- मधुरेश
किसी भी देश और समाज में स्त्री प्रायः सब कहीं एक दूसरे दर्जे की नागरिक है। पिछली शताब्दी के मध्य में जब यूरोप में स्त्री-स्वाधीनता का आन्दोलन जोर पकड़ रहा था, भारत में ऐसा मानने और समझने वालों की कमी नहीं थी कि ऐसी कोई सक्रियता, भारतीय समाज एवं संस्कृति के साथ, स्वयं स्त्री की अपनी प्रकृति के मेल में नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे यूरोप की हवा भारतीय वायुमंडल में भी बहती अनुभव की जाने लगी।
एलिस र्श्वेजर के साथ अपनी एक संवाद-श्रृंखला में सिमोन द बोउआर ने स्वीकार किया है कि सन् १९४९ में जब उनकी 'दि सेकिंड सेक्स' प्रकाशित हुई, पहले उनकी तीखी आलोचना और फिर जल्दी ही यूरोप में उसे नारीवादी आन्दोलन की बाइबिल समझे जाने के बावजूद, वे नारीवादी नहीं थीं। इसके कारण का उल्लेख करते हुए वे कहती हैं, 'क्योंकि उस समय मेरा ये विश्वास था कि औरतों की समस्यायें समाजवाद की प्रस्थापना और विकास के साथ हल हो जायेंगी। 'नारीवादी' होने से मेरा तात्पर्य यह है कि कुछ खास स्त्री मुद्दों पर वर्ग-संघर्ष से हटकर स्वतंत्र रूप से संघर्ष करना। मैं आज भी अपने इसी विचार पर कायम हूँ। मेरी परिभाषा के अनुसार 'स्त्रियाँ और वे पुरुष भी नारीवादी हैं जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरतों की स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं। यह सच है कि पूरे समाज की मुक्ति के बग़ैर स्त्रियों की पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है, लेकिन फिर भी नारीवाद इस लक्ष्य के लिए आज और अभी से संघर्षरत हैं। इस अर्थ में मैं नारीवादी हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए, इससे पहले कि समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो...' (स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पृ. ३९) सन् ७२ में पेरिस में दिए गए अपने इस साक्षात्कार में सिमोन फ्रेंच वामपंथियों और सोवियत रूस के अपने अनुभवों को भी, 'दि सेकिंड सेक्स' लिखे जाने के तेइस वर्ष बाद अपने को नारीवादी घोषित करने के मूल कारक के रूप में स्वीकार करती हैं। अपने अनुभव के आधार पर वे इसका उल्लेख करने में कोई संकोच नहीं बरततीं कि वामपंथियों में भी, स्त्री -मुक्ति के सवाल पर, कुछेक अपवादों को छोड़कर, आम रवैया 'काफी विरोधी, आक्रामक और शत्रुतापूर्ण है।' जब पहली बार बेंसान्न में नारीवादी सभा हुई तो कुछ वामपंथी अपने कमरों में चिल्लाए-'सत्ता लिंग पर खड़ी हुई है।' लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह मानसिकता बदली। लेकिन इसका कारण भी स्त्रियों का स्वतंत्र रूप से जुझारू और सशस्त्र संघर्ष शुरू कर देना था।
सोवियत संघ के अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए सिमोन ने बताया कि वहाँ प्रायः सभी स्त्रियाँ कामकाजी हैं और उच्च अधिकारियों एवं अन्य महत्त्वपूर्ण लोगों की पत्नियाँ जो काम नहीं करती, अन्य लोग उन्हें अवमानना की दृष्टि से देखते हैं। वहाँ औरतों को इस बात पर गर्व भी है कि वे कामकाजी हैं। सिमोन कहती हैं, 'राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भी वहाँ की स्त्रियाँ महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वाह करती हैं। लेकिन इन सबके बावजूद यदि आप केन्द्रीय समितियों और पीपुल्स असेंबली, जिनके पास वास्तव में कुछ अधिकार एवं सत्ता है, का जायजा लें तो पायेंगे कि वहाँ पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या बहुत कम है। व्यावसायिक क्षेत्रों में भी स्थिति कमोवेश ऐसी ही है। सर्वाधिक अरुचिकर और गैर-महत्त्वपूर्ण काम स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं। सोवियत संघ में लगभग सभी डॉक्टर स्त्रियाँ हैं क्योंकि वहाँ चिकित्सा-सेवा मुफ्त है। राज्य इस काम का पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ नहीं देता और डॉक्टरी का पेशा असामान्य रूप से कठिन और क्लांतिकर है...'(वही, पृ. ३७) शिक्षा और चिकित्सा के अतिरिक्त जो सही मायने में महत्त्वपूर्ण कार्य क्षेत्र हैं जैसे विज्ञान या इंजीनियरिंग वहाँ स्त्रियों की पहुँच बहुत कम है। फिर वहाँ स्त्रियों की सामान्य दशा पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं, 'एक तो व्यावसायिक क्षेत्र में स्त्रियाँ पुरुषों के बराबर नहीं हैं और दूसरी ओर घरेलू श्रम के क्षेत्र में घोर अपमानजनक और निंद्य स्थितियाँ बरकरार हैं जैसी कि सारी दुनिया में हैं और जिसके खिलाफ आज स्त्री-आन्दोलन तीव्र संघर्ष कर रहे हैं। घरेलू काम और बच्चों की देखभाल, सोवियत सोशलिस्ट प्रजातंत्र संघ में भी स्त्रियों के लिए ही संरक्षित हैं...(वही) इस टिप्पणी के अंत में ध्वनित व्यंग्य ही वस्तुतः सिमोन द बोउआर के अंततः नारीवादी होने का तर्क तैयार करता है।
अपनी पुस्तक 'दि सेकिंड सेक्स' में सिमोन प्रायः दुनिया में सब कहीं स्त्री के प्रति अपनाए गए दोहरे मानदण्डों की भर्त्सना करती हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि स्त्री की मुक्ति का मार्ग स्त्री के अपने संघर्ष से ही निकलेगा। यह अकारण नहीं है कि सिमोन स्त्री की स्थिति की तुलना नीग्रो की स्थिति से करती हैं। वे नीग्रो और एक स्त्री की स्थिति में गहरी समानता देखती हैं। वे लिखती हैं, 'दोनों ही जातियाँ आज पितृसत्ता से मुक्त हो रही हैं और इनके भूतपूर्व स्वामी इन्हें पुरानी जगह रखना चाहते हैं। उन्हीं जगहों में जिनका चुनाव मालिक वर्ग ने किया था। दोनों ही क्षेत्रों में मालिक यथास्थिति के प्रशंसक हैं।'(स्त्री : उपेक्षिता, पृ. २९) सिमोन मानती हैं कि स्त्री और उसके अंतर्संसार के बारे में स्त्री ही अच्छी तरह से जान सकती है। इसका कारण भी स्पष्ट है - क्योंकि उसकी अपनी जड़ें भी नहीं हैं। अन्य मानव प्राणियों की भाँति स्त्री भी एक स्वतंत्र और स्वायत्त जीव है लेकिन सदियों से पुरुष अपनी जरूरतों और स्वार्थों के अनुकूल उसे गढ़ता रहा है। सिमोन की प्रसिद्ध उक्ति है - स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। स्त्री के स्वायत्त और स्वतंत्र जीवन के पक्ष में खड़े होकर भी वे पुरुष के विरोध में नहीं जाती। एलिस र्श्वेजर को ही दिए गए अपने एक साक्षात्कार में वे बताती हैं कि सार्त्र से उनके संबंधों के कारण नारीवादी आन्दोलन की अनेक अग्रणी नेत्रियाँ उन्हें नारीवादी आन्दोलन में शामिल नहीं करती थीं। अपने इस संबंध की वजह से उन्हें प्रायः ही शंका और अविश्वास से देखा जाता था।
एक संस्था के रूप में सिमोन 'विवाह' का विरोध करती हैं। शुरू में उनका मानना था, 'विवाह जहाँ स्त्री को पुरुष का गुलाम बनाता है वहीं उसके फर की साम्राज्ञी भी...'(वही, पृ. १७९) किंचित् व्यंग्य के साथ वे लिखती हैं कि विवाह अन्य सब कैरियरों से अधिक आकर्षक, आसान और सुविधाजनक है। विवाह के प्रसंग में वे फ्रॉयड को उद्धृत करते हुए कहती हैं, 'पति प्रेमी पुरुष का एक पूरक तो हो सकता है, किन्तु वह प्रेमी नहीं हो सकता।' उनके अनुसार विवाह की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह 'सुख' के विषय में किसी प्रकार का आश्वासन नहीं देता। विवाह में स्त्री की विषम और दीन परिस्थिति पर उनकी टिप्पणी है, 'यह तो विवाह प्रणाली ही है जो स्त्री को प्रार्थी का रूप देती है और यह प्रणाली उसे जोंक की तरह रक्त पिपासु जीव बनाती है...(वही, पृ. २११) वे अंत तक विवाह के विरुद्ध रहीं क्योंकि एक शादीशुदा स्त्री के रूप में समाज के साथ स्त्री के वैसे ही संबंध नहीं रह जाते जैसे कि एक गैर शादीशुदा स्त्री के होते हैं। जहाँ भी अवसर मिलता है विवाह को वे औरतों के लिए 'बहुत खतरनाक' बताती और घोषित करती हैं। स्त्री-मुक्ति के प्रसंग में, स्वयं अपने पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं, 'मेरे पास स्त्री का शरीर है लेकिन फिर भी मैं काफी खुश किस्मत रही हूँ। मैं ऐसी चीजों से मुक्त रही, जो औरत को गुलाम बनाती हैं, जैसे पत्नी और मातृत्व की परम्परागत भूमिकाएँ।' (स्त्री के पास खोने को कुछ नहीं है, पृ. ४४) इसी तरह वे 'परिवार' नामक संस्था के भी विरुद्ध हैं और उसके स्थान पर 'कम्यून' या उसी प्रकार के किसी दूसरे ढांचे की सिफारिश करती हैं जिससे स्त्री समानता के साथ रह सके।
स्त्री की मुक्ति कैसे उसका अपना निजी उद्यम है, इसका उदाहरण वे अपने जीवन से देती हैं। सार्त्र से उनके अंतरंग संबंधों के कारण जब नारीवादी आन्दोलन में उन्हें शंका और संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था तब भी वे अपना स्वतंत्र और स्वायत्त जीवन जी रही थीं। साथ रहने की समझ और आपसी क़रार के बीच भी वे वस्तुतः उस रूप में कभी एक साथ नहीं रहे जिसे स्थायी रूप में एक छत के नीचे रहना कहा जाता है। बाहर जाने पर भी होटल में वे प्रायः ही अलग कमरों में रहते थे - अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए। आर्थिक दृष्टि से ऐसे अवसर भी आए जब सिमोन ने सार्त्र से आर्थिक सहायता स्वीकार की। लेकिन ऐसा ख़ासतौर से तभी हुआ जब अपनी अध्यापकी की नौकरी छोड़कर उन्होंने अपना लेखन किया। आर्थिक दृष्टि से वे कभी सार्त्र पर निर्भर नहीं रहीं। अनेक बार, ऐसे ही स्थिति में, उन्होंने सार्त्र की भी आर्थिक सहायता की। यात्राओं और होटलों का खर्च वे समान रूप से उठाते थे और प्रायः ही यह हिसाब नहीं रखते थे कि किसका कम या ज्यादा खर्च हुआ। इसी सोच के आधार पर सार्त्र को स्वतंत्रता देकर वे अपनी स्वतंत्रता बनाए रख सकीं। अपने अमेरिकी प्रेमी नेल्सन एल्ग्रेन के प्रति अपनी गहरी आसक्ति और लगाव की स्वीकृति में उन्हें कहीं कोई असुविधा नहीं होती। सार्त्र के अनेक प्रेम-संबंधों को भी इसी तरह उन्होंने बहुत खुले मन से झेला-एकाध उस अपवाद को छोड़कर जब उन्हें उसके एकाधिकारवाद में दूसरे संबंधों के प्रति गहरी उपेक्षा या तानाशाही दिखाई दी। घरेलू पत्नियों के अलगाव और नौकरी पेशा स्त्रियों के अकेलेपन में वे एक बुनियादी अंतर देखती हैं। मानती हैं कि उसे अंततः इन दो में से एक का चुनाव करना ही होगा। आर्थिक दृष्टि से स्त्री की आत्मनिर्भरता पर उसकी टिप्पणी है, 'नौकरी कोई रामबाण नहीं है, लेकिन बावजूद इसके मुक्ति की बुनियादी शर्त है'...(वही, पृ. ५१)
पिछले दो दशक हिन्दी में नारी-विमर्श से अधिक उसकी चर्चा के वर्ष रहे हैं। सिमोन द बोवुआर, केट मिलेट, जर्मेन ग्रेयर आदि लेखिकाओं जैसे गंभीर और व्यवस्थित काम हिन्दी में लगभग नहीं हुए। हिन्दी में नारीवाद की वैचारिकी का मूल स्रोत वस्तुतः में ही लेखिकाएँ हैं। हिन्दी में प्रभा खेतान की पुस्तकों को छोड़कर नारीवाद की अधिकतर चर्चा छिटपुट टिप्पणियों, वक्तव्यों और पत्रकारी लेखों के रूप में ही हुई है। इन लेखिकाओं में प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, पुष्पलता शर्मा, मृणाल पाण्डे, नासिरा शर्मा, अनामिका, कात्यायनी, मनीषा आदि का उल्लेख सहज ही किया जा सकता है।
जैसा कि कहा गया, इनमें प्रभा खेतान का काम सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने सिमोन द बोवुआर की 'दि सेकिंड सेक्स' का अनुवाद तो किया है। सार्त्र पर अपने अध्ययन और शोध की प्रक्रिया में उन्होंने यूरोप के अस्तित्ववादी दर्शन और नारीवादी आन्दोलन का भी गंभीर अध्ययन किया है। इस संबंध में उनकी दो पुस्तकें 'उपनिवेश में स्त्री' और 'बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ़' ख़ासतौर से ध्यान आकृष्ट करती हैं। जब वे किसी राजनीतिक उपनिवेश के रूपक में ढालकर स्त्री को देखती और परिभाषित करती हैं, स्पष्ट है वे सिमोन के स्त्री-पुरुष के संबंध की गोरे और काले के संबंधों वाली व्याख्या से अप्रभावित नहीं हैं। अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री का संघर्ष वस्तुतः एक राष्ट्रवादी क्रांति के लिए किए जाने वाले संघर्ष से बहुत भिन्न नहीं है। इस संघर्ष में उसे अनेक स्थापित सामाजिक संस्थाओं और वर्चस्वशील विचार सरणियों से टकराना होता है। पितृसत्ता, यौन शुचिता, परिवार और आर्थिक आत्मनिर्भरता के पुराने मिथक उसने तोड़े और नए गढ़े हैं। इन स्थापित सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं को स्त्री-विरोधी प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए वे लिखती हैं, 'मगर पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री विरोधी परम्पराओं का आयाम पूरी तरह विशिष्ट है। ये परम्परायें स्त्री को घर सौंपती हैं, बच्चों का भरण-पोषण सौंपती हैं। मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे निःशुल्क सेवा लेती हैं और बदले में उसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमा-मंडनकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं। स्त्री भूखी है या मर रही है इसकी चिन्ता किसी को नहीं होती'...(उपनिवेश में स्त्री, पृ. १४) इस स्थिति में निहित सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक-हर क्षेत्र में निर्णय के अधिकार से उसे वंचित करके उस पर तरह-तरह की जिम्मेदारी लादकर उस दायित्व को निभाने की अपेक्षा की जाती है।
प्रभा खेतान मानती हैं कि भू-मंडलीकरण ने स्त्री को जितना लाभ पहुँचाया है, उससे अधिक हानि पहुँचाई है। उसने स्त्री को सब कहीं एक आकर्षक उत्पाद में बदला है। भ्रूण-हत्या और बालिका-शिशु की उपेक्षा का अनुपात तेजी से बढ़ा है। भारत जैसे समाज में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ही काफी नहीं है। आर्थिक परिवर्तन के संदर्भ में राजनीतिक और
सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है। वे स्पष्ट लिखती हैं, 'अमानवीय विकास के प्रतिमानों को खारिज करता और जनोन्मुख नजरिए को विकसित करना नारीवाद का पहला उद्देश्य होना चाहिए।'(वही, पृ. ३५) स्त्री के संदर्भ में पूर्ववादी दृष्टि से उसके महिमा-मंडन को वे जितना गलत समझती हैं, पश्चिम के पुरुष चिन्तकों की स्त्री-विरोधी दृष्टि की भी वे वैसी ही स्पष्ट आलोचना करती हैं। वेद-वेदान्त से लेकर कार्ल मार्क्स की स्त्री-चिन्ता तक सब कहीं वे दुराग्रहों की टोह लेती हैं। इस स्त्री विरोधी परिप्रेक्ष्य में वे लेखिकाओं की निष्क्रियता पर भी हैरत जताती हैं। पुरुष-संस्कृति के विकल्प में नारीवाद को वे एक निरन्तर और विकासमान प्रक्रिया के रूप में देखती और स्थापित करती हैं। मारक प्रभावों के बीच में उसकी अनिवार्यता की बात करती हैं। स्त्री के संदर्भ में संस्कृति के भू-मंडलीय प्रभाव को आँकने के लिए वे एक इंटर कांटिनेंटल होटल के रूपक की सिफ़ारिश करती हैं। सासकिया सासेन एक नए अंतर्राष्ट्रीय समाज के प्रकटीकरण पर जोर देती हुई एक ऐसे भूमंडलीय समाज की बात करती हैं। जिसमें बेहिसाब धन बहता है और उस समाज में वे स्त्री की भूमिका का सवाल उठाती हैं। इस समाज में पूँजी का तेज बहाव देखने को मिलता है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महानगरों को वित्तीय राजधानी में बदल रहा है। इस भूमंडलीय संस्कृति की अच्छाई-बुराई पर प्रभा खेतान पर्याप्त वस्तुनिष्ठ टिप्पणी करती हैं, ÷इस टकराहट का लाभकारी पक्ष है पर्यटन और व्यापार को बढ़ावा मिलता है, मगर खराब पक्ष है कि इससे समाज में यौन-पर्यटन भ्रष्टाचार तथा अन्य बुराईयाँ फैलती हैं...'(बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, पृ. १५) किसी भी देश के हर महानगर में पाँच सितारा होटलों में संस्कृति का संजाल फैला हुआ है जिसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की होटल-श्रृंखला होटलों में यात्रियों को घर जैसे आराम का आश्वासन देती है। देश संस्कृति की भिन्नता विरोधी यह भूमंडलीय एकल संस्कृति है - मोनो कल्चर। इसमें सब कहीं एक रूपीकरण पर जोर होता है। एक से उत्पाद-फ़ास्ट फूड से लेकर परिधान और जूतों तक। प्रभा खेतान भूमंडलीकरण को सिरे से नकारती नहीं हैं, वे भरसक उसके वस्तुनिष्ठ आंकलन की कोशिश करती हैं। वे उसे एक ऐसी बिजली की संज्ञा देती हैं जो घर को रोशन करती है और उसमें आग भी लगा सकती है। इस खुली अर्थव्यवस्था में वे इस ओर से उदासीन नहीं हैं कि विकास अनिवार्य रूप से कल्याणकारी योजनाओं से सम्बद्ध है और भूमंडलीकरण के नाम पर जिस तरह से दक्षता और प्रतियोगिता की माँग होती है तथा विकास के नए मानक तैयार किए जाते हैं, उससे गरीबी, बेरोजगारी और बढ़ती है।
एशियाई संस्कृति के संदर्भ में प्रभा खेतान 'परिवार' नामक संस्था पर पुनर्विचार करते हुए स्त्री की कीमत पर उसके बने रहने की सच्चाई तक पहुँचती हैं। देह-व्यापार का व्यापक संजाल इस ओर संकेत करता है कि अधिकांश एशियाई पुरुष पत्नी के प्रति सेक्स-संबंधों में निष्ठावान नहीं होते। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए वे लिखती हैं, 'सेक्स एक ऐसा मनोरंजन है जिसका लुत्फ़ पुरुष और सिर्फ पुरुष ही दाम्पत्य जीवन की सीमाओं से बाहर जाकर उठा सकता है। अनेक एशियाई समाजों में पत्नियों द्वारा इसे नजरअंदाज किया जाता है क्योंकि पत्नी एक तो आर्थिक रूप से पूरी तरह पुरुष पर निर्भर होती है और अधिकांश एशियाई औरतों के विचार में सेक्स संबंध ही विवाह नहीं है। वे इसे एक संस्कार मानती हैं और धूर्त्त पुरुष इसका फ़ायदा उठाते हैं...'(वही, पृ. १३४-१३५) प्रभा खेतान देह-व्यापार के अनेक रूपों की चर्चा करती हैं जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस भूमंडलीकरण की देन हैं। नव धनाढ्यता की तजॅ पर वे नव दरिद्रीकरण और बाल-वेश्यावृत्ति को इसके अनिवार्य परिणाम के रूप में रेखांकित करती हैं। लेकिन सिर्फ निर्धनता को ही वे इसका कारण नहीं मानतीं। वे इसे सामाजिक विषमता और असुरक्षा से जोड़कर देखती हैं। इस प्रसंग में मानवीय गरिमा का सवाल उठाते हुए वे लिखती हैं, 'मूल प्रश्न मानवीय गरिमा और सम्मान का है एवं सभी के लिए यह चिन्ता का विषय होना चाहिए कि क्या स्त्री की पहचान उसकी योनि पर चिपकी कीमत से ही होती है?' (वहीं, पृ. १६९)
प्रभा खेतान नारीवादी आन्दोलन की सीमाओं को भी संकेत करती हैं। वे इस आन्दोलन में बढ़ते हुए वर्ग-भेद और कैरिमरिज्म के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त करती हैं। अपने ही घर में घरेलू नौकरानियों का शोषण करते हुए स्त्रियों का ध्यान नारीवाद की ओर प्रायः नहीं जाता।
भारत में आज भी मुख्यधारा में स्त्रियों की संख्या नगण्य है। वे अब नारीवाद के शत्रु के रूप में पुरुष या पितृसत्तात्मक व्यवस्था को उतना महत्त्व नहीं देतीं क्योंकि इसका सामना करना नारीवाद को आ गया है। वे कारपोरेट पूँजी को आज एक बड़ी समस्या के रूप में देखती और आँकती हैं क्योंकि नारीवादी स्त्रियाँ उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं सकी हैं। आज पुरुष इस आन्दोलन में वैसे विरोधी के रूप में नहीं देखा जाता जैसा वह पिछली शताब्दी में कभी सत्ता के दशक में देखा जाता था। उपभोक्तावाद स्त्री को जींस में बदल देगा। इस ओर उसे सचेत रहना है। अपने लिए वह कैसा जीवन चाहती है, यह अंततः उसे ही तय करना है। एक निष्क्रिय उपभोक्ता या सृजनशील व्यक्ति के बीच का चुनाव ही उसके साथ पूरे नारीवादी आन्दोलन का भविष्य तय करेगा। वे देहवाद के बढ़ते आकर्षण और माँग की ओर भी संकेत करती हैं जो मछली के चारे की तरह दुनिया के बाजार में फेंका जा रहा है। वे संजीदगी से सवाल करती हैं - इससे स्त्री को क्या हासिल होगा?
प्रभा खेतान पूँजी को उपभोग की संस्कृति से जोड़कर देखती हैं। उपभोक्ता संस्कृति और स्थानीय संस्कृति के बीच बढ़ते टकराव को रोक पाना मुश्किल है। उपभोक्ता संस्कृति से बचाव की प्रक्रिया में ही अपनी जड़ों की ओर वापसी की प्रवृत्ति जोर पकड़ती है। इससे समाज में रूढ़िवादी ताक़तों को बल मिलता है। विभिन्न देशों और समाजों में वे ताकतें हिन्दुत्त्व, इस्लाम तथा ईसाइयत के रूप में सामने आती हैं। इस प्रक्रिया में सब कहीं अल्पसंख्यकों के प्रति अनुदारता बढ़ती है। इससे सामसिकता और सहिष्णुता प्रभावित होती है। एक बहुलतावादी रणनीति बताकर ही नारीवादी आन्दोलन को सही दिशा दी जा सकती है।
मैत्रेयी पुष्पा पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध को, बोवुआर और केट मिलेट की तरह ही, काले और गोरे या फिर सेवक और स्वामी के रूप में परिभाषित करती हैं। श्लील-अश्लील की बहस में वे ÷श्लील' को जीवन के सामने रखकर देखती हैं। पुरुष के वर्चस्व वाले समाज पर टिप्पणी करते हुए वे लिखती हैं, 'जब कोई वर्चस्व इतना शक्तिशाली हो जाता है कि व्यक्ति की आकाक्षाएँ, सपने, जिन्दगी पिसने लगे तो फिर राजनीति के बंधन अपना अर्थ खोने लगते हैं। श्लीलता की रक्षा के लिए मैं जिन्दगी को तबाह कर दूँ, ऐसा दबाव मानने से इंकार करती हूँ। अपने लेखन में मेरी सबसे पहली अपेक्षा रहती है जीवन के पक्ष में खड़े होना, जीवन जो गतिशीलता के साथ रहे...'(सुनो मालिक सुनो, भूमिका, पृ. ५) स्वतंत्र और स्वाधीन स्त्री के पक्ष में खड़े होने का एक ओर यदि वे 'मनुस्मृति' को खारिज करती हैं, वहीं अनेक पौराणिक एवं मिथकीय पात्रों की नई व्याख्या का प्रयास भी करती हैं। सीता, द्रौपदी आदि के प्रचलित मिथकीय स्वरूप से भिन्न एक स्वाधीन और विवेकपूर्ण स्त्री की दृष्टि से, वे उसके निर्णयों की समीक्षा करती हैं। अपने साहित्य की तरह अपनी वैचारिकी में भी वे सब कहीं स्त्री और प्रेम के पक्ष में खड़े होकर उसकी लड़ाई लड़ती हैं। इसी आधार पर वे तसलीमा नसरीन का बचाव भी करती हैं।
धर्म, संस्कृति, समाज, साहित्य, राजनीति, फ़िल्म और मीडिया आदि के व्यापक परिप्रेक्ष्य में वे बदलती हुई स्त्री का आंकलन करती हैं। 'सुनो मालिक सुनो' में, जो 'खुली खिड़कियाँ' की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित ढंग से लिखी पुस्तक है, वे कन्या, परिणीता आदि के साथ अन्य रूपों में भी स्त्री के अस्तित्व और प्रकृति को समझने का प्रयास करती हैं। पुरुष के वर्चस्व वाली सामाजिक संरचना स्त्री को योनि मात्र के रूप में देखती है। अपनी निरंकुशता से स्त्री को व्यभिचार के हशिए पर डालकर उसके साथ वह कैसा सुलूक करती है, इसका खुलासा भी वे विस्तार पूर्वक करती हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं का 'वे स्त्री-दृष्टि से पुनर्पाठ भी करती हैं।'
मैत्रेयी पुष्प जब 'कन्या' के रूप में स्त्री की स्थिति पर विचार करती हैं, वे दहेज नहीं पिता की सम्पत्ति में उसके हिस्से का समर्थन करती हैं। 'मनुस्मृति' के उस श्लोक को वे अमान्य करती हैं जिसके अनुसार स्त्री कभी स्वाधीन नहीं होती - बचपन, युवा और वृद्धावस्था तक वह क्रमशः पिता, पति और पुत्र के अधीन ही रखी जाती है। स्त्री के संरक्षण और सुरक्षा से अधिक वे हक़' की बात करती हैं। अपनी जिन्दगी के बारे में अपने फै+सले का हक़ पाकर ही वह एक विवेकी और स्वाधीन जीव हो सकती हैं। निर्धन, अनाथ और बदनाम-पेशा लड़कियों के सरकारी-गैर सरकारी सामूहिक विवाहों की हक़ीकत वे समझती हैं और सवाल उठाती है, 'इंसाफ़ की बात कहिए और बताइए, क्या विवाह से लड़की को आर्थिक आत्म-निर्भरता मिल जाती है?' (वही, पृ. ३५) इन अनाथ और बेसहारा लड़कियों के आत्मनिर्भर हो पाने की दृष्टि से वे विवाह के बदले नौकरी दिए जाने पर बल देती हैं। आत्मनिर्भर हो जाने पर विवाह तो वे स्वयं कर लेती और अपने विवेक से शायद बेहतर ही करतीं। इस प्रसंग में उनकी निष्कर्षात्मक टिप्पणी है, 'मेरी राय में सम्मान जनक जीवन शादी से नहीं सार्थक भ्रम से मिलता है।' (वही, पृ. ३६) परिणीता के रूप में स्त्री के स्वाधीन जीवन को नकारकर उसे सिर्फ देह में रेड्यूस कर दिए जाने का वे तीव्र विरोध करती हैं, जिसमें गर्भधारण से लेकर गर्भपात तक किसी में उसकी अपनी इच्छा का कोई महत्त्व नहीं होता। जो समाज स्त्री को 'योनि मात्र' समझकर उसके साथ अभद्र और अश्लील व्यवहार करता है उसके लिए जागृत स्त्री-शक्ति के रूप में वे नागपुर की स्त्रियों द्वारा अक्कू यादव की सामूहिक प्रतिरोध की घटना को याद करती हैं। इसी से वे इस निष्कर्ष तक पहुँचती हैं अपनी रक्षा स्त्री स्वयं ही कर सकती है।
तेज-तर्रार और दामन में दाग़ वाली औरतों को प्रायः ही समाज 'मर्दमार' और 'साली आवारा औरतें' वाली छवि में पेश करता है जो खुली और छुट्टा घूमती हैं और औरतों को बिगाड़ती हैं। वे स्वयं ही देह को सर्वस्व मानकर उनका मूल्यांकन करते हैं और फिर स्वयं ही उन पर निर्णय का अधिकार घोषित करते हैं।
स्त्री-चिन्तन में स्त्री को प्रायः दलित के सामने रखकर उसकी व्याख्या की जाती है, लेकिन दलित-स्त्री के संदर्भ में मैत्रेयी पुष्पा का आंकलन दलित आन्दोलन के अंतर्विरोधों पर एक तीखी टिप्पणी की तरह पढ़ा जा सकता है। वे लिखती हैं, 'वे दलित स्त्रियों को लूटे जाने, बलात्कृत होने पर तो ज्वालामुखी से फटते हैं, उनके अशिक्षित और चेतनाविहीन रखे जाने पर गुरेज तक नहीं करते। वे रास्तों में पहरेदारी का इंतजाम कर सकते हैं, अपने टोले से ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को स्कूल भेजने की मुहिम नहीं चलाते। हिन्दू धर्म से घृणा करते हैं, जायज लगते हैं, 'मनुस्मृति' को जला डालना चाहते हैं, गुस्सा वाजिब है, लेकिन अपनी स्त्रियों के लिए पतिव्रत-धर्म लागू करते हैं और तब उनका सारा आन्दोलन हास्यास्पद हो जाता है। हद तो तब होती है जब वे अपनी औरतों की इच्छा तक नहीं जानना चाहते। नए जमाने के दलित हैं ये, उसी परिपाटी के अनुयायी, जिसकी धज्जियाँ उड़ाई थीं। वह सुरक्षा कवच देना चाहते हैं जो दासों को स्वामियों से मिला था कि उनको कोई दूसरा न ले जाए...(वही, पृ. १३६) मैत्रेयी पुष्पा के लिए पुरुष सत्ता ईश्वरीय सत्ता की तरह सर्व व्यापी है। ग्राम-पंचायतों में स्त्री के नाम पर उनके पतियों के कब्जे का सच भी उनसे छिपा नहीं है। पंचायती स्त्रियों का दिल्ली-मेला और उसमें अंग्रेजी का वर्चस्व उन्हें आहत करता है और अपने क्षोभ को वे छिपाती भी नहीं हैं। संघर्ष की राह कठिन और लम्बी भले ही हो लेकिन वे शायद उस चीनी कहावत में विश्वास करती हैं जिसके अनुसार हजार मील का सफ़र भी पहले क़दम से शुरू होता है।
स्त्री-चिन्ता के फैलते हुए क्षितिज पर टिप्पणी करते हुए लता शर्मा लिखती हैं, 'आज स्त्रियों को हर चीज से काम है। अग्नि-सर्प जैसे प्रक्षेपण-शस्त्र से लेकर मानव-क्लोन तक, गुजरात के दंगों से लेकर कन्या-भ्रूण हत्या तक। स्त्री हर गतिविधि का केन्द्र भी है, माध्यम भी और लक्ष्य भी। भला वह कैसे तटस्थ रह सकती है? सुन्दर दिखने और स्वादिष्ट पकवान बनाने का युग गया सार्थक हस्तक्षेप का युग आ गया'...(औरत : अपने लिए, पृ. २५) लता शर्मा एक ओर यदि मानती हैं कि दमित, अतीत और कुंठित वर्तमान पर सुखद भविष्य का भवन खड़ा नहीं हो सकता, वहीं वे स्त्री की देशज चिन्ता को पर्याप्त महत्त्व देती हैं। उनकी स्त्री-चिन्ता में सांती और सांवरी जैसी वे किशोरियाँ भी हैं जो सातवीं में आते-आते अचानक स्कूल आना बंद कर देती हैं। भाई की तुलना में बहुत जहीन होने पर भी या तो उन्हें माँ की मदद के नाम पर, घर-गृहस्थी के काम में झौंक दिया जाता है या फिर पैंतालीस वर्ष के किसी दुहाजू को ब्याह दिया जाता है - बाप द्वारा लिए गए पचास हजार रुपये के ऐवज में। मन न लगने पर जब वह ससुराल से भाग आती है तो पति लठैतों के साथ आकर जबर्दस्ती उसे वापस ले जाता है। जाहिर है कि विकास के सारे उपलब्ध और प्रचलित आँकड़ों के बीच ऐसी लड़कियों के लिए दिल्ली अभी दूर है। पिछड़े क्षेत्रों में ही नहीं शहरों में खाते-पीते परिवारों में भी, लड़की और लड़के बीच भारी अंतर का प्रभाव लड़कियों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। गाँवों में शिक्षा का अभाव है। अक्षय तृतीया पर बड़े पैमाने पर बाल विवाहों का आयोजन होता है। इन सामाजिक बुराइयों के प्रति चेतना जगाकर, आत्मरक्षा और स्वावलम्बन पर बल देकर लता शर्मा अपनी चिन्ता को स्थानीय और देशज मुद्दों पर केन्द्रित करती हैं। चूँकि वे गुजरात से हैं, २००२ के दंगों में अल्पसंख्यक समाज की औरतों के साथ बरती गई नृशंसता की वे सब कहीं तीखी भर्त्सना करती हैं। इसमें हिन्दुत्त्ववादी संगठनों की स्त्रियों की भूमिका को वे एक नई परिघटना के रूप में रेखांकित करती हैं। एक तरह से वे अपनी चिन्ता में वे उस हिन्दुत्त्व का प्रतिपक्ष सामने रखती हैं, जिसके एक प्रतिनिधि के रूप में प्रवीण तोगड़िया अल्पसंख्यकों-मुस्लिम और इसाई को 'राहु' और 'केतु' घोषित कर चुके थे। इस तरह लता शर्मा संघ-परिवार के एजेण्डे के अंतर्गत लिखित, कुसुम केड़िया और रामेश्वर प्रसाद मिश्र की संयुक्त रूप से लिखित 'स्त्रीत्व : धारणाएँ एवं यथार्थ' की हिन्दुत्ववादी अवधारणाओं के विरुद्ध एक तर्क तैयार करती हैं। पौराणिक मिथकों को गौरवगान के विरुद्ध वे वर्तमान के यथार्थ का खुलासा करती हैं। वे उस गुजरात के साम्प्रदायिक सच को तीखेपन से उठाती हैं - जहाँ गाय का माँस खाना भले ही बुरी बात हो, औरत का माँस खाने में कोई आपत्ति नहीं है। बारह साल की नर्गिस और सद्यः विवाहिता नसीमा इसके करूण उदाहरण हैं।
विकास की सारी योजनाओं, प्रचार और आँकड़ों के बीच वे नेताओं पर गहरा अविश्वास जताती हैं। नेता हो जाने पर स्त्री का भी कोई लिंग नहीं होता - इसीलिए गुजरात में आयोजित स्त्री सशक्तिकरण की रैली में सुषमा स्वराज, उमा भारती और जयंती बेन पटेल की उपस्थिति को वे सब कहीं शंका और संदेह से देखती हैं। हिन्दुत्व के नाम पर सती-लक्ष्मी की उपस्थिति वस्तुतः एक वर्ग की सामाजिक स्वीकार्यता का ही उदाहरण है। दमित और उत्पीड़ित स्त्री को 'भोग्या' से 'पूज्या' बनाए जाने की विडम्बना पर लेखिका की टिप्पणी है, 'शोकाकुल युवती हो या अधेड़ स्त्री, इससे पहले कि वह कुछ सोच-समझ सके, स्थिर बुद्धि से कोई निर्णय ले सके, घर वाले घोषणा कर देते हैं कि उनकी बहू ÷सती' हो रही है। एक क्षण में दुनिया बदल जाती है। जिस स्त्री को कभी किसी ने 'भोग्या' से अधिक नहीं समझा, वही स्त्री 'देवी' बन जाती है। पूजा-पाठ शुरू हो जाता है। ६६ के ६६ गाँव वाले नारियल-अगरबत्ती लेकर आ जुटते हैं। उम्र का भेद-भाव भुला चरणों की धूल लेने लगते हैं। इस आकस्मिक गौरव का नशा भाँग-धतूरे के नशे से कहीं अधिक गहरा होता है। गौरव,जिसका स्वाद उसने जीवन में पहली बार जाना है।...(वही, पृ. ९२) सामन्तवादी पुरुष और उपभोक्तावादी संस्कृति की लपटों में घिरी 'सती-लक्ष्मी' के रूप में प्रचारित-प्रताड़ित स्त्री हमारे समय की एक दुखद सच्चाई है। समृद्ध परिवार की पढ़ी-लिखी युवती नताशा सिंह और उसकी सखी-ननद रितु सिंह की आत्महत्या का विकल्प लता शर्मा 'मरने की फुर्सत कहाँ!' शीर्षक टिप्पणी में बड़े और व्यापक स्त्री समाज से जुड़ाव में देखती हैं। पश्चिम से हम बहुत कुछ ग़लत सीखते हैं लेकिन उस समाज-सेवा और व्यक्तिगत निष्ठा जैसी चीजों की उपेक्षा करते हैं जिनसे जुड़कर वहाँ का युवा वर्ग अपने को सक्रिय और व्यस्त रखता है, कुछ रचनात्मक करने के सन्तोष के साथ।
बहुत पहले कभी बर्जीनिया वुल्फ ने स्त्री को स्त्री की तरह लिखने की सलाह दी थी। तब उनका आशय यही था कि स्त्री जीवन के जिन कोमल और अलक्षित पक्षों को स्त्री जितनी प्रामाणिकता से उद्घाटित कर सकती है, स्त्री के प्रति सारी सहानुभूति एवं हार्दिकता के बावजूद कोई पुरुष-लेखक नहीं कर सकता। लेकिन इसे आधार बनाकर 'जिन्दगीनामा' और 'महाभोज' जैसी रचनाओं का अवमूल्य नहीं किया जा सकता, सिर्फ यही सीखा जा सकता है कि बड़े फलक और जटिल अंतर्वस्तु वाली रचनाओं में भी स्त्री के संवेदन-तंत्र के लिए कैसे जगह बनाई जा सकती है। आज नारीवाद के प्रसंग में इसे नए सिरे से उठाने वाली मैत्रेयी पुष्पा की अपनी नायिकाएँ प्रेम और देह के स्तर पर पर्याप्त स्वतंत्र होने पर भी कहीं सामाजिक संदर्भों की उपेक्षा नहीं करतीं। सामाजिक जड़ता के बीच वे अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए अपने विवेक से निर्णय लेती हैं। लेकिन उनके कुछेक वक्तव्यों और व्यवहार ने अनेक लेखिकाओं को जब-तब उत्तेजित किया है। प्रतिक्रिया में, ऐसी लेखिकाओं की एक बड़ी संख्या है जो घोषित करती हैं कि वे नारीवादी नहीं हैं। अपने एक लेख में अनामिका भले ही इस प्रसंग में पद्मा सचदेव और कृष्णा सोबती का ही उल्लेख किया हो, मृणाल पाण्डे, ममता कालिया, नासिरा शर्मा, सुधा अरोड़ा आदि इसी अर्थ में अपने को नारीवादी आन्दोलन से अलग और बाहर रखे जाने पर जोर देती हैं।
मृणाल पाण्डे और नासिरा शर्मा स्त्री पर, नारीवादी आन्दोलन की सीमाओं से बाहर रहकर, वृहत्तर सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में विचार करती हैं। 'उब्बीरी' में मृणाल पाण्डे यदि स्त्री के स्वास्थ्य के विभिन्न पक्षों पर विचार करती हैं तो 'द सब्जेक्ट इज वूमन' में स्त्री-जीवन की विभिन्न समस्याओं और मुद्दों को उठाती हैं। 'जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं' में भी वे एक बड़े फलक पर भारतीय समाज में स्त्री की चिंता करती दिखाई देती हैं। पारसी थियेटर और आरम्भिक भारतीय फिल्मों में, जब पुरुष ही स्त्रियों की भूमिकाएँ करते थे, भारतीय स्त्री का रोल-मॉडल तैयार किए जाने पर विशेष जोर दिया जाता था। समाज उन्हें आदर्श रूप में देखना चाहता था। लेकिन वे स्त्रियाँ अंदर कहीं कैसी उपेक्षित और बंधनों में जकड़ी जिन्दग़ी जीने को अभिशप्त थीं, मृणाल पाण्डे इसके कुछ बहुत करूण और विडम्बनापूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। 'गौहरजान, माधुरी, जुबैदा, बनमाला, नाडिया आदि अभिनेत्रियाँ इस दोहरी और घुटनभरी जिन्दगी के सिर्फ चंद उदाहरण हैं। नाडिया का आजाद ख्याल मुँहफट-पन कभी नारीवादी छवि का एक आकर्षक तत्त्व था। वह चंद निर्देशकों या पटकथा लेखकों की सृष्टि नहीं थी। वह एक बदलते सामाजिक यथार्थ की छवि थी। लेकिन बाहरी तौर पर निडर और उत्पीड़ितों की त्राता के रूप में दीखने वाली ये अभिनेत्रियाँ अपने निजी जीवन में कितनी कमजोर, अकेली और उत्पीड़ित थीं - मृणाल पाण्डे ने विस्तार से इसकी चर्चा की है। शान्ता आप्टे, मीना कुमारी, परवीन बॉबी, प्रिया राजवंश आदि इसी अकेलेपन और असुरक्षा की शिकार अभिनेत्रियाँ थीं। दबंग और त्राता छवि के बावजूद वे पुरुष वर्चस्व की शिकार अंदर कहीं बेहद अकेली, दुखी और निरीह स्त्रियाँ थीं।
मृणाल पाण्डे महिला पत्रकारों से लेकर पंचायती राज में स्त्री की भूमिका प्रजातंत्रा में 'सती' की उपस्थिति, स्त्री
संदर्भ में सामाजिक जड़ता के रूपों आदि पर पर्याप्त बेधक और व्यंग्यपूर्ण शैली में लिखती हैं। औरत होने का यह सच
उनसे छिपा नहीं है। जिसमें गाय-बकरी की तरह दहेज से मढ़कर लड़की को 'स्वीकार्य' बनाया जाता है। इस व्यापक समाज में, सारी नारीवादी सक्रियता के बीच, इस मुद्दे पर किसी आन्दोलन की अनुपस्थिति उन्हें हताश करती है। नेताओं के भव्य समारोह, लालू, जयललिता आदि के परिवारों में हुए राजसी विवाह और इस प्रसंग में मीडिया की ठस और प्रतिगामी भूमिका में उनमें खीझ पैदा करती है। पिछले दिनों अभिषेक-ऐश्वर्य के विवाह संबंधी खबरों का कवरेज इसी प्रवृत्ति के विस्तार का उदाहरण है। युवा वर्ग में 'सादगी पूर्ण गरिमा' के संदेश और आचार के लिए जैसे कहीं कोई चिंता ही नहीं बची है।
मृणाल पाण्डे की दृष्टि से नारीवादी आन्दोलन की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि सारे शोर-शराबे के बीच स्त्री उत्पाद में ढल और बदल रही है। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं का देह-प्रदर्शन और उन्मुक्त निर्बाध भोगवाद स्त्री को सामाजिक सरोकारों एवं दायित्वों से काट रहा है। वे लिखती है, 'हमारे 'उदित भारत' का मध्यवर्गीय समाज और उसकी महिलाएँ आत्म केन्द्रित और वृहत्तर सामाजिक सच्चाइयों की ओर जिस तेजी से लापरवाह होती जा रही हैं। वह स्वस्थ नहीं है। आपकी प्रौढ़ हो चली महिला नारीवादियों ने जब स्त्रियों को अपनी देह और अपने जीवन पर अधिकार दिलाने के लिए आंदोलन किया या तो इस इच्छा से नहीं कि उस आजादी का विलय 'कांटा लगा' गले की आक्रामक उच्छृंखलता और 'सैंयादिल में आना रे' की हंटर वाली के पुरुषों के प्रति हिकारत भरे स्वाभित्व भाव में हो जाए' (जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं, पृ , ६२) स्त्री चिंता को कैसे बड़ा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य देती है इसे उनकी माँ-कथा लेखिका शिवानी- पर लिखे दो आलेखों से समझा जा सकता है। माँ से अधिक वे उनके लिए परम्परा की स्वीकार्यता का सवाल बनकर सामने आतीं है।
नासिरा शर्मा ने न सिर्फ अपने साहित्य में अनेक कद्दावर औरतें गढ़ी हैं, विभिन्न देशों और समाजों की स्त्रियों एवं उनकी समस्याओं को उन्होंने निकट से देखने समझने की कोशिश की है। ईरान की पृष्ठभूमि पर उन्होंने अनेक उल्लेखनीय रचनायें लिखी हैं - 'सात नदियाँ एक समन्दर' जैसे उपन्यास से लेकर 'शामी-कागज' और 'संगसार' जैसी कहानियों तक। लेकिन जब वे खुद को नारीवादी न माने जाने पर जोर देती है तो इसके कुछ वाजिब कारण है। एक साक्षात्कार में वे कहती हैं - मैं आंधी नहीं पूरी दुनिया के बारे में लिखती हूँ। पश्चिम में नारी मुक्ति की विफलता पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं, ' यह नारी मुक्ति की सफलता तब विफलता में बदलती है जब उस उदार समाज की नारी अवैध बच्चे को जन्म देती है यह समाज उस बच्चे का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर नहीं लेता, इसलिए ऐसे बच्चों के लिए उचित संस्थाओं की व्यवस्था है मगर उस नारी को वह स्वतंत्रता उस समाज ने प्रदान नहीं की कि वह उस अवैध बच्चे के साथ जी सके और आवश्यकता के हर जरूरी फॉर्म पर पिता के नाम का स्थान खाली न हो बल्कि वास्तव में छपे ही नहीं, तब हुई सही सेक्स क्रांति मगर ऐसा वहाँ भी नहीं हुआ'... (औरत के लिए औरत पृ , १२५) पूर्व में औरत देवी के रूप में पत्थर है। तो पश्चिम में लोहा- व्यवस्था के बड़े यंत्रा के एक पुर्जे के रूप में। इसी के विरुद्ध वे वस्तुतः एक लेखक के रूप में, हाड़-मांस की सजग और संवेदनशील स्त्री के निर्माण एवं विकास पर जोर देती है। हिंदी में देह की मुक्ति को ही नारीवाद का मूल और एक मात्र सूत्र माने जाने का विरोध और अनेक लेखिकाओं की तरह वे भी कहती हैं। लेकिन तब थोड़ा आश्चर्य होता है। जब वे प्रभा खेतान के छिन्नमस्ता' के विरुद्ध टिप्पणी करते हुए कहती है, 'जिन्हें स्त्री से हमदर्दी है, उन्हें 'छिन्नमस्ता' को पसंद नहीं करना चाहिए। आखिरकार स्त्री समाज का नैतिक प्रतीक होती हैं मॉरल होती हैं।' (वहीं पृ ,१९२) वस्तुतः यहाँ से वे नारीवाद के विरुद्ध अपना तर्क बुनती हैं। यहीं वे नारीवाद को पुरुष के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई के रूप में परिभाषित करने लगती हैं जबकि हरेक ने और हमेशा यह कहा है कि यह लड़ाई पुरुष के नहीं, पुरुष सत्ता के वर्चस्व के विरुद्ध है। वह सदियों से स्त्री के उत्पीड़न का मुख्य कारक रही है। वे कथित रूप से फैशनेबुल और सजावटी नारीवाद पर हमला करती हैं जो सिर्फ चर्चा में बने रहने का एक शगल है। सम्मान और पुरस्कार के लिए वे लेखिकाओं के जोड़-तोड़ का उल्लेख भी करती हैं। वे समाज में ऐसे कानूनों के बनाए जाने और उन पर अमल के पक्ष में हैं जो स्त्री हितों की रक्षा करते हों। इराक में स्त्रियों के बीच सद्दाम हुसैन की बेहिसाब लोकप्रियता के कारणों की ओर संकेत करते हुए वे बताती हैं कि उन्होंने जो कानून बनाए उनमें तलाक के बाद घर औरत नहीं आदमी छोड़ेगा और घर की कोई चीज वह अपने साथ नहीं ले जायेगा। छोटे बच्चों वाली औरतें सिर्फ आधा दिन नौकरी करके पूरा वेतन पाती थीं ताकि बचा हुआ समय वे अपने घर और बच्चों की जरूरतों को दे सके। औरत का तबादला नहीं किया जायेगा। जहाँ उसका पति होगा। इन कानूनों से इराक में तलाक का प्रतिशत स्वाभाविक रूप में कम हुआ। 'क्योंकि तनाव की स्थिति बनाने वाले पारिवारिक सामाजिक एवं कार्य क्षेत्र के वातावरण को सहज बनाने में सरकार की सकारात्मक भूमिका रही है' (वहीं, पृ ,१३५) नारीवादी आंदोलन की 'वन-पैरेंट' परिणति या फिर घर-परिवार जैसी संस्थाओं का विघटन उन्हें सोचने को मजबूर करता है। इसीलिए वे हिंदी की उन लेखिकाओं का उल्लेख किंचित विदू्रप की भाषा में करती हैं जो घर- परिवार, बच्चों और पति की सारी सुविधाएँ उठाते हुए नारीवाद का परचम लहराती हैं- वह भी पितृसत्ता के विरोध के नाम पर।
नासिरा शर्मा का मानना हैं कि नारी-जागृति नारी की मानसिकता में ही निहित है। पिछले पाँच हजार सालों में मर्द का व्यक्तित्व उतना नहीं बदला है जितना औरत का। यह बदलाव ही वस्तुतः सामाजिक चेतना को प्रेरित करता है। मर्द और औरत समाज की दो इकाइयाँ हैं- दोनों शोषित हैं, मर्द कुछ कम औरत कुछ ज्यादा। प्रेम जीवन का स्रोत तो हो सकता है केंद्र नहीं होता। आज औरत की मंजिल केवल मर्द नहीं है। पश्चिम में औरत आगे बढ़ी है लेकिन उसका लक्ष्य 'मर्द' बनना हो गया है। पश्चिम में भी अब उसी पीढ़ी के साए में एक नया औरत वर्ग उभर रहा है। जो जागृति, आत्मविश्वास, स्वालंबन और दान-बलिदान की राह पर चलने लगा है। हमारी पुरानी पौराणिक-ऐतिहासिक स्त्रियों की महत्त्वाकाक्षाएं मुख्यतः पति और पुत्र परिवार और निजी इच्छाओं पर केंद्रित थी। आज की सचेत और जागरूक औरत परिवार से जुड़कर समाज के लिए कुछ रचनात्मक करना चाहती है। यदि किसी औरत का साथी उसकी इच्छा के विरुद्ध घर तोड़ता है तो उसमें इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि घर टूटने को वह व्यक्तित्व के टूटने के रूप में लेने से बच सके। बलात्कार और दहेज के प्रसंग में समाज की मानसिकता को बदलने की जरूरत है। इन खतरनाक स्थितियों के विरुद्ध हस्तक्षेप के रूप में उन समझदार मर्दों का सहयोग लिया जाना चाहिए जो स्वंय मर्दों की इन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध हैं। प्रतिक्रिया और प्रतिहिंसा से कोई बड़ा निर्माण नहीं होता। पुरुष-सत्ता के विरोध के नाम पर स्त्री में बदले की प्रवृत्ति को उसी तरह गलत मानती हैं जैसे हिंदुत्व वही इतिहास का बदला लेकर आज की सामाजिक समरसता को भंग करते हैं या फिर दलित आंदोलन की उग्रता में पिछली यंत्राणा और उत्पीड़न से मुक्ति तलाशी जाती है।
अनामिका भी मानती हैं कि 'विमेंस लिव' पुरुष के नहीं पितृसत्ता के विरुद्ध है। वे भी उन लेखिकाओं में हैं जो घर परिवार के बीच पितृसत्ता का विरोध करती हैं और सिमोन द बोउआर की तरह विवाह और परिवार का विरोध न करने पर भी 'कम्यून व्यवस्था का समर्थन करती हैं। मिथकीय पात्रों-सीता, सावित्री, शूर्पनखा, लक्ष्मण आदि की परिवर्तित युगानुकूल व्याख्या करके बहुत कुछ नवनीता सेन गु्रप की सीता से शुरू की तर्ज पर वे परम्परा के षड्यन्त्रों का खुलासा करती हैं। स्त्री के ÷चुप सहने' की नीति को वे मैकाले की रक्षा-नीति से जोड़कर देखती हैं - ऐसा कुछ करने की नीति जो तेज को कुंठित करने में सफल होती है।
अनामिका पोस्ट फेमेनिज्म के बहाने नारीवाद को विस्तार देती हैं। जर्मन ग्रीयर और एंड्रीज रिच अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर निकलकर अब तीसरी दुनिया की जमीनी संघर्ष करती स्त्री की ओर मुड़ती हैं। 'अफ्रीकी वुमनिज्म' से लेकर,अपने अधिकारों और संघर्ष के प्रति सजग भारतीय आदिवासी स्त्री तक इसमें शामिल है। पूरी दुनिया की स्त्रिायाँ, मार्क्स के मजदूरों वाले आह्नान की तरह, अब बहनापे और आपसी समझदारी के सूत्र से जुड़ने लगी हैं। 'पुअर लिजा कॉम्प्लेक्स' से मुक्त होकर अब पूरी दुनिया इसमें समा गई है। तीसरी के आगे जैसे यह चौथी दुनिया है- अपने अस्तित्व को प्रमाणित करती है। दुनिया भर में स्त्री और स्त्री के बीच विकसित इस सद्भाव और बहुत कुछ साझा समस्यओं की दृष्टि से अनामिका कैनेडियन कवयित्री भासी रेंडन की एक कविता प्रस्तुत करती हैं: ईसा मसीह औरत नहीं थे,/वरना मासिक धर्म/बारह बरस की उमर से/उनकों मंदिर से बाहर रखता,/बेथलहेम और येरूशलम के/बीच के कठिन सफर में उनके/हो जाते कई तो बलात्कार/और उनके दुध मुँहे बच्चे/चालीस दिन और चालीस रातें/भूख से बिलबिलाकर/ मरते हुए कहते जब/उनको तो फुर्सत मिलती ही नहीं/सूली पर चढ़ जाने की भी। (मन मांझने की जरूरत, पृ , ४२)
नारीवाद को विस्तार देने की प्रक्रिया में अनामिका यदि एक ओर मिथकीय पात्रों की नई व्याख्या करती हैं वहीं वे लोक-साहित्य में निहित और पल्लवित आशयों के नारीवादी उपयोग की संभावनाएँ भी तलाशती हैं। भिखारी ठाकुर के एक नाटक 'गबर-फिचोड़' में बुढ़िया द्वारा पड़ौसी की छत पर पौड़ गई लौकी वाले उदाहरण को वे एक कसौटी की तरह सामने रखती हैं।
स्त्री आंदोलन को परिभाषित करते हुए वे लिखती हैं, 'जो जहाँ भी परितप्त है, स्त्री आंदोलन से जुड़ जाता है।' (वही पृ ,१०९) ' राबिया फकीर और सूफी गायकी' नामक अपनी टिप्पणी में वे इस विस्तार को रेखांकित करती हैं। यह स्त्री मुक्ति की आकांक्षा से अधिक कुछ है, जिसमें दलित, उपेक्षित, अनाथ, बूढे'-विकलांग, अश्वेत, अल्पसंख्यक पर्यावरण और सांप्रदायिक सद्भाव की चिंता तक सबकुछ समा जाता है। 'काली फार वीमेन' की हैदराबाद में आयोजित कार्यशाला के बाद हवाई अड्डे पर इत्रा के बड़े और खोखले मर्तबान के साथ, जो अजीत कौर ने अपनी चित्राकार बेटी अपर्णा के लिए खरीदा था, बम के गोले जैसी कुछ खतरनाक चीज समझी जाकर, हवाई अड्डे के अधिकारियों का जो सुलूक था अनामिका उसमें निहित हिकारत और अज्ञान को स्त्री साहित्य और आंदोलन के प्रति बरती जाने वाली बेअदबी और उपेक्षा से जोड़कर देखती हैं। 'कविता में औरत' में अपनी टिप्पणियों के साथ वे औरत की वेदना और स्थिति को सामने लाती हैं। इनमें वह कविता भी शामिल है। जिसमें छाता बनाने वाले की पत्नी पति से शिकायत के रूप में उलाहना देती है कि उसका पति उसे उतना महत्त्व भी नहीं देता जितना अपने बनाए छाते को देता है। अनामिका नारीवाद को इसी सर्वव्यापी और सार्वभौम पीड़ा से जोड़कर देखती हैं। जिसमें स्त्री की मुक्ति की आकांक्षा सब कहीं नियोजक सूत्रा और कारक है।
सामायिक टिप्पणियों और बहुत कुछ तात्कालिक रणनीति के तहत प्रस्तुत स्त्री-चिंता की यह वैचारिकी वस्तुतः स्त्री की नियति और उसकी मुक्ति की आकांक्षा को पूरी तरह समझ पाने में आक्षम है। यह मुख्यतः उन लेखिकाओं द्वारा ही प्रस्तुत है जो रचनात्मक लेखन में भी सक्रिय हैं। नारीवाद की मूल प्रकृति और स्त्री-मुक्ति की उनकी आकांक्षा को उनके अपने साहित्य को छोड़कर नहीं समझा जा सकता। इसमें उन कारणों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि आखिर महिला लेखकों का एक बड़ा और गंभीर वर्ग क्यों अपने को नारीवाद से अलग और बाहर रखे जाने पर जोर देता है।
साहित्य में प्रायोजित मूल्यांकन और उपभोग की राजनीति के इस दौर में यह चिंता भी नारीवाद के ही दायरें में आती है कि आखिर क्यों मन्नू भण्डारी की 'एक कहानी यह भी' विधिवत् रिलीज होने के पूर्व ही 'हंस' में प्रायोजित मूल्यांकन का एक उदाहरण बनती है और स्त्रियाँ ही स्त्री के लंबे और क्रूर उत्पीड़न की चिंता किए बिना संपादक के पक्ष में खड़ी होती हैं। भंगिनीवाद की दुहाई के बावजूद, पुरुष वर्चस्व और पितृसत्ता द्वारा अपने मनचाहे इस्तेमाल की छूट देने वाला यह नारीवाद कहाँ जायेगा- इस पर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। तीसरी और चौथी दुनिया से जुड़ने की बात करके अपनी नाक के नीचे होने वाले उत्पीड़न और आयाम की अनदेखी करके या फिर अन्यायी और उत्पीड़क के पक्ष में खड़े होकर, हम आखिर किस नारीवाद के विकास की बात करते हैं? ऐसे उदाहरण ही वस्तुतः अनेक लेखिकाओं के नारीवाद से अलगाव वाले तर्क को बल देते हैं।
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किसी भी देश और समाज में स्त्री प्रायः सब कहीं एक दूसरे दर्जे की नागरिक है। पिछली शताब्दी के मध्य में जब यूरोप में स्त्री-स्वाधीनता का आन्दोलन जोर पकड़ रहा था, भारत में ऐसा मानने और समझने वालों की कमी नहीं थी कि ऐसी कोई सक्रियता, भारतीय समाज एवं संस्कृति के साथ, स्वयं स्त्री की अपनी प्रकृति के मेल में नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे यूरोप की हवा भारतीय वायुमंडल में भी बहती अनुभव की जाने लगी।
एलिस र्श्वेजर के साथ अपनी एक संवाद-श्रृंखला में सिमोन द बोउआर ने स्वीकार किया है कि सन् १९४९ में जब उनकी 'दि सेकिंड सेक्स' प्रकाशित हुई, पहले उनकी तीखी आलोचना और फिर जल्दी ही यूरोप में उसे नारीवादी आन्दोलन की बाइबिल समझे जाने के बावजूद, वे नारीवादी नहीं थीं। इसके कारण का उल्लेख करते हुए वे कहती हैं, 'क्योंकि उस समय मेरा ये विश्वास था कि औरतों की समस्यायें समाजवाद की प्रस्थापना और विकास के साथ हल हो जायेंगी। 'नारीवादी' होने से मेरा तात्पर्य यह है कि कुछ खास स्त्री मुद्दों पर वर्ग-संघर्ष से हटकर स्वतंत्र रूप से संघर्ष करना। मैं आज भी अपने इसी विचार पर कायम हूँ। मेरी परिभाषा के अनुसार 'स्त्रियाँ और वे पुरुष भी नारीवादी हैं जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरतों की स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं। यह सच है कि पूरे समाज की मुक्ति के बग़ैर स्त्रियों की पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है, लेकिन फिर भी नारीवाद इस लक्ष्य के लिए आज और अभी से संघर्षरत हैं। इस अर्थ में मैं नारीवादी हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए, इससे पहले कि समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो...' (स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पृ. ३९) सन् ७२ में पेरिस में दिए गए अपने इस साक्षात्कार में सिमोन फ्रेंच वामपंथियों और सोवियत रूस के अपने अनुभवों को भी, 'दि सेकिंड सेक्स' लिखे जाने के तेइस वर्ष बाद अपने को नारीवादी घोषित करने के मूल कारक के रूप में स्वीकार करती हैं। अपने अनुभव के आधार पर वे इसका उल्लेख करने में कोई संकोच नहीं बरततीं कि वामपंथियों में भी, स्त्री -मुक्ति के सवाल पर, कुछेक अपवादों को छोड़कर, आम रवैया 'काफी विरोधी, आक्रामक और शत्रुतापूर्ण है।' जब पहली बार बेंसान्न में नारीवादी सभा हुई तो कुछ वामपंथी अपने कमरों में चिल्लाए-'सत्ता लिंग पर खड़ी हुई है।' लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह मानसिकता बदली। लेकिन इसका कारण भी स्त्रियों का स्वतंत्र रूप से जुझारू और सशस्त्र संघर्ष शुरू कर देना था।
सोवियत संघ के अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए सिमोन ने बताया कि वहाँ प्रायः सभी स्त्रियाँ कामकाजी हैं और उच्च अधिकारियों एवं अन्य महत्त्वपूर्ण लोगों की पत्नियाँ जो काम नहीं करती, अन्य लोग उन्हें अवमानना की दृष्टि से देखते हैं। वहाँ औरतों को इस बात पर गर्व भी है कि वे कामकाजी हैं। सिमोन कहती हैं, 'राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भी वहाँ की स्त्रियाँ महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वाह करती हैं। लेकिन इन सबके बावजूद यदि आप केन्द्रीय समितियों और पीपुल्स असेंबली, जिनके पास वास्तव में कुछ अधिकार एवं सत्ता है, का जायजा लें तो पायेंगे कि वहाँ पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या बहुत कम है। व्यावसायिक क्षेत्रों में भी स्थिति कमोवेश ऐसी ही है। सर्वाधिक अरुचिकर और गैर-महत्त्वपूर्ण काम स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं। सोवियत संघ में लगभग सभी डॉक्टर स्त्रियाँ हैं क्योंकि वहाँ चिकित्सा-सेवा मुफ्त है। राज्य इस काम का पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ नहीं देता और डॉक्टरी का पेशा असामान्य रूप से कठिन और क्लांतिकर है...'(वही, पृ. ३७) शिक्षा और चिकित्सा के अतिरिक्त जो सही मायने में महत्त्वपूर्ण कार्य क्षेत्र हैं जैसे विज्ञान या इंजीनियरिंग वहाँ स्त्रियों की पहुँच बहुत कम है। फिर वहाँ स्त्रियों की सामान्य दशा पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं, 'एक तो व्यावसायिक क्षेत्र में स्त्रियाँ पुरुषों के बराबर नहीं हैं और दूसरी ओर घरेलू श्रम के क्षेत्र में घोर अपमानजनक और निंद्य स्थितियाँ बरकरार हैं जैसी कि सारी दुनिया में हैं और जिसके खिलाफ आज स्त्री-आन्दोलन तीव्र संघर्ष कर रहे हैं। घरेलू काम और बच्चों की देखभाल, सोवियत सोशलिस्ट प्रजातंत्र संघ में भी स्त्रियों के लिए ही संरक्षित हैं...(वही) इस टिप्पणी के अंत में ध्वनित व्यंग्य ही वस्तुतः सिमोन द बोउआर के अंततः नारीवादी होने का तर्क तैयार करता है।
अपनी पुस्तक 'दि सेकिंड सेक्स' में सिमोन प्रायः दुनिया में सब कहीं स्त्री के प्रति अपनाए गए दोहरे मानदण्डों की भर्त्सना करती हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि स्त्री की मुक्ति का मार्ग स्त्री के अपने संघर्ष से ही निकलेगा। यह अकारण नहीं है कि सिमोन स्त्री की स्थिति की तुलना नीग्रो की स्थिति से करती हैं। वे नीग्रो और एक स्त्री की स्थिति में गहरी समानता देखती हैं। वे लिखती हैं, 'दोनों ही जातियाँ आज पितृसत्ता से मुक्त हो रही हैं और इनके भूतपूर्व स्वामी इन्हें पुरानी जगह रखना चाहते हैं। उन्हीं जगहों में जिनका चुनाव मालिक वर्ग ने किया था। दोनों ही क्षेत्रों में मालिक यथास्थिति के प्रशंसक हैं।'(स्त्री : उपेक्षिता, पृ. २९) सिमोन मानती हैं कि स्त्री और उसके अंतर्संसार के बारे में स्त्री ही अच्छी तरह से जान सकती है। इसका कारण भी स्पष्ट है - क्योंकि उसकी अपनी जड़ें भी नहीं हैं। अन्य मानव प्राणियों की भाँति स्त्री भी एक स्वतंत्र और स्वायत्त जीव है लेकिन सदियों से पुरुष अपनी जरूरतों और स्वार्थों के अनुकूल उसे गढ़ता रहा है। सिमोन की प्रसिद्ध उक्ति है - स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। स्त्री के स्वायत्त और स्वतंत्र जीवन के पक्ष में खड़े होकर भी वे पुरुष के विरोध में नहीं जाती। एलिस र्श्वेजर को ही दिए गए अपने एक साक्षात्कार में वे बताती हैं कि सार्त्र से उनके संबंधों के कारण नारीवादी आन्दोलन की अनेक अग्रणी नेत्रियाँ उन्हें नारीवादी आन्दोलन में शामिल नहीं करती थीं। अपने इस संबंध की वजह से उन्हें प्रायः ही शंका और अविश्वास से देखा जाता था।
एक संस्था के रूप में सिमोन 'विवाह' का विरोध करती हैं। शुरू में उनका मानना था, 'विवाह जहाँ स्त्री को पुरुष का गुलाम बनाता है वहीं उसके फर की साम्राज्ञी भी...'(वही, पृ. १७९) किंचित् व्यंग्य के साथ वे लिखती हैं कि विवाह अन्य सब कैरियरों से अधिक आकर्षक, आसान और सुविधाजनक है। विवाह के प्रसंग में वे फ्रॉयड को उद्धृत करते हुए कहती हैं, 'पति प्रेमी पुरुष का एक पूरक तो हो सकता है, किन्तु वह प्रेमी नहीं हो सकता।' उनके अनुसार विवाह की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह 'सुख' के विषय में किसी प्रकार का आश्वासन नहीं देता। विवाह में स्त्री की विषम और दीन परिस्थिति पर उनकी टिप्पणी है, 'यह तो विवाह प्रणाली ही है जो स्त्री को प्रार्थी का रूप देती है और यह प्रणाली उसे जोंक की तरह रक्त पिपासु जीव बनाती है...(वही, पृ. २११) वे अंत तक विवाह के विरुद्ध रहीं क्योंकि एक शादीशुदा स्त्री के रूप में समाज के साथ स्त्री के वैसे ही संबंध नहीं रह जाते जैसे कि एक गैर शादीशुदा स्त्री के होते हैं। जहाँ भी अवसर मिलता है विवाह को वे औरतों के लिए 'बहुत खतरनाक' बताती और घोषित करती हैं। स्त्री-मुक्ति के प्रसंग में, स्वयं अपने पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं, 'मेरे पास स्त्री का शरीर है लेकिन फिर भी मैं काफी खुश किस्मत रही हूँ। मैं ऐसी चीजों से मुक्त रही, जो औरत को गुलाम बनाती हैं, जैसे पत्नी और मातृत्व की परम्परागत भूमिकाएँ।' (स्त्री के पास खोने को कुछ नहीं है, पृ. ४४) इसी तरह वे 'परिवार' नामक संस्था के भी विरुद्ध हैं और उसके स्थान पर 'कम्यून' या उसी प्रकार के किसी दूसरे ढांचे की सिफारिश करती हैं जिससे स्त्री समानता के साथ रह सके।
स्त्री की मुक्ति कैसे उसका अपना निजी उद्यम है, इसका उदाहरण वे अपने जीवन से देती हैं। सार्त्र से उनके अंतरंग संबंधों के कारण जब नारीवादी आन्दोलन में उन्हें शंका और संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था तब भी वे अपना स्वतंत्र और स्वायत्त जीवन जी रही थीं। साथ रहने की समझ और आपसी क़रार के बीच भी वे वस्तुतः उस रूप में कभी एक साथ नहीं रहे जिसे स्थायी रूप में एक छत के नीचे रहना कहा जाता है। बाहर जाने पर भी होटल में वे प्रायः ही अलग कमरों में रहते थे - अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए। आर्थिक दृष्टि से ऐसे अवसर भी आए जब सिमोन ने सार्त्र से आर्थिक सहायता स्वीकार की। लेकिन ऐसा ख़ासतौर से तभी हुआ जब अपनी अध्यापकी की नौकरी छोड़कर उन्होंने अपना लेखन किया। आर्थिक दृष्टि से वे कभी सार्त्र पर निर्भर नहीं रहीं। अनेक बार, ऐसे ही स्थिति में, उन्होंने सार्त्र की भी आर्थिक सहायता की। यात्राओं और होटलों का खर्च वे समान रूप से उठाते थे और प्रायः ही यह हिसाब नहीं रखते थे कि किसका कम या ज्यादा खर्च हुआ। इसी सोच के आधार पर सार्त्र को स्वतंत्रता देकर वे अपनी स्वतंत्रता बनाए रख सकीं। अपने अमेरिकी प्रेमी नेल्सन एल्ग्रेन के प्रति अपनी गहरी आसक्ति और लगाव की स्वीकृति में उन्हें कहीं कोई असुविधा नहीं होती। सार्त्र के अनेक प्रेम-संबंधों को भी इसी तरह उन्होंने बहुत खुले मन से झेला-एकाध उस अपवाद को छोड़कर जब उन्हें उसके एकाधिकारवाद में दूसरे संबंधों के प्रति गहरी उपेक्षा या तानाशाही दिखाई दी। घरेलू पत्नियों के अलगाव और नौकरी पेशा स्त्रियों के अकेलेपन में वे एक बुनियादी अंतर देखती हैं। मानती हैं कि उसे अंततः इन दो में से एक का चुनाव करना ही होगा। आर्थिक दृष्टि से स्त्री की आत्मनिर्भरता पर उसकी टिप्पणी है, 'नौकरी कोई रामबाण नहीं है, लेकिन बावजूद इसके मुक्ति की बुनियादी शर्त है'...(वही, पृ. ५१)
पिछले दो दशक हिन्दी में नारी-विमर्श से अधिक उसकी चर्चा के वर्ष रहे हैं। सिमोन द बोवुआर, केट मिलेट, जर्मेन ग्रेयर आदि लेखिकाओं जैसे गंभीर और व्यवस्थित काम हिन्दी में लगभग नहीं हुए। हिन्दी में नारीवाद की वैचारिकी का मूल स्रोत वस्तुतः में ही लेखिकाएँ हैं। हिन्दी में प्रभा खेतान की पुस्तकों को छोड़कर नारीवाद की अधिकतर चर्चा छिटपुट टिप्पणियों, वक्तव्यों और पत्रकारी लेखों के रूप में ही हुई है। इन लेखिकाओं में प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, पुष्पलता शर्मा, मृणाल पाण्डे, नासिरा शर्मा, अनामिका, कात्यायनी, मनीषा आदि का उल्लेख सहज ही किया जा सकता है।
जैसा कि कहा गया, इनमें प्रभा खेतान का काम सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने सिमोन द बोवुआर की 'दि सेकिंड सेक्स' का अनुवाद तो किया है। सार्त्र पर अपने अध्ययन और शोध की प्रक्रिया में उन्होंने यूरोप के अस्तित्ववादी दर्शन और नारीवादी आन्दोलन का भी गंभीर अध्ययन किया है। इस संबंध में उनकी दो पुस्तकें 'उपनिवेश में स्त्री' और 'बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ़' ख़ासतौर से ध्यान आकृष्ट करती हैं। जब वे किसी राजनीतिक उपनिवेश के रूपक में ढालकर स्त्री को देखती और परिभाषित करती हैं, स्पष्ट है वे सिमोन के स्त्री-पुरुष के संबंध की गोरे और काले के संबंधों वाली व्याख्या से अप्रभावित नहीं हैं। अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री का संघर्ष वस्तुतः एक राष्ट्रवादी क्रांति के लिए किए जाने वाले संघर्ष से बहुत भिन्न नहीं है। इस संघर्ष में उसे अनेक स्थापित सामाजिक संस्थाओं और वर्चस्वशील विचार सरणियों से टकराना होता है। पितृसत्ता, यौन शुचिता, परिवार और आर्थिक आत्मनिर्भरता के पुराने मिथक उसने तोड़े और नए गढ़े हैं। इन स्थापित सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं को स्त्री-विरोधी प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए वे लिखती हैं, 'मगर पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री विरोधी परम्पराओं का आयाम पूरी तरह विशिष्ट है। ये परम्परायें स्त्री को घर सौंपती हैं, बच्चों का भरण-पोषण सौंपती हैं। मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे निःशुल्क सेवा लेती हैं और बदले में उसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमा-मंडनकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं। स्त्री भूखी है या मर रही है इसकी चिन्ता किसी को नहीं होती'...(उपनिवेश में स्त्री, पृ. १४) इस स्थिति में निहित सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक-हर क्षेत्र में निर्णय के अधिकार से उसे वंचित करके उस पर तरह-तरह की जिम्मेदारी लादकर उस दायित्व को निभाने की अपेक्षा की जाती है।
प्रभा खेतान मानती हैं कि भू-मंडलीकरण ने स्त्री को जितना लाभ पहुँचाया है, उससे अधिक हानि पहुँचाई है। उसने स्त्री को सब कहीं एक आकर्षक उत्पाद में बदला है। भ्रूण-हत्या और बालिका-शिशु की उपेक्षा का अनुपात तेजी से बढ़ा है। भारत जैसे समाज में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ही काफी नहीं है। आर्थिक परिवर्तन के संदर्भ में राजनीतिक और
सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है। वे स्पष्ट लिखती हैं, 'अमानवीय विकास के प्रतिमानों को खारिज करता और जनोन्मुख नजरिए को विकसित करना नारीवाद का पहला उद्देश्य होना चाहिए।'(वही, पृ. ३५) स्त्री के संदर्भ में पूर्ववादी दृष्टि से उसके महिमा-मंडन को वे जितना गलत समझती हैं, पश्चिम के पुरुष चिन्तकों की स्त्री-विरोधी दृष्टि की भी वे वैसी ही स्पष्ट आलोचना करती हैं। वेद-वेदान्त से लेकर कार्ल मार्क्स की स्त्री-चिन्ता तक सब कहीं वे दुराग्रहों की टोह लेती हैं। इस स्त्री विरोधी परिप्रेक्ष्य में वे लेखिकाओं की निष्क्रियता पर भी हैरत जताती हैं। पुरुष-संस्कृति के विकल्प में नारीवाद को वे एक निरन्तर और विकासमान प्रक्रिया के रूप में देखती और स्थापित करती हैं। मारक प्रभावों के बीच में उसकी अनिवार्यता की बात करती हैं। स्त्री के संदर्भ में संस्कृति के भू-मंडलीय प्रभाव को आँकने के लिए वे एक इंटर कांटिनेंटल होटल के रूपक की सिफ़ारिश करती हैं। सासकिया सासेन एक नए अंतर्राष्ट्रीय समाज के प्रकटीकरण पर जोर देती हुई एक ऐसे भूमंडलीय समाज की बात करती हैं। जिसमें बेहिसाब धन बहता है और उस समाज में वे स्त्री की भूमिका का सवाल उठाती हैं। इस समाज में पूँजी का तेज बहाव देखने को मिलता है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महानगरों को वित्तीय राजधानी में बदल रहा है। इस भूमंडलीय संस्कृति की अच्छाई-बुराई पर प्रभा खेतान पर्याप्त वस्तुनिष्ठ टिप्पणी करती हैं, ÷इस टकराहट का लाभकारी पक्ष है पर्यटन और व्यापार को बढ़ावा मिलता है, मगर खराब पक्ष है कि इससे समाज में यौन-पर्यटन भ्रष्टाचार तथा अन्य बुराईयाँ फैलती हैं...'(बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, पृ. १५) किसी भी देश के हर महानगर में पाँच सितारा होटलों में संस्कृति का संजाल फैला हुआ है जिसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की होटल-श्रृंखला होटलों में यात्रियों को घर जैसे आराम का आश्वासन देती है। देश संस्कृति की भिन्नता विरोधी यह भूमंडलीय एकल संस्कृति है - मोनो कल्चर। इसमें सब कहीं एक रूपीकरण पर जोर होता है। एक से उत्पाद-फ़ास्ट फूड से लेकर परिधान और जूतों तक। प्रभा खेतान भूमंडलीकरण को सिरे से नकारती नहीं हैं, वे भरसक उसके वस्तुनिष्ठ आंकलन की कोशिश करती हैं। वे उसे एक ऐसी बिजली की संज्ञा देती हैं जो घर को रोशन करती है और उसमें आग भी लगा सकती है। इस खुली अर्थव्यवस्था में वे इस ओर से उदासीन नहीं हैं कि विकास अनिवार्य रूप से कल्याणकारी योजनाओं से सम्बद्ध है और भूमंडलीकरण के नाम पर जिस तरह से दक्षता और प्रतियोगिता की माँग होती है तथा विकास के नए मानक तैयार किए जाते हैं, उससे गरीबी, बेरोजगारी और बढ़ती है।
एशियाई संस्कृति के संदर्भ में प्रभा खेतान 'परिवार' नामक संस्था पर पुनर्विचार करते हुए स्त्री की कीमत पर उसके बने रहने की सच्चाई तक पहुँचती हैं। देह-व्यापार का व्यापक संजाल इस ओर संकेत करता है कि अधिकांश एशियाई पुरुष पत्नी के प्रति सेक्स-संबंधों में निष्ठावान नहीं होते। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए वे लिखती हैं, 'सेक्स एक ऐसा मनोरंजन है जिसका लुत्फ़ पुरुष और सिर्फ पुरुष ही दाम्पत्य जीवन की सीमाओं से बाहर जाकर उठा सकता है। अनेक एशियाई समाजों में पत्नियों द्वारा इसे नजरअंदाज किया जाता है क्योंकि पत्नी एक तो आर्थिक रूप से पूरी तरह पुरुष पर निर्भर होती है और अधिकांश एशियाई औरतों के विचार में सेक्स संबंध ही विवाह नहीं है। वे इसे एक संस्कार मानती हैं और धूर्त्त पुरुष इसका फ़ायदा उठाते हैं...'(वही, पृ. १३४-१३५) प्रभा खेतान देह-व्यापार के अनेक रूपों की चर्चा करती हैं जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस भूमंडलीकरण की देन हैं। नव धनाढ्यता की तजॅ पर वे नव दरिद्रीकरण और बाल-वेश्यावृत्ति को इसके अनिवार्य परिणाम के रूप में रेखांकित करती हैं। लेकिन सिर्फ निर्धनता को ही वे इसका कारण नहीं मानतीं। वे इसे सामाजिक विषमता और असुरक्षा से जोड़कर देखती हैं। इस प्रसंग में मानवीय गरिमा का सवाल उठाते हुए वे लिखती हैं, 'मूल प्रश्न मानवीय गरिमा और सम्मान का है एवं सभी के लिए यह चिन्ता का विषय होना चाहिए कि क्या स्त्री की पहचान उसकी योनि पर चिपकी कीमत से ही होती है?' (वहीं, पृ. १६९)
प्रभा खेतान नारीवादी आन्दोलन की सीमाओं को भी संकेत करती हैं। वे इस आन्दोलन में बढ़ते हुए वर्ग-भेद और कैरिमरिज्म के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त करती हैं। अपने ही घर में घरेलू नौकरानियों का शोषण करते हुए स्त्रियों का ध्यान नारीवाद की ओर प्रायः नहीं जाता।
भारत में आज भी मुख्यधारा में स्त्रियों की संख्या नगण्य है। वे अब नारीवाद के शत्रु के रूप में पुरुष या पितृसत्तात्मक व्यवस्था को उतना महत्त्व नहीं देतीं क्योंकि इसका सामना करना नारीवाद को आ गया है। वे कारपोरेट पूँजी को आज एक बड़ी समस्या के रूप में देखती और आँकती हैं क्योंकि नारीवादी स्त्रियाँ उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं सकी हैं। आज पुरुष इस आन्दोलन में वैसे विरोधी के रूप में नहीं देखा जाता जैसा वह पिछली शताब्दी में कभी सत्ता के दशक में देखा जाता था। उपभोक्तावाद स्त्री को जींस में बदल देगा। इस ओर उसे सचेत रहना है। अपने लिए वह कैसा जीवन चाहती है, यह अंततः उसे ही तय करना है। एक निष्क्रिय उपभोक्ता या सृजनशील व्यक्ति के बीच का चुनाव ही उसके साथ पूरे नारीवादी आन्दोलन का भविष्य तय करेगा। वे देहवाद के बढ़ते आकर्षण और माँग की ओर भी संकेत करती हैं जो मछली के चारे की तरह दुनिया के बाजार में फेंका जा रहा है। वे संजीदगी से सवाल करती हैं - इससे स्त्री को क्या हासिल होगा?
प्रभा खेतान पूँजी को उपभोग की संस्कृति से जोड़कर देखती हैं। उपभोक्ता संस्कृति और स्थानीय संस्कृति के बीच बढ़ते टकराव को रोक पाना मुश्किल है। उपभोक्ता संस्कृति से बचाव की प्रक्रिया में ही अपनी जड़ों की ओर वापसी की प्रवृत्ति जोर पकड़ती है। इससे समाज में रूढ़िवादी ताक़तों को बल मिलता है। विभिन्न देशों और समाजों में वे ताकतें हिन्दुत्त्व, इस्लाम तथा ईसाइयत के रूप में सामने आती हैं। इस प्रक्रिया में सब कहीं अल्पसंख्यकों के प्रति अनुदारता बढ़ती है। इससे सामसिकता और सहिष्णुता प्रभावित होती है। एक बहुलतावादी रणनीति बताकर ही नारीवादी आन्दोलन को सही दिशा दी जा सकती है।
मैत्रेयी पुष्पा पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध को, बोवुआर और केट मिलेट की तरह ही, काले और गोरे या फिर सेवक और स्वामी के रूप में परिभाषित करती हैं। श्लील-अश्लील की बहस में वे ÷श्लील' को जीवन के सामने रखकर देखती हैं। पुरुष के वर्चस्व वाले समाज पर टिप्पणी करते हुए वे लिखती हैं, 'जब कोई वर्चस्व इतना शक्तिशाली हो जाता है कि व्यक्ति की आकाक्षाएँ, सपने, जिन्दगी पिसने लगे तो फिर राजनीति के बंधन अपना अर्थ खोने लगते हैं। श्लीलता की रक्षा के लिए मैं जिन्दगी को तबाह कर दूँ, ऐसा दबाव मानने से इंकार करती हूँ। अपने लेखन में मेरी सबसे पहली अपेक्षा रहती है जीवन के पक्ष में खड़े होना, जीवन जो गतिशीलता के साथ रहे...'(सुनो मालिक सुनो, भूमिका, पृ. ५) स्वतंत्र और स्वाधीन स्त्री के पक्ष में खड़े होने का एक ओर यदि वे 'मनुस्मृति' को खारिज करती हैं, वहीं अनेक पौराणिक एवं मिथकीय पात्रों की नई व्याख्या का प्रयास भी करती हैं। सीता, द्रौपदी आदि के प्रचलित मिथकीय स्वरूप से भिन्न एक स्वाधीन और विवेकपूर्ण स्त्री की दृष्टि से, वे उसके निर्णयों की समीक्षा करती हैं। अपने साहित्य की तरह अपनी वैचारिकी में भी वे सब कहीं स्त्री और प्रेम के पक्ष में खड़े होकर उसकी लड़ाई लड़ती हैं। इसी आधार पर वे तसलीमा नसरीन का बचाव भी करती हैं।
धर्म, संस्कृति, समाज, साहित्य, राजनीति, फ़िल्म और मीडिया आदि के व्यापक परिप्रेक्ष्य में वे बदलती हुई स्त्री का आंकलन करती हैं। 'सुनो मालिक सुनो' में, जो 'खुली खिड़कियाँ' की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित ढंग से लिखी पुस्तक है, वे कन्या, परिणीता आदि के साथ अन्य रूपों में भी स्त्री के अस्तित्व और प्रकृति को समझने का प्रयास करती हैं। पुरुष के वर्चस्व वाली सामाजिक संरचना स्त्री को योनि मात्र के रूप में देखती है। अपनी निरंकुशता से स्त्री को व्यभिचार के हशिए पर डालकर उसके साथ वह कैसा सुलूक करती है, इसका खुलासा भी वे विस्तार पूर्वक करती हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं का 'वे स्त्री-दृष्टि से पुनर्पाठ भी करती हैं।'
मैत्रेयी पुष्प जब 'कन्या' के रूप में स्त्री की स्थिति पर विचार करती हैं, वे दहेज नहीं पिता की सम्पत्ति में उसके हिस्से का समर्थन करती हैं। 'मनुस्मृति' के उस श्लोक को वे अमान्य करती हैं जिसके अनुसार स्त्री कभी स्वाधीन नहीं होती - बचपन, युवा और वृद्धावस्था तक वह क्रमशः पिता, पति और पुत्र के अधीन ही रखी जाती है। स्त्री के संरक्षण और सुरक्षा से अधिक वे हक़' की बात करती हैं। अपनी जिन्दगी के बारे में अपने फै+सले का हक़ पाकर ही वह एक विवेकी और स्वाधीन जीव हो सकती हैं। निर्धन, अनाथ और बदनाम-पेशा लड़कियों के सरकारी-गैर सरकारी सामूहिक विवाहों की हक़ीकत वे समझती हैं और सवाल उठाती है, 'इंसाफ़ की बात कहिए और बताइए, क्या विवाह से लड़की को आर्थिक आत्म-निर्भरता मिल जाती है?' (वही, पृ. ३५) इन अनाथ और बेसहारा लड़कियों के आत्मनिर्भर हो पाने की दृष्टि से वे विवाह के बदले नौकरी दिए जाने पर बल देती हैं। आत्मनिर्भर हो जाने पर विवाह तो वे स्वयं कर लेती और अपने विवेक से शायद बेहतर ही करतीं। इस प्रसंग में उनकी निष्कर्षात्मक टिप्पणी है, 'मेरी राय में सम्मान जनक जीवन शादी से नहीं सार्थक भ्रम से मिलता है।' (वही, पृ. ३६) परिणीता के रूप में स्त्री के स्वाधीन जीवन को नकारकर उसे सिर्फ देह में रेड्यूस कर दिए जाने का वे तीव्र विरोध करती हैं, जिसमें गर्भधारण से लेकर गर्भपात तक किसी में उसकी अपनी इच्छा का कोई महत्त्व नहीं होता। जो समाज स्त्री को 'योनि मात्र' समझकर उसके साथ अभद्र और अश्लील व्यवहार करता है उसके लिए जागृत स्त्री-शक्ति के रूप में वे नागपुर की स्त्रियों द्वारा अक्कू यादव की सामूहिक प्रतिरोध की घटना को याद करती हैं। इसी से वे इस निष्कर्ष तक पहुँचती हैं अपनी रक्षा स्त्री स्वयं ही कर सकती है।
तेज-तर्रार और दामन में दाग़ वाली औरतों को प्रायः ही समाज 'मर्दमार' और 'साली आवारा औरतें' वाली छवि में पेश करता है जो खुली और छुट्टा घूमती हैं और औरतों को बिगाड़ती हैं। वे स्वयं ही देह को सर्वस्व मानकर उनका मूल्यांकन करते हैं और फिर स्वयं ही उन पर निर्णय का अधिकार घोषित करते हैं।
स्त्री-चिन्तन में स्त्री को प्रायः दलित के सामने रखकर उसकी व्याख्या की जाती है, लेकिन दलित-स्त्री के संदर्भ में मैत्रेयी पुष्पा का आंकलन दलित आन्दोलन के अंतर्विरोधों पर एक तीखी टिप्पणी की तरह पढ़ा जा सकता है। वे लिखती हैं, 'वे दलित स्त्रियों को लूटे जाने, बलात्कृत होने पर तो ज्वालामुखी से फटते हैं, उनके अशिक्षित और चेतनाविहीन रखे जाने पर गुरेज तक नहीं करते। वे रास्तों में पहरेदारी का इंतजाम कर सकते हैं, अपने टोले से ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को स्कूल भेजने की मुहिम नहीं चलाते। हिन्दू धर्म से घृणा करते हैं, जायज लगते हैं, 'मनुस्मृति' को जला डालना चाहते हैं, गुस्सा वाजिब है, लेकिन अपनी स्त्रियों के लिए पतिव्रत-धर्म लागू करते हैं और तब उनका सारा आन्दोलन हास्यास्पद हो जाता है। हद तो तब होती है जब वे अपनी औरतों की इच्छा तक नहीं जानना चाहते। नए जमाने के दलित हैं ये, उसी परिपाटी के अनुयायी, जिसकी धज्जियाँ उड़ाई थीं। वह सुरक्षा कवच देना चाहते हैं जो दासों को स्वामियों से मिला था कि उनको कोई दूसरा न ले जाए...(वही, पृ. १३६) मैत्रेयी पुष्पा के लिए पुरुष सत्ता ईश्वरीय सत्ता की तरह सर्व व्यापी है। ग्राम-पंचायतों में स्त्री के नाम पर उनके पतियों के कब्जे का सच भी उनसे छिपा नहीं है। पंचायती स्त्रियों का दिल्ली-मेला और उसमें अंग्रेजी का वर्चस्व उन्हें आहत करता है और अपने क्षोभ को वे छिपाती भी नहीं हैं। संघर्ष की राह कठिन और लम्बी भले ही हो लेकिन वे शायद उस चीनी कहावत में विश्वास करती हैं जिसके अनुसार हजार मील का सफ़र भी पहले क़दम से शुरू होता है।
स्त्री-चिन्ता के फैलते हुए क्षितिज पर टिप्पणी करते हुए लता शर्मा लिखती हैं, 'आज स्त्रियों को हर चीज से काम है। अग्नि-सर्प जैसे प्रक्षेपण-शस्त्र से लेकर मानव-क्लोन तक, गुजरात के दंगों से लेकर कन्या-भ्रूण हत्या तक। स्त्री हर गतिविधि का केन्द्र भी है, माध्यम भी और लक्ष्य भी। भला वह कैसे तटस्थ रह सकती है? सुन्दर दिखने और स्वादिष्ट पकवान बनाने का युग गया सार्थक हस्तक्षेप का युग आ गया'...(औरत : अपने लिए, पृ. २५) लता शर्मा एक ओर यदि मानती हैं कि दमित, अतीत और कुंठित वर्तमान पर सुखद भविष्य का भवन खड़ा नहीं हो सकता, वहीं वे स्त्री की देशज चिन्ता को पर्याप्त महत्त्व देती हैं। उनकी स्त्री-चिन्ता में सांती और सांवरी जैसी वे किशोरियाँ भी हैं जो सातवीं में आते-आते अचानक स्कूल आना बंद कर देती हैं। भाई की तुलना में बहुत जहीन होने पर भी या तो उन्हें माँ की मदद के नाम पर, घर-गृहस्थी के काम में झौंक दिया जाता है या फिर पैंतालीस वर्ष के किसी दुहाजू को ब्याह दिया जाता है - बाप द्वारा लिए गए पचास हजार रुपये के ऐवज में। मन न लगने पर जब वह ससुराल से भाग आती है तो पति लठैतों के साथ आकर जबर्दस्ती उसे वापस ले जाता है। जाहिर है कि विकास के सारे उपलब्ध और प्रचलित आँकड़ों के बीच ऐसी लड़कियों के लिए दिल्ली अभी दूर है। पिछड़े क्षेत्रों में ही नहीं शहरों में खाते-पीते परिवारों में भी, लड़की और लड़के बीच भारी अंतर का प्रभाव लड़कियों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। गाँवों में शिक्षा का अभाव है। अक्षय तृतीया पर बड़े पैमाने पर बाल विवाहों का आयोजन होता है। इन सामाजिक बुराइयों के प्रति चेतना जगाकर, आत्मरक्षा और स्वावलम्बन पर बल देकर लता शर्मा अपनी चिन्ता को स्थानीय और देशज मुद्दों पर केन्द्रित करती हैं। चूँकि वे गुजरात से हैं, २००२ के दंगों में अल्पसंख्यक समाज की औरतों के साथ बरती गई नृशंसता की वे सब कहीं तीखी भर्त्सना करती हैं। इसमें हिन्दुत्त्ववादी संगठनों की स्त्रियों की भूमिका को वे एक नई परिघटना के रूप में रेखांकित करती हैं। एक तरह से वे अपनी चिन्ता में वे उस हिन्दुत्त्व का प्रतिपक्ष सामने रखती हैं, जिसके एक प्रतिनिधि के रूप में प्रवीण तोगड़िया अल्पसंख्यकों-मुस्लिम और इसाई को 'राहु' और 'केतु' घोषित कर चुके थे। इस तरह लता शर्मा संघ-परिवार के एजेण्डे के अंतर्गत लिखित, कुसुम केड़िया और रामेश्वर प्रसाद मिश्र की संयुक्त रूप से लिखित 'स्त्रीत्व : धारणाएँ एवं यथार्थ' की हिन्दुत्ववादी अवधारणाओं के विरुद्ध एक तर्क तैयार करती हैं। पौराणिक मिथकों को गौरवगान के विरुद्ध वे वर्तमान के यथार्थ का खुलासा करती हैं। वे उस गुजरात के साम्प्रदायिक सच को तीखेपन से उठाती हैं - जहाँ गाय का माँस खाना भले ही बुरी बात हो, औरत का माँस खाने में कोई आपत्ति नहीं है। बारह साल की नर्गिस और सद्यः विवाहिता नसीमा इसके करूण उदाहरण हैं।
विकास की सारी योजनाओं, प्रचार और आँकड़ों के बीच वे नेताओं पर गहरा अविश्वास जताती हैं। नेता हो जाने पर स्त्री का भी कोई लिंग नहीं होता - इसीलिए गुजरात में आयोजित स्त्री सशक्तिकरण की रैली में सुषमा स्वराज, उमा भारती और जयंती बेन पटेल की उपस्थिति को वे सब कहीं शंका और संदेह से देखती हैं। हिन्दुत्व के नाम पर सती-लक्ष्मी की उपस्थिति वस्तुतः एक वर्ग की सामाजिक स्वीकार्यता का ही उदाहरण है। दमित और उत्पीड़ित स्त्री को 'भोग्या' से 'पूज्या' बनाए जाने की विडम्बना पर लेखिका की टिप्पणी है, 'शोकाकुल युवती हो या अधेड़ स्त्री, इससे पहले कि वह कुछ सोच-समझ सके, स्थिर बुद्धि से कोई निर्णय ले सके, घर वाले घोषणा कर देते हैं कि उनकी बहू ÷सती' हो रही है। एक क्षण में दुनिया बदल जाती है। जिस स्त्री को कभी किसी ने 'भोग्या' से अधिक नहीं समझा, वही स्त्री 'देवी' बन जाती है। पूजा-पाठ शुरू हो जाता है। ६६ के ६६ गाँव वाले नारियल-अगरबत्ती लेकर आ जुटते हैं। उम्र का भेद-भाव भुला चरणों की धूल लेने लगते हैं। इस आकस्मिक गौरव का नशा भाँग-धतूरे के नशे से कहीं अधिक गहरा होता है। गौरव,जिसका स्वाद उसने जीवन में पहली बार जाना है।...(वही, पृ. ९२) सामन्तवादी पुरुष और उपभोक्तावादी संस्कृति की लपटों में घिरी 'सती-लक्ष्मी' के रूप में प्रचारित-प्रताड़ित स्त्री हमारे समय की एक दुखद सच्चाई है। समृद्ध परिवार की पढ़ी-लिखी युवती नताशा सिंह और उसकी सखी-ननद रितु सिंह की आत्महत्या का विकल्प लता शर्मा 'मरने की फुर्सत कहाँ!' शीर्षक टिप्पणी में बड़े और व्यापक स्त्री समाज से जुड़ाव में देखती हैं। पश्चिम से हम बहुत कुछ ग़लत सीखते हैं लेकिन उस समाज-सेवा और व्यक्तिगत निष्ठा जैसी चीजों की उपेक्षा करते हैं जिनसे जुड़कर वहाँ का युवा वर्ग अपने को सक्रिय और व्यस्त रखता है, कुछ रचनात्मक करने के सन्तोष के साथ।
बहुत पहले कभी बर्जीनिया वुल्फ ने स्त्री को स्त्री की तरह लिखने की सलाह दी थी। तब उनका आशय यही था कि स्त्री जीवन के जिन कोमल और अलक्षित पक्षों को स्त्री जितनी प्रामाणिकता से उद्घाटित कर सकती है, स्त्री के प्रति सारी सहानुभूति एवं हार्दिकता के बावजूद कोई पुरुष-लेखक नहीं कर सकता। लेकिन इसे आधार बनाकर 'जिन्दगीनामा' और 'महाभोज' जैसी रचनाओं का अवमूल्य नहीं किया जा सकता, सिर्फ यही सीखा जा सकता है कि बड़े फलक और जटिल अंतर्वस्तु वाली रचनाओं में भी स्त्री के संवेदन-तंत्र के लिए कैसे जगह बनाई जा सकती है। आज नारीवाद के प्रसंग में इसे नए सिरे से उठाने वाली मैत्रेयी पुष्पा की अपनी नायिकाएँ प्रेम और देह के स्तर पर पर्याप्त स्वतंत्र होने पर भी कहीं सामाजिक संदर्भों की उपेक्षा नहीं करतीं। सामाजिक जड़ता के बीच वे अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए अपने विवेक से निर्णय लेती हैं। लेकिन उनके कुछेक वक्तव्यों और व्यवहार ने अनेक लेखिकाओं को जब-तब उत्तेजित किया है। प्रतिक्रिया में, ऐसी लेखिकाओं की एक बड़ी संख्या है जो घोषित करती हैं कि वे नारीवादी नहीं हैं। अपने एक लेख में अनामिका भले ही इस प्रसंग में पद्मा सचदेव और कृष्णा सोबती का ही उल्लेख किया हो, मृणाल पाण्डे, ममता कालिया, नासिरा शर्मा, सुधा अरोड़ा आदि इसी अर्थ में अपने को नारीवादी आन्दोलन से अलग और बाहर रखे जाने पर जोर देती हैं।
मृणाल पाण्डे और नासिरा शर्मा स्त्री पर, नारीवादी आन्दोलन की सीमाओं से बाहर रहकर, वृहत्तर सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में विचार करती हैं। 'उब्बीरी' में मृणाल पाण्डे यदि स्त्री के स्वास्थ्य के विभिन्न पक्षों पर विचार करती हैं तो 'द सब्जेक्ट इज वूमन' में स्त्री-जीवन की विभिन्न समस्याओं और मुद्दों को उठाती हैं। 'जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं' में भी वे एक बड़े फलक पर भारतीय समाज में स्त्री की चिंता करती दिखाई देती हैं। पारसी थियेटर और आरम्भिक भारतीय फिल्मों में, जब पुरुष ही स्त्रियों की भूमिकाएँ करते थे, भारतीय स्त्री का रोल-मॉडल तैयार किए जाने पर विशेष जोर दिया जाता था। समाज उन्हें आदर्श रूप में देखना चाहता था। लेकिन वे स्त्रियाँ अंदर कहीं कैसी उपेक्षित और बंधनों में जकड़ी जिन्दग़ी जीने को अभिशप्त थीं, मृणाल पाण्डे इसके कुछ बहुत करूण और विडम्बनापूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। 'गौहरजान, माधुरी, जुबैदा, बनमाला, नाडिया आदि अभिनेत्रियाँ इस दोहरी और घुटनभरी जिन्दगी के सिर्फ चंद उदाहरण हैं। नाडिया का आजाद ख्याल मुँहफट-पन कभी नारीवादी छवि का एक आकर्षक तत्त्व था। वह चंद निर्देशकों या पटकथा लेखकों की सृष्टि नहीं थी। वह एक बदलते सामाजिक यथार्थ की छवि थी। लेकिन बाहरी तौर पर निडर और उत्पीड़ितों की त्राता के रूप में दीखने वाली ये अभिनेत्रियाँ अपने निजी जीवन में कितनी कमजोर, अकेली और उत्पीड़ित थीं - मृणाल पाण्डे ने विस्तार से इसकी चर्चा की है। शान्ता आप्टे, मीना कुमारी, परवीन बॉबी, प्रिया राजवंश आदि इसी अकेलेपन और असुरक्षा की शिकार अभिनेत्रियाँ थीं। दबंग और त्राता छवि के बावजूद वे पुरुष वर्चस्व की शिकार अंदर कहीं बेहद अकेली, दुखी और निरीह स्त्रियाँ थीं।
मृणाल पाण्डे महिला पत्रकारों से लेकर पंचायती राज में स्त्री की भूमिका प्रजातंत्रा में 'सती' की उपस्थिति, स्त्री
संदर्भ में सामाजिक जड़ता के रूपों आदि पर पर्याप्त बेधक और व्यंग्यपूर्ण शैली में लिखती हैं। औरत होने का यह सच
उनसे छिपा नहीं है। जिसमें गाय-बकरी की तरह दहेज से मढ़कर लड़की को 'स्वीकार्य' बनाया जाता है। इस व्यापक समाज में, सारी नारीवादी सक्रियता के बीच, इस मुद्दे पर किसी आन्दोलन की अनुपस्थिति उन्हें हताश करती है। नेताओं के भव्य समारोह, लालू, जयललिता आदि के परिवारों में हुए राजसी विवाह और इस प्रसंग में मीडिया की ठस और प्रतिगामी भूमिका में उनमें खीझ पैदा करती है। पिछले दिनों अभिषेक-ऐश्वर्य के विवाह संबंधी खबरों का कवरेज इसी प्रवृत्ति के विस्तार का उदाहरण है। युवा वर्ग में 'सादगी पूर्ण गरिमा' के संदेश और आचार के लिए जैसे कहीं कोई चिंता ही नहीं बची है।
मृणाल पाण्डे की दृष्टि से नारीवादी आन्दोलन की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि सारे शोर-शराबे के बीच स्त्री उत्पाद में ढल और बदल रही है। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं का देह-प्रदर्शन और उन्मुक्त निर्बाध भोगवाद स्त्री को सामाजिक सरोकारों एवं दायित्वों से काट रहा है। वे लिखती है, 'हमारे 'उदित भारत' का मध्यवर्गीय समाज और उसकी महिलाएँ आत्म केन्द्रित और वृहत्तर सामाजिक सच्चाइयों की ओर जिस तेजी से लापरवाह होती जा रही हैं। वह स्वस्थ नहीं है। आपकी प्रौढ़ हो चली महिला नारीवादियों ने जब स्त्रियों को अपनी देह और अपने जीवन पर अधिकार दिलाने के लिए आंदोलन किया या तो इस इच्छा से नहीं कि उस आजादी का विलय 'कांटा लगा' गले की आक्रामक उच्छृंखलता और 'सैंयादिल में आना रे' की हंटर वाली के पुरुषों के प्रति हिकारत भरे स्वाभित्व भाव में हो जाए' (जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं, पृ , ६२) स्त्री चिंता को कैसे बड़ा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य देती है इसे उनकी माँ-कथा लेखिका शिवानी- पर लिखे दो आलेखों से समझा जा सकता है। माँ से अधिक वे उनके लिए परम्परा की स्वीकार्यता का सवाल बनकर सामने आतीं है।
नासिरा शर्मा ने न सिर्फ अपने साहित्य में अनेक कद्दावर औरतें गढ़ी हैं, विभिन्न देशों और समाजों की स्त्रियों एवं उनकी समस्याओं को उन्होंने निकट से देखने समझने की कोशिश की है। ईरान की पृष्ठभूमि पर उन्होंने अनेक उल्लेखनीय रचनायें लिखी हैं - 'सात नदियाँ एक समन्दर' जैसे उपन्यास से लेकर 'शामी-कागज' और 'संगसार' जैसी कहानियों तक। लेकिन जब वे खुद को नारीवादी न माने जाने पर जोर देती है तो इसके कुछ वाजिब कारण है। एक साक्षात्कार में वे कहती हैं - मैं आंधी नहीं पूरी दुनिया के बारे में लिखती हूँ। पश्चिम में नारी मुक्ति की विफलता पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं, ' यह नारी मुक्ति की सफलता तब विफलता में बदलती है जब उस उदार समाज की नारी अवैध बच्चे को जन्म देती है यह समाज उस बच्चे का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर नहीं लेता, इसलिए ऐसे बच्चों के लिए उचित संस्थाओं की व्यवस्था है मगर उस नारी को वह स्वतंत्रता उस समाज ने प्रदान नहीं की कि वह उस अवैध बच्चे के साथ जी सके और आवश्यकता के हर जरूरी फॉर्म पर पिता के नाम का स्थान खाली न हो बल्कि वास्तव में छपे ही नहीं, तब हुई सही सेक्स क्रांति मगर ऐसा वहाँ भी नहीं हुआ'... (औरत के लिए औरत पृ , १२५) पूर्व में औरत देवी के रूप में पत्थर है। तो पश्चिम में लोहा- व्यवस्था के बड़े यंत्रा के एक पुर्जे के रूप में। इसी के विरुद्ध वे वस्तुतः एक लेखक के रूप में, हाड़-मांस की सजग और संवेदनशील स्त्री के निर्माण एवं विकास पर जोर देती है। हिंदी में देह की मुक्ति को ही नारीवाद का मूल और एक मात्र सूत्र माने जाने का विरोध और अनेक लेखिकाओं की तरह वे भी कहती हैं। लेकिन तब थोड़ा आश्चर्य होता है। जब वे प्रभा खेतान के छिन्नमस्ता' के विरुद्ध टिप्पणी करते हुए कहती है, 'जिन्हें स्त्री से हमदर्दी है, उन्हें 'छिन्नमस्ता' को पसंद नहीं करना चाहिए। आखिरकार स्त्री समाज का नैतिक प्रतीक होती हैं मॉरल होती हैं।' (वहीं पृ ,१९२) वस्तुतः यहाँ से वे नारीवाद के विरुद्ध अपना तर्क बुनती हैं। यहीं वे नारीवाद को पुरुष के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई के रूप में परिभाषित करने लगती हैं जबकि हरेक ने और हमेशा यह कहा है कि यह लड़ाई पुरुष के नहीं, पुरुष सत्ता के वर्चस्व के विरुद्ध है। वह सदियों से स्त्री के उत्पीड़न का मुख्य कारक रही है। वे कथित रूप से फैशनेबुल और सजावटी नारीवाद पर हमला करती हैं जो सिर्फ चर्चा में बने रहने का एक शगल है। सम्मान और पुरस्कार के लिए वे लेखिकाओं के जोड़-तोड़ का उल्लेख भी करती हैं। वे समाज में ऐसे कानूनों के बनाए जाने और उन पर अमल के पक्ष में हैं जो स्त्री हितों की रक्षा करते हों। इराक में स्त्रियों के बीच सद्दाम हुसैन की बेहिसाब लोकप्रियता के कारणों की ओर संकेत करते हुए वे बताती हैं कि उन्होंने जो कानून बनाए उनमें तलाक के बाद घर औरत नहीं आदमी छोड़ेगा और घर की कोई चीज वह अपने साथ नहीं ले जायेगा। छोटे बच्चों वाली औरतें सिर्फ आधा दिन नौकरी करके पूरा वेतन पाती थीं ताकि बचा हुआ समय वे अपने घर और बच्चों की जरूरतों को दे सके। औरत का तबादला नहीं किया जायेगा। जहाँ उसका पति होगा। इन कानूनों से इराक में तलाक का प्रतिशत स्वाभाविक रूप में कम हुआ। 'क्योंकि तनाव की स्थिति बनाने वाले पारिवारिक सामाजिक एवं कार्य क्षेत्र के वातावरण को सहज बनाने में सरकार की सकारात्मक भूमिका रही है' (वहीं, पृ ,१३५) नारीवादी आंदोलन की 'वन-पैरेंट' परिणति या फिर घर-परिवार जैसी संस्थाओं का विघटन उन्हें सोचने को मजबूर करता है। इसीलिए वे हिंदी की उन लेखिकाओं का उल्लेख किंचित विदू्रप की भाषा में करती हैं जो घर- परिवार, बच्चों और पति की सारी सुविधाएँ उठाते हुए नारीवाद का परचम लहराती हैं- वह भी पितृसत्ता के विरोध के नाम पर।
नासिरा शर्मा का मानना हैं कि नारी-जागृति नारी की मानसिकता में ही निहित है। पिछले पाँच हजार सालों में मर्द का व्यक्तित्व उतना नहीं बदला है जितना औरत का। यह बदलाव ही वस्तुतः सामाजिक चेतना को प्रेरित करता है। मर्द और औरत समाज की दो इकाइयाँ हैं- दोनों शोषित हैं, मर्द कुछ कम औरत कुछ ज्यादा। प्रेम जीवन का स्रोत तो हो सकता है केंद्र नहीं होता। आज औरत की मंजिल केवल मर्द नहीं है। पश्चिम में औरत आगे बढ़ी है लेकिन उसका लक्ष्य 'मर्द' बनना हो गया है। पश्चिम में भी अब उसी पीढ़ी के साए में एक नया औरत वर्ग उभर रहा है। जो जागृति, आत्मविश्वास, स्वालंबन और दान-बलिदान की राह पर चलने लगा है। हमारी पुरानी पौराणिक-ऐतिहासिक स्त्रियों की महत्त्वाकाक्षाएं मुख्यतः पति और पुत्र परिवार और निजी इच्छाओं पर केंद्रित थी। आज की सचेत और जागरूक औरत परिवार से जुड़कर समाज के लिए कुछ रचनात्मक करना चाहती है। यदि किसी औरत का साथी उसकी इच्छा के विरुद्ध घर तोड़ता है तो उसमें इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि घर टूटने को वह व्यक्तित्व के टूटने के रूप में लेने से बच सके। बलात्कार और दहेज के प्रसंग में समाज की मानसिकता को बदलने की जरूरत है। इन खतरनाक स्थितियों के विरुद्ध हस्तक्षेप के रूप में उन समझदार मर्दों का सहयोग लिया जाना चाहिए जो स्वंय मर्दों की इन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध हैं। प्रतिक्रिया और प्रतिहिंसा से कोई बड़ा निर्माण नहीं होता। पुरुष-सत्ता के विरोध के नाम पर स्त्री में बदले की प्रवृत्ति को उसी तरह गलत मानती हैं जैसे हिंदुत्व वही इतिहास का बदला लेकर आज की सामाजिक समरसता को भंग करते हैं या फिर दलित आंदोलन की उग्रता में पिछली यंत्राणा और उत्पीड़न से मुक्ति तलाशी जाती है।
अनामिका भी मानती हैं कि 'विमेंस लिव' पुरुष के नहीं पितृसत्ता के विरुद्ध है। वे भी उन लेखिकाओं में हैं जो घर परिवार के बीच पितृसत्ता का विरोध करती हैं और सिमोन द बोउआर की तरह विवाह और परिवार का विरोध न करने पर भी 'कम्यून व्यवस्था का समर्थन करती हैं। मिथकीय पात्रों-सीता, सावित्री, शूर्पनखा, लक्ष्मण आदि की परिवर्तित युगानुकूल व्याख्या करके बहुत कुछ नवनीता सेन गु्रप की सीता से शुरू की तर्ज पर वे परम्परा के षड्यन्त्रों का खुलासा करती हैं। स्त्री के ÷चुप सहने' की नीति को वे मैकाले की रक्षा-नीति से जोड़कर देखती हैं - ऐसा कुछ करने की नीति जो तेज को कुंठित करने में सफल होती है।
अनामिका पोस्ट फेमेनिज्म के बहाने नारीवाद को विस्तार देती हैं। जर्मन ग्रीयर और एंड्रीज रिच अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर निकलकर अब तीसरी दुनिया की जमीनी संघर्ष करती स्त्री की ओर मुड़ती हैं। 'अफ्रीकी वुमनिज्म' से लेकर,अपने अधिकारों और संघर्ष के प्रति सजग भारतीय आदिवासी स्त्री तक इसमें शामिल है। पूरी दुनिया की स्त्रिायाँ, मार्क्स के मजदूरों वाले आह्नान की तरह, अब बहनापे और आपसी समझदारी के सूत्र से जुड़ने लगी हैं। 'पुअर लिजा कॉम्प्लेक्स' से मुक्त होकर अब पूरी दुनिया इसमें समा गई है। तीसरी के आगे जैसे यह चौथी दुनिया है- अपने अस्तित्व को प्रमाणित करती है। दुनिया भर में स्त्री और स्त्री के बीच विकसित इस सद्भाव और बहुत कुछ साझा समस्यओं की दृष्टि से अनामिका कैनेडियन कवयित्री भासी रेंडन की एक कविता प्रस्तुत करती हैं: ईसा मसीह औरत नहीं थे,/वरना मासिक धर्म/बारह बरस की उमर से/उनकों मंदिर से बाहर रखता,/बेथलहेम और येरूशलम के/बीच के कठिन सफर में उनके/हो जाते कई तो बलात्कार/और उनके दुध मुँहे बच्चे/चालीस दिन और चालीस रातें/भूख से बिलबिलाकर/ मरते हुए कहते जब/उनको तो फुर्सत मिलती ही नहीं/सूली पर चढ़ जाने की भी। (मन मांझने की जरूरत, पृ , ४२)
नारीवाद को विस्तार देने की प्रक्रिया में अनामिका यदि एक ओर मिथकीय पात्रों की नई व्याख्या करती हैं वहीं वे लोक-साहित्य में निहित और पल्लवित आशयों के नारीवादी उपयोग की संभावनाएँ भी तलाशती हैं। भिखारी ठाकुर के एक नाटक 'गबर-फिचोड़' में बुढ़िया द्वारा पड़ौसी की छत पर पौड़ गई लौकी वाले उदाहरण को वे एक कसौटी की तरह सामने रखती हैं।
स्त्री आंदोलन को परिभाषित करते हुए वे लिखती हैं, 'जो जहाँ भी परितप्त है, स्त्री आंदोलन से जुड़ जाता है।' (वही पृ ,१०९) ' राबिया फकीर और सूफी गायकी' नामक अपनी टिप्पणी में वे इस विस्तार को रेखांकित करती हैं। यह स्त्री मुक्ति की आकांक्षा से अधिक कुछ है, जिसमें दलित, उपेक्षित, अनाथ, बूढे'-विकलांग, अश्वेत, अल्पसंख्यक पर्यावरण और सांप्रदायिक सद्भाव की चिंता तक सबकुछ समा जाता है। 'काली फार वीमेन' की हैदराबाद में आयोजित कार्यशाला के बाद हवाई अड्डे पर इत्रा के बड़े और खोखले मर्तबान के साथ, जो अजीत कौर ने अपनी चित्राकार बेटी अपर्णा के लिए खरीदा था, बम के गोले जैसी कुछ खतरनाक चीज समझी जाकर, हवाई अड्डे के अधिकारियों का जो सुलूक था अनामिका उसमें निहित हिकारत और अज्ञान को स्त्री साहित्य और आंदोलन के प्रति बरती जाने वाली बेअदबी और उपेक्षा से जोड़कर देखती हैं। 'कविता में औरत' में अपनी टिप्पणियों के साथ वे औरत की वेदना और स्थिति को सामने लाती हैं। इनमें वह कविता भी शामिल है। जिसमें छाता बनाने वाले की पत्नी पति से शिकायत के रूप में उलाहना देती है कि उसका पति उसे उतना महत्त्व भी नहीं देता जितना अपने बनाए छाते को देता है। अनामिका नारीवाद को इसी सर्वव्यापी और सार्वभौम पीड़ा से जोड़कर देखती हैं। जिसमें स्त्री की मुक्ति की आकांक्षा सब कहीं नियोजक सूत्रा और कारक है।
सामायिक टिप्पणियों और बहुत कुछ तात्कालिक रणनीति के तहत प्रस्तुत स्त्री-चिंता की यह वैचारिकी वस्तुतः स्त्री की नियति और उसकी मुक्ति की आकांक्षा को पूरी तरह समझ पाने में आक्षम है। यह मुख्यतः उन लेखिकाओं द्वारा ही प्रस्तुत है जो रचनात्मक लेखन में भी सक्रिय हैं। नारीवाद की मूल प्रकृति और स्त्री-मुक्ति की उनकी आकांक्षा को उनके अपने साहित्य को छोड़कर नहीं समझा जा सकता। इसमें उन कारणों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि आखिर महिला लेखकों का एक बड़ा और गंभीर वर्ग क्यों अपने को नारीवाद से अलग और बाहर रखे जाने पर जोर देता है।
साहित्य में प्रायोजित मूल्यांकन और उपभोग की राजनीति के इस दौर में यह चिंता भी नारीवाद के ही दायरें में आती है कि आखिर क्यों मन्नू भण्डारी की 'एक कहानी यह भी' विधिवत् रिलीज होने के पूर्व ही 'हंस' में प्रायोजित मूल्यांकन का एक उदाहरण बनती है और स्त्रियाँ ही स्त्री के लंबे और क्रूर उत्पीड़न की चिंता किए बिना संपादक के पक्ष में खड़ी होती हैं। भंगिनीवाद की दुहाई के बावजूद, पुरुष वर्चस्व और पितृसत्ता द्वारा अपने मनचाहे इस्तेमाल की छूट देने वाला यह नारीवाद कहाँ जायेगा- इस पर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है। तीसरी और चौथी दुनिया से जुड़ने की बात करके अपनी नाक के नीचे होने वाले उत्पीड़न और आयाम की अनदेखी करके या फिर अन्यायी और उत्पीड़क के पक्ष में खड़े होकर, हम आखिर किस नारीवाद के विकास की बात करते हैं? ऐसे उदाहरण ही वस्तुतः अनेक लेखिकाओं के नारीवाद से अलगाव वाले तर्क को बल देते हैं।
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