी के विश्वासघात ने उसके प्रतापी पति की हत्या करवाई थी।
इस कड़ी को कृष्ण द्वारा कंस के संहार से जोड़कर देखें तो स्थिति यह बनती है कि अनार्यों की बची-खुची शक्ति के सम्पूर्ण विनाश के लिये इस बार घर से ही नायक को उठाया गया। यह इस बात से सिद्ध है कि कृष्ण के नायकत्व या संयोजकत्व में जितने भी युद्ध लड़े गये सभी पारिवारिक थे। अतः यह कहा जा सकता है कि अनार्य आपस में लड़कर विनाश को प्राप्त हुए और वर्ण से बाहर की दलित जातियाँ उन्हीं की ध्वंसावशेष हैं। इस सम्पूर्ण विजय के बाद आचरण हीन देवता स्वयं को कल्याणकारी इतर शक्ति के रूप में स्थापित कराने में सफल हो गये तो क्या आश्चर्य।
मनु स्मृति शांति काल की रचना प्रतीत होती है जिसमें शासन-व्यवस्था के संचालन और समाज को नियंत्रित करने का प्रावधान है। स्पष्ट है कि इसका डंडा वर्णेतर जातियों पर पड़ना था और पड़ा भी। दलित और स्त्री उन सभी सुविधाओं और अवसरों से वंचित कर दिये गये जो उनके बौद्धिक-क्षमता के विकास में सहायक थे। इस प्रकार मनु स्मृति से भी यह सिद्ध होता है कि दलित और स्त्री वर्ण-व्यवस्था के बाहर का समुदाय है।
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