प्रो. रामकली सराफ
आपका ग्रामीण जीवन से गहरा सरोकार रहा है, आपके कहानी लेखन में इसकी क्या भूमिका रही है?
ऐसा है कि मैं गाँव में पैदा हुआ, वहीं पला बढ़ा, खेला-कूदा, खेती में भी साथ देता रहा। कटाई हो, दँवरी हो ये सब कुछ मैंने किया। हाईस्कूल तक गाँव में पढ़ा। उसके बाद इंटरमीडिएट में मैं शहर आया और फिर शहर में ही सारी पढ़ाई लिखायी हुई और वो भी बनारस में। लिखना तो शुरू कर दिया था बी.ए. में मामूली कविताएँ लिखता था जिसका कोई मतलब नहीं था। सन् १९६० ई. के आसपास विधिवत् लिखना शुरू किया।
कविता जब आप लिख रहे थे शुरू में, तो अचानक ये कैसे मोड़ आ गया कि कहानी लिखने लगे?
इसलिए कि मेरे भाई साहब (डॉ. नामवर सिंह) स्तम्भ लिख रहे थे कहानी पत्रिका के लिए और ज्यादातर घर में कहानियों पर बात होती थी। तो कहानी पत्रिका की कहानियों को पढ़ता था और उन कहानियों को पढ़ता था जिनकी तारीफ करते थे भाई साहब। खासतौर से रूसी कहानियाँ, हेमिंग्वे की कहानियाँ, मंटो की कहानियाँ तो इन्हें पढ़ता था तो कहानी की तरफ धीरे-धीरे मुड़ने लगा और कहानी लिखना शुरू किया सन् ६० के बाद से। तो जो पात्र हमारे आते थे, जो जीवन होता था वो गाँव का ही होता था। धीरे-धीरे मुझे लगा कि मैं उस आदमी के बारे में लिख रहा हूँ जो गाँव को छोड़ चुका है, लेकिन शहर में रहते हुए शहर का नहीं हो पा रहा है। सन् ६० के आस-पास की स्थितियाँ ऐसी ही थीं भी। मेरी शुरुआत की कहानियों में इस तरह का एक आदमी था।
नयी कहानी का दौर और उसके समाप्ति पर आपने लिखना शुरू किया। लेकिन उस प्रभाव से जो अपने को अलग किया लेकिन मुख्य बात यह है कि उस पूरे प्रभाव से स्वयं को बचाते हुए कैसे इतना बड़ा परिवर्तन आपके लेखन में आया? क्या बदली हुई परिस्थितियाँ ही थीं इसके मूल में?
देखिए, लगभग ऐसा समय तो शीतयुद्ध का था, कांग्रेसी हुकूमत थी। जनता का मोहभंग हो गया था... ढेर सारी योजनाएँ चालू की गयी थीं और योजनाएँ या तो अधूरी थीं या जैसे बाँध बन रहा था, बने बाँध लेकिन बारिश हो तो बाँध बह जाय। सड़कें टूट जाएं, विकास जैसे होना चाहिए था वैसे नहीं हो रहा था। तो लग रहा था कि यह सत्ता इस लोकतंत्र में जनता के लिए जो काम कर रही है वह काम संतोषजनक नहीं है और इस पर मुहर लगाने का काम किया जनता ने। पूरी तरह से भारत प्रभावित हुआ था। इस परिवर्तन ने हमारी भाषा को भी प्रभावित किया और हमारे कंटेंट को भी।
आपकी कहानियों में तो है ही लेकिन आज जो कथा रिपोर्ताज लिख रहे हैं संतो घर में झगड़ा भारी पांडे कौन कुमति तोहे लागि... आदि में जो गँवईमन झाँक रहा है, उस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
बुनियादी निर्माण तो हमारे गँवई मन का ही है, इसलिए वह भाषा वो मुहावरे, वो लोकोक्तियाँ, वो मन, वो संस्कार कहीं-न-कहीं हमारी रचनाओं पर आज भी प्रभाव जमाए हुए हैं।
आपकी पहचान आज के कथा साहित्य में एक खास किस्म की बन चुकी है। कथा भाषा को लेकर तथा कथा स्थल को लेकर (अस्सी लंका के संदर्भ में) एक बात बताना चाहेंगे कि क्या ये स्थल एक ऐसे रूपक के समान तो नहीं हैं जहाँ से हम पूरे वैश्विक परिस्थिति और परिवेश को देख सकते हैं? (संदर्भ-संतों घर में झगड़ा भारी, पांड़े कौन कुमति तोहे लागि, कौन ठगवा लूटल नगरिया हो)
ये अच्छी बात की है आपने। दरअसल मैं कहानी से संस्मरण की तरफ आया और संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की ओर। इसमें एक संगत रही है। मेरे दिमाग में था कि जब व्यक्ति पर संस्मरण हो सकता है तो स्थल पर क्यों नहीं? व्यक्ति पर जिस तरह लिखा जा सकता है उस तरह से उस स्थल पर भी लिखा जा सकता है। जहाँ मैं रहा था। २०-२५ वर्षों तक उस स्थल को देखा। एक तरह से देखा जाय तो जैसे मेरा सम्पर्क बना था विश्वविद्यालय से पहले वैसे ही अस्सी से सम्पर्क बना रहा। रोज-ब-रोज आना-जाना रहता था। अस्सी को बदलते हुए देख रहा था, लोग बदल रहे थे। ९० के बाद मैंने कथा रिपोर्ताज लिखने की शुरुआत की। पहला रिपोर्ताज सन् १९९१ में देख तमाशा लकड़ी का (हंस में) अस्सी पर था। अस्सी बदल रहा था, कारण चाहे भूमंडलीकरण रहा हो या और...। विदेशी आ रहे थे घाट के किनारे के मकान लॉज बनने शुरू हो रहे थे, वे हमारे बीच रह रहे थे, हमारे जीवन को प्रभावित कर रहे थे, इसमें महिलाएँ भी थीं और पुरुष भी थे। देखिए, कहने को तो यह मुहल्ला है लेकिन रिफ्लेक्ट कर रहा है पूरे देश को। विदेशियों में आस्ट्रेलिया, नाइजेरिया, हंगरी से थे जो अपनी संस्कृति के साथ हमारे बीच में थे। इस वजह से हम सांस्कृतिक धरातल पर एक दूसरे से मिल रहे थे। मुझे लग रहा था कि वस्तुतः यह है एक मुहल्ला, लेकिन है नहीं मुहल्ला, यह है पूरा देश। अमेरिका पर टिप्पणियाँ हैं।
कैथरीना महिला जो बनारस पर शोध कर रही है, बनारस के प्रति क्या धारणा है? वह व्यक्त करती है। उसकी प्रतिक्रिया होती है लोगों में। भूमंडलीकरण के दौरान अस्सी सूचक है देशी-विदेशी परिप्रेक्ष्य में। बड़ा फलक है। अस्सी को एक मुहल्ला मानकर न देखा जाय।
बनारस को मिनी भारत कहा जाता है। तमिल, कन्नड़, बंगाली, असमिया, सिंधी, ईसाई सभी रहते हैं। यह मिनी भारत है। इस कारण यह संभव हो सकता है कि विदेशियों और भारत के सांस्कृतिक टकराव के लिए चुना और देखा.
डॉ. साहब आपके रचना स्थल और पात्र बिल्कुल निश्चित हैं तथा जीवित हैं, क्या आपको उनकी आलोचना का शिकार नहीं होना पड़ता है? क्या रचनाकार के लिए यह कम चुनौतीपूर्ण कार्य है कि हम उसी समय की कहानी उसी समाज के लोगों के बीच रहकर उन्हें खड़ा करके कहते हैं? यों कहें कि आप हिन्दी कथा साहित्य में कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर जारे आपणाँ चले हमारे साथ की चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं और दे भी रहे हैं। इसमें आपको कैसा अनुभव होता है? क्योंकि दौर तो घर बनाने का है और बचाने का है और इसमें आपकी कहानियाँ घर जलाकर साथ आने की बात करती है?
जी, साहस किया था उसे लेकर...। प्रेमचंद ने अपनी कहानी में (मोटेराम शास्त्री) एक ब्राह्मण को खड़ा किया था नाम बदलकर। उन पर मुकदमा भी हुआ। तो ऐसे में जीवित पात्रों को लेकर रचनाओं में सीधे-सीधे इस्तेमाल... (विस्मय) मेरी जानकारी में हिन्दी के किसी लेखक ने मेरे पहले ऐसा नहीं किया है सीधे-सीधे जीवित पात्रों को लेकर। हाँ,... डर तो था ही, गालियाँ मिली, धमकियाँ मिली, मारने तक की बात आयी। ऐसा मेरे किसी खास रचना के साथ नहीं हुआ बल्कि चाहे संतो-असंतो घोंघा बसंतो हो, देख तमाशा लकड़ी का हो, संतो घर में झगड़ा भारी हो... सभी के साथ हुआ। मुश्किल तो बहुत था। जिस रिपोर्ताज में पप्पू का जिक्र है उस पप्पू पर संस्कृत पढ़ने वाले बच्चों ने पत्थर मारा था।
कर्फ्यू लगा हुआ था, कारण दूसरा था लेकिन... धीरे-धीरे फिर पात्रों को ऐसा लगा, अहसास हुआ कि वे इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि लोग देखने आ रहे हैं तो महत्त्व के कारण सम्मान दे रहे हैं। कौन है जया सिंह, दीनबंधु तिवारी कौन है? तो कौन है पप्पू चाय दुकानवाला? तो जैसे उन्हें महत्त्व का ज्ञान हुआ अब गाली के बदले सम्मान मिलने लगा।
कथा भाषा को लेकर सवाल खड़े किए गए, श्लीलता-अश्लीलता का आरोप लगा, आपको विरोध झेलना पड़ा?
कथा भाषा को लेकर उन पात्रों की तरफ से कोई विरोध नहीं था, क्योंकि मैंने उन्हीं शब्दों को उन्हीं बातों में रखा था जिसे उन्होंने कहा था। बातों में सच्चाई थी इसलिए उन्हें इनका विरोध नहीं था। विरोध तो साहित्यिक रुचि के पाठकों को लगा, विरोध लेखकों का था उन पाठकों का था जो यह मानते हैं कि साहित्य बहुत अभिजात्य था। विरोध उनका था जो साहित्य को शराफत भरा मानते थे।
हाँ,... मैं पाठकीय प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में पूछ रही थी।
सड़क के पाठकों के साथ ऐसा नहीं था उन्हें तो लग रहा था कि इसमें उनकी जिन्दगी बोल रही है।
एक बात खास यह लगती है कि दलित लेखन की भाषा पर भी अश्लीलता का आरोप लगा लेकिन वे अपने बचाव के लिए आपके पास क्यों नहीं लौटते हैं? क्यों नहीं कहते कि सवर्ण लेखकों ने भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया?
दलित लेखन एक आन्दोलन की तरह था - इनके पहले मैंने लिखा है, लेकिन दलित लेखन की भाषा पर हमसे कोई खास बात...। उन्होंने काफी बाद में शुरू किया लेकिन उनकी ओर से कोई तालमेल नहीं कोई सफाई नहीं...।
इधर बीच आपकी कहानियों में एक चीज देखने को मिल रही है लगभग कहानियों के शीर्षक कबीर के पदों की पंक्तियाँ हैं - इसके पीछे आपकी क्या चिन्तन पद्धति है? मुझे लगता है कि आपकी रचनाओं में पैठी साहसिकता है, जो बार-बार आपको उधर ले जाती है?
ये मेरी चिन्तन पद्धति नहीं है बनारस की एक परम्परा रही है जो बड़ी शालीन है। वह लोक परम्परा है जबकि दूसरी ओर तुलसी ब्राह्मणवादी परम्परा के प्रतिनिधि कवि हैं और कबीर उनके ठीक उलटे छोटी जातियों के कवि हैं। सम्प्रदाय विरोधी और साहस का काम करने वाले कवि हैं। शीर्षक चुनने के लिए कबीर से बल मिलता रहा है, इसलिए मैं कबीर की ओर लौटता हूँ। आँखिन देखी बात कबीर कहते हैं और मैं भी आँखिन देखी ही कहा करता था।
आप डॉ. धर्मवीर के बारे में क्या कहेंगे जो धर्मवीर कबीर पर और कबीर के आलोचकों पर प्रहार कर रहे हैं?
धर्मवीर कबीर पर ही नहीं प्रेमचंद पर भी (सामंत का मुंशी) प्रहार करते हैं। मैंने पढ़ा नहीं उसे। धर्मवीर को अब उतनी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, वे अनर्थ कर रहे हैं। चीजों को गलत इंटरप्रेट कर रहे हैं। सचमुच धर्मवीर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं।
ऐसा लगता है कि प्रेमचंद से आप ज्यादा प्रभावित नहीं हो पाए। ऐसा क्यों?
नयी कहानी प्रेमचंद की खिलाफत का आन्दोलन था। नये कहानीकार प्रेमचंद की कहानियों को पुरानी कहानी कहने लगे। कफन, पूस की रात, सवा सेर गेहूँ में आधुनिक तत्त्व की तलाश की जाने लगी। नयी कहानी के तत्त्व भी तलाशे जाने लगे। विरोध के नाम पर प्रेमचंद की प्रासंगिकता शुरू हो गयी थी।
अपने समय में अपने समकालीनों के बीच मैंने ही सबसे ज्यादा प्रेमचंद की चर्चा की। प्रेमचंद ने शक्ति दी, प्रेमचंद ने बड़ा साहस प्रदान किया। वो कौन-सी चीज है जिसने प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाया? देखिए, कहानी सुनने सुनाने की चीज है पढ़ने और पढ़ाने की नहीं। श्रवणीयता बुनियादी चीज है। इसको मैंने समझा और ये हमारे लेखन में भी है। मेरे सभी कथा रिपोर्ताजों में मिलेगी। हमारे यहाँ भी श्रवणीयता बुनियादी चीज है।
महाकवि तुलसीदास में भी तो श्रवणीयता है वे केवल सनातनी और ब्राह्मणवादी ही नहीं थे। तो क्या भविष्य में तुलसीदास पर लिखने के लिए सोचा है आपने?
जी, नाटक लिखने की सोच रहा हूँ दस पन्द्रह वर्षों से। खासतौर से तुलसीदास जब अंतिम दिनों में बाहुशूल से पीड़ित हैं कोई देखने वाला नहीं है। तुलसीदास के उपेक्षित दिनों पर। जिस तरह से इस ब्राह्मण मुहल्ले ने उपेक्षित किया है उन्हें। वैसे इन विषयों पर लिखना इतिहास की ओर लौटना होगा और इतिहास की ओर लौटना एक तरह से भागना होता है। हमें वर्तमान पर लिखना चाहिए। वैसे जो भी नाटक आए जैसे- आषाढ़ का एक दिन हो अंधायुग हो कबिरा खड़ा बाजार में' हो सभी इतिहासाश्रित नाटक हैं। जबकि ऐसा मैं नहीं सोचता इसलिए हम वहाँ आश्रय नहीं चाहते हैं। इसलिए तुलसीदास पर मैंने नहीं लिखा।
संचारतंत्र और मीडिया, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पुरोहितवाद पर आप लगातार हमले कर रहे हैं। सच ही यह समय का यथार्थ है और यथार्थ की अभिव्यक्ति है लेकिन प्रारंभिक दौर में आपने जिस तरह काम किया है स्त्री-विमर्श पर। कहनी : उपखान में संग्रहित अनेक कहानियाँ इसकी गवाह हैं। अब जब पूरा दौर स्त्री-विमर्श को लेकर सक्रिय है आप मौन क्यों हैं? जबकि सातवें दशक में बड़े बेबाक तरीके से अभिव्यक्त कर रहे थे?
स्त्री-विमर्श पर बातें खूब हो रही हैं, बहसें हो रही हैं, राजेन्द्र यादव के अनुसार दलित और स्त्री एक हैं। स्त्रियों का शोषण दलित भी अपने घरों में करते हैं। पुरुष वर्चस्व सभी जगह है। जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि वह लेखन ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है, न स्त्रियों द्वारा और न पुरुषों द्वारा। खुद स्त्रीविमर्श पर बात करने वाले लोग अपनी बेटियों और पत्नियों पर दोहरे मानदंड अपनाते हैं, यह सोचने का विषय है।
लेकिन डॉ. साहब यहाँ हावी तो पुंसवादी दृष्टि ही रही है।
हाँ-हाँ, आप ठीक कह रही हैं।
डॉ. साहब, मार्क्सवाद के बारे में बताएँ? पहले आप इस जीवन दर्शन से प्रभावित रहे लेकिन अब ऐसा नहीं लगता कि आप उससे कुछ अलग हटे हैं। इसमें एक और बात कि स्त्री और दलित लेखन में मार्क्सवाद की भूमिका कितनी बनती है?
देखिए, मार्क्सवादी दृष्टि से हम अलग नहीं हैं। अब हम लोकतांत्रिाक हो गए हैं। मार्क्सवाद को हम व्यवहार में लाए और वही हमारे विचार में भी बदलाव लाया। अब मार्क्सवादी कट्टरता नहीं रही है हमारे भीतर। स्त्री, दलित मुद्दे पर मार्क्सवादी दृष्टि हमें बल देती है। दलित जीवन में वर्ण के साथ वर्गान्तरण हो रहा है और दलित लेखक आत्मबद्ध हो रहे हैं। वर्ण एक सामाजिक सच्चाई है लेकिन वर्ग को दरकिनार करके नहीं देखना चाहिए। अम्बेडकर और मार्क्सवाद दोनों मिलकर दलित लेखन को ताकत प्रदान करते हैं।
हाँ, यह तो सही है लेकिन डॉ. साहब आपने भी जाति केन्द्रित कहानियाँ लिखीं हैं, जिसमें जातीय समस्याओं को लेकर गंभीर विमर्श किया गया है, फिर भी इन कहानियों ने दलित लेखकों का ध्यान आकर्षित नहीं किया?
हाँ, जाति केन्द्रित कहानियाँ हैं चोट, सराय मोहन... जाति को ध्यान में रखकर ७१ में चोट लिखी जो आधार पत्रिका में प्रकाशित हुई। वे तीन घर कहानी सराय मोहन की' उन्हें दलित विमर्श की कहानी नहीं कह सकता, क्योंकि दलित विमर्श तब तक आया ही नहीं था। इसमें सवर्ण दृष्टि... यह लेखक की गलती है। चोट कहानी में दलित अन्तर्विरोध भी है - तीन घरों के बारे में टिप्पणी है इसमें। दलित स्त्रीहै अपने कामरेड मित्र से कहती है कि उन दलित घरों पर ध्यान मत दीजिए। कहानी सराय मोहन' में ठाकुर, ब्राह्मण, हरिजन हैं। हरिजन रोटियाँ बना रहा है और उसकी रोटियाँ सब खा जाते हैं। भूख के सामने जाति का कोई मतलब नहीं रह जाता। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि वह दलित है ब्राह्मण तो पचा जाता है और ठाकुर कै कर देता है और उसकी लुटिया भी चुराकर पंडित जी चल देते हैं। जैसे वे तीन घर दलितों के भीतर के अंतर्विरोध को व्यक्त करती हुई कहानी है वैसे ही कहानी सराय मोहन में ब्राह्मण के प्रति उपहास का भाव है दलित का प्रतिकार है। पर कहानीकार ने स्वयं बताया कि ये दलित विमर्श की कहानियाँ नहीं हैं।
भले ही आप कहें, लेकिन दलितों ने उसकी नोटिस क्यों नहीं ली जबकि दलित टोन तो है?
कोई बात नहीं... उधर ध्यान जाना चाहिए था।
ठाकुर का कुआँ, सद्गति, कफन इस पर क्या कहेंगे? जबकि ये भी तो दलित विमर्श से पहले की कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ बराबर उनके घेरे में हैं क्यों?
सारनाथ वाली गोष्ठी में मैंने कहा था प्रेमचंद बरगद हैं और हम लोग बरोह हैं, जो उसी की डाल से हम लोग निकले हुए हैं जिसकी जड़े जमीन में हो जाती हैं। प्रेमचंद आज भी अद्वितीय हैं। उनके सामने जातियाँ नहीं थी, पूरा देश था। जाति या दलित उसी स्वाधीनता आन्दोलन के अंग हैं।
आज के दलित लेखन को किस रूप में आप देखते हैं?
प्रेमचंद की दृष्टि गाँधीवादी थी और आज के दलित लेखन की दृष्टि अम्बेडकरवादी है। सुमनाक्षर ने रंगभूमि जलायी। जबकि ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल पाल चौहान की सहमति है प्रेमचंद से। हाँ, असहमति है तो इसलिए कि प्रेमचंद लेखक हैं दलित नहीं। दलितों की पीड़ा केवल दलित ही लिख सकते हैं, जबकि साहित्य में ऐसा कोई अंकुश नहीं है। वे मानते हैं कि दलितों की समस्या पर अम्बेडकरवादी दृष्टि से विचार करें। लेकिन यदि कोई सवर्ण भी अम्बेडकरवादी दृष्टि से लिखे तो भी वे ऐसा नहीं मानेंगे। इसके लिए वे दलित होना आवश्यक मानते हैं। यह नजरिया एकांगी है।
आपने महत्त्वपूर्ण दलित लेखक सूरजपाल चौहान की संतप्त की भूमिका लिखी है। दो पृष्ठ की भूमिका पाठक को बाध्य कर देती है कृति से होकर गुजरने के लिए। डॉ. साहब एक बात बताना चाहेंगे कि सूरजपाल ने दलित पीड़ा को न सिर्फ बाहरी संघर्ष को अभिव्यक्त किया है अपितु दलित समाज के भीतर की संरचना को एकांकित किया है? दूसरे शब्दों में दलित अंतर्विरोधों का खुलासा किया है उन्होंने इस कृति में। हम देख भी रहे हैं। आज यह स्थिति दलित लेखन में तेजी से घर कर रही है। दो हिस्सों में बँटा दलित लेखन कहीं अपने उत्स तक पहुँचने के पहले चूक तो नहीं रहा है?
मैं ऐसा नहीं मानता। कहानियाँ उतनी अच्छी नहीं लगीं आत्मकथा के बनिस्बत। आत्मकथाएँ मुझे बेहद पसंद हैं। अंतर्विरोध आन्दोलन को अंततः मजबूत करता है। यह एक डेमोक्रेटिक प्रोसेस' है। इससे आन्दोलन मजबूत होगा। मैं देखता हूँ प्रगतिशील आन्दोलन को, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द गुप्त, अमृत राय, यशपाल एक ही आन्दोलन में थे। लेकिन इनके विचार विरोधी थे और आन्दोलन प्रभावित हुआ, प्रगतिशील लेखन खत्म हुआ। दलित आन्दोलन का भी ऐसा हो सकता है। लेकिन विचारधाराओं में टकराव से जो स्थिति आएगी उसमें से लेखन की एक उर्वर भूमि बनेगी। विघटन के बीच से जो चीज आएगी उसमें एक ताजगी एक नयी ऊर्जा मिलेगी।
हाँ, यह भी एक संभावना बनती है। लेकिन क्या दलित लेखन में खासतौर पर आत्मकथाएँ एक रस नहीं हो रही हैं?
हाँ-हाँ, जो आन्दोलन हुआ था अफ्रीका में ब्लैक लिटरेचर का वह थम गया। आज दलित आन्दोलन की आवाज भी मद्धिम हो रही है। कंट्राडिक्शन का आना शुभ है यहाँ से ऊर्जा मिलेगी। दूसरी बात सभी एक ही दिशा में सोचेंगे-लिखेंगे तो आन्दोलन का क्या होगा?
फिर भी डॉ. साहब आन्दोलन की धार मद्धिम पड़ी है?
हाँ, ऐसा हो रहा है।
दलित लेखन में स्त्रीलेखन की कमी आपको परेशान करती है? मान लीजिए कि विमला चौहान भी अपने सच को लिखें तो कहीं सच का दूसरा रूप तो उभरकर सामने नहीं आयेगा? क्योंकि शुरू से ही सब कुछ का बहुत हद तक एहसास करते हुए सूरजपाल मूक क्यों बने रहे? उनका लेखन तो काफी बोल्ड है। लेकिन इसके मूल में वजह क्या है? उनमें भी कोई कमी तो नहीं है? लेखन में इतनी प्रखरता साफ दृष्टि और जीवन में इतनी चुप्पी?
विमला चौहान का प्रसंग पढ़ा था भूमिका लिखते समय, उस समय मेरी स्थिति थी कि एक तरफ तो सूरजपाल के सामने सिर झुक रहा था और क्रोध भी आ रहा था कि रोका क्यों नहीं? सूरजपाल की कौन-सी मजबूरियाँ थी? सूरजपाल ने क्यों नहीं रोका क्यों चुप थे? विमला आगे बढ़ती जा रही थी। (क्षणभर चुप रहकर) यह तो विमला ही बता सकती हैं।
दलित लेखन में स्त्रियों को लेकर उनकी समस्याओं को लेकर लेखक चुप हैं, लेखन के क्षेत्र में दलित स्त्रिायाँ भी आगे नहीं आ रही हैं। जबकि मराठी में कुछ दलित स्त्रियों ने बड़ी शिद्दत से अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं?
देखिए, मैं तस्लीमा को पढ़ता हूँ भारतीय लेखिकाओं को पढ़ता हूँ। अब लेखन कम हो रहा है, विमर्श ज्यादा हो रहा है। यहाँ वह तेजस्विता नहीं है। स्त्रीविमर्श का मतलब हिन्दी के लेखक के लिए देहमुक्ति है।
जी डाक्टर साहब, कुछ लेखकों के लिए हो सकता है, पर स्त्रीविमर्श यहीं तक सिमटा हुआ नहीं है। स्थितियाँ तो विपरीत हैं, एक साथ स्त्री पर भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पुरोहितवाद मिलकर हमला कर रहे हैं, स्त्री आन्दोलन आज भी साहित्य के धरातल पर ही ज्यादा दीख रहा है। सामाजिक धरातल पर बहुत कम, तो ऐसे में किस प्रकार यह सामाजिक धरातल पर आएगा क्योंकि स्त्रीआन्दोलन और स्त्री साहित्य अस्मत और अस्मिता का साहित्य है?
देखिए, जो हजारों साल से हमारे संस्कार बने हैं, उसे न तो पुरुष लेखक तोड़ रहे हैं और न स्त्रियाँ। स्त्रियाँ तो तोड़ रही हैं बहुत हद तक पुरुष लेखक नहीं तोड़ पा रहे हैं। उनकी फ्यूडल मानसिकता स्त्री शोषण से बाज नहीं आ रही है।
वर्तमान कथा लेखन पर आपकी क्या टिप्पणी है?
संभावनाओं से भरा अच्छा लेखन हो रहा है। हाँ, युवा लेखकों में प्रसिद्धि पाने की बेचैनी है जो घातक है उनके लिए।
पहले लेखन में जो प्रतिरोधी स्वर था जो धार थी, वह धार आज के लेखन में क्या कम हुई है?
(थोड़ा गंभीर होकर) इसे पॉजिटिव ढंग से लेना चाहिए। ये कम अधिक होते रहते हैं। आज के युवा लेखकों में कम लिखकर प्रसिद्धि पाने का जो उतावलापन है, उसी बाजारवाद के कारण है। बाजारवाद के विरोध में लिखते भी हैं और उसी से स्वीकृति भी पाना चाहते हैं। धार तो कमजोर हुई ही है।
अपना रास्ता लो बाबा' में एक छटपटाहट है उस युवक के मन में। उसे लगता है कि उसके अंदर जो लगाव है वह टूटेगा तो कोई बड़ी चीज बिखर जायेगी। लेकिन आज सम्बन्धों के भीतर वह गहराई नहीं रह गयी है, वह उष्मा भी नहीं बची है। उससे रिक्त हो रहा है युवा लेखन। कहीं अपनी आत्मबद्धता के कारण है। इसे पीढ़ियों का गैप ही कहा जा सकता है? इनका लेखन आपको चुनौती नहीं दे पा रहा है। आपको इरीलिवेन्ट साबित नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि आज भी पाठक आपके लेखन को बड़ी शिद्दत के साथ पसंद कर रहे हैं।
इस टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद दे रहा हूँ। आप बहुत सही कह रही हैं। हाँ, यह पीढ़ी हमें हाशिए पर नहीं डाल पा रही है, जबकि इनसे पहले की पीढ़ी में एक ऊर्जा थी, चुनौती थी।
क्या व्यवस्था के साथ उनकी सहमतियाँ ज्यादा बन रही है?
हाँ, ऐसा है। लिखने के साथ जितना श्रम किया जाना चाहिए उतना श्रम नहीं कर रहे हैं। साथ ही लेखक का जो संबंध जनजीवन से होना चाहिए, लोक जीवन से होना चाहिए, अब ऐसा कम है।
सही है जब सुरेश कांटक, अखिलेश, उदय प्रकाश, सृंजय, देवेन्द्र आदि लिख रहे हैं तो उनमें तो एक धार है, कथा लेखन में एक ऊँचाई है।
आपसे मैं सहमत हूँ।
लेकिन आज?
आज निश्चित ही वह बात नहीं रह गयी है जो व्यवस्था को चुनौती दे सके या पाठक को व्यग्र और बेचैन बना सके और उद्वेलित कर सके।
वैसे आज आपको कथा लेखन के क्षेत्र में कौन से नये लेखक आकृष्ट कर रहे हैं?
चंदन पाण्डेय, कुणाल सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, राकेश कुमार मिश्र अच्छा लिख रहे हैं। इनके भीतर वह बेचैनी नहीं है जिसे हम लोग महसूस कर रहे हैं अपने लेखन के दौरान। चंदन पांडेय की दो कहानियाँ तो ठीक आयीं लेकिन तीसरी कहानी ऐसी लिखी जिस पर हम उम्मीद रखें या न रखें। देखिए न, आज ही एक लड़के ने फोन किया और कहा कि यह पुरस्कार मुझे मिल जाता तो ठीक रहता। स्वयं के लिए कहा था।
आपका ग्रामीण जीवन से गहरा सरोकार रहा है, आपके कहानी लेखन में इसकी क्या भूमिका रही है?
ऐसा है कि मैं गाँव में पैदा हुआ, वहीं पला बढ़ा, खेला-कूदा, खेती में भी साथ देता रहा। कटाई हो, दँवरी हो ये सब कुछ मैंने किया। हाईस्कूल तक गाँव में पढ़ा। उसके बाद इंटरमीडिएट में मैं शहर आया और फिर शहर में ही सारी पढ़ाई लिखायी हुई और वो भी बनारस में। लिखना तो शुरू कर दिया था बी.ए. में मामूली कविताएँ लिखता था जिसका कोई मतलब नहीं था। सन् १९६० ई. के आसपास विधिवत् लिखना शुरू किया।
कविता जब आप लिख रहे थे शुरू में, तो अचानक ये कैसे मोड़ आ गया कि कहानी लिखने लगे?
इसलिए कि मेरे भाई साहब (डॉ. नामवर सिंह) स्तम्भ लिख रहे थे कहानी पत्रिका के लिए और ज्यादातर घर में कहानियों पर बात होती थी। तो कहानी पत्रिका की कहानियों को पढ़ता था और उन कहानियों को पढ़ता था जिनकी तारीफ करते थे भाई साहब। खासतौर से रूसी कहानियाँ, हेमिंग्वे की कहानियाँ, मंटो की कहानियाँ तो इन्हें पढ़ता था तो कहानी की तरफ धीरे-धीरे मुड़ने लगा और कहानी लिखना शुरू किया सन् ६० के बाद से। तो जो पात्र हमारे आते थे, जो जीवन होता था वो गाँव का ही होता था। धीरे-धीरे मुझे लगा कि मैं उस आदमी के बारे में लिख रहा हूँ जो गाँव को छोड़ चुका है, लेकिन शहर में रहते हुए शहर का नहीं हो पा रहा है। सन् ६० के आस-पास की स्थितियाँ ऐसी ही थीं भी। मेरी शुरुआत की कहानियों में इस तरह का एक आदमी था।
नयी कहानी का दौर और उसके समाप्ति पर आपने लिखना शुरू किया। लेकिन उस प्रभाव से जो अपने को अलग किया लेकिन मुख्य बात यह है कि उस पूरे प्रभाव से स्वयं को बचाते हुए कैसे इतना बड़ा परिवर्तन आपके लेखन में आया? क्या बदली हुई परिस्थितियाँ ही थीं इसके मूल में?
देखिए, लगभग ऐसा समय तो शीतयुद्ध का था, कांग्रेसी हुकूमत थी। जनता का मोहभंग हो गया था... ढेर सारी योजनाएँ चालू की गयी थीं और योजनाएँ या तो अधूरी थीं या जैसे बाँध बन रहा था, बने बाँध लेकिन बारिश हो तो बाँध बह जाय। सड़कें टूट जाएं, विकास जैसे होना चाहिए था वैसे नहीं हो रहा था। तो लग रहा था कि यह सत्ता इस लोकतंत्र में जनता के लिए जो काम कर रही है वह काम संतोषजनक नहीं है और इस पर मुहर लगाने का काम किया जनता ने। पूरी तरह से भारत प्रभावित हुआ था। इस परिवर्तन ने हमारी भाषा को भी प्रभावित किया और हमारे कंटेंट को भी।
आपकी कहानियों में तो है ही लेकिन आज जो कथा रिपोर्ताज लिख रहे हैं संतो घर में झगड़ा भारी पांडे कौन कुमति तोहे लागि... आदि में जो गँवईमन झाँक रहा है, उस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
बुनियादी निर्माण तो हमारे गँवई मन का ही है, इसलिए वह भाषा वो मुहावरे, वो लोकोक्तियाँ, वो मन, वो संस्कार कहीं-न-कहीं हमारी रचनाओं पर आज भी प्रभाव जमाए हुए हैं।
आपकी पहचान आज के कथा साहित्य में एक खास किस्म की बन चुकी है। कथा भाषा को लेकर तथा कथा स्थल को लेकर (अस्सी लंका के संदर्भ में) एक बात बताना चाहेंगे कि क्या ये स्थल एक ऐसे रूपक के समान तो नहीं हैं जहाँ से हम पूरे वैश्विक परिस्थिति और परिवेश को देख सकते हैं? (संदर्भ-संतों घर में झगड़ा भारी, पांड़े कौन कुमति तोहे लागि, कौन ठगवा लूटल नगरिया हो)
ये अच्छी बात की है आपने। दरअसल मैं कहानी से संस्मरण की तरफ आया और संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की ओर। इसमें एक संगत रही है। मेरे दिमाग में था कि जब व्यक्ति पर संस्मरण हो सकता है तो स्थल पर क्यों नहीं? व्यक्ति पर जिस तरह लिखा जा सकता है उस तरह से उस स्थल पर भी लिखा जा सकता है। जहाँ मैं रहा था। २०-२५ वर्षों तक उस स्थल को देखा। एक तरह से देखा जाय तो जैसे मेरा सम्पर्क बना था विश्वविद्यालय से पहले वैसे ही अस्सी से सम्पर्क बना रहा। रोज-ब-रोज आना-जाना रहता था। अस्सी को बदलते हुए देख रहा था, लोग बदल रहे थे। ९० के बाद मैंने कथा रिपोर्ताज लिखने की शुरुआत की। पहला रिपोर्ताज सन् १९९१ में देख तमाशा लकड़ी का (हंस में) अस्सी पर था। अस्सी बदल रहा था, कारण चाहे भूमंडलीकरण रहा हो या और...। विदेशी आ रहे थे घाट के किनारे के मकान लॉज बनने शुरू हो रहे थे, वे हमारे बीच रह रहे थे, हमारे जीवन को प्रभावित कर रहे थे, इसमें महिलाएँ भी थीं और पुरुष भी थे। देखिए, कहने को तो यह मुहल्ला है लेकिन रिफ्लेक्ट कर रहा है पूरे देश को। विदेशियों में आस्ट्रेलिया, नाइजेरिया, हंगरी से थे जो अपनी संस्कृति के साथ हमारे बीच में थे। इस वजह से हम सांस्कृतिक धरातल पर एक दूसरे से मिल रहे थे। मुझे लग रहा था कि वस्तुतः यह है एक मुहल्ला, लेकिन है नहीं मुहल्ला, यह है पूरा देश। अमेरिका पर टिप्पणियाँ हैं।
कैथरीना महिला जो बनारस पर शोध कर रही है, बनारस के प्रति क्या धारणा है? वह व्यक्त करती है। उसकी प्रतिक्रिया होती है लोगों में। भूमंडलीकरण के दौरान अस्सी सूचक है देशी-विदेशी परिप्रेक्ष्य में। बड़ा फलक है। अस्सी को एक मुहल्ला मानकर न देखा जाय।
बनारस को मिनी भारत कहा जाता है। तमिल, कन्नड़, बंगाली, असमिया, सिंधी, ईसाई सभी रहते हैं। यह मिनी भारत है। इस कारण यह संभव हो सकता है कि विदेशियों और भारत के सांस्कृतिक टकराव के लिए चुना और देखा.
डॉ. साहब आपके रचना स्थल और पात्र बिल्कुल निश्चित हैं तथा जीवित हैं, क्या आपको उनकी आलोचना का शिकार नहीं होना पड़ता है? क्या रचनाकार के लिए यह कम चुनौतीपूर्ण कार्य है कि हम उसी समय की कहानी उसी समाज के लोगों के बीच रहकर उन्हें खड़ा करके कहते हैं? यों कहें कि आप हिन्दी कथा साहित्य में कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर जारे आपणाँ चले हमारे साथ की चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं और दे भी रहे हैं। इसमें आपको कैसा अनुभव होता है? क्योंकि दौर तो घर बनाने का है और बचाने का है और इसमें आपकी कहानियाँ घर जलाकर साथ आने की बात करती है?
जी, साहस किया था उसे लेकर...। प्रेमचंद ने अपनी कहानी में (मोटेराम शास्त्री) एक ब्राह्मण को खड़ा किया था नाम बदलकर। उन पर मुकदमा भी हुआ। तो ऐसे में जीवित पात्रों को लेकर रचनाओं में सीधे-सीधे इस्तेमाल... (विस्मय) मेरी जानकारी में हिन्दी के किसी लेखक ने मेरे पहले ऐसा नहीं किया है सीधे-सीधे जीवित पात्रों को लेकर। हाँ,... डर तो था ही, गालियाँ मिली, धमकियाँ मिली, मारने तक की बात आयी। ऐसा मेरे किसी खास रचना के साथ नहीं हुआ बल्कि चाहे संतो-असंतो घोंघा बसंतो हो, देख तमाशा लकड़ी का हो, संतो घर में झगड़ा भारी हो... सभी के साथ हुआ। मुश्किल तो बहुत था। जिस रिपोर्ताज में पप्पू का जिक्र है उस पप्पू पर संस्कृत पढ़ने वाले बच्चों ने पत्थर मारा था।
कर्फ्यू लगा हुआ था, कारण दूसरा था लेकिन... धीरे-धीरे फिर पात्रों को ऐसा लगा, अहसास हुआ कि वे इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि लोग देखने आ रहे हैं तो महत्त्व के कारण सम्मान दे रहे हैं। कौन है जया सिंह, दीनबंधु तिवारी कौन है? तो कौन है पप्पू चाय दुकानवाला? तो जैसे उन्हें महत्त्व का ज्ञान हुआ अब गाली के बदले सम्मान मिलने लगा।
कथा भाषा को लेकर सवाल खड़े किए गए, श्लीलता-अश्लीलता का आरोप लगा, आपको विरोध झेलना पड़ा?
कथा भाषा को लेकर उन पात्रों की तरफ से कोई विरोध नहीं था, क्योंकि मैंने उन्हीं शब्दों को उन्हीं बातों में रखा था जिसे उन्होंने कहा था। बातों में सच्चाई थी इसलिए उन्हें इनका विरोध नहीं था। विरोध तो साहित्यिक रुचि के पाठकों को लगा, विरोध लेखकों का था उन पाठकों का था जो यह मानते हैं कि साहित्य बहुत अभिजात्य था। विरोध उनका था जो साहित्य को शराफत भरा मानते थे।
हाँ,... मैं पाठकीय प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में पूछ रही थी।
सड़क के पाठकों के साथ ऐसा नहीं था उन्हें तो लग रहा था कि इसमें उनकी जिन्दगी बोल रही है।
एक बात खास यह लगती है कि दलित लेखन की भाषा पर भी अश्लीलता का आरोप लगा लेकिन वे अपने बचाव के लिए आपके पास क्यों नहीं लौटते हैं? क्यों नहीं कहते कि सवर्ण लेखकों ने भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया?
दलित लेखन एक आन्दोलन की तरह था - इनके पहले मैंने लिखा है, लेकिन दलित लेखन की भाषा पर हमसे कोई खास बात...। उन्होंने काफी बाद में शुरू किया लेकिन उनकी ओर से कोई तालमेल नहीं कोई सफाई नहीं...।
इधर बीच आपकी कहानियों में एक चीज देखने को मिल रही है लगभग कहानियों के शीर्षक कबीर के पदों की पंक्तियाँ हैं - इसके पीछे आपकी क्या चिन्तन पद्धति है? मुझे लगता है कि आपकी रचनाओं में पैठी साहसिकता है, जो बार-बार आपको उधर ले जाती है?
ये मेरी चिन्तन पद्धति नहीं है बनारस की एक परम्परा रही है जो बड़ी शालीन है। वह लोक परम्परा है जबकि दूसरी ओर तुलसी ब्राह्मणवादी परम्परा के प्रतिनिधि कवि हैं और कबीर उनके ठीक उलटे छोटी जातियों के कवि हैं। सम्प्रदाय विरोधी और साहस का काम करने वाले कवि हैं। शीर्षक चुनने के लिए कबीर से बल मिलता रहा है, इसलिए मैं कबीर की ओर लौटता हूँ। आँखिन देखी बात कबीर कहते हैं और मैं भी आँखिन देखी ही कहा करता था।
आप डॉ. धर्मवीर के बारे में क्या कहेंगे जो धर्मवीर कबीर पर और कबीर के आलोचकों पर प्रहार कर रहे हैं?
धर्मवीर कबीर पर ही नहीं प्रेमचंद पर भी (सामंत का मुंशी) प्रहार करते हैं। मैंने पढ़ा नहीं उसे। धर्मवीर को अब उतनी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, वे अनर्थ कर रहे हैं। चीजों को गलत इंटरप्रेट कर रहे हैं। सचमुच धर्मवीर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं।
ऐसा लगता है कि प्रेमचंद से आप ज्यादा प्रभावित नहीं हो पाए। ऐसा क्यों?
नयी कहानी प्रेमचंद की खिलाफत का आन्दोलन था। नये कहानीकार प्रेमचंद की कहानियों को पुरानी कहानी कहने लगे। कफन, पूस की रात, सवा सेर गेहूँ में आधुनिक तत्त्व की तलाश की जाने लगी। नयी कहानी के तत्त्व भी तलाशे जाने लगे। विरोध के नाम पर प्रेमचंद की प्रासंगिकता शुरू हो गयी थी।
अपने समय में अपने समकालीनों के बीच मैंने ही सबसे ज्यादा प्रेमचंद की चर्चा की। प्रेमचंद ने शक्ति दी, प्रेमचंद ने बड़ा साहस प्रदान किया। वो कौन-सी चीज है जिसने प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाया? देखिए, कहानी सुनने सुनाने की चीज है पढ़ने और पढ़ाने की नहीं। श्रवणीयता बुनियादी चीज है। इसको मैंने समझा और ये हमारे लेखन में भी है। मेरे सभी कथा रिपोर्ताजों में मिलेगी। हमारे यहाँ भी श्रवणीयता बुनियादी चीज है।
महाकवि तुलसीदास में भी तो श्रवणीयता है वे केवल सनातनी और ब्राह्मणवादी ही नहीं थे। तो क्या भविष्य में तुलसीदास पर लिखने के लिए सोचा है आपने?
जी, नाटक लिखने की सोच रहा हूँ दस पन्द्रह वर्षों से। खासतौर से तुलसीदास जब अंतिम दिनों में बाहुशूल से पीड़ित हैं कोई देखने वाला नहीं है। तुलसीदास के उपेक्षित दिनों पर। जिस तरह से इस ब्राह्मण मुहल्ले ने उपेक्षित किया है उन्हें। वैसे इन विषयों पर लिखना इतिहास की ओर लौटना होगा और इतिहास की ओर लौटना एक तरह से भागना होता है। हमें वर्तमान पर लिखना चाहिए। वैसे जो भी नाटक आए जैसे- आषाढ़ का एक दिन हो अंधायुग हो कबिरा खड़ा बाजार में' हो सभी इतिहासाश्रित नाटक हैं। जबकि ऐसा मैं नहीं सोचता इसलिए हम वहाँ आश्रय नहीं चाहते हैं। इसलिए तुलसीदास पर मैंने नहीं लिखा।
संचारतंत्र और मीडिया, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पुरोहितवाद पर आप लगातार हमले कर रहे हैं। सच ही यह समय का यथार्थ है और यथार्थ की अभिव्यक्ति है लेकिन प्रारंभिक दौर में आपने जिस तरह काम किया है स्त्री-विमर्श पर। कहनी : उपखान में संग्रहित अनेक कहानियाँ इसकी गवाह हैं। अब जब पूरा दौर स्त्री-विमर्श को लेकर सक्रिय है आप मौन क्यों हैं? जबकि सातवें दशक में बड़े बेबाक तरीके से अभिव्यक्त कर रहे थे?
स्त्री-विमर्श पर बातें खूब हो रही हैं, बहसें हो रही हैं, राजेन्द्र यादव के अनुसार दलित और स्त्री एक हैं। स्त्रियों का शोषण दलित भी अपने घरों में करते हैं। पुरुष वर्चस्व सभी जगह है। जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि वह लेखन ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है, न स्त्रियों द्वारा और न पुरुषों द्वारा। खुद स्त्रीविमर्श पर बात करने वाले लोग अपनी बेटियों और पत्नियों पर दोहरे मानदंड अपनाते हैं, यह सोचने का विषय है।
लेकिन डॉ. साहब यहाँ हावी तो पुंसवादी दृष्टि ही रही है।
हाँ-हाँ, आप ठीक कह रही हैं।
डॉ. साहब, मार्क्सवाद के बारे में बताएँ? पहले आप इस जीवन दर्शन से प्रभावित रहे लेकिन अब ऐसा नहीं लगता कि आप उससे कुछ अलग हटे हैं। इसमें एक और बात कि स्त्री और दलित लेखन में मार्क्सवाद की भूमिका कितनी बनती है?
देखिए, मार्क्सवादी दृष्टि से हम अलग नहीं हैं। अब हम लोकतांत्रिाक हो गए हैं। मार्क्सवाद को हम व्यवहार में लाए और वही हमारे विचार में भी बदलाव लाया। अब मार्क्सवादी कट्टरता नहीं रही है हमारे भीतर। स्त्री, दलित मुद्दे पर मार्क्सवादी दृष्टि हमें बल देती है। दलित जीवन में वर्ण के साथ वर्गान्तरण हो रहा है और दलित लेखक आत्मबद्ध हो रहे हैं। वर्ण एक सामाजिक सच्चाई है लेकिन वर्ग को दरकिनार करके नहीं देखना चाहिए। अम्बेडकर और मार्क्सवाद दोनों मिलकर दलित लेखन को ताकत प्रदान करते हैं।
हाँ, यह तो सही है लेकिन डॉ. साहब आपने भी जाति केन्द्रित कहानियाँ लिखीं हैं, जिसमें जातीय समस्याओं को लेकर गंभीर विमर्श किया गया है, फिर भी इन कहानियों ने दलित लेखकों का ध्यान आकर्षित नहीं किया?
हाँ, जाति केन्द्रित कहानियाँ हैं चोट, सराय मोहन... जाति को ध्यान में रखकर ७१ में चोट लिखी जो आधार पत्रिका में प्रकाशित हुई। वे तीन घर कहानी सराय मोहन की' उन्हें दलित विमर्श की कहानी नहीं कह सकता, क्योंकि दलित विमर्श तब तक आया ही नहीं था। इसमें सवर्ण दृष्टि... यह लेखक की गलती है। चोट कहानी में दलित अन्तर्विरोध भी है - तीन घरों के बारे में टिप्पणी है इसमें। दलित स्त्रीहै अपने कामरेड मित्र से कहती है कि उन दलित घरों पर ध्यान मत दीजिए। कहानी सराय मोहन' में ठाकुर, ब्राह्मण, हरिजन हैं। हरिजन रोटियाँ बना रहा है और उसकी रोटियाँ सब खा जाते हैं। भूख के सामने जाति का कोई मतलब नहीं रह जाता। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि वह दलित है ब्राह्मण तो पचा जाता है और ठाकुर कै कर देता है और उसकी लुटिया भी चुराकर पंडित जी चल देते हैं। जैसे वे तीन घर दलितों के भीतर के अंतर्विरोध को व्यक्त करती हुई कहानी है वैसे ही कहानी सराय मोहन में ब्राह्मण के प्रति उपहास का भाव है दलित का प्रतिकार है। पर कहानीकार ने स्वयं बताया कि ये दलित विमर्श की कहानियाँ नहीं हैं।
भले ही आप कहें, लेकिन दलितों ने उसकी नोटिस क्यों नहीं ली जबकि दलित टोन तो है?
कोई बात नहीं... उधर ध्यान जाना चाहिए था।
ठाकुर का कुआँ, सद्गति, कफन इस पर क्या कहेंगे? जबकि ये भी तो दलित विमर्श से पहले की कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ बराबर उनके घेरे में हैं क्यों?
सारनाथ वाली गोष्ठी में मैंने कहा था प्रेमचंद बरगद हैं और हम लोग बरोह हैं, जो उसी की डाल से हम लोग निकले हुए हैं जिसकी जड़े जमीन में हो जाती हैं। प्रेमचंद आज भी अद्वितीय हैं। उनके सामने जातियाँ नहीं थी, पूरा देश था। जाति या दलित उसी स्वाधीनता आन्दोलन के अंग हैं।
आज के दलित लेखन को किस रूप में आप देखते हैं?
प्रेमचंद की दृष्टि गाँधीवादी थी और आज के दलित लेखन की दृष्टि अम्बेडकरवादी है। सुमनाक्षर ने रंगभूमि जलायी। जबकि ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल पाल चौहान की सहमति है प्रेमचंद से। हाँ, असहमति है तो इसलिए कि प्रेमचंद लेखक हैं दलित नहीं। दलितों की पीड़ा केवल दलित ही लिख सकते हैं, जबकि साहित्य में ऐसा कोई अंकुश नहीं है। वे मानते हैं कि दलितों की समस्या पर अम्बेडकरवादी दृष्टि से विचार करें। लेकिन यदि कोई सवर्ण भी अम्बेडकरवादी दृष्टि से लिखे तो भी वे ऐसा नहीं मानेंगे। इसके लिए वे दलित होना आवश्यक मानते हैं। यह नजरिया एकांगी है।
आपने महत्त्वपूर्ण दलित लेखक सूरजपाल चौहान की संतप्त की भूमिका लिखी है। दो पृष्ठ की भूमिका पाठक को बाध्य कर देती है कृति से होकर गुजरने के लिए। डॉ. साहब एक बात बताना चाहेंगे कि सूरजपाल ने दलित पीड़ा को न सिर्फ बाहरी संघर्ष को अभिव्यक्त किया है अपितु दलित समाज के भीतर की संरचना को एकांकित किया है? दूसरे शब्दों में दलित अंतर्विरोधों का खुलासा किया है उन्होंने इस कृति में। हम देख भी रहे हैं। आज यह स्थिति दलित लेखन में तेजी से घर कर रही है। दो हिस्सों में बँटा दलित लेखन कहीं अपने उत्स तक पहुँचने के पहले चूक तो नहीं रहा है?
मैं ऐसा नहीं मानता। कहानियाँ उतनी अच्छी नहीं लगीं आत्मकथा के बनिस्बत। आत्मकथाएँ मुझे बेहद पसंद हैं। अंतर्विरोध आन्दोलन को अंततः मजबूत करता है। यह एक डेमोक्रेटिक प्रोसेस' है। इससे आन्दोलन मजबूत होगा। मैं देखता हूँ प्रगतिशील आन्दोलन को, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द गुप्त, अमृत राय, यशपाल एक ही आन्दोलन में थे। लेकिन इनके विचार विरोधी थे और आन्दोलन प्रभावित हुआ, प्रगतिशील लेखन खत्म हुआ। दलित आन्दोलन का भी ऐसा हो सकता है। लेकिन विचारधाराओं में टकराव से जो स्थिति आएगी उसमें से लेखन की एक उर्वर भूमि बनेगी। विघटन के बीच से जो चीज आएगी उसमें एक ताजगी एक नयी ऊर्जा मिलेगी।
हाँ, यह भी एक संभावना बनती है। लेकिन क्या दलित लेखन में खासतौर पर आत्मकथाएँ एक रस नहीं हो रही हैं?
हाँ-हाँ, जो आन्दोलन हुआ था अफ्रीका में ब्लैक लिटरेचर का वह थम गया। आज दलित आन्दोलन की आवाज भी मद्धिम हो रही है। कंट्राडिक्शन का आना शुभ है यहाँ से ऊर्जा मिलेगी। दूसरी बात सभी एक ही दिशा में सोचेंगे-लिखेंगे तो आन्दोलन का क्या होगा?
फिर भी डॉ. साहब आन्दोलन की धार मद्धिम पड़ी है?
हाँ, ऐसा हो रहा है।
दलित लेखन में स्त्रीलेखन की कमी आपको परेशान करती है? मान लीजिए कि विमला चौहान भी अपने सच को लिखें तो कहीं सच का दूसरा रूप तो उभरकर सामने नहीं आयेगा? क्योंकि शुरू से ही सब कुछ का बहुत हद तक एहसास करते हुए सूरजपाल मूक क्यों बने रहे? उनका लेखन तो काफी बोल्ड है। लेकिन इसके मूल में वजह क्या है? उनमें भी कोई कमी तो नहीं है? लेखन में इतनी प्रखरता साफ दृष्टि और जीवन में इतनी चुप्पी?
विमला चौहान का प्रसंग पढ़ा था भूमिका लिखते समय, उस समय मेरी स्थिति थी कि एक तरफ तो सूरजपाल के सामने सिर झुक रहा था और क्रोध भी आ रहा था कि रोका क्यों नहीं? सूरजपाल की कौन-सी मजबूरियाँ थी? सूरजपाल ने क्यों नहीं रोका क्यों चुप थे? विमला आगे बढ़ती जा रही थी। (क्षणभर चुप रहकर) यह तो विमला ही बता सकती हैं।
दलित लेखन में स्त्रियों को लेकर उनकी समस्याओं को लेकर लेखक चुप हैं, लेखन के क्षेत्र में दलित स्त्रिायाँ भी आगे नहीं आ रही हैं। जबकि मराठी में कुछ दलित स्त्रियों ने बड़ी शिद्दत से अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं?
देखिए, मैं तस्लीमा को पढ़ता हूँ भारतीय लेखिकाओं को पढ़ता हूँ। अब लेखन कम हो रहा है, विमर्श ज्यादा हो रहा है। यहाँ वह तेजस्विता नहीं है। स्त्रीविमर्श का मतलब हिन्दी के लेखक के लिए देहमुक्ति है।
जी डाक्टर साहब, कुछ लेखकों के लिए हो सकता है, पर स्त्रीविमर्श यहीं तक सिमटा हुआ नहीं है। स्थितियाँ तो विपरीत हैं, एक साथ स्त्री पर भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पुरोहितवाद मिलकर हमला कर रहे हैं, स्त्री आन्दोलन आज भी साहित्य के धरातल पर ही ज्यादा दीख रहा है। सामाजिक धरातल पर बहुत कम, तो ऐसे में किस प्रकार यह सामाजिक धरातल पर आएगा क्योंकि स्त्रीआन्दोलन और स्त्री साहित्य अस्मत और अस्मिता का साहित्य है?
देखिए, जो हजारों साल से हमारे संस्कार बने हैं, उसे न तो पुरुष लेखक तोड़ रहे हैं और न स्त्रियाँ। स्त्रियाँ तो तोड़ रही हैं बहुत हद तक पुरुष लेखक नहीं तोड़ पा रहे हैं। उनकी फ्यूडल मानसिकता स्त्री शोषण से बाज नहीं आ रही है।
वर्तमान कथा लेखन पर आपकी क्या टिप्पणी है?
संभावनाओं से भरा अच्छा लेखन हो रहा है। हाँ, युवा लेखकों में प्रसिद्धि पाने की बेचैनी है जो घातक है उनके लिए।
पहले लेखन में जो प्रतिरोधी स्वर था जो धार थी, वह धार आज के लेखन में क्या कम हुई है?
(थोड़ा गंभीर होकर) इसे पॉजिटिव ढंग से लेना चाहिए। ये कम अधिक होते रहते हैं। आज के युवा लेखकों में कम लिखकर प्रसिद्धि पाने का जो उतावलापन है, उसी बाजारवाद के कारण है। बाजारवाद के विरोध में लिखते भी हैं और उसी से स्वीकृति भी पाना चाहते हैं। धार तो कमजोर हुई ही है।
अपना रास्ता लो बाबा' में एक छटपटाहट है उस युवक के मन में। उसे लगता है कि उसके अंदर जो लगाव है वह टूटेगा तो कोई बड़ी चीज बिखर जायेगी। लेकिन आज सम्बन्धों के भीतर वह गहराई नहीं रह गयी है, वह उष्मा भी नहीं बची है। उससे रिक्त हो रहा है युवा लेखन। कहीं अपनी आत्मबद्धता के कारण है। इसे पीढ़ियों का गैप ही कहा जा सकता है? इनका लेखन आपको चुनौती नहीं दे पा रहा है। आपको इरीलिवेन्ट साबित नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि आज भी पाठक आपके लेखन को बड़ी शिद्दत के साथ पसंद कर रहे हैं।
इस टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद दे रहा हूँ। आप बहुत सही कह रही हैं। हाँ, यह पीढ़ी हमें हाशिए पर नहीं डाल पा रही है, जबकि इनसे पहले की पीढ़ी में एक ऊर्जा थी, चुनौती थी।
क्या व्यवस्था के साथ उनकी सहमतियाँ ज्यादा बन रही है?
हाँ, ऐसा है। लिखने के साथ जितना श्रम किया जाना चाहिए उतना श्रम नहीं कर रहे हैं। साथ ही लेखक का जो संबंध जनजीवन से होना चाहिए, लोक जीवन से होना चाहिए, अब ऐसा कम है।
सही है जब सुरेश कांटक, अखिलेश, उदय प्रकाश, सृंजय, देवेन्द्र आदि लिख रहे हैं तो उनमें तो एक धार है, कथा लेखन में एक ऊँचाई है।
आपसे मैं सहमत हूँ।
लेकिन आज?
आज निश्चित ही वह बात नहीं रह गयी है जो व्यवस्था को चुनौती दे सके या पाठक को व्यग्र और बेचैन बना सके और उद्वेलित कर सके।
वैसे आज आपको कथा लेखन के क्षेत्र में कौन से नये लेखक आकृष्ट कर रहे हैं?
चंदन पाण्डेय, कुणाल सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, राकेश कुमार मिश्र अच्छा लिख रहे हैं। इनके भीतर वह बेचैनी नहीं है जिसे हम लोग महसूस कर रहे हैं अपने लेखन के दौरान। चंदन पांडेय की दो कहानियाँ तो ठीक आयीं लेकिन तीसरी कहानी ऐसी लिखी जिस पर हम उम्मीद रखें या न रखें। देखिए न, आज ही एक लड़के ने फोन किया और कहा कि यह पुरस्कार मुझे मिल जाता तो ठीक रहता। स्वयं के लिए कहा था।
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