- शिव कुमार मिश्र
मीरा प्रेम और भक्ति की तन्मय गायिका के रूप में ख्यात और मान्य हैं। वे श्रीकृष्ण की प्रेमिका भी हैं, और उनकी भक्त भी। ऐसी प्रसिद्धि है कि उन्होंने बचपन में ही श्रीकृष्ण को अमें बँधी या बाँधी गईं, पति-गृह में वे श्रीकृष्ण की प्रतिमा के साथ आईं और भोजराज की विवाहिता होते हुए भी वे मन में श्रीकृष्ण को ही पति मानती रहीं, उन्हीं के प्रति समर्पित रहीं। मीरा के जीवन को लेकर कुछ विवाद भी हैं। एक मत है कि मीरा का भोजराज के साथ वैवाहिक जीवन बड़ी अल्प अवधि का रहा। भोजराज की असमय में मृत्यु हुई और मीरा कम उम्र में ही विधवा हो गई। अन्य मत है कि मीरा विधवा नहीं हुईं क्योंकि कहीं भी उन्होंने अपने विधवा होने का साक्ष्य अपने रचे गए पदों में नहीं दिया है। इसी तरह मीरा के जीवन को लेकर कुछ अन्य बातों में भी मतभेद और विवाद है। जो पक्ष मीरा के वैधव्य को नहीं मानता उसके अनुसार अपने आक्रांता के रूप में मीरा ने अपने पदों में जिस राणा का उल्लेख बार-बार किया है, वे और कोई नहीं, उनके पति भोजराज थे, जो मीरा की श्रीकृष्ण भक्ति, मीरा द्वारा पति-रूप में उनकी स्वीकृति, साज-सिंगार करके श्रीकृष्ण को रिझाने और उनकी प्रतिमा के समक्ष पग में घुँघरू बाँधकर उनके नाचने-गाने, साधु-संगति करने आदि-आदि बातों से बेहद असंतुष्ट और क्षुब्ध थे। सामाजिक विधि-निषेधों, राजकुल की मर्यादाओं की मीरा द्वारा की गई अवमानना तथा मीरा के अपना मनोवांछित जीवन जीने के हठ के चलते-यही भोजराज थे, जिन्होंने मीरा को यातनाएँ दीं, उन्हें प्रताड़ित किया और अंततः मीरा को राजमहल का त्याग करना पड़ा।
जो पक्ष मीरा के अकाल-वैधव्य को मानता है, उसके अनुसार भोजराज जब तक जीवित रहे, मीरा को उन्होंने समझाया-बुझाया जरूर, परन्तु जब वे नहीं मानीं, वे उदासीन हो गए और मीरा के क्रिया-कलाप चलते रहे। उनकी मृत्यु के बाद, मीरा को जो यातनाएँ मिलीं - वे यातनाएँ उन्हें, देवर राणा विक्रमादित्त्य ने दीं और मीरा अपने पदों में जिस राणा का उल्लेख करती हैं, वे भोजराज नहीं, उनके छोटे भाई अर्थात् मीरा के देवर राणा विक्रमादित्य हैं।
राणा विक्रमादित्त्य इस कारण भी क्षुब्ध थे कि पति की मृत्यु के उपरांत वंश-कुल की परम्परा के अनुसार मीरा पति के साथ सती नहीं हुईं। विधवा के वेश के बजाए सधवा के रूप में साज-सिंगार करती रहीं, नाचती-गाती रहीं। यह कहते हुए कि उनके पति श्रीकृष्ण तो अविनाशी हैं, मर ही नहीं सकते। अपने को उन्होंने विधवा माना ही नहीं। देवर की यातनाओं से परेशान होकर अंततः मीरा ने राजमहल का परित्याग कर दिया।
संप्रति, हमारी रुचि, मीरा के जीवन को लेकर उनके वैधव्य को लेकर जो विवाद है, उसकी तफसील में जाने की नहीं है। हमारा सवाल, या कहें, हमारी जिज्ञासा दूसरी हैं।
राणा भोजराज हों अथवा राणा विक्रमादित्त्य, यदि श्रीकृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम या भक्ति-भाव को, या श्रीकृष्ण को पति मानने की मीरा की बात को, मीरा के चाहे अनुसार, राज परिवार की, लोक की, सगे-संबंधियों की स्वीकृति मिल गई होती या वे सब मीरा के क्रिया-कलापों के प्रति तटस्थ या उदासीन हो गए होते, और मीरा बाधा-रहित श्रीकृष्ण के प्रति अपनी मनोभावनाओं को अभिव्यक्त कर पातीं, तब क्या जिस रूप में आज हम मीरा का स्मरण कर रहे हैं, उसी रूप में मीरा को याद करते? या कि जिस तरह आज, मीरा के समय में पाँच सौ सालों बाद, मीरा को - नई सदी के मुख्य विमर्शों में एक-स्त्री-विमर्श से जोड़कर देख रहे हैं, उन्हें अपना समकालीन मान रहे हैं वैसा समकालीन उन्हें मानते? शायद नहीं। अधिक से अधिक, ऐसी स्थिति में हम मीरा का स्मरण, उनके महत्त्व का आंकलन
उसी तरह करते, मीरा हमें उसी तरह स्मरणीय होतीं जैसे विद्यापति, सूरदास, जयदेव आदि आज हमारे लिए हैं।
जाहिर है कि मीरा श्रीकृष्ण से अपने संबंधों, उनके प्रति अपने प्रेम या भक्ति के नाते हमारी समकालीन नहीं हैं, उनके समकालीन होने का संदर्भ दूसरा है। स्त्री-विमर्श में भी मीरा की भागीदारी का सबब उनकी भक्ति या प्रेम नहीं, उनसे जुड़ी कुछ दूसरी बातें हैं।
वस्तुतः मीरा हमारी समकालीन है और चल रहे स्त्री-विमर्श की भागीदार हैं - अपने उस प्रतिरोध तथा विद्रोह के नाते, जो उन्होंने अपने ऊपर लगाई गई पाबंदियों के खिलाफ किया। वे स्त्री-विमर्श में इसलिए हमारे साथ हैं कि सामंती जकड़बंदी के बीच आपकी प्रेम-पिपासा की उन्होंने निष्कुंठ अभिव्यक्ति की। उनके विद्रोह का संबंध है लोक, राज परिवार तथा संबंधियों द्वारा उन्हें दी गई यातना से उन पर थोपी गई पाबंदियों से जिन्हें मीरा ने अमान्य किया। यहाँ तक कि राजभवन को लात मारकर वे उससे बाहर आ गईं।
लोक, समाज, राज परिवार आदि ने मीरा के प्रति जो क्रूरता बरती, उसके मूल में है - धर्मशास्त्र-आधारित सामाजिक सोच और वह सामाजिक संरचना जिसके तहत जीवन-व्यवहार, मर्यादाओं तथा कर्त्तव्यों के नाम पर स्त्री के लिए एक नरक रचा गया है। थोड़े-से सुभाषितों की आड़ में आजन्म, पराधीनता के एक नियति उसे दी गई है। स्त्री के वजूद को पूरी तरह नकारा गया है। उसे तरह-तरह की जंजीरों में बाँधा गया है।
मीरा ने साहस के साथ इस नरक का प्रतिकार किया, पाबंदियों के खिलाफ बगावत की और व्यवस्था के प्रभुओं के इरादों का पर्दाफाश किया। अपने आक्रांताओं को उन्होंने पूरे मन से धिक्कारा। उसका नाम ले-लेकर उसे सबके सामने उजागर किया। उस समाज को भी मीरा ने लानत दी जिसने उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीरा के पद साक्ष्य हैं कि कितनी कठोर यातनाओं से होकर उन्हें गुजरना पड़ा है।
हेली म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाइ।
सास लड़े मेरी, ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाइ।
पहरो भी राख्यो, चौकी बिठारयो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्वजन्म की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाए।
ढेरों पद इसी तरह के हैं जिनमें विष का प्याला मंजने, पिटारी में सांप भेजने तथा यातना के दूसरे तरीकों का जिक्र मीरा ने किया है। समझा जा सकता है कि अपने आक्रान्ताओं के प्रति मीरा में कितनी घृणा, कड़वाहट तथा रोष है।
संत या भक्त के मन को निर्मल कहा गया है - व्यक्तिगत् राग-द्वेष से परे, उदार और क्षमाशील। मीरा की मनोभूमि ऐसी नहीं है। वे न तो अपने आक्रान्ताओं को जिन्दगी की आख़िरी सांस तक भूल पाई हैं और ना ही क्षमा कर पाई हैं। उनके प्रति उनकी घृणा रह-रहकर और भभकती रही है। फिर भी, मीरा संत और भक्त के रूप में मान्य हैं। निश्चय ही, संत और भक्त तो वे हैं, परन्तु इनके साथ-साथ एक औरत होने का एहसास भी उनमें बराबर रहा है। उनके पदों में संत और भक्त होने के साथ उनके औरत होने-लाचार और निरीह औरत होने की पहचान भी जुड़ी हुई है। वस्तुतः
औरत होने का यह एहसास ही मीरा को हमारे समय के स्त्री-विमर्श से जोड़ता है। यह औरत मीरा में बराबर जि+न्दा रही है। मीरा ने उसे विचार के स्तर पर और संस्कार के स्तर पर अपने में, शिद्दत से जिलाए रखा है। जितना सच मीरा का संत या भक्त होना है?, उनका औरत होना भी उतना ही बड़ा सच है।
इस बिन्दु पर सहज ही एक जिज्ञासा होती है। हम कह चुके हैं कि अपने समय में मीरा की अपने ऊपर थोपी गई पाबंदियों के खिलाफ बगावत, वंश, कुल की मर्यादा को अमान्य कर पति की मृत्यु पर उनका सती न होना, सधवा
की तरह सज-सँवर कर अपने प्रियतम् श्रीकृष्ण के समक्ष नाचना-गाना-साहस का, जोखिम का काम था, जिसे मीरा ने जोखिम उठाकर किया - परन्तु पदों का साक्ष्य देखें तो मीरा का यह विद्रोह - उनका निजी व्यक्तिगत् विद्रोह ही अधिक लगता है। वह व्यंजक हैं, परन्तु है वह व्यक्तिगत् विद्रोह ही। हमें मीरा के ऐसे पद नहीं मिलते जिनमें उनका यह विद्रोह उनके ‘स्व' से आगे जाकर स्त्री-जाति की यातना और मीरा - जैसी उसकी मनोकांक्षा से जुड़ा हो। बंधनों से अपनी ‘मुक्ति' का आग्रह मीरा में है - उस मुक्ति की आकांक्षा के तार- स्त्री - जाति की वैसी ही मुक्ति से सीधे नहीं जुड़ते। हम उन्हें स्त्री-जाति की मुक्ति-पराधीनता से मुक्ति से ज+रूर जोड़ते हैं परन्तु मीरा की मनोभूमि में भी उनकी अपनी ‘मुक्ति' के साथ स्त्री-जाति की मुक्ति की भी चिन्ता या उससे उनकी संलग्नता थी या नहीं थी। इस विषय में जिज्ञासा बनी रहती है, मीरा की पदावली, जितनी और जो भी हैं पूरी तरह प्रामाणिक रही हैं। जिज्ञासा होती है कि अपनी यातना, अपनी बेबसी, अपनी मुक्ति के साथ मीरा को क्या कभी- स्त्री-जाति की यातना, पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा की बात याद आई?
मीरा के संदर्भ में इस तरह की जिज्ञासा स्वाभाविक है। मीरा का खुद औरत होना, उनका स्वतः यातना भोगना हमारी जिज्ञासा को एक आधार देता है।
हमारा वाङ्मय गवाह है कि स्त्री के बारे में मीरा के पहले जो कुछ लिखा गया उसे लिखने वाले पुरुष थे - वे वाल्मीकि, वेद व्यास, कालिदास, भवभूति, कोई भी हों। उनकी रचनाओं में स्त्री के ख्यात स्त्रियों के - सीता, द्रौपदी, शकुन्तला आदि के जो भी बिम्ब उभरे हैं, उन पुरुष-रचनाकारों द्वारा निर्मित बिम्ब हैं। स्त्री उनकी रचनाओं में उनकी संवेदना, सहानुभूति, सब कुछ पा सकी है, परन्तु अंततः वह आर्यशास्त्रानुमोदित नियमों-मर्यादाओं के दायरे में ही बाँधी गई है। उस सामाजिक संरचना का उन पुरुषों द्वारा समर्थन ही है, जिसमें स्त्री के लिए-मुक्ति की बात को अमान्य किया गया है। वाल्मीकि की ‘रामायण' देखें, या व्यास की ‘महाभारत' - यातना के कठिन दौरों से गुज+रकर भी सीता-द्रौपदी तथा दूसरी नारियाँ जन्म-जन्म में उन्हीं पतियों को पाने की आकांक्षा रखती हैं उन्हें ही परमेश्वर मानती हैं, जिनके द्वारा वे यातनाग्रस्त हुई हैं। कहा जा सकता है कि चूँकि ये पुरुषों द्वारा रचित कृतियाँ हैं उनके पुरुष मानस से स्त्री के ऐसे ही बिम्ब सामने आ सकते थे, जो उनके मन के अनुरूप हों, जैसा कि वे आए भी हैं।
परन्तु मीरा के यहाँ, मीरा के नाम पर जो कुछ संकलित है, वह मीरा का अपना रचा और गाया हुआ है। वह पुरुष की रचना न होकर एक स्त्री की रचना है, पहली बार एक स्त्री की रचना और उस स्त्री की रचना - जो महज रचनाकार नहीं, भोक्ता भी है। उसने जो कुछ रचा-गाया है, अपने भोगे हुए को, सहन किए हुए को। ऐसी स्थिति में ही हमारी जिज्ञासा को आधार मिलता है कि क्या अपने जिए भोगे को गाते-अभिव्यक्त करते हुए मीरा को, रचनाकार मीरा को, अपने साथ-साथ स्त्री-जाति का दुख, उसकी पराधीनता, उसके द्वारा भोगा और सहा जाना तथा जिन बंधनों में स्त्री जकड़ी है, उनसे स्त्री-जाति की मुक्ति की आकांक्षा की कभी याद आई है? अपनी यातना में मुक्ति की अपनी आकांक्षा में क्या वे स्त्री-जाति की यातना, मुक्ति की उसकी आकांक्षा को भी देख सकीं? अपनी यातना को क्या स्त्री-जाति की वृहत्तर यातना से वे जोड़ सकी है? जिज्ञासा इसलिए ताकि मीरा को हम समग्रता में जान सकें।
इसी से जुड़ी हुई एक जिज्ञासा और भी। मीरा के पद-उनकी दो तरह की जीवन-स्थितियों में रचे गाए गए पद हैं, एक जब वे राजमहल की चहार दीवारी के भीतर बंधन की स्थितियों में रच और गा रही थीं। दूसरे राजमहल छोड़ देने के बाद से द्वारका तक मृत्यु पर्यन्त उनके द्वारा रचे और गाए गए पद - कब वे अपेक्षाकृत मुक्त, बंधनों की जड़ से बाहर आ गई थीं। कहते हैं - राजमहल छोड़ देने के बाद भी राज परिवार ने मीरा पर सदैव दबाव बनाए रखा। उन्हें चैन से नहीं रहने दिया। कहा तो यहाँ तक गया है और जो संभावित भी है कि द्वारका में कृष्ण की मूर्ति के आगे मीरा के अंतर्धान हो जाने की कथा, सिर्फ कथा ही है। वस्तुतः मीरा की वह हत्या थी। वास्तविकता जो भी हो, राजमहल के बाहर आकर मीरा अपेक्षाकृत अपनी मनोकांक्षित जमीन पर आ गई थीं। जिज्ञासा है कि क्या दो जीवन स्थितियों में लिखे रचे गए इन पदों की अलग से शिनाख्त की गई है - ताकि दोनों को समानान्तर रखकर जाना जा सके कि भिन्न जीवन स्थितियों में रचे गाए गए इन पदों में क्या मीरा की मनोभूमि में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है? राजमहल से बाहर आकर क्या वे श्रीकृष्ण के प्रेमभाव में ही डूबकर रह गईं अथवा अपनी मनोकांक्षित जमीन पा जाने के बाद उन्हें स्त्री-जाति की यातना भी याद आई? क्या उन्होंने पुरुष वर्चस्व वाले समाज के समक्ष वैसे ही कुछ सवाल खड़े किए जैसे तब खड़े किए थे - जब वे बंधन में थीं?
इन जिज्ञासाओं के मूल में हमारा आशय महज इतना मानना ही है कि क्या मीरा की यातना, उनका विद्रोह, पराधीनता की नियति से मुक्त होने की उनकी इच्छा, उनकी तड़प, स्त्री- जाति की वैसी ही यातना, पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा से जुड़ती हैं - खासतौर से मीरा की अपनी पहल पर?
हम जानते हैं कि मीरा घर-परिवार से जुड़ी हुई स्त्री थीं, विवाह के पहले भी और विवाह के बाद भी। श्रीकृष्ण के पति उनके एकल प्रेमभाव और भक्ति से भी हम परिचित हैं। हम उस समय को ही पहचानते-जानते हैं जिसे मीरा जी रही थीं। उस समय की स्थितियों से भी हम अनभिज्ञ नहीं है। हमें ज्ञात है कि मीरा या उस समय के कोई भी संत या भक्त, हमारे अपने समाज की तरह की कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं थे, ना ही मीरा स्त्री-मुक्ति की कोई ।बजपअपेज थीं, जो स्त्री-जाति की मुक्ति का कोई आन्दोलन छेड़तीं और उनका नेतृत्व करतीं। अपने समय की स्थितियों में खींचकर हम मीरा को अपनी मनोभूमि के अनुरूप ढालने का प्रयास भी नहीं कर रहे। मीरा के अपने समय में जो नामुमकिन था, उसकी कसौटी पर हम मीरा को नहीं परखना चाहते।
हम बस इतना जानना चाहते हैं कि एक स्त्री होने के नाते, अपने कहे-लिखे-गाए गए में क्या मीरा ने ऐसा ही कुछ लिखा जो उनकी अपनी निजी यातना या आकांक्षा से आगे स्त्री जाति की यातना और आकांक्षा से भी जुड़ सका हो, एक वृहत्तर इयत्ता पा सका हो। यदि मीरा के ऐसे पद हमें मिलें तो मीरा के महत्त्व का संदर्भ भी बड़ा हो जाता है। मीरा की समकालीनता तो गाढ़ी होती ही है - मीरा अपने समय-संदर्भ से हमारे समय संदर्भ तक अंधकार में एक प्रखर ज्योति रेखा की तरह भास्वर हो उठती हैं।
एक अंतिम और जरूरी बात और।
जिस भेदभावपूर्ण सामाजिक संरचना के तहत अपने समय में मीरा ने बहुत कुछ सहा और भोगा - तमाम प्रतिरोधों के बावजूद वह सामाजिक संरचना न केवल बरकरार है, पहले से भी अधिक पीड़क हुई है। व्यवस्था के पंजे और मजबूत हुए हैं और उसके नाखून और दाँत और भी पैने। यह पहले से अधिक शातिर भी हुई है।
कबीर हों, मीरा हों, प्रतिरोध सबने किया परन्तु कुछ भी इसलिए नहीं बदला कि मात्रसदिच्छाओं से या पीड़ा की वैयक्तिक अभिव्यक्तियों से, समाज नहीं बदला करता। सामाजिक परिवर्तन जिन स्थितियों और जिन शक्तियों के तहत होता है, न तो वैसी स्थितियाँ उस समय थीं ना ही वैसी शक्तियाँ। दूसरे, कबीर हों, अन्य संत हों या मीरा, उनकी अपनी सोच के विचारगत् और व्यवहारगत् अंतर्विरोध भी थे, जिनके चलते भी यथास्थिति को बल मिला। चली आ रही व्यवस्था के कुछ पहलुओं को विचार और आचरण के स्तर पर जरूर इन लोगों ने चुनौती दी परन्तु व्यवस्था के कुछ दीगर पहलू संस्कार बनकर उनके विचारों में घुले-मिले भी रहे जिन्होंने उनकी सोच को भी प्रभावित किया और आचरण को भी।
व्यवस्था की शातिर निगाहों ने उन्हें उनके समय में भी भाँपा और आज भी उन्हें भाँप रही है। व्यवस्था के प्रभुओं ने उनके अंतर्विरोध को उनके समय में भी अपने हक में भुनाया और आज भी भुनाने पर आमादा हैं।
इन संतों का, मीरा का, कहा हुआ, आचरित जो भी व्यवस्था के हित में जाता है, व्यवस्था ने तब भी उसे Highlight किया और आज भी कर रही है। इन संतों का और मीरा का जो कुछ भी कहा-रचा गया व्यवस्था के हित में नहीं रहा, व्यवस्था के प्रमुखों ने तब भी उसे दबाने की, हाशिए पर डालने की, विरूप करने की, अपने ढंग से व्याख्यायित करते हुए ।propriate करने की कोशिश की, आज भी कर रहे हैं। कबीर के साथ यह हुआ और हो रहा है। मीरा के साथ भी ऐसा ही हुआ और हो रहा है। सच कहा जाए तो व्यवस्था द्वारा मीरा का अप्रोपिएशन आसान भी है।
मीरा की पदावली को देखें, पढ़ें और विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि एक औरत होने के अहसास से ही नहीं, औरत होने के नाते अपने कमजोर, निरीह, असमर्थ और लाचार होने के एहसास से भी मीरा की मनोभूमि काफी कुछ आच्छादित और आक्रांत है। अबला होने का एहसास उन पर इस कदर हाबी है कि वे बार-बार अपने प्रभु या प्रियतम् से अपनी रक्षा की गुहार लगाती हैं। श्रीकृष्ण पर उनकी निर्भरता तथा रक्षा का भरोसा इस नाते भी है कि जिन परिस्थितियों में वे थीं उन स्थितियों से उन्हें उबारने वाला उन्हें श्रीकृष्ण के अलावा कोई दूसरा नहीं दिखाई देता। श्रीकृष्ण से उनका संबंध भक्त का, प्रियतमा का और पत्नी का भी है, और श्रीकृष्ण प्रभु हों, प्रेमी हों,पति हों, अंततः पुरुष ही हैं - हर स्थिति में मीरा के संरक्षक और उद्धारक परम्परा भी ऐसा ही मानती है।
मीरा प्रयत्ति की, शरणागति इस हद तक पहुँची हुई है कि अपने समूचे वजूद को अपने प्रभु, प्रेमी या पति पर निछावर किए हुए हैं। सारी तन्मयता, सारा समर्पण, सारा राग उन्हीं की ओर से है। भक्ति के स्तर पर तो भक्त के प्रभु के समक्ष इस तरह के एकांत समर्पण की बात समझी जा सकती है परन्तु प्रेमिका या पत्नी के रूप में, प्रियतम् या पति के प्रति ऐसा समर्पण भाव, ऐसी निर्भरता कुछ हैरान और परेशान करती है। इस नाते कि व्यवस्था को ऐसे समर्पण में अपने अनुकूल बहुत कुछ मिल जाने और अपने हित में उसका इस्तेमाल करने की बेहद संभावना है।
मीरा का ऐसा समर्पण भाव व्यवस्था को मौका देता है कि वह उसे सामाजिक जीवन-व्यवहार के तहत स्त्री के पुरुष के प्रति, पत्नी के पति के प्रति समर्पण भाव के रूप में, एक आदर्श के रूप में प्रचारित और व्याख्यायित करें। स्त्री-जाति को यह संदेश दे कि पुरुष के बिना स्त्री की तथा पति के लिए पत्नी की और कोई गति नहीं है। स्त्री के अस्तित्व की शर्त पुरुष के प्रति उसकी निर्भरता है। व्यवस्था को मौका मिलता है कि मीरा के साक्ष्य पर स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के ऐसे संबंध को वह वैध साबित करें।
हमारी यह सोच किसी को अतिरंजित लग सकती है, परन्तु व्यवस्था का इतिहास साक्षी है कि उसने स्त्री की कमजोरी को हमेशा अपने हित में भुनाया और इस्तेमाल किया है।
मीरा अपने प्रियतम् से अपने मन चाहे पति से कभी बराबरी के स्तर पर नहीं बतियातीं। वे उनके प्रति अपने एकांत समर्पण में ही सुख मानती है। ‘गुलामी के इस सुख' को वे अपना सौभाग्य मानती हैं। वे अपने प्रभु या प्रियतम् या पति-परमेश्वर की चाकरी के लिए सहज प्रस्तुत हैं - ‘प्रभु जी, कहाने चाकर राखो जी।' प्रभु की, प्रियतम् की चाकर बनने में अपने वजूद को वे यहाँ तक भुला देती हैं कि उनका प्रभु उनका प्रियतम्, उन्हें जिस तरह रखे, जो भी खिलाए-पहिनाए, जहाँ भी रखे,वे उस तरह रहने, खाने-पहनने और वहाँ रहने को तैयार हैं। वह उन्हें बेचेगी, तो वे बिकने के लिए भी प्रस्तुत हैं। हमारे धर्मशास्त्राों में स्त्री को जिन मर्यादाओं में बाँधा गया है वे यही मर्यादायें हैं। संस्कार बनकर स्त्री मानस में वे इस तरह घुल पच गई हैं कि उनसे उबर पाना, जितना स्त्री मानस के लिए कठिन है, मीरा के लिए भी। अपने एक पद और (काश, यह पद प्रक्षिप्त हो) मीरा यहाँ तक कह गई है कि अपना पति, अपना ही है, वह कोढ़ी-कुष्टी ही क्यों न हो -
छैल बिराणो लाख को हे, अपणे काज न होइ।
ताके संग सीधारती है, भला न कहसीं कोई।
वर हीणो अपनो भले है, कोढ़ी-कुष्टी कोइ।
जाके संग सीधारती है, भला कहै सबलोइ॥
स्त्री के संदर्भ में समर्पण की यह नियति, गुलामी का यह सुख, इस सुख से स्त्री की यह रजामंदी ही हमारी हैरानी और परेशानी का कारण है। कहने की जरूरत नहीं कि स्त्री मुक्ति की वही सबसे बड़ी बाधा भी है।
मुक्ति कैसी भी हो किसी की भी हो, एक साथ और एक बार में होती है। किश्तों में मुुक्ति नहीं हुआ करती। चल रहे स्त्री-विमर्श में सक्रिय और उसके साथ चलने वाले सीधे-गुलाम होने के सुख पर मीरा को मुक्ति की इस आकांक्षा और अभियान में प्रतिरोध की मिसाल के रूप में प्रस्तुत करने वाले (प्रतिरोध की मिसाल मीरा हैं) सोचें और समझें कि मुक्त मीरा को ही नहीं होना है स्त्री जाति की मुक्ति होनी है। मीरा तो प्रतिरोध में है - मुक्त होंगी,जैसा कि वे हुईं-पर मीरा की मुक्ति से अहम् सवाल हमारे लिए मुक्ति के अभियान में लगे हुए लोगों के लिए यह होना चाहिए कि मीरा की उस सास और ननद की मुक्ति भी स्त्री मुक्ति के अभियान से जुड़ी हुई है। मुक्त उन्हें भी होना है, जिनके लिए सचमुच गुलाम होने का सुख बहुत बड़ी नियामत है बिना उनके मुक्त हुए मीरा की या किसी अन्य की किसी समुदाय की मुक्ति का कोई मतलब नहीं। मुक्ति का यह अभियान कितना कठिन है आसानी से समझा जा सकता है।
व्यवस्था बहुत शातिर है मीरा के अपने परमेश्वर-पति के प्रति समर्पण को स्त्री-जाति के सामने पति-परमेश्वर के प्रति समर्पण के रूप में व्याख्यायित कर ले जाना उसके लिए बहुत सहज है। धर्मशास्त्र स्त्री को, पति को परमेश्वर मानने की सीख तो देते हैं।
समकालीन स्त्री-विमर्श में मीरा की भागीदारी ज+रूरी है। मीरा ने अपने समय में अपनी सीमाओं में जो किया बड़ा काम था। सन्तों के प्रतिरोध की जो वाणी बोली उसका भी हमारे लिए महत्त्व है। व्यवस्था न कबीर बदल सके, न मीरा। उनके लिए यह संभव भी न था। उनका महत्त्व इस बात में है कि मुक्ति के सपने को उन्होंने पराधीनों की आँखों में जीवित रखा। नई सदी में भी वह उनकी आँखों में जीवित हैं। इन्हीं आँखों में जितना कबीर हमारे समकालीन है, उतना ही मीरा।
मीरा प्रेम और भक्ति की तन्मय गायिका के रूप में ख्यात और मान्य हैं। वे श्रीकृष्ण की प्रेमिका भी हैं, और उनकी भक्त भी। ऐसी प्रसिद्धि है कि उन्होंने बचपन में ही श्रीकृष्ण को अमें बँधी या बाँधी गईं, पति-गृह में वे श्रीकृष्ण की प्रतिमा के साथ आईं और भोजराज की विवाहिता होते हुए भी वे मन में श्रीकृष्ण को ही पति मानती रहीं, उन्हीं के प्रति समर्पित रहीं। मीरा के जीवन को लेकर कुछ विवाद भी हैं। एक मत है कि मीरा का भोजराज के साथ वैवाहिक जीवन बड़ी अल्प अवधि का रहा। भोजराज की असमय में मृत्यु हुई और मीरा कम उम्र में ही विधवा हो गई। अन्य मत है कि मीरा विधवा नहीं हुईं क्योंकि कहीं भी उन्होंने अपने विधवा होने का साक्ष्य अपने रचे गए पदों में नहीं दिया है। इसी तरह मीरा के जीवन को लेकर कुछ अन्य बातों में भी मतभेद और विवाद है। जो पक्ष मीरा के वैधव्य को नहीं मानता उसके अनुसार अपने आक्रांता के रूप में मीरा ने अपने पदों में जिस राणा का उल्लेख बार-बार किया है, वे और कोई नहीं, उनके पति भोजराज थे, जो मीरा की श्रीकृष्ण भक्ति, मीरा द्वारा पति-रूप में उनकी स्वीकृति, साज-सिंगार करके श्रीकृष्ण को रिझाने और उनकी प्रतिमा के समक्ष पग में घुँघरू बाँधकर उनके नाचने-गाने, साधु-संगति करने आदि-आदि बातों से बेहद असंतुष्ट और क्षुब्ध थे। सामाजिक विधि-निषेधों, राजकुल की मर्यादाओं की मीरा द्वारा की गई अवमानना तथा मीरा के अपना मनोवांछित जीवन जीने के हठ के चलते-यही भोजराज थे, जिन्होंने मीरा को यातनाएँ दीं, उन्हें प्रताड़ित किया और अंततः मीरा को राजमहल का त्याग करना पड़ा।
जो पक्ष मीरा के अकाल-वैधव्य को मानता है, उसके अनुसार भोजराज जब तक जीवित रहे, मीरा को उन्होंने समझाया-बुझाया जरूर, परन्तु जब वे नहीं मानीं, वे उदासीन हो गए और मीरा के क्रिया-कलाप चलते रहे। उनकी मृत्यु के बाद, मीरा को जो यातनाएँ मिलीं - वे यातनाएँ उन्हें, देवर राणा विक्रमादित्त्य ने दीं और मीरा अपने पदों में जिस राणा का उल्लेख करती हैं, वे भोजराज नहीं, उनके छोटे भाई अर्थात् मीरा के देवर राणा विक्रमादित्य हैं।
राणा विक्रमादित्त्य इस कारण भी क्षुब्ध थे कि पति की मृत्यु के उपरांत वंश-कुल की परम्परा के अनुसार मीरा पति के साथ सती नहीं हुईं। विधवा के वेश के बजाए सधवा के रूप में साज-सिंगार करती रहीं, नाचती-गाती रहीं। यह कहते हुए कि उनके पति श्रीकृष्ण तो अविनाशी हैं, मर ही नहीं सकते। अपने को उन्होंने विधवा माना ही नहीं। देवर की यातनाओं से परेशान होकर अंततः मीरा ने राजमहल का परित्याग कर दिया।
संप्रति, हमारी रुचि, मीरा के जीवन को लेकर उनके वैधव्य को लेकर जो विवाद है, उसकी तफसील में जाने की नहीं है। हमारा सवाल, या कहें, हमारी जिज्ञासा दूसरी हैं।
राणा भोजराज हों अथवा राणा विक्रमादित्त्य, यदि श्रीकृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम या भक्ति-भाव को, या श्रीकृष्ण को पति मानने की मीरा की बात को, मीरा के चाहे अनुसार, राज परिवार की, लोक की, सगे-संबंधियों की स्वीकृति मिल गई होती या वे सब मीरा के क्रिया-कलापों के प्रति तटस्थ या उदासीन हो गए होते, और मीरा बाधा-रहित श्रीकृष्ण के प्रति अपनी मनोभावनाओं को अभिव्यक्त कर पातीं, तब क्या जिस रूप में आज हम मीरा का स्मरण कर रहे हैं, उसी रूप में मीरा को याद करते? या कि जिस तरह आज, मीरा के समय में पाँच सौ सालों बाद, मीरा को - नई सदी के मुख्य विमर्शों में एक-स्त्री-विमर्श से जोड़कर देख रहे हैं, उन्हें अपना समकालीन मान रहे हैं वैसा समकालीन उन्हें मानते? शायद नहीं। अधिक से अधिक, ऐसी स्थिति में हम मीरा का स्मरण, उनके महत्त्व का आंकलन
उसी तरह करते, मीरा हमें उसी तरह स्मरणीय होतीं जैसे विद्यापति, सूरदास, जयदेव आदि आज हमारे लिए हैं।
जाहिर है कि मीरा श्रीकृष्ण से अपने संबंधों, उनके प्रति अपने प्रेम या भक्ति के नाते हमारी समकालीन नहीं हैं, उनके समकालीन होने का संदर्भ दूसरा है। स्त्री-विमर्श में भी मीरा की भागीदारी का सबब उनकी भक्ति या प्रेम नहीं, उनसे जुड़ी कुछ दूसरी बातें हैं।
वस्तुतः मीरा हमारी समकालीन है और चल रहे स्त्री-विमर्श की भागीदार हैं - अपने उस प्रतिरोध तथा विद्रोह के नाते, जो उन्होंने अपने ऊपर लगाई गई पाबंदियों के खिलाफ किया। वे स्त्री-विमर्श में इसलिए हमारे साथ हैं कि सामंती जकड़बंदी के बीच आपकी प्रेम-पिपासा की उन्होंने निष्कुंठ अभिव्यक्ति की। उनके विद्रोह का संबंध है लोक, राज परिवार तथा संबंधियों द्वारा उन्हें दी गई यातना से उन पर थोपी गई पाबंदियों से जिन्हें मीरा ने अमान्य किया। यहाँ तक कि राजभवन को लात मारकर वे उससे बाहर आ गईं।
लोक, समाज, राज परिवार आदि ने मीरा के प्रति जो क्रूरता बरती, उसके मूल में है - धर्मशास्त्र-आधारित सामाजिक सोच और वह सामाजिक संरचना जिसके तहत जीवन-व्यवहार, मर्यादाओं तथा कर्त्तव्यों के नाम पर स्त्री के लिए एक नरक रचा गया है। थोड़े-से सुभाषितों की आड़ में आजन्म, पराधीनता के एक नियति उसे दी गई है। स्त्री के वजूद को पूरी तरह नकारा गया है। उसे तरह-तरह की जंजीरों में बाँधा गया है।
मीरा ने साहस के साथ इस नरक का प्रतिकार किया, पाबंदियों के खिलाफ बगावत की और व्यवस्था के प्रभुओं के इरादों का पर्दाफाश किया। अपने आक्रांताओं को उन्होंने पूरे मन से धिक्कारा। उसका नाम ले-लेकर उसे सबके सामने उजागर किया। उस समाज को भी मीरा ने लानत दी जिसने उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीरा के पद साक्ष्य हैं कि कितनी कठोर यातनाओं से होकर उन्हें गुजरना पड़ा है।
हेली म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाइ।
सास लड़े मेरी, ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाइ।
पहरो भी राख्यो, चौकी बिठारयो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्वजन्म की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाए।
ढेरों पद इसी तरह के हैं जिनमें विष का प्याला मंजने, पिटारी में सांप भेजने तथा यातना के दूसरे तरीकों का जिक्र मीरा ने किया है। समझा जा सकता है कि अपने आक्रान्ताओं के प्रति मीरा में कितनी घृणा, कड़वाहट तथा रोष है।
संत या भक्त के मन को निर्मल कहा गया है - व्यक्तिगत् राग-द्वेष से परे, उदार और क्षमाशील। मीरा की मनोभूमि ऐसी नहीं है। वे न तो अपने आक्रान्ताओं को जिन्दगी की आख़िरी सांस तक भूल पाई हैं और ना ही क्षमा कर पाई हैं। उनके प्रति उनकी घृणा रह-रहकर और भभकती रही है। फिर भी, मीरा संत और भक्त के रूप में मान्य हैं। निश्चय ही, संत और भक्त तो वे हैं, परन्तु इनके साथ-साथ एक औरत होने का एहसास भी उनमें बराबर रहा है। उनके पदों में संत और भक्त होने के साथ उनके औरत होने-लाचार और निरीह औरत होने की पहचान भी जुड़ी हुई है। वस्तुतः
औरत होने का यह एहसास ही मीरा को हमारे समय के स्त्री-विमर्श से जोड़ता है। यह औरत मीरा में बराबर जि+न्दा रही है। मीरा ने उसे विचार के स्तर पर और संस्कार के स्तर पर अपने में, शिद्दत से जिलाए रखा है। जितना सच मीरा का संत या भक्त होना है?, उनका औरत होना भी उतना ही बड़ा सच है।
इस बिन्दु पर सहज ही एक जिज्ञासा होती है। हम कह चुके हैं कि अपने समय में मीरा की अपने ऊपर थोपी गई पाबंदियों के खिलाफ बगावत, वंश, कुल की मर्यादा को अमान्य कर पति की मृत्यु पर उनका सती न होना, सधवा
की तरह सज-सँवर कर अपने प्रियतम् श्रीकृष्ण के समक्ष नाचना-गाना-साहस का, जोखिम का काम था, जिसे मीरा ने जोखिम उठाकर किया - परन्तु पदों का साक्ष्य देखें तो मीरा का यह विद्रोह - उनका निजी व्यक्तिगत् विद्रोह ही अधिक लगता है। वह व्यंजक हैं, परन्तु है वह व्यक्तिगत् विद्रोह ही। हमें मीरा के ऐसे पद नहीं मिलते जिनमें उनका यह विद्रोह उनके ‘स्व' से आगे जाकर स्त्री-जाति की यातना और मीरा - जैसी उसकी मनोकांक्षा से जुड़ा हो। बंधनों से अपनी ‘मुक्ति' का आग्रह मीरा में है - उस मुक्ति की आकांक्षा के तार- स्त्री - जाति की वैसी ही मुक्ति से सीधे नहीं जुड़ते। हम उन्हें स्त्री-जाति की मुक्ति-पराधीनता से मुक्ति से ज+रूर जोड़ते हैं परन्तु मीरा की मनोभूमि में भी उनकी अपनी ‘मुक्ति' के साथ स्त्री-जाति की मुक्ति की भी चिन्ता या उससे उनकी संलग्नता थी या नहीं थी। इस विषय में जिज्ञासा बनी रहती है, मीरा की पदावली, जितनी और जो भी हैं पूरी तरह प्रामाणिक रही हैं। जिज्ञासा होती है कि अपनी यातना, अपनी बेबसी, अपनी मुक्ति के साथ मीरा को क्या कभी- स्त्री-जाति की यातना, पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा की बात याद आई?
मीरा के संदर्भ में इस तरह की जिज्ञासा स्वाभाविक है। मीरा का खुद औरत होना, उनका स्वतः यातना भोगना हमारी जिज्ञासा को एक आधार देता है।
हमारा वाङ्मय गवाह है कि स्त्री के बारे में मीरा के पहले जो कुछ लिखा गया उसे लिखने वाले पुरुष थे - वे वाल्मीकि, वेद व्यास, कालिदास, भवभूति, कोई भी हों। उनकी रचनाओं में स्त्री के ख्यात स्त्रियों के - सीता, द्रौपदी, शकुन्तला आदि के जो भी बिम्ब उभरे हैं, उन पुरुष-रचनाकारों द्वारा निर्मित बिम्ब हैं। स्त्री उनकी रचनाओं में उनकी संवेदना, सहानुभूति, सब कुछ पा सकी है, परन्तु अंततः वह आर्यशास्त्रानुमोदित नियमों-मर्यादाओं के दायरे में ही बाँधी गई है। उस सामाजिक संरचना का उन पुरुषों द्वारा समर्थन ही है, जिसमें स्त्री के लिए-मुक्ति की बात को अमान्य किया गया है। वाल्मीकि की ‘रामायण' देखें, या व्यास की ‘महाभारत' - यातना के कठिन दौरों से गुज+रकर भी सीता-द्रौपदी तथा दूसरी नारियाँ जन्म-जन्म में उन्हीं पतियों को पाने की आकांक्षा रखती हैं उन्हें ही परमेश्वर मानती हैं, जिनके द्वारा वे यातनाग्रस्त हुई हैं। कहा जा सकता है कि चूँकि ये पुरुषों द्वारा रचित कृतियाँ हैं उनके पुरुष मानस से स्त्री के ऐसे ही बिम्ब सामने आ सकते थे, जो उनके मन के अनुरूप हों, जैसा कि वे आए भी हैं।
परन्तु मीरा के यहाँ, मीरा के नाम पर जो कुछ संकलित है, वह मीरा का अपना रचा और गाया हुआ है। वह पुरुष की रचना न होकर एक स्त्री की रचना है, पहली बार एक स्त्री की रचना और उस स्त्री की रचना - जो महज रचनाकार नहीं, भोक्ता भी है। उसने जो कुछ रचा-गाया है, अपने भोगे हुए को, सहन किए हुए को। ऐसी स्थिति में ही हमारी जिज्ञासा को आधार मिलता है कि क्या अपने जिए भोगे को गाते-अभिव्यक्त करते हुए मीरा को, रचनाकार मीरा को, अपने साथ-साथ स्त्री-जाति का दुख, उसकी पराधीनता, उसके द्वारा भोगा और सहा जाना तथा जिन बंधनों में स्त्री जकड़ी है, उनसे स्त्री-जाति की मुक्ति की आकांक्षा की कभी याद आई है? अपनी यातना में मुक्ति की अपनी आकांक्षा में क्या वे स्त्री-जाति की यातना, मुक्ति की उसकी आकांक्षा को भी देख सकीं? अपनी यातना को क्या स्त्री-जाति की वृहत्तर यातना से वे जोड़ सकी है? जिज्ञासा इसलिए ताकि मीरा को हम समग्रता में जान सकें।
इसी से जुड़ी हुई एक जिज्ञासा और भी। मीरा के पद-उनकी दो तरह की जीवन-स्थितियों में रचे गाए गए पद हैं, एक जब वे राजमहल की चहार दीवारी के भीतर बंधन की स्थितियों में रच और गा रही थीं। दूसरे राजमहल छोड़ देने के बाद से द्वारका तक मृत्यु पर्यन्त उनके द्वारा रचे और गाए गए पद - कब वे अपेक्षाकृत मुक्त, बंधनों की जड़ से बाहर आ गई थीं। कहते हैं - राजमहल छोड़ देने के बाद भी राज परिवार ने मीरा पर सदैव दबाव बनाए रखा। उन्हें चैन से नहीं रहने दिया। कहा तो यहाँ तक गया है और जो संभावित भी है कि द्वारका में कृष्ण की मूर्ति के आगे मीरा के अंतर्धान हो जाने की कथा, सिर्फ कथा ही है। वस्तुतः मीरा की वह हत्या थी। वास्तविकता जो भी हो, राजमहल के बाहर आकर मीरा अपेक्षाकृत अपनी मनोकांक्षित जमीन पर आ गई थीं। जिज्ञासा है कि क्या दो जीवन स्थितियों में लिखे रचे गए इन पदों की अलग से शिनाख्त की गई है - ताकि दोनों को समानान्तर रखकर जाना जा सके कि भिन्न जीवन स्थितियों में रचे गाए गए इन पदों में क्या मीरा की मनोभूमि में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है? राजमहल से बाहर आकर क्या वे श्रीकृष्ण के प्रेमभाव में ही डूबकर रह गईं अथवा अपनी मनोकांक्षित जमीन पा जाने के बाद उन्हें स्त्री-जाति की यातना भी याद आई? क्या उन्होंने पुरुष वर्चस्व वाले समाज के समक्ष वैसे ही कुछ सवाल खड़े किए जैसे तब खड़े किए थे - जब वे बंधन में थीं?
इन जिज्ञासाओं के मूल में हमारा आशय महज इतना मानना ही है कि क्या मीरा की यातना, उनका विद्रोह, पराधीनता की नियति से मुक्त होने की उनकी इच्छा, उनकी तड़प, स्त्री- जाति की वैसी ही यातना, पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा से जुड़ती हैं - खासतौर से मीरा की अपनी पहल पर?
हम जानते हैं कि मीरा घर-परिवार से जुड़ी हुई स्त्री थीं, विवाह के पहले भी और विवाह के बाद भी। श्रीकृष्ण के पति उनके एकल प्रेमभाव और भक्ति से भी हम परिचित हैं। हम उस समय को ही पहचानते-जानते हैं जिसे मीरा जी रही थीं। उस समय की स्थितियों से भी हम अनभिज्ञ नहीं है। हमें ज्ञात है कि मीरा या उस समय के कोई भी संत या भक्त, हमारे अपने समाज की तरह की कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं थे, ना ही मीरा स्त्री-मुक्ति की कोई ।बजपअपेज थीं, जो स्त्री-जाति की मुक्ति का कोई आन्दोलन छेड़तीं और उनका नेतृत्व करतीं। अपने समय की स्थितियों में खींचकर हम मीरा को अपनी मनोभूमि के अनुरूप ढालने का प्रयास भी नहीं कर रहे। मीरा के अपने समय में जो नामुमकिन था, उसकी कसौटी पर हम मीरा को नहीं परखना चाहते।
हम बस इतना जानना चाहते हैं कि एक स्त्री होने के नाते, अपने कहे-लिखे-गाए गए में क्या मीरा ने ऐसा ही कुछ लिखा जो उनकी अपनी निजी यातना या आकांक्षा से आगे स्त्री जाति की यातना और आकांक्षा से भी जुड़ सका हो, एक वृहत्तर इयत्ता पा सका हो। यदि मीरा के ऐसे पद हमें मिलें तो मीरा के महत्त्व का संदर्भ भी बड़ा हो जाता है। मीरा की समकालीनता तो गाढ़ी होती ही है - मीरा अपने समय-संदर्भ से हमारे समय संदर्भ तक अंधकार में एक प्रखर ज्योति रेखा की तरह भास्वर हो उठती हैं।
एक अंतिम और जरूरी बात और।
जिस भेदभावपूर्ण सामाजिक संरचना के तहत अपने समय में मीरा ने बहुत कुछ सहा और भोगा - तमाम प्रतिरोधों के बावजूद वह सामाजिक संरचना न केवल बरकरार है, पहले से भी अधिक पीड़क हुई है। व्यवस्था के पंजे और मजबूत हुए हैं और उसके नाखून और दाँत और भी पैने। यह पहले से अधिक शातिर भी हुई है।
कबीर हों, मीरा हों, प्रतिरोध सबने किया परन्तु कुछ भी इसलिए नहीं बदला कि मात्रसदिच्छाओं से या पीड़ा की वैयक्तिक अभिव्यक्तियों से, समाज नहीं बदला करता। सामाजिक परिवर्तन जिन स्थितियों और जिन शक्तियों के तहत होता है, न तो वैसी स्थितियाँ उस समय थीं ना ही वैसी शक्तियाँ। दूसरे, कबीर हों, अन्य संत हों या मीरा, उनकी अपनी सोच के विचारगत् और व्यवहारगत् अंतर्विरोध भी थे, जिनके चलते भी यथास्थिति को बल मिला। चली आ रही व्यवस्था के कुछ पहलुओं को विचार और आचरण के स्तर पर जरूर इन लोगों ने चुनौती दी परन्तु व्यवस्था के कुछ दीगर पहलू संस्कार बनकर उनके विचारों में घुले-मिले भी रहे जिन्होंने उनकी सोच को भी प्रभावित किया और आचरण को भी।
व्यवस्था की शातिर निगाहों ने उन्हें उनके समय में भी भाँपा और आज भी उन्हें भाँप रही है। व्यवस्था के प्रभुओं ने उनके अंतर्विरोध को उनके समय में भी अपने हक में भुनाया और आज भी भुनाने पर आमादा हैं।
इन संतों का, मीरा का, कहा हुआ, आचरित जो भी व्यवस्था के हित में जाता है, व्यवस्था ने तब भी उसे Highlight किया और आज भी कर रही है। इन संतों का और मीरा का जो कुछ भी कहा-रचा गया व्यवस्था के हित में नहीं रहा, व्यवस्था के प्रमुखों ने तब भी उसे दबाने की, हाशिए पर डालने की, विरूप करने की, अपने ढंग से व्याख्यायित करते हुए ।propriate करने की कोशिश की, आज भी कर रहे हैं। कबीर के साथ यह हुआ और हो रहा है। मीरा के साथ भी ऐसा ही हुआ और हो रहा है। सच कहा जाए तो व्यवस्था द्वारा मीरा का अप्रोपिएशन आसान भी है।
मीरा की पदावली को देखें, पढ़ें और विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि एक औरत होने के अहसास से ही नहीं, औरत होने के नाते अपने कमजोर, निरीह, असमर्थ और लाचार होने के एहसास से भी मीरा की मनोभूमि काफी कुछ आच्छादित और आक्रांत है। अबला होने का एहसास उन पर इस कदर हाबी है कि वे बार-बार अपने प्रभु या प्रियतम् से अपनी रक्षा की गुहार लगाती हैं। श्रीकृष्ण पर उनकी निर्भरता तथा रक्षा का भरोसा इस नाते भी है कि जिन परिस्थितियों में वे थीं उन स्थितियों से उन्हें उबारने वाला उन्हें श्रीकृष्ण के अलावा कोई दूसरा नहीं दिखाई देता। श्रीकृष्ण से उनका संबंध भक्त का, प्रियतमा का और पत्नी का भी है, और श्रीकृष्ण प्रभु हों, प्रेमी हों,पति हों, अंततः पुरुष ही हैं - हर स्थिति में मीरा के संरक्षक और उद्धारक परम्परा भी ऐसा ही मानती है।
मीरा प्रयत्ति की, शरणागति इस हद तक पहुँची हुई है कि अपने समूचे वजूद को अपने प्रभु, प्रेमी या पति पर निछावर किए हुए हैं। सारी तन्मयता, सारा समर्पण, सारा राग उन्हीं की ओर से है। भक्ति के स्तर पर तो भक्त के प्रभु के समक्ष इस तरह के एकांत समर्पण की बात समझी जा सकती है परन्तु प्रेमिका या पत्नी के रूप में, प्रियतम् या पति के प्रति ऐसा समर्पण भाव, ऐसी निर्भरता कुछ हैरान और परेशान करती है। इस नाते कि व्यवस्था को ऐसे समर्पण में अपने अनुकूल बहुत कुछ मिल जाने और अपने हित में उसका इस्तेमाल करने की बेहद संभावना है।
मीरा का ऐसा समर्पण भाव व्यवस्था को मौका देता है कि वह उसे सामाजिक जीवन-व्यवहार के तहत स्त्री के पुरुष के प्रति, पत्नी के पति के प्रति समर्पण भाव के रूप में, एक आदर्श के रूप में प्रचारित और व्याख्यायित करें। स्त्री-जाति को यह संदेश दे कि पुरुष के बिना स्त्री की तथा पति के लिए पत्नी की और कोई गति नहीं है। स्त्री के अस्तित्व की शर्त पुरुष के प्रति उसकी निर्भरता है। व्यवस्था को मौका मिलता है कि मीरा के साक्ष्य पर स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के ऐसे संबंध को वह वैध साबित करें।
हमारी यह सोच किसी को अतिरंजित लग सकती है, परन्तु व्यवस्था का इतिहास साक्षी है कि उसने स्त्री की कमजोरी को हमेशा अपने हित में भुनाया और इस्तेमाल किया है।
मीरा अपने प्रियतम् से अपने मन चाहे पति से कभी बराबरी के स्तर पर नहीं बतियातीं। वे उनके प्रति अपने एकांत समर्पण में ही सुख मानती है। ‘गुलामी के इस सुख' को वे अपना सौभाग्य मानती हैं। वे अपने प्रभु या प्रियतम् या पति-परमेश्वर की चाकरी के लिए सहज प्रस्तुत हैं - ‘प्रभु जी, कहाने चाकर राखो जी।' प्रभु की, प्रियतम् की चाकर बनने में अपने वजूद को वे यहाँ तक भुला देती हैं कि उनका प्रभु उनका प्रियतम्, उन्हें जिस तरह रखे, जो भी खिलाए-पहिनाए, जहाँ भी रखे,वे उस तरह रहने, खाने-पहनने और वहाँ रहने को तैयार हैं। वह उन्हें बेचेगी, तो वे बिकने के लिए भी प्रस्तुत हैं। हमारे धर्मशास्त्राों में स्त्री को जिन मर्यादाओं में बाँधा गया है वे यही मर्यादायें हैं। संस्कार बनकर स्त्री मानस में वे इस तरह घुल पच गई हैं कि उनसे उबर पाना, जितना स्त्री मानस के लिए कठिन है, मीरा के लिए भी। अपने एक पद और (काश, यह पद प्रक्षिप्त हो) मीरा यहाँ तक कह गई है कि अपना पति, अपना ही है, वह कोढ़ी-कुष्टी ही क्यों न हो -
छैल बिराणो लाख को हे, अपणे काज न होइ।
ताके संग सीधारती है, भला न कहसीं कोई।
वर हीणो अपनो भले है, कोढ़ी-कुष्टी कोइ।
जाके संग सीधारती है, भला कहै सबलोइ॥
स्त्री के संदर्भ में समर्पण की यह नियति, गुलामी का यह सुख, इस सुख से स्त्री की यह रजामंदी ही हमारी हैरानी और परेशानी का कारण है। कहने की जरूरत नहीं कि स्त्री मुक्ति की वही सबसे बड़ी बाधा भी है।
मुक्ति कैसी भी हो किसी की भी हो, एक साथ और एक बार में होती है। किश्तों में मुुक्ति नहीं हुआ करती। चल रहे स्त्री-विमर्श में सक्रिय और उसके साथ चलने वाले सीधे-गुलाम होने के सुख पर मीरा को मुक्ति की इस आकांक्षा और अभियान में प्रतिरोध की मिसाल के रूप में प्रस्तुत करने वाले (प्रतिरोध की मिसाल मीरा हैं) सोचें और समझें कि मुक्त मीरा को ही नहीं होना है स्त्री जाति की मुक्ति होनी है। मीरा तो प्रतिरोध में है - मुक्त होंगी,जैसा कि वे हुईं-पर मीरा की मुक्ति से अहम् सवाल हमारे लिए मुक्ति के अभियान में लगे हुए लोगों के लिए यह होना चाहिए कि मीरा की उस सास और ननद की मुक्ति भी स्त्री मुक्ति के अभियान से जुड़ी हुई है। मुक्त उन्हें भी होना है, जिनके लिए सचमुच गुलाम होने का सुख बहुत बड़ी नियामत है बिना उनके मुक्त हुए मीरा की या किसी अन्य की किसी समुदाय की मुक्ति का कोई मतलब नहीं। मुक्ति का यह अभियान कितना कठिन है आसानी से समझा जा सकता है।
व्यवस्था बहुत शातिर है मीरा के अपने परमेश्वर-पति के प्रति समर्पण को स्त्री-जाति के सामने पति-परमेश्वर के प्रति समर्पण के रूप में व्याख्यायित कर ले जाना उसके लिए बहुत सहज है। धर्मशास्त्र स्त्री को, पति को परमेश्वर मानने की सीख तो देते हैं।
समकालीन स्त्री-विमर्श में मीरा की भागीदारी ज+रूरी है। मीरा ने अपने समय में अपनी सीमाओं में जो किया बड़ा काम था। सन्तों के प्रतिरोध की जो वाणी बोली उसका भी हमारे लिए महत्त्व है। व्यवस्था न कबीर बदल सके, न मीरा। उनके लिए यह संभव भी न था। उनका महत्त्व इस बात में है कि मुक्ति के सपने को उन्होंने पराधीनों की आँखों में जीवित रखा। नई सदी में भी वह उनकी आँखों में जीवित हैं। इन्हीं आँखों में जितना कबीर हमारे समकालीन है, उतना ही मीरा।
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