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अभी तो हम सब कोशां है : नासिरा शर्मा

डॉ० फ़ीरोज अहमद
आपकी साहित्य साधना कब और कैसे आरम्भ हुई और उसके लिए प्रेरणा आपको कहाँ से मिली।
घर में लिखने पढ़ने का माहौल था। उससे कहाँ बचा जा सकता था। स्कूल में भी कहानी प्रतियोगिता आयोजित होती दोनों जगह रचनात्मक माहौल सृजन की दुनिया को लगातार अंकुर फोड़ने की प्रतिक्रिया में रखते जिसके कारण लेखन एक सहज प्रक्रिया के रूप में जीवन का हिस्सा बनती चली गयी।
सृजन से पूर्व, सृजन के समय और सृजन के पश्चात्‌ आपकी मनःस्थिति क्या होती है?
लिखने से पहले एक बेचैनी, कभी-कभी उदासी, अक्सर ख़ामोशी की कैफियत बनती है। लिखते समय जज्बात और ख्यालात का हुजूम उत्तेजना भरता है। तब कोई शोर या आवाज किसी तरह का खलल कभी मूड खराब करता है तो कभी तेज गुस्सा दिलाता है। उसका कारण भी है कि आपके हाथ से दरअसल भाषा का तारतम फिसल जाता है। जो बहाव सहज रूप से निकलता है वह फिर बनावट से पूरा होता है जो मुझे ठीक नहीं लगता मगर हमेशा ऐसा नहीं होता जब कहानी गिरफ्त में हो तो बाक़ी चीजें बेकार सी लगती हैं। क़यामत भी आकर गुजर जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लिखने के बाद एक अजीब-सी खुशी, इत्तमिनान-सा महसूस होता है मगर इस अहसास से मैं कोसों दूर रहती हूँ कि मैंने कोई शहकार रचा है क्योंकि कहानी मुकम्मल हो जाने के बाद भी, अभिव्यक्ति और किरदार की सहजता को लेकर मैं काफी सोचती और शब्दों को अक्सर बदलती रहती हूँ। जब हर तरफ से मुतमईन हो जाती हूँ तभी छपने भेजती हूँ।
साहित्य को आप किन शब्दों में परिभाषित करेंगी।
इन्सान बने रहने की कोशिश और इन्सान बने रहने के लिए दूसरों को उस कोशिश में शामिल करना।
इतनी लम्बी साहित्य साधना में क्या कभी आपका जी ऊबा है? यदि हाँ तो क्या कारण रहे हैं?
बीच-बीच में काफी फुजूल के काम करती हूँ। इसलिए हमेशा ताजगी का अहसास बना रहता है। लेखन और लेखक का भारी लबादा पहनना और उसे तकलीफ के साथ घसीटते जाना मेरी फितरत नहीं है।
अवाम के सन्दर्भ में साहित्य की भूमिका को आप किस प्रकार देखती हैं।
कहानियों में अवाम का दखल दरअसल एक महत्त्वपूर्ण गारा है जिससे आप कहानी बनाते हैं। मगर अफसोस जिस अवाम के लिए हम लिखते हैं ज्यादातर वे लोग साहित्य नहीं पढ़ पाते हैं। पहला कारण शिक्षित न होना, दूसरा मेहनत मजदूरी और सर छिपाने की जद्दोजहद के बाद उनके पास थककर सोने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। हम खुद ही लिखते हैं और खुद ही पढ़ते हैं जो शिक्षित है जिन्हें साहित्य से लगाव है उन तक पुस्तकें उस तरह सुलभ नहीं है जैसी होनी चाहिए। साहित्य की कोई कृति न सामूहिक रूप से समाज की धारा बदल पाई न समाज की कुरीतियों की जड़ से उखाड़ पाई न पुराने कानूनों में संशोधन करा पाई मगर हाँ, व्यक्तिगत रूप से कुछ व्यक्तियों को, बिखरे रूप से, जरूर बदल पाई मगर वास्तविकता तो यह है कि क्या अकेला चना भाड़ भूंज सकता है? कहने का अर्थ साफ है कि समाजिक जकड़न और जड़ सोच वाले कुनबे में जो व्यक्ति बदला, वह पूरे परिवार को नहीं बदल पाया मगर उसे घर निकाला जरूर मिला तो भी अपवाद की कमी नहीं है। यह अपवाद कब सामूहिक फोर्स में बदलेंगे और अवाम और साहित्यकार में कब संवाद स्थापित होगा कहा नहीं जा सकता है। अभी तो हम सब कोशाँ हैं।
क्या साहित्योपजीवी होकर जिया जा सकता है।
नहीं।
बाल-साहित्य के रूप में आपने साहित्य का विपुल मात्रा में सृजन किया है। हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में उसकी स्थिति और भूमिका पर आपका दृष्टिकोण क्या है?
बच्चों के लिए मैंने बचपन से लिखा। लगातार लिखा मगर उस लेखन का उस तरह नोटिस नहीं लिया गया जिसको राष्ट्र के स्तर पर पहचान का नाम दिया जा सकता है क्योंकि हिन्दी की दुनिया में बाल-साहित्य का कोई अहम्‌ रोल नजर नहीं आता है जबकि उसके लिखने वालों की संख्या काफी है और वे जो केवल बाल-रचनाओं के साहित्यकार हैं उनको भी वह सम्मान और पहचान किसी मंच पर जैसी विदेशों के रचनाकारों को मिली हुई है नहीं प्राप्त है। जबकि बहुत कुछ बाल-भवन, नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा होता रहता है मगर वह सब कुछ मुख्यधारा जैसा नजर नहीं आता है न इनकी चर्चा खास व आम में बराबर से होती है। बाल पत्रिकाएँ भी हैं। बाल-साहित्य पुरस्कार भी हैं। मगर जिस तरह उर्दू में अब्बू खाँ की बकरी को साहित्यिक कृति होने का तमग़ा मिला हुआ है या हर बड़े लिखने वाले ने बच्चों के लिए भी लिखा है वैसा रिवाज हिन्दी में देखने को नहीं मिलता है भले ही अन्य भारतीय भाषाओं में हो। हम भूल जाते हैं कि लेखक इन्सानी अहसास को अपने कलम से काग़ज पर उतारता है न कि खानाबन्दी किये इन्सानों में से किसी को उठाता है। गरीब-अमीर, अफसर-नौकर, मर्द-औरत, बूढ़े-बच्चे सब मिल कर परिवार में रहते हैं और समाज की संरचना करते हैं, मगर जब साहित्यकार कलम उठाता है तो उसकी रचना से अक्सर बाल पात्र गायब रहते हैं आखिर क्यों? क्या स्वयं उसका बचपन उसका पीछा कभी छोड़ता है? (कृष्ण बलदेव वेद के उपन्यास उसका बचपन याद आ गया) कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम अपने तक सीमित न रहें वैसे भी बच्चों के लिए लिखना आसान काम नहीं है। जबरदस्ती लिखवाना भी नहीं चाहिए मगर जो लिखते हैं उनको आदर व सम्मान मिलना चाहिए और हमारी मानसिकता में यह बात दाखिल हो जानी चाहिए कि बच्चों का एक बड़ा संसार है जिसमें जिज्ञासा, मासूमियत, भय, खुशी, चीजों को देखने और महसूस करने का बिल्कुल अलग अनुभव है जिसको समेटने का अर्थ है कि हम अपनी रचनाओं में केवल नई पीढ़ी को जगह नहीं दे रहे है बल्कि अपने कलम और अपनी सोच को निरन्तर शादाबी बख्श रहे हैं।
साधारणतया कहानी की एक परिभाषा दी जाती है कि कहानी घटना या घटनाओं का सुसंयोजित रूप है। आज की कहानी इस दृष्टि से काफी भिन्न नजर आती है। तो क्या इसको कहानी नहीं मानना चाहिए। आप अपनी राय बताइये।
घटनाएँ यदि कहानियाँ हैं तो फिर रिपोर्टिंग क्या हैं। पत्रकारिता और साहित्यिक लेखन का बुनियादी फर्क़ यह है कि एक में सूचना होती है और दूसरे में अहसास। रपट की सीमा जहाँ समाप्त होती है कहानी वहाँ से शुरू होती है। कहानी इन्सान के अन्दर की दुनिया को खोलती है बाहर के ब्योरे गैरजरूरी तौर से नहीं देती है। कहानी मेरी नजर में वह है जो घटनाओं का उल्लेख न करके उस घटना के प्रभाव का वर्णन करे जो इन्सान पर बीती है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह लेखन रिर्पोताज भी हो सकता है और लेख भी कहला सकता है।
साहित्य लेखन में महिलाओं की क्या स्थिति है और उसका मूल्यांकन किस प्रकार किया जाता है?
हिन्दी साहित्य में महिलाओं का हमेशा से योगदान रहा है मगर हाँ, अब संख्या काफी बढ़ गई है। विभिन्न तरह के मुद्दों को लेकर उनकी कलम मुखर हुई है। यदि आप सवाल सम्पूर्ण औरत की स्थिति पर करते तो अच्छा होता है। अभी तक सही तरीके से हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन नहीं हो पाया तब उस लेखन के लिए क्या कहूं जो ग़ैरजरूरी तरीक़े से मुख्य धारा से अलग हो अपनी पहचान बनाने के संघर्ष में रत है।
विभिन्न साहित्यिक विमर्शों के सन्दर्भ में आपकी क्या मान्यता है। इसकी प्रासंगिकता के सन्दर्भ में आप क्या लिखती हैं।
बुनियादी तौर पर मैं साहित्य में खानाबन्दी की क़ायल नहीं हूँ। हम एक समाज में रहते हैं। समाज के बाँटे जाने पर एतराज करते हैं मगर वही काम हम अपने-अपने कार्य क्षेत्र में करने से बाज नहीं आते हैं। कुछ जुल्म हमारे यहाँ हुए हैं। उनका सिलसिला आज भी अफसोसनाक तरीके से जारी है मगर उसको इस तरह से खत्म करने की दलीलें कि विमर्श व आरक्षण देकर खत्म किया जाय न न्यायसंगत लगती है न तर्कसंगत लगती है। यही कारण है कि हम बहुत सारे मुद्दों से जूझने के बावजूद कहीं पहुंचे नहीं हैं।
कुछ लोगों का मत है कि आज की कहानी पाठकों से कट गई है। लेखक लेखकों से प्रशंसा प्राप्त करने के लिए लिखता है। क्या यह सही है?
इसमें कोई शक नहीं है कि आज पाठकों के वैसे खत नहीं मिलते हैं जैसे कि बीस वर्ष पहले मिलते थे। जिसमें कहानी पर जमकर बात होती थी। कहीं पर कुछ घटा तो है जो संवाद की स्थिति नहीं बन पाती है। इसमें कोई शक नहीं है कि हमने कुछ जगहों पर बेजा हस्तक्षेप कर उनको पीछे धकेल दिया है जिनकी राय और प्यार की हमें जरूरत होनी चाहिए। शायद इसी के चलते पाठकों में पुस्तक खरीदने की संख्या भी घटी है। पहले दाम ज्यादा फिर उपलब्ध नहीं। खरीद्दारी लाइब्रेरी या अन्य संस्थाओं में बल्क के रूप में होती है तो वहाँ पाठक नहीं। बात केवल लेखक, प्रकाशक, पाठक के बीच तक सीमित नहीं है बल्कि राजनीति का तंग दायरा और गैर जरूरी मुद्दों पर फोकस भी इस दुर्दशा में शामिल हैं।
हिन्दी कहानी साहित्य का भविष्य कैसा है?
हिन्दी में कहानियाँ लिखी जा रही हैं। बेहतर भी और खूबसूरत भी। जैसे-मधुसूदन आनन्द की जर्राह मेराज अहमद की अमरूद और हरी पत्तियाँ हसन जमाल की जमील मुहम्मद की बीवी', अब्दुल बिस्मिल्लाह की कागज के कारतूस', चित्रा मुद्गल की मिट्टी, रवीन्द्र कालिया की सुन्दरी बहुत देर तक याद रह जाने वाली कहानियाँ हैं। मगर परेशानी यह है कि हमारे कलम पर कुछ नाम चढ़ गये हैं। हम लगातार उसे दोहराते रहते हैं। कहानियों के नए नामों के लिए जगहें तंग हैं या फिर हम पढ़ते ही नहीं हैं क्योंकि भीड़ बहुत है। पत्रिकाएँ फिलहाल बहुत हैं। खेमे अंसख्य है। पैमाना तय नहीं, कसौटी का कोई प्रमाणिक मंच नहीं। अपनी ठफली अपना राग है। मगर यह समय निकल जायेगा। भुला दिए जाने के बाद भी बेहतर चीजें सामने आयेंगी। ऐसा हो रहा है। धूल, धुआँ, शोर, परिदृश्य को वक्ती तौर से धुंधला बना सकते हैं मगर कब तक?
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