कवि अनातोली पारपरा
रूसी कविता
अनुवाद अनिल जनविजय
इस तन्हाई में फकीरे
दिन बीते धीरे-धीरे
यहाँ सागर की राहों में
कभी नभ में छाते बादल
बजते ज्यूँ बजता मादल
मन हर्षित होते घटाओं के
सागर का खारा पानी
धूप से हो जाता धानी
रंग लहके पीत छटाओं के
जब याद घर की आती
मन को बेहद भरमाती
स्वर आकुल होते चाहों के
बस श्वेत-सलेटी पाखी
जब उड़ दे जाते झाँकी
मलहम लगती कुछ आहों पे
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रूसी कविता
अनुवाद अनिल जनविजय
इस तन्हाई में फकीरे
दिन बीते धीरे-धीरे
यहाँ सागर की राहों में
कभी नभ में छाते बादल
बजते ज्यूँ बजता मादल
मन हर्षित होते घटाओं के
सागर का खारा पानी
धूप से हो जाता धानी
रंग लहके पीत छटाओं के
जब याद घर की आती
मन को बेहद भरमाती
स्वर आकुल होते चाहों के
बस श्वेत-सलेटी पाखी
जब उड़ दे जाते झाँकी
मलहम लगती कुछ आहों पे
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