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निजीकरण और दलित

जसराम हरनोटिया
आजादी के उपरान्त भारत को शक्तिशाली बनाने, एकता और अखण्डता के लिए निजी सम्पत्तियों उदाहरणार्थ-बैंक, बड़े-बड़े कल-कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण राष्ट्र निर्माताओं सर्वश्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, सरदार पटेल, डॉ० बी०आर० अम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम एवं श्रीमती इन्दिरा गाँधी आदि के द्वारा भारत की सपन्नता और उज्ज्वल भविष्य के लिए किया गया। जिसे राजीव गाँधी जैसे राष्ट्र सपूतों ने प्राणों की आहुति देते हुए भी फलीभूत किया। जिसके कारण गरीब, मजबूर, दलित सर्वहारा समाज के बच्चों को रोजगार मोहैया कराये गये। इस आर्थिक लाभ से निम्न वर्ग को गरीबी की रेखा से ऊपर उठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस कदम से कई लाभ दृष्टिगोचर हुए। लोगों को रोजगार मिले, गरीब से गरीब परिवार भी शिक्षा की ओर आकर्षित हुए जिससे देश में निरक्षरता की अपेक्षा साक्षरता आन्दोलन को बल मिला और दिन-प्रतिदिन शिक्षा के द्वार खुले तथा देश से अशिक्षा-तिमिर समाप्त होने लगा और राष्ट्र में शिक्षा आन्दोलन शिखर की ओर बढ़ने लगा, ज्ञान चक्षु खुलने लगे। प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा के प्रकाश से भविष्य को सुखदायक बनाने का मार्ग जो अवरुद्ध था, स्पष्ट दृष्टिगोचर होने से राष्ट्र चहुँमुखी प्रगति-पथ पर अग्रसर होने लगा।
पिछला जमाना याद आता है, जिसे बुद्ध कालीन युग कहा गया है, जब भारत में समता, भाईचारा और मैत्री का वातावरण स्थापित था, लेकिन रूढ़िवाद एवं अन्धविश्वास की संस्कृति इस सुखमय वातावरण को बरदाश्त (सहन) नहीं कर सकी और वर्ण व्यवस्था को पुनः लागू कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत को अनेक आक्रमणों को झेलते हुए गुलामी का मुँह देखते-देखते हजारों वर्ष बीते क्योंकि युद्ध में भारतीय समाज के सभी वर्णों को नहीं लड़ना पड़ता था, बल्कि तथाकथित क्षेत्रीय वर्ण को ही मुकाबला करना पड़ता था। उनके पराजित होने के उपरान्त क्षेत्रा की सभी जनता स्वतः गुलाम मान ली जाती थी।
भारत में रूढ़िवादी व्यवस्था यह भूल गई कि स्वतन्त्रता संग्राम में भारत का प्रत्येक नर-नारी, बूढ़ा-जवान, विद्यार्थी, किसान एवं मजदूर शामिल था और आजादी के लिए प्रत्येक वर्ग, वर्ण ने फाँसी के फंदों को चूमने में तथाकथित उच्च वर्ण अथवा जाति से भी आगे यहाँ का दलित, सर्वहारा पहली पंक्ति में खड़ा था अर्थात्‌ आजादी की लड़ाई में ऊँच-नीच एवं एक-दूसरे से नफरत को दफनाकर भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। इस सामूहिक स्वतन्त्रता आन्दोलन के कारण ही परतन्त्रता की बेड़ियों को तोड़कर भारत को स्वतन्त्र कराने में सफलता मिली। राष्ट्र निर्माताओं ने भारत को पुनः हरा-भरा खुशहाल बनाने का स्वप्न देखा। उस स्वप्न को साकार करने के लिए अनेक योजनायें बनाई गईं। स्वतन्त्र भारत के संविधान का बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर द्वारा निर्माण हुआ।
भारत की चहुँमुखी प्रगति के लिए ऐसे संविधान का निर्माण किया गया जिसमें भारत का प्रत्येक नागरिक, नर-नारी, शूद्र-अतिशूद्र एवं वंचित वर्ग को भी स्वतन्त्रता का अनुभव हो सके। प्रजातांत्रिक प्रणाली द्वारा राष्ट्रीय नेताओं के चुनाव के समय छोटे-बड़े, फुटपाथ पर बसेरा करने वालों से लेकर महलों में निवास करने वालों तक को मत का समान अधिकार हो, कर्तव्य एवं अधिकारों में कोई अन्तर न हो। सबको अपने-अपने धर्म में आस्था का पूर्ण अधिकार हो, भारत के प्रत्येक निवासी को सम्पत्ति, शिक्षा, कृषि, व्यापार आदि में समान अधिकार हो। समता पथ पर लाने के लिए ऐसे समाज को आरक्षण का प्रावधान हो जिसके लिए आजादी से पहले शिक्षा के द्वार बन्द थे, सम्पत्ति रखने के अधिकार नहीं थे, वंचित एवं अछूत माने जाते थे। भारत की नारी भी सछूत होते हुए गुलाम भारत के अधिकारों के लिए उपरोक्त श्रृंखला में ही रखी गई थी जिसको बराबरी के अधिकार स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त संवैधानिक अधिकार मिले। यद्यपि अधिकांश नारी-वर्ग इस जानकारी से आज भी अनभिज्ञ हैं कि संवैधानिक अधिकार किसने दिलवाये, कौन इनके अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे? इसका आभास होने के उपरान्त ही शोषण, भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता का विनाश अवश्य है। क्योंकि सत्ता बहुजन समाज के हाथ में होगी जो भारत का नव-निर्माण समता भाईचारे के पैटर्न पर (चलने) में सक्षम होगा।
आरक्षण का प्रावधान संविधान की धारा ३३४ तथा ३३५ के अनुसार दो भागों में बाँटा गया। एक आरक्षण का आधार सामाजिक-आर्थिक समता पर आधारित है। जिसके माध्यम से भारत के सभी पब्लिक सैक्टर में नौकरियों तथा पब्लिक सैक्टर के सभी उपकरणों (जिसमें आर्थिक लाभ की व्यवस्था है) कल-कारखानों तथा राष्ट्रीय सम्पत्तियों में जन संस्था के आधार पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति को भागीदारी का प्रावधान है। यह प्रावधान तब तक लागू रहेगा जब तक कि अनुसूचित जाति/जनजाति का सामाजिक तथा आर्थिक स्तर भारतीय समाज के बराबर न हो जाये। सामाजिक स्तर का तात्पर्य सामाजिक समानता अर्थात्‌ उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग में सामाजिक समता का सामन्जस्य होकर ऊँच-नीच की खाई को पाटना।
दूसरा भाग राजनैतिक आरक्षण जो केवल दस वर्षों के लिए ही जिसका तात्पर्य था, दलित समाज में राजनैतिक चेतना का आभास होना तथा इस राजनैतिक चेतना के माध्यम से संविधान की रक्षा के लिए पूर्ण अधिकारों का ज्ञान होना। लेकिन दुर्भाग्यवश यह राजनैतिक आरक्षण सभी राजनैतिक दलों को ऐसा भाया कि प्रत्येक दस वर्षों के उपरान्त इसे संसद के माध्यम से बढ़ाते रहते हैं। जिसके कारण भारतीय समाज में एक घृणा एवं द्वेषात्मक वातावरण पनपता जा रहा है कि इनका आरक्षण क्यों बढ़ाया जा रहा है। लेखक को यह कहते हुए कुछ संकोच भी होता है लेकिन सत्य है कि इस राजनैतिक आरक्षण के कारण सभी दलों में अधिकांश दलित गुलामों की भीड़ बढ़ रही है। कुछ अपवाद भी हैं जो राजनैतिक चेतना एवं अधिकारों के माध्यम से दलितों के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग रह कर संघर्ष भी करते रहे हैं और आज भी विद्यमान हैं। इस राजनैतिक आरक्षण को प्रत्येक दस वर्ष के बढ़ाने के कारण एक गहन चिन्तन का विषय भी बनता जा रहा है। सभी राजनैतिक दलों में यह भय भी दृष्टिगोचर होता है कि राजनैतिक आरक्षण समाप्त होने पर दलित वर्ग कहीं पुनः पृथक निर्वाचन की मांग करने के लिए इकट्ठा न हो जाये और अपनी राजनैतिक शक्ति के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक आरक्षण को प्रत्येक क्षेत्रा में पूरा करने के लिए सक्षम हो जाये अथवा राजसत्ता पर अपना अधिकार न कर ले? इसलिए इनकी संगठन शक्ति को स्वार्थहित राजनैतिक आरक्षण के नाम पर बाँटकर अलग-थलग रखना ही राजनैतिक दलों के हित में अधिक श्रेयस्कर एवं लाभदायक है।
यहाँ यह स्पष्ट करना भी उचित समझता हूँ कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री रमसे मैकडोल्ड के समक्ष भारत की एकता और अखण्डता के लिए दलित राष्ट्रभक्तों विशेषकर बाबा साहेब डॉ० बी०आर० अम्बेडकर जी ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारत के मूल निवासियों (आदिवासियों) के सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक हितों को सुरक्षित रखने के लिए अपना मांग पत्रा रखा था। उस मांग-पत्र के माध्यम से भारत के कर्णधारों-महात्मा गाँधी एवं बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर के बीच एक समझौता हुआ। यह लिखित समझौता २४ सितम्बर, १९३२ को नर्वदा जेल में हुआ था जिसे इतिहासकारों ने पूना पैक्ट के नाम से उजागर किया। यद्यपि दूसरे धार्मिक एवं राजनैतिक दल अंग्रेजों की भारत विभाजन के प्रपंची जाल में फंसकर भारत को विभाजित करने में सफल रहे लेकिन भारत का दलित यह गौरव एवं स्वाभिमान से कह सकता है कि हमारे राष्ट्रभक्तों एवं कर्णाधारों ने अनेक बार अंग्रेजों द्वारा उकसाने के बावजूद भी अपनी जन्मभूमि को विभाजित करने की कभी भी मांग नहीं की तथा भारत को अनेक खण्डों में टूटने (बंटने) से बचा लिया। इसीलिए भारत का दलित (मूलनिवासी) स्वाभिमान से कहता है कि यह भारत, हमारा भारत है। इसकी एकता और अखण्डता के लिए जीवन बलिदान करने में सर्वदा पहली पंक्ति में रहेंगे। लेकिन अपनी भागीदारी का संघर्ष जारी रहेगा। यद्यपि मान्यवर जिन्ना ने भी बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर को उकसाने में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा था कि भारत में आप छुआछूत आदि की घृणा के शिकार हैं फिर भी आप बंटवारे की बात नहीं करते। बल्कि एकता अखण्डता के साथ केवल अधिकार की बात करते हो। इसका सरल एवं छोटा उत्तर बाबा साहेब ने अपने शब्दों में दिया था कि भारत मेरे पुरखों की जन्मभूमि हैं जिस पर हमारा पूर्ण अधिकार था, इसलिए मुझे भारत से प्यार हैं। मैं भारत की कोई धन-जन की हानि बरदाश्त नहीं कर सकता।
भारत समाजवादी व्यवस्था से अतीत की भाँति पुनः समृद्ध राष्ट्र न बन जाये, विश्व में शान्ति एवं समता भाईचारे का सन्देश न दे सके, इसी षड्यन्त्र के अनुसार पूँजीपति राष्ट्र भारत को निजीकरण की ओर प्रभावित ही नहीं कर रहे अपितु दबाव भी बना रहे हैं। क्योंकि भारत विश्व में एक ऐसा विचित्रा राष्ट्र है जिसमें अनेक ऋतुएँ एवं इसके गर्भ में अनेक खनिज सम्पदा के भंडार तथा वैज्ञानिक दृष्टि से भी विलक्षण बुद्धि है। इतना ही नहीं इसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण पश्चिम तथा अधिकांश पूर्वी भाग में विशाल सागर है जो सुरक्षा की दृष्टि से भी सक्षम है। इसलिए ही इसकी शक्ति को क्षीण करने के लिए निजीकरण नामक संक्रामक कीटाणुओं के बीज बोये जा रहे हैं।
निजीकरण के नाम पर अरबों-करोड़ों रुपयों की संपत्तियों, कल-कारखानों को व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष को बेचा जा रहा है। जिसमें उपनिवेश के रूप में विदेशी कम्पनियों को भी आमंत्रिात किया जा रहा है। जिसका आर्थिक लाभ राष्ट्र को न होकर व्यक्ति विशेष अथवा विदेशी कम्पनियों को ही होगा। पब्लिक सैक्टर की अपेक्षा प्राइवेट सैक्टर में बड़े-बड़े हॉस्पिटल खोले जा रहे हैं जहाँ पर भारत का ८० प्रतिशत निवासी अपना इलाज नहीं करा सकता, क्योंकि वहाँ का इलाज इतना महंगा है कि आम आदमी के काबू से बाहर है। इतना ही नहीं सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा प्राइवेट स्तर पर मैडिकल कॉलिज, इंजीनियरिंग कॉलेज खोले जा रहे हैं। जिनकी फीस इतनी अधिक है कि पूँजीपतियों के अलावा साधारण भारत के किसान, मजदूर, दलित मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा लोगों की पहुँच से बाहर है, क्योंकि अंग्रेजी मीडियम के नाम पर फीस इतनी अधिक है कि भारत के दस-पन्द्रह प्रतिशत घराने के लोग ही इन विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा देते हैं। इतना ही नहीं अधिकांश विद्यालयों में प्रवेश के समय बिना डोनेशन के प्रवेश भी नहीं मिलता है। कितनी बड़ी विडम्बना हैं कि दूसरी ओर सरकारी विद्यालयों तथा अस्पतालों को जनसंख्या के आधार पर बहुत कम खोला जा रहा है। जिससे कि दोनों ओर बहुजन समाज का शोषण बढ़ता चला जाये और भारत में पुनः जातिवाद एवं रूढ़िवाद की घृणा एवं द्वेष का जहर बढ़ता-फैलता जाये और और भारत पुनः आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर हो जाये?
निजीक्षेत्र में आरक्षण के अधिकार की मांग उठने पर सक्षम वर्ग अथवा निजीकरण के हिमायती यह कहते नहीं थकते कि निजीकरण में आरक्षण का प्रावधान होने के कारण क्वालिटी और प्रोडक्शन गिर जायेगी। क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति एवं ओ०बी०सी० में कार्य क्षमता की कमी है। लेकिन निजीकरण के हिमायती क्षमता के नाम पर यह भूल जाते हैं कि स्पर्धा एवं कार्य क्षमता की जानकारी तब मिलती है जबकि उसे कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हो तथा शिक्षा का माध्यम एक हो। एक विद्यार्थी को आगे बढ़ने के लिए अर्थात्‌ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सभी साधन उपलब्ध कराये जाते हैं और दूसरे विद्यार्थी को उपयुक्त समय पर पुस्तक भी उपलब्ध नहीं हो पाती अथवा एक विद्यार्थी पर शिक्षा के नाम पर इतना पैसा खर्च किया जाता है, जिसमें गरीब, मजदूर, दलित सर्वहारा बहुजन समाज का पूरा परिवार अपनी जीविका चलाता है। इतना ही नहीं निजी विद्यालयों में भी लाखों रुपया दान देकर प्रवेश के नाम पर डिग्रियाँ प्राप्त की जाती हैं। उस समय स्पर्धा एवं कार्यक्षमता कहाँ चली जाती है? कार्यक्षमता एवं विलक्षण बुद्धि का प्रदर्शन उचित अवसर प्राप्त होने पर पता चलता है। इसके ज्वलन्त उदाहरण बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम जी हैं, जिन्होंने सु-अवसर प्राप्त होने पर अपनी विलक्षण बुद्धि एवं स्पर्धा का प्रदर्शन किया। बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर ने भारत के संविधान का निर्माण किया तथा दामोदर वैली (घाटी) पर बाँध बंधवाकर अपनी विलक्षण बुद्धि एवं राष्ट्र-निष्ठा का परिचय दिया। भारत जब भुखमरी के कगार पर खड़ा था, चारों ओर अन्नाभाव में हा-हा कार मचा हुआ था, पूर्णतः अमरीका तथा आस्ट्रेलिया से आयातित गेहूं पर ही निर्भर था। तब इन्दिरा गाँधी जी द्वारा बाबू जगजीवन राम को कृषि मंत्राालय सौंपा गया। बाबूजी धरती पुत्रा (कृषक पुत्र) होने के कारण पूर्णरूपेण विज्ञ थे कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए समय पर खाद, पानी और उच्च श्रेणी के बीज की आवश्यकता होती है। इसीलिए ही बाबू जी ने कृषि मंत्रालय के साथ-साथ खाद तथा सिंचाई विभाग लेकर समय पर खाद और पानी फसलों को उपलब्ध कराया था। नई दिल्ली के बड़े-बड़े बंगलों में गेहूँ तथा सब्जियाँ उगवाकर हरित क्रान्ति का उद्घोष किया। कुछ ही वर्षों में भारत अन्न, चीनी तथा दालों में आत्मनिर्भर ही नहीं हुआ बल्कि निर्यात करने की स्थिति में खड़ा हो गया था। वही स्थिति आज भी है। दूसरी ओर सदियों पहले से भारत विदेशी आक्रमणों के सामने हारता ही रहा, लेकिन भारत के रक्षा मंत्री पद का सुअवसर प्राप्त होने पर अपनी विलक्षण बुद्धि के बल से भविष्य दृष्टा की भांति भविष्यवाणी कर दी थी, यदि पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो युद्ध पाकिस्तान की भूमि पर ही होगा जो पूर्णतया सत्य सिद्ध हुआ। इतना ही नहीं पाकिस्तान पर विजय प्राप्त करके विश्व मानचित्रा पर पाकिस्तान को तोड़कर बंगलादेश स्थापित कर दिया।
इतना ही नहीं भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भी भारत के मूल निवासियों (दलितों) ने चाहे उधम सिंह जी रहे हों चाहे चेतराम जाटव, बांके चमार, वीरापासी, बल्लू महतर, बांके, मातादीन भंगी रहे हों, चाहे विरांगना झलकारी रही हो अथवा महावीरी भंगिनी रही हो, ऐसे लाखों दलित राष्ट्र दीवाने फाँसी के फंदों को चूमकर शहीद हुए लेकिन कभी भी पीठ नहीं दिखाई। यह किसी से छिपा नहीं बल्कि इतिहासकारों की कलम उनकी वीरता के इतिहास लिखते समय कुंठित-सी हो गई थी।
भारत के निजी विद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलिजों, मेडिकल कॉलिजों, अस्पतालों एवं कल-कारखानों को सस्ते दामों पर भूमि आबंटित की जाती है, भारतीय कोष से उनके निर्माण के लिए आसान किस्तों एवं सस्ते ब्याज पर धन दिया जाता है। सड़कें, बिजली, पानी आदि सुविधा उपलब्ध करायी जाती हैं, जिसमें सार्वजनिक धन का उपयोग होता है। कैसी विडम्बना है कि धन सरकार का जो सार्वजनिक और उसका लाभ व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष को। अब बहुजन समाज अधिक समय तक इसे अनदेखा नहीं कर सकेगा। भारत की सम्पत्ति पर प्रत्येक भारतीय का अधिकार है। उसमें जनसंख्या के आधार पर भागीदारी होनी चाहिए। इसके अलावा अनछुए मुद्दों पर दृष्टि डालनी होगी। उदाहरण के तौर पर हाईकोट, सुप्रीम कोर्ट में नोमिनेशन नहीं सलेक्शन होना चाहिए। न्यायपालिका का प्राधिकरण होना चाहिए जिससे प्रत्येक भारतीय सुअवसर प्राप्त करके अपनी विलक्षण बुद्धि और कार्यक्षमता का प्रदर्शन राष्ट्रहित में कर सके।
राष्ट्रहित में तो यह अधिक लाभकारी एवं हितकर होगा कि शिक्षा का स्तर एक हो, सभी परीक्षाओं एवं उच्च शिक्षा के लिए एक भाषा माध्यम हो ताकि एक ही सैलेबस हो सके। विद्यालय प्रवेश के समय जाति/उपजाति तथा धर्म का कालम समाप्त कर दिया जाये और इनके स्थान पर राष्ट्रीयता को प्रबल समर्थन देकर राष्ट्र एकता, अखण्डता तथा भाईचारे का अत्यधिक सुदृढ़ मार्ग राष्ट्र के कर्णाधारों ने प्रसन्न नहीं किया तो विघटनकारी ताकतें राष्ट्र को हानि पहुँचाने के लिए मुँह उठा सकती हैं?
आजादी के वे दीवाने जो भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए फांसी के फंदे चूमते हुए नींव के पत्थर बन गये, राष्ट्र निर्माताओं ने ऐसा कभी नहीं सोचा होगा कि टुकड़ों में (रियासतों में) बंटे भारत को विशाल भारत बनाने के उपरान्त, निजीकरण एवं विदेशी निवेश का नारा देकर उनका अपमान किया जायेगा अथवा किसी राष्ट्र विशेष के प्रभाव या दबाव में आकर ऐसे कदम उठाये जायेंगे जिससे राष्ट्र पुनः आर्थिक परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ जाये और उन राष्ट्र निर्माताओं का अपमान हो? इस समय स्थिति बड़ी भ्रामक एवं भयावह है। यदि ऐसा हुआ तो उन राष्ट्रभक्तों एवं निर्माताओं के सपूत पुनः प्रताड़ना एवं अपमान सहकर किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार हैं।
इसकी गरिमा को किसी भी कीमत अथवा त्याग से सुरक्षित रखा जायेगा। किसी भी राजसत्ता राजनैतिक दल ने उन राष्ट्र भक्तों के विश्वास एवं निष्ठा के विरुद्ध कोई कदम उठाने की अनाधिकार चेष्टा की तो उसका परिणाम वही होगा जो अभी भूत में हुआ है?

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