अंशुमाली रस्तोगी
खैर इसमें दोराय नहीं कि दलित साहित्य ने तमाम विरोधों-अवरोधों के बीच हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान स्थापित की है, सवर्ण माठाधीशों को चुनौतियां दी हैं - दे रहा है। इन सबके बावजूद दलित साहित्य-लेखन में एक ठहराव-सा आ गया है। नया कुछ नहीं आ रहा है और जो आ रहा है उसमें विमर्श या वैचारिकता की गुंजाइश कम आक्रोश और फूहड़ता अधिक है। इस ठहराव पर आपकी टिप्पणी।
दलित साहित्य में ठहराव-सा आ गया है, इसमें दोराय नहीं। दरअसल एक ही कीली के चारों ओर घूमते रहने को दलित लेखकों ने विकास मान लिया है। वे सब जाति-केंद्रित होकर रह गए हैं। आज के निजी पूंजीवाद के विकास के दौर में दलित वर्ग के सामने इतनी सारी समस्याएं हैं, जिनसे टकराना दलित साहित्यकारों का फर्ज बनता है। पर वे इस ओर से विमुख क्यों हैं? यह प्रश्न मुझे भी पीड़ित करता है। लेकिन यहां मैं एक बात यह जरूर कहना चाहूंगा कि सिर्फ वाल्मीकि, चौहान और बेचैन का लेखन ही एक मात्रदलित लेखन नहीं है। बहुत सारे नए लेखकों ने नई चेतना के साथ दस्तक दी है। वे नया लिख रहे हैं और उनमें वैचारिकता भी है और विमर्श भी। उदाहरण के लिए अजय नवारिया की कहानियों ने दलित कहानी को नया विस्तार दिया है। उन्हें पढ़कर आप यह कह सकते हैं कि दलित लेखन आगे बढ़ रहा है।
हिन्दी दलित साहित्य में एक ऐसा दौर भी आया था यहां आत्मकथाओं का जोर था। सभी दलित लेखक-साहित्यकार अपनी-अपनी आत्मकथाएं लिख रहे थे। कुछ तो अपनी आत्मकथाओं के बल पर स्थापित भी हुए और सम्मान-पुरस्कार भी पाए लेकिन वे दलित लेखन को आत्मकथाओं से बाहर निकालकर उसे उस दलित से नहीं जोड़ पाए जिनके अधिकारों और सम्मान की वे बातें लिखते और किया करते थे/हैं। आखिर क्या हमें दलित साहित्य को आत्मकथाओं तक ही सीमित कर देना चाहिए?
हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथाओं का दौर आया नहीं था, आया हुआ है। यह दौर अभी कुछ समय और रहेगा। दरअसल, यह अनुकरण के सिद्धांत का परिणाम है। लोगों ने सोचा कि वाल्मीकि जूठन से ऊपर उठ गए, तो हम भी उठ जाएंगे। हमने भी वही भोगा है, हम भी लिखेंगे। तो लोग लिख रहे हैं। लेकिन वे कोई नया नहीं दे पा रहे हैं। वास्तव में सभी दलितों का सामाजिक यथार्थ समान है, तो सभी आत्मकथाओं में एक-सा ही यथार्थ है। इसलिए सभी आत्मकथाएं पुनरावृत्ति लगती हैं। देखिए, दलित लेखन में सामाजिक यथार्थ तो आना चाहिए। परंतु मेरे विचार में यह जातियों का यथार्थ होना चाहिए। मसलन, चमार का सामाजिक यथार्थ वही नहीं है, जो भंगी का है। जो यथार्थ भंगी का है, वह कंजड़ का नहीं है। जो डोम का यथार्थ है, वह पासी का नहीं है। पासी का यथार्थ मुसहर के यथार्थ से भिन्न है। इसलिए यदि अलग-अलग जातियों के सामाजिक यथार्थ के साथ अलग-अलग आत्मकथाएं आएं, तो उसमें विविधता भी होगी और भारतीय समाज व्यवस्था का विद्रूप भी सामने आएगा। पर यह हो नहीं रहा है और इसलिए नहीं हो रहा है कि सभी दलित जातियों में अभी लेखक पैदा नहीं हुए हैं। १९१४ में छपी हीरा डोम की जो चर्चित कविता है, उसमें डोम जाति का सामाजिक यथार्थ दिखाई देता है। माता प्रसाद की एक बहुत मार्मिक लोक कविता है, मुसहर जाति पर। वह एक तरह से आत्मकथा है मुसहर जाति की। लेकिन कोई लेखक, जो मुसहर जाति से आया है, आत्मकथा लिखेगा, तो वह जूठन और अपने-अपने पिंजरे से बिल्कुल भिन्न होगी। इस यथार्थ को साहित्य में लाने की जरूरत है।
देखिए, कौन किसको भुना रहा है, इस पर तो मैं टिप्पणी नहीं करूँगा। लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि सिर्फ आत्मकथाओं तक ही दलित साहित्य को सीमित नहीं रहना है, वह आगे जाएगा और इस दिशा में युवा दलित लेखक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
अभी तक आपने अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखी?
मैंने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी? जहां तक इस बात का सवाल है, तो इसके दो कारण हैं एक तो मेरा जीवन और परिवेश उसी यथार्थ का हिस्सा है जो आत्मकथाओं में अब तक आ चुका है। दूसरे यह कर्म मेरे लिए उतना महत्त्वपूर्ण है, जितना की आलोचना-कर्म है।
प्रायः दलित लेखन में सौंदयशास्त्र की बात की जाती है। सवर्ण लेखकों ने तो कई दफा दलित लेखन में सौंदयशास्त्र के अभाव पर अपनी आपत्तियां भी दर्ज करवायी हैं। हिंदी साहित्य में, खासकर दलित साहित्य में, सौंदयशास्त्र की भूमिका को आप किस नजरिए से देखते हैं?
जब छंदशास्त्र भंग हुआ था तब उसका भी विरोध हुआ था। आज सौंदयशास्त्र भंग भी हो रहा है तो भी विरोध हो रहा है। यह परिवर्तन की धारा है, इसे रोका नहीं जा सकता। जिस तरह छंदशास्त्र भंग हुआ, उसी तरह सौंदयशास्त्र भी भंग हुआ है। ब्राह्मणवादी और सामंती सौंदयशास्त्र को मार्क्सवादी सौंदयशास्त्र ने भंग किया और मार्क्सवादी सौंदर्यचेतना ने जो शास्त्र निर्मित किया, उसे दलित साहित्य ने भंग किया है। देखने का नजरिया ही सौंदयशास्त्र है, जिसका परिवर्तनशील होना जरूरी है। ब्राह्मणों और सामंतों ने जिन प्रथाओं और मूल्यों को धर्म और संस्कृति के नाम पर स्थापित किया, दलित सौंदर्यचेतना ने उन्हें अमानवीय घोषित किया। उसने धर्म और संस्कृति की संपूर्ण विरासत को कटघरे में खड़ा कर दिया। ब्राह्मणवादी सवर्ण आज भी मनुष्य से ज्यादा गाय की गरिमा को मानते हैं - यह उनका सौंदयशास्त्र है। दलित साहित्य इसका खंडन करता है। वह मानवीय गरिमा में आस्थावान है, पशु की गरिमा में नहीं। लेकिन उनके सौंदयशास्त्र में मानवीय गरिमा का हनन और पशु की बलि दोनों साथ-साथ चलते हैं। इस ढकोसले के आधार पर क्या कोई साहित्य स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है? इसलिए, हिंदी साहित्य में दलित साहित्य ने नया सौंदर्यबोध स्थापित किया है। यही उसकी भूमिका है।
युवा दलित कहानीकारों में आपके हिसाब से कौन बेहतर लिख रहा है उनमें कितनी संभावनाएं आप देखते हैं?
मैं किसी भी एक लेखक का नाम लेकर विवाद पैदा नहीं करना चाहता। कई युवा कहानीकार बहुत अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। वे न केवल नई परिस्थितियों में नए यथार्थ का चित्रण कर रहे हैं, बल्कि उनका कला-सौष्ठव भी बहुत अच्छा है। ये कहानीकार कलावाद को भी चुनौती दे रहे हैं।
हंस और तद्भव में मार्क्सवाद और दलित पर लिखे लेखों में आपने वर्ग और वर्ण संबंधी समस्या पर काफी गहनता से प्रकाश डाला है। आपने उसमें कहा भी है कि वर्ग से ज्यादा वर्ण की समस्या अहम् है और इसके समाप्त होते ही वर्ग स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे। परंतु हमारे तथाकथित मार्क्सवादी लेखक इस तथ्य को स्वीकारने को तैयार नहीं, उनके प्राण अभी भी वर्ग की स्थापनाओं में अटके पड़े हैं और वर्ण व्यवस्था को वे आज भी आदर्श व्यवस्था मानते हैं, ठीक हिंदुत्ववादियों की तरह। इस वर्ग और वर्ण के बीच छिड़ी जंग का कभी कही अंत होगा भी या नहीं! वे कौन-से कारण हैं जो मार्क्सवादियों को दलितों के साथ जुड़ने से रोकते हैं?
इस विषय पर मैंने बहुत विस्तार से अपनी बातें कहीं हैं। मार्क्सवादी और दलित चिंतन में यही एक बुनियादी अंतर है कि एक पूंजीवाद को तो शत्रु मानता है, ब्राह्मणवाद को नहीं, जबकि दूसरा दोनों को शत्रु मानता है। हमारा कहना है कि ब्राह्मणवाद के कारण ही जातिव्यवस्था टिकी हुई है और यह जातिव्यवस्था ही भारत के मजदूरों और सर्वहारा में एकता स्थापित नहीं होने दे रही है। यही कारण है कि यहां वर्ग-संघर्ष से ज्यादा जाति-संघर्ष है। जाति समाप्त हो जाए तो फिर वर्ग-संघर्ष ही रह जाता है। हिंदुत्ववादी तो न जाति-संघर्ष चाहते हैं और न वर्ग-संघर्ष जबकि उनका अपना वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है। मार्क्सवाद के अब लगभग सभी गुटों ने जाति की सच्चाई को स्वीकार कर लिया है। पर यह बहुत देर से उठाया गया कदम है। यदि डॉ. अम्बेडकर के समय में ही वामपंथियों ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ उनके प्रतिरोध को अपने आंदोलन में शामिल किया होता, तो भारत की शासन-सत्ता सामंतों, ब्राह्मणों और पूंजीपतियों के हाथों में न जाती। अब तो दलित आंदोलन भी भटक गया है और सत्ता प्रतिष्ठान के आंदोलन में बदल गया है। वामपंथ भी रेडिकल और संशोधनवादी दो गुटों में विभाजित हो गया है। कुल मिलाकर क्रांति की शक्तियाँ दयनीय हैं।
सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने में दलित-मार्क्सवादियों का संयुक्त गठबंधन कितनी कारगर भूमिका निभा सकता है, विस्तार में प्रकाश डालें।
यदि सांप्रदायिक ताकतों से आपका मतलब धार्मिक कट्टरवाद से है, तो निश्चित रूप से यह कट्टरवाद सामाजिक परिवर्तन और प्रगतिशील दृष्टिकोण का दुश्मन है और दलित-मार्क्सवादियों का संयुक्त गठबंधन इस कट्टरवाद से लड़ने में सचमुच कारगर भूमिका निभा सकता है। दरअसल, देखा जाए तो दलित और मार्क्सवादी ही कट्टरवाद के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हैं। लेकिन यदि सांप्रदायिक के प्रतिरोध का अर्थ मुस्लिम समर्थन है, तो दलित इस प्रतिरोध में शामिल नहीं हो सकते। क्योंकि मुसलमानों ने भी दलितों को उतने ही जख्म दिए हैं, जितना हिंदुओं ने। अयोध्या प्रकरण में जिस तरह वामपंथी मुसलमानों का पक्ष लेते हैं, उस तरह दलित नहीं ले सकते। दलित का मत न हिंदू न मुसलमान का है। उसे न हिंदुओं के राम से मतलब है और न मुसलमानों के अल्लाह से। जैसे कबीर ने कहा है - जहां अल्लाह राम का गम नहीं, तहं घर किया। मुसलमान अपनी शरीयत के खिलाफ किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते। जो मार्क्सवादी मुसलमानों का सबसे ज्यादा पक्ष लेते हैं उन्हें मालूम होगा कि मुसलमान इस्लाम के आगे नहीं जाएंगे और कम्युनिज्म उनका सबसे बड़ा दुश्मन है। ये मुसलमान जो अपने धार्मिक अधिकारों के लिए सारे धर्मनिरपेक्ष लोगों का समर्थन चाहते हैं, वे अपने समाज में व्याप्त जातिभेद और दलितों की बदतर स्थिति पर किसी का दखल पसंद नहीं करते। इस आधार पर दलित मुस्लिम पक्ष में वामपंथ का साथ नहीं दे सकते।
दलित राजनीतिक को नई दिशा में देने में कांशीराम का खासा योगदान रहा है, बसपा उन्हीं के संघर्ष-प्रयास से अस्तित्व में आई थी लेकिन आज उसी पार्टी में कांशीराम कहीं नहीं है। बसपा पर मायावती का एकछत्र कब्जा है और प्रत्येक दंद-फंद का इस्तेमाल कर वे उसे चला भी रही हैं परंतु आम दलित आज भी उनकी पार्टी और सहयोग से कोसों दूर है। मायावती बसपा को किधर ले जाना चाहती हैं और उनका आम दलित के प्रति उदासीनता का भाव क्या प्रकट करता है?
यदि आज कांशीराम कहीं नहीं हैं तो मैं नहीं समझता कि इसका कारण मायावती का बसपा पर कब्जा होना है। किसी एक पर किसी दूसरे का कब्जा करने से उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। यदि कांशीराम आज नहीं हैं तो इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं जो नेता अपने ही आंदोलन के खिलाफ चला जाता है, उसे कौन बचा सकता है? रहा सवाल यह कि मायावती दंद-फंद का इस्तेमाल कर बसपा को चला रही हैं, तो मायावती ही क्यों, सभी दलों के सुप्रीमो यही कर रहे हैं। मौजूदा सभी राजनैतिक दलों के प्रति जनता में उदासीनता है। दलित को आप जनता से अलग मत कीजिए। वह उसका ही हिस्सा है। मायावती दलित के नाम की राजनीति करती हैं, इसलिए दलित उनसे अपेक्षा रखता है। मेरी दृष्टि में अब राजनीति के सरोकार बदलने चाहिए, धर्म और जाति की राजनीति प्रतिबंधित होनी चाहिए।
डॉ. अम्बेडकर ने दलितों को समाज और राजनीति में समान अधिकार दिलवाने का जो सपना देखा था और ताउम्र उन्होंने जिसके लिए संघर्ष भी किया उसे दलित नेताओं ने कहां तक पूरा किया है या कर रहे हैं?
आपका प्रश्न सही नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने सपना नहीं देखा था, उसे मूर्त्त रूप दिया था। पूना-पैक्ट उसका उदाहरण है। दलितों के मानवीय अधिकारों के लिए सीधी लड़ाई डॉ. अम्बेडकर ने ही लड़ी थी। वे इस लड़ाई में सफल हुए थे। उनके प्रयासों से ही दलितों को वे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुए थे, जिनसे वे हजारों वर्षों से वंचित थे। आज के दलित नेता उसी की देन हैं।
डॉ. अम्बेडकर ने दलितों को शिक्षित बनो, संघर्ष करो नारा दिया था लेकिन देखा गया है कि दलितों का एक बड़ा वर्ग, अपवादों को छोड़कर, आज भी शिक्षा-ज्ञान से वंचित है उन्हें पर्याप्त साधन तक उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में डॉ. अम्बेडकर का दलितों को शिक्षित बनाने का उद्देश्य क्या कभी पूरा हो पाएगा?
डॉ. अम्बेडकर सत्ता के केंद्र नहीं है। वे नेता थे। उन्होंने शिक्षित बनो का जो नारा दिया था उसके लिए दलितों के संघर्षों को सफलता भी मिली है। पर, यदि दलितों का एक बड़ा वर्ग आज भी शिक्षा से वंचित है, तो इसके लिए सरकार की व्यवस्था जिम्मेदार है। व्यवस्था का संचालन वे सामंती और पूंजीवादी शक्तियां कर रही हैं, जो शिक्षा का तीव्र विकास नहीं चाहतीं। अगर दलित शिक्षा से वंचित हैं, तो इसे आप अंबेडकर के सपने या उद्देश्य से मत जोड़िए। यह हमारे जनतंत्र की विफलता है।
प्रायः देखने में आया है राजनीतिक दलों ने दलितों के आर्थिक पक्ष पर उतना जोर नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था आप इस मसले पर क्या सोचते हैं? घोर पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था से दलितों की मुक्ति कैसे संभव हो सकती है?
यह बात सही है कि राजनीतिक दलों ने दलितों के आर्थिक पक्ष पर ज्यादा जोर नहीं दिया है। वे केवल समाज-कल्याण की कुछ योजनाओं की सिफारिश करते हैं। असल में, लोकतंत्रका यह ढांचा हमें यूरोप के पूंजीवाद ने दिया है। इसका मतलब है कि गरीबों को मरने दो। गरीबी कायम रखो और जो गरीबी की रेखा से नीचे हैं, उनके हितों में कुछ लाभकारी योजनाएं लागू कर दो, ताकि वे सत्ता के खिलाफ बगावत न कर सकें। इसलिए गरीबों को, बूढ़ों को, विधवाओं और निराश्रित महिलाओं को पेंशन दी जाती है और अन्य योजनाएं लागू की जाती हैं। मैं कहता हूं कि आप दलितों को एक लाभांवित किए जाने वाले वर्ग के रूप में क्यों देखते हो? उसे कमजोर समाज के रूप में क्यों नहीं देखा जाता, जिसके विकास पर ही जनतंत्र का विकास निर्भर करता है। आप दलित-मुक्ति की बात करते हैं और घोर पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था में तो जन-मुक्ति भी संभव नहीं है। इसलिए जैसा कि मैंने कहा कि समाजवाद में ही दलित, सर्वहारा और गरीब समाज की मुक्ति संभव है। अन्य कोई भी व्यवस्था आर्थिक विषमता ही पैदा करेगी।
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खैर इसमें दोराय नहीं कि दलित साहित्य ने तमाम विरोधों-अवरोधों के बीच हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान स्थापित की है, सवर्ण माठाधीशों को चुनौतियां दी हैं - दे रहा है। इन सबके बावजूद दलित साहित्य-लेखन में एक ठहराव-सा आ गया है। नया कुछ नहीं आ रहा है और जो आ रहा है उसमें विमर्श या वैचारिकता की गुंजाइश कम आक्रोश और फूहड़ता अधिक है। इस ठहराव पर आपकी टिप्पणी।
दलित साहित्य में ठहराव-सा आ गया है, इसमें दोराय नहीं। दरअसल एक ही कीली के चारों ओर घूमते रहने को दलित लेखकों ने विकास मान लिया है। वे सब जाति-केंद्रित होकर रह गए हैं। आज के निजी पूंजीवाद के विकास के दौर में दलित वर्ग के सामने इतनी सारी समस्याएं हैं, जिनसे टकराना दलित साहित्यकारों का फर्ज बनता है। पर वे इस ओर से विमुख क्यों हैं? यह प्रश्न मुझे भी पीड़ित करता है। लेकिन यहां मैं एक बात यह जरूर कहना चाहूंगा कि सिर्फ वाल्मीकि, चौहान और बेचैन का लेखन ही एक मात्रदलित लेखन नहीं है। बहुत सारे नए लेखकों ने नई चेतना के साथ दस्तक दी है। वे नया लिख रहे हैं और उनमें वैचारिकता भी है और विमर्श भी। उदाहरण के लिए अजय नवारिया की कहानियों ने दलित कहानी को नया विस्तार दिया है। उन्हें पढ़कर आप यह कह सकते हैं कि दलित लेखन आगे बढ़ रहा है।
हिन्दी दलित साहित्य में एक ऐसा दौर भी आया था यहां आत्मकथाओं का जोर था। सभी दलित लेखक-साहित्यकार अपनी-अपनी आत्मकथाएं लिख रहे थे। कुछ तो अपनी आत्मकथाओं के बल पर स्थापित भी हुए और सम्मान-पुरस्कार भी पाए लेकिन वे दलित लेखन को आत्मकथाओं से बाहर निकालकर उसे उस दलित से नहीं जोड़ पाए जिनके अधिकारों और सम्मान की वे बातें लिखते और किया करते थे/हैं। आखिर क्या हमें दलित साहित्य को आत्मकथाओं तक ही सीमित कर देना चाहिए?
हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथाओं का दौर आया नहीं था, आया हुआ है। यह दौर अभी कुछ समय और रहेगा। दरअसल, यह अनुकरण के सिद्धांत का परिणाम है। लोगों ने सोचा कि वाल्मीकि जूठन से ऊपर उठ गए, तो हम भी उठ जाएंगे। हमने भी वही भोगा है, हम भी लिखेंगे। तो लोग लिख रहे हैं। लेकिन वे कोई नया नहीं दे पा रहे हैं। वास्तव में सभी दलितों का सामाजिक यथार्थ समान है, तो सभी आत्मकथाओं में एक-सा ही यथार्थ है। इसलिए सभी आत्मकथाएं पुनरावृत्ति लगती हैं। देखिए, दलित लेखन में सामाजिक यथार्थ तो आना चाहिए। परंतु मेरे विचार में यह जातियों का यथार्थ होना चाहिए। मसलन, चमार का सामाजिक यथार्थ वही नहीं है, जो भंगी का है। जो यथार्थ भंगी का है, वह कंजड़ का नहीं है। जो डोम का यथार्थ है, वह पासी का नहीं है। पासी का यथार्थ मुसहर के यथार्थ से भिन्न है। इसलिए यदि अलग-अलग जातियों के सामाजिक यथार्थ के साथ अलग-अलग आत्मकथाएं आएं, तो उसमें विविधता भी होगी और भारतीय समाज व्यवस्था का विद्रूप भी सामने आएगा। पर यह हो नहीं रहा है और इसलिए नहीं हो रहा है कि सभी दलित जातियों में अभी लेखक पैदा नहीं हुए हैं। १९१४ में छपी हीरा डोम की जो चर्चित कविता है, उसमें डोम जाति का सामाजिक यथार्थ दिखाई देता है। माता प्रसाद की एक बहुत मार्मिक लोक कविता है, मुसहर जाति पर। वह एक तरह से आत्मकथा है मुसहर जाति की। लेकिन कोई लेखक, जो मुसहर जाति से आया है, आत्मकथा लिखेगा, तो वह जूठन और अपने-अपने पिंजरे से बिल्कुल भिन्न होगी। इस यथार्थ को साहित्य में लाने की जरूरत है।
देखिए, कौन किसको भुना रहा है, इस पर तो मैं टिप्पणी नहीं करूँगा। लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि सिर्फ आत्मकथाओं तक ही दलित साहित्य को सीमित नहीं रहना है, वह आगे जाएगा और इस दिशा में युवा दलित लेखक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
अभी तक आपने अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखी?
मैंने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी? जहां तक इस बात का सवाल है, तो इसके दो कारण हैं एक तो मेरा जीवन और परिवेश उसी यथार्थ का हिस्सा है जो आत्मकथाओं में अब तक आ चुका है। दूसरे यह कर्म मेरे लिए उतना महत्त्वपूर्ण है, जितना की आलोचना-कर्म है।
प्रायः दलित लेखन में सौंदयशास्त्र की बात की जाती है। सवर्ण लेखकों ने तो कई दफा दलित लेखन में सौंदयशास्त्र के अभाव पर अपनी आपत्तियां भी दर्ज करवायी हैं। हिंदी साहित्य में, खासकर दलित साहित्य में, सौंदयशास्त्र की भूमिका को आप किस नजरिए से देखते हैं?
जब छंदशास्त्र भंग हुआ था तब उसका भी विरोध हुआ था। आज सौंदयशास्त्र भंग भी हो रहा है तो भी विरोध हो रहा है। यह परिवर्तन की धारा है, इसे रोका नहीं जा सकता। जिस तरह छंदशास्त्र भंग हुआ, उसी तरह सौंदयशास्त्र भी भंग हुआ है। ब्राह्मणवादी और सामंती सौंदयशास्त्र को मार्क्सवादी सौंदयशास्त्र ने भंग किया और मार्क्सवादी सौंदर्यचेतना ने जो शास्त्र निर्मित किया, उसे दलित साहित्य ने भंग किया है। देखने का नजरिया ही सौंदयशास्त्र है, जिसका परिवर्तनशील होना जरूरी है। ब्राह्मणों और सामंतों ने जिन प्रथाओं और मूल्यों को धर्म और संस्कृति के नाम पर स्थापित किया, दलित सौंदर्यचेतना ने उन्हें अमानवीय घोषित किया। उसने धर्म और संस्कृति की संपूर्ण विरासत को कटघरे में खड़ा कर दिया। ब्राह्मणवादी सवर्ण आज भी मनुष्य से ज्यादा गाय की गरिमा को मानते हैं - यह उनका सौंदयशास्त्र है। दलित साहित्य इसका खंडन करता है। वह मानवीय गरिमा में आस्थावान है, पशु की गरिमा में नहीं। लेकिन उनके सौंदयशास्त्र में मानवीय गरिमा का हनन और पशु की बलि दोनों साथ-साथ चलते हैं। इस ढकोसले के आधार पर क्या कोई साहित्य स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है? इसलिए, हिंदी साहित्य में दलित साहित्य ने नया सौंदर्यबोध स्थापित किया है। यही उसकी भूमिका है।
युवा दलित कहानीकारों में आपके हिसाब से कौन बेहतर लिख रहा है उनमें कितनी संभावनाएं आप देखते हैं?
मैं किसी भी एक लेखक का नाम लेकर विवाद पैदा नहीं करना चाहता। कई युवा कहानीकार बहुत अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। वे न केवल नई परिस्थितियों में नए यथार्थ का चित्रण कर रहे हैं, बल्कि उनका कला-सौष्ठव भी बहुत अच्छा है। ये कहानीकार कलावाद को भी चुनौती दे रहे हैं।
हंस और तद्भव में मार्क्सवाद और दलित पर लिखे लेखों में आपने वर्ग और वर्ण संबंधी समस्या पर काफी गहनता से प्रकाश डाला है। आपने उसमें कहा भी है कि वर्ग से ज्यादा वर्ण की समस्या अहम् है और इसके समाप्त होते ही वर्ग स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे। परंतु हमारे तथाकथित मार्क्सवादी लेखक इस तथ्य को स्वीकारने को तैयार नहीं, उनके प्राण अभी भी वर्ग की स्थापनाओं में अटके पड़े हैं और वर्ण व्यवस्था को वे आज भी आदर्श व्यवस्था मानते हैं, ठीक हिंदुत्ववादियों की तरह। इस वर्ग और वर्ण के बीच छिड़ी जंग का कभी कही अंत होगा भी या नहीं! वे कौन-से कारण हैं जो मार्क्सवादियों को दलितों के साथ जुड़ने से रोकते हैं?
इस विषय पर मैंने बहुत विस्तार से अपनी बातें कहीं हैं। मार्क्सवादी और दलित चिंतन में यही एक बुनियादी अंतर है कि एक पूंजीवाद को तो शत्रु मानता है, ब्राह्मणवाद को नहीं, जबकि दूसरा दोनों को शत्रु मानता है। हमारा कहना है कि ब्राह्मणवाद के कारण ही जातिव्यवस्था टिकी हुई है और यह जातिव्यवस्था ही भारत के मजदूरों और सर्वहारा में एकता स्थापित नहीं होने दे रही है। यही कारण है कि यहां वर्ग-संघर्ष से ज्यादा जाति-संघर्ष है। जाति समाप्त हो जाए तो फिर वर्ग-संघर्ष ही रह जाता है। हिंदुत्ववादी तो न जाति-संघर्ष चाहते हैं और न वर्ग-संघर्ष जबकि उनका अपना वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है। मार्क्सवाद के अब लगभग सभी गुटों ने जाति की सच्चाई को स्वीकार कर लिया है। पर यह बहुत देर से उठाया गया कदम है। यदि डॉ. अम्बेडकर के समय में ही वामपंथियों ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ उनके प्रतिरोध को अपने आंदोलन में शामिल किया होता, तो भारत की शासन-सत्ता सामंतों, ब्राह्मणों और पूंजीपतियों के हाथों में न जाती। अब तो दलित आंदोलन भी भटक गया है और सत्ता प्रतिष्ठान के आंदोलन में बदल गया है। वामपंथ भी रेडिकल और संशोधनवादी दो गुटों में विभाजित हो गया है। कुल मिलाकर क्रांति की शक्तियाँ दयनीय हैं।
सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने में दलित-मार्क्सवादियों का संयुक्त गठबंधन कितनी कारगर भूमिका निभा सकता है, विस्तार में प्रकाश डालें।
यदि सांप्रदायिक ताकतों से आपका मतलब धार्मिक कट्टरवाद से है, तो निश्चित रूप से यह कट्टरवाद सामाजिक परिवर्तन और प्रगतिशील दृष्टिकोण का दुश्मन है और दलित-मार्क्सवादियों का संयुक्त गठबंधन इस कट्टरवाद से लड़ने में सचमुच कारगर भूमिका निभा सकता है। दरअसल, देखा जाए तो दलित और मार्क्सवादी ही कट्टरवाद के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हैं। लेकिन यदि सांप्रदायिक के प्रतिरोध का अर्थ मुस्लिम समर्थन है, तो दलित इस प्रतिरोध में शामिल नहीं हो सकते। क्योंकि मुसलमानों ने भी दलितों को उतने ही जख्म दिए हैं, जितना हिंदुओं ने। अयोध्या प्रकरण में जिस तरह वामपंथी मुसलमानों का पक्ष लेते हैं, उस तरह दलित नहीं ले सकते। दलित का मत न हिंदू न मुसलमान का है। उसे न हिंदुओं के राम से मतलब है और न मुसलमानों के अल्लाह से। जैसे कबीर ने कहा है - जहां अल्लाह राम का गम नहीं, तहं घर किया। मुसलमान अपनी शरीयत के खिलाफ किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते। जो मार्क्सवादी मुसलमानों का सबसे ज्यादा पक्ष लेते हैं उन्हें मालूम होगा कि मुसलमान इस्लाम के आगे नहीं जाएंगे और कम्युनिज्म उनका सबसे बड़ा दुश्मन है। ये मुसलमान जो अपने धार्मिक अधिकारों के लिए सारे धर्मनिरपेक्ष लोगों का समर्थन चाहते हैं, वे अपने समाज में व्याप्त जातिभेद और दलितों की बदतर स्थिति पर किसी का दखल पसंद नहीं करते। इस आधार पर दलित मुस्लिम पक्ष में वामपंथ का साथ नहीं दे सकते।
दलित राजनीतिक को नई दिशा में देने में कांशीराम का खासा योगदान रहा है, बसपा उन्हीं के संघर्ष-प्रयास से अस्तित्व में आई थी लेकिन आज उसी पार्टी में कांशीराम कहीं नहीं है। बसपा पर मायावती का एकछत्र कब्जा है और प्रत्येक दंद-फंद का इस्तेमाल कर वे उसे चला भी रही हैं परंतु आम दलित आज भी उनकी पार्टी और सहयोग से कोसों दूर है। मायावती बसपा को किधर ले जाना चाहती हैं और उनका आम दलित के प्रति उदासीनता का भाव क्या प्रकट करता है?
यदि आज कांशीराम कहीं नहीं हैं तो मैं नहीं समझता कि इसका कारण मायावती का बसपा पर कब्जा होना है। किसी एक पर किसी दूसरे का कब्जा करने से उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। यदि कांशीराम आज नहीं हैं तो इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं जो नेता अपने ही आंदोलन के खिलाफ चला जाता है, उसे कौन बचा सकता है? रहा सवाल यह कि मायावती दंद-फंद का इस्तेमाल कर बसपा को चला रही हैं, तो मायावती ही क्यों, सभी दलों के सुप्रीमो यही कर रहे हैं। मौजूदा सभी राजनैतिक दलों के प्रति जनता में उदासीनता है। दलित को आप जनता से अलग मत कीजिए। वह उसका ही हिस्सा है। मायावती दलित के नाम की राजनीति करती हैं, इसलिए दलित उनसे अपेक्षा रखता है। मेरी दृष्टि में अब राजनीति के सरोकार बदलने चाहिए, धर्म और जाति की राजनीति प्रतिबंधित होनी चाहिए।
डॉ. अम्बेडकर ने दलितों को समाज और राजनीति में समान अधिकार दिलवाने का जो सपना देखा था और ताउम्र उन्होंने जिसके लिए संघर्ष भी किया उसे दलित नेताओं ने कहां तक पूरा किया है या कर रहे हैं?
आपका प्रश्न सही नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने सपना नहीं देखा था, उसे मूर्त्त रूप दिया था। पूना-पैक्ट उसका उदाहरण है। दलितों के मानवीय अधिकारों के लिए सीधी लड़ाई डॉ. अम्बेडकर ने ही लड़ी थी। वे इस लड़ाई में सफल हुए थे। उनके प्रयासों से ही दलितों को वे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुए थे, जिनसे वे हजारों वर्षों से वंचित थे। आज के दलित नेता उसी की देन हैं।
डॉ. अम्बेडकर ने दलितों को शिक्षित बनो, संघर्ष करो नारा दिया था लेकिन देखा गया है कि दलितों का एक बड़ा वर्ग, अपवादों को छोड़कर, आज भी शिक्षा-ज्ञान से वंचित है उन्हें पर्याप्त साधन तक उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में डॉ. अम्बेडकर का दलितों को शिक्षित बनाने का उद्देश्य क्या कभी पूरा हो पाएगा?
डॉ. अम्बेडकर सत्ता के केंद्र नहीं है। वे नेता थे। उन्होंने शिक्षित बनो का जो नारा दिया था उसके लिए दलितों के संघर्षों को सफलता भी मिली है। पर, यदि दलितों का एक बड़ा वर्ग आज भी शिक्षा से वंचित है, तो इसके लिए सरकार की व्यवस्था जिम्मेदार है। व्यवस्था का संचालन वे सामंती और पूंजीवादी शक्तियां कर रही हैं, जो शिक्षा का तीव्र विकास नहीं चाहतीं। अगर दलित शिक्षा से वंचित हैं, तो इसे आप अंबेडकर के सपने या उद्देश्य से मत जोड़िए। यह हमारे जनतंत्र की विफलता है।
प्रायः देखने में आया है राजनीतिक दलों ने दलितों के आर्थिक पक्ष पर उतना जोर नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था आप इस मसले पर क्या सोचते हैं? घोर पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था से दलितों की मुक्ति कैसे संभव हो सकती है?
यह बात सही है कि राजनीतिक दलों ने दलितों के आर्थिक पक्ष पर ज्यादा जोर नहीं दिया है। वे केवल समाज-कल्याण की कुछ योजनाओं की सिफारिश करते हैं। असल में, लोकतंत्रका यह ढांचा हमें यूरोप के पूंजीवाद ने दिया है। इसका मतलब है कि गरीबों को मरने दो। गरीबी कायम रखो और जो गरीबी की रेखा से नीचे हैं, उनके हितों में कुछ लाभकारी योजनाएं लागू कर दो, ताकि वे सत्ता के खिलाफ बगावत न कर सकें। इसलिए गरीबों को, बूढ़ों को, विधवाओं और निराश्रित महिलाओं को पेंशन दी जाती है और अन्य योजनाएं लागू की जाती हैं। मैं कहता हूं कि आप दलितों को एक लाभांवित किए जाने वाले वर्ग के रूप में क्यों देखते हो? उसे कमजोर समाज के रूप में क्यों नहीं देखा जाता, जिसके विकास पर ही जनतंत्र का विकास निर्भर करता है। आप दलित-मुक्ति की बात करते हैं और घोर पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था में तो जन-मुक्ति भी संभव नहीं है। इसलिए जैसा कि मैंने कहा कि समाजवाद में ही दलित, सर्वहारा और गरीब समाज की मुक्ति संभव है। अन्य कोई भी व्यवस्था आर्थिक विषमता ही पैदा करेगी।
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