प्राण शर्मा
हरी धरती, खुले - नीले गगन को छोड़ आया हूँ
की कुछ सिक्कों की खातिर मैं वतन को छोड़ आया हूँ
विदेशी भूमि पर माना लिए फिरता हूँ तन लेकिन
वतन की सौंधी मिट्टी में मैं मन को छोड़ आया हूँ
पराये घर में कब मिलता है अपने घर के जैसा सुख
मगर मैं हूँ की घर के चैन - धन को छोड़ आया हूँ
नहीं भूलेंगी जीवन भर वो सब अठखेलियाँ अपनी
जवानी के सुरीले बांकपन को छोड़ आया हूँ
समाई है मेरे मन में अभी तक खुशबुएँ उसकी
भले ही फूलों से महके चमन को छोड़ आया हूँ
कभी गाली कभी टंटा कभी खिलवाड़ यारों से
बहुत पीछे हँसी के उस चलन को छोड़ आया हूँ
कोई हमदर्द था अपना कोई था चाहने वाला
हृदय के पास बसते हमवतन को छोड़ आया हूँ
कहाँ होती है कोई मीठी बोली अपनी बोली सी
मगर मैं "प्राण" हिन्दी की फबन को छोड़ आया हूँ
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द्वारा - चाँद शुक्ला हदियाबादी www.radiosabrang.com
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