Skip to main content

अम्बेडकर के विचारों की अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य है : ओमप्रकाश वाल्मीकि

डॉ. शगुफ्ता नियाज
पारिवारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइये?
मैं, बरला, मुजफ्फर नगर के एक साधारण परिवार में पैदा हुआ और उन दिनों दलित परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। जो स्कूल जाने की कोशिश करते थे, उनको जाने नहीं दिया जाता था। जो जाना भी चाहते थे, उनको रोकने की कोशिश की जाती थी। जो पहुँच जाते थे, उनको भगाने की कोशिश की जाती थी। शिक्षकों की मानसिकता जातिवादी होती थी और वे ऐसा कोई मौका नहीं चूकते थे जहाँ वे जाति के आधार पर अपमानित किया जा सके। बचपन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनका चित्रण मैंने जूठन में किया है जो दलित जीवन के दग्ध अनुभव हैं। ऐसी स्थितियों में शिक्षा पाना बहुत मुश्किल होता था। परिवार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं होती थी कि शिक्षा ग्रहण कर सके। इन हालात में शिक्षा पाकर साहित्य की तरफ मुड़ना बहुत ही मुश्किल काम था, लेकिन मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता रहा मेरे मन में साहित्य के प्रति आकर्षण भी बढ़ा और साहित्य ने ही मुझे हीनता-बोध से बाहर निकाला और जब मैं ७-८वीं कक्षा में था, तभी से कविता, कहानी लिखने की कोशिश करने लगा था, लेकिन सही दिशा मुझे मिली जब मैंने महाराष्ट्र में दलित पेंथर के आन्दोलन को बहुत करीब से देखा और डॉ. अम्बेडकर के जीवन दर्शन को अपनी व्यथा-कथाओं में अभिव्यक्त करने की प्रेरणा मिली।
आपकी नजरों में दलित कौन है? शब्द दलित क्यों और कब प्रचलन में आया?
अगर सीधे-सीधे दलित को परिभाषित किया जाये, तो दलित वह है, जिसे संविधान में अनुसूचित जाति, जनजाति कहाँ गया है और जिसे सामाजिक जीवन में उसके मानवीय हक़ों से दूर रखा गया है। वर्ण-व्यवस्था में जो अस्पृश्य, अन्त्यज, अछूत है, वही दलित है।
दलित शब्द डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से बाहर आया है और इसे राष्ट्र स्तर पर स्वीकार किया गया। ऐसा पहली बार हुआ है कि दलितों ने दलितों द्वारा अपने लिए किसी शब्द को चुना। अभी तक जितने भी शब्द दिये गये थे, वे तमाम शब्द गैर दलितों द्वारा दिये गये थे, इस शब्द ने उनकी आकांक्षा और अस्मिता को एक पहचान दी है। इस शब्द का प्रचलन तब और अधिक बढ़ा जब मराठी दलित साहित्य आन्दोलन का सूत्रापात हुआ। आज यह शब्द संघर्ष का प्रतीक बन गया है।
आपकी दृष्टि में दलित साहित्य क्या है? दलित साहित्य के सैद्धान्तिक पक्ष पर अपनी राय प्रकट कीजिए?
दलित साहित्य वही साहित्य है जिसमें दलितों की पीड़ा की अभिव्यक्ति हो और जिसकी अन्तर्ऊर्जा में दलित चेतना का समावेश हो। दलित चेतना का केन्द्र बिन्दु हजारों साल का उत्पीड़न, शोषण है और उससे मुक्त होने की कोशिश ही दलित चेतना है। दलित चेतना का सरोकार डॉ. अम्बेडकर के जीवन संघर्ष से जुड़ता है। इसीलिए हम यूं भी कह सकते हैं कि जिस साहित्य में अम्बेडकर विचार हो वही दलित साहित्य है। अम्बेडकर के विचार से विहीन साहित्य, भले ही वह लिखा हो किसी दलित ने वह हरिजन साहित्य हो सकता है, लेकिन दलित साहित्य नहीं हो सकता है। यदि कोई गैर दलित इस विचार के तहत अपनी रचनाधर्मिता की अभिव्यक्ति करता है तो उसे भी हम दलित साहित्य कह सकते हैं। लेकिन गैर दलित को जातीय भावना से मुक्त होना चाहिए, वर्ण व्यवस्था में अटूट विश्वास रखने वाला कोई लेखक दलित साहित्य लिखेगा तो वह सिर्फ दिखावा ही होगा।
हिन्दी साहित्य के सौन्दयशास्त्र और दलित साहित्य के सौन्दयच्चास्त्र में आपको कोई भेद लगता है। अगर लगता है तो बताने का कष्ट करें।
हिन्दी साहित्य का सौन्दयशास्त्र संस्कृत के काव्य शास्त्र के आधार पर तैयार किया गया है। जिसके तहत उसकी तमाम मान्यताएं सामंतवादी हैं और उसके जीवन मूल्य ब्राह्मणवादी विचारधारा से संचालित होते हैं। उस साहित्य में आनन्द और रस की जो महत्ता स्थापित होती है, उसे दलित साहित्य स्वीकार नहीं करता है। दलित साहित्य आनंद के लिए नहीं लिखा जाता है, बल्कि मनुष्य की स्वतंत्राता, समता, भाई चारे की भावना को महत्ता देता है और उसके केन्द्र में मनुष्य ही सर्वोपरि है। उन तमाम मान्यताओं का विरोध करता है, जिनमें महाकाव्यों का नायक उच्च कुलोत्पन्न होना चाहिए। ऐसी तमाम चीजों को दलित साहित्य स्वीकार नहीं करता साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था जो वर्ण व्यवस्था से संचालित होती है। उसे मनुष्य विरोधी मानता है।
आपकी दृष्टि में दलित-चेतना क्या है?
जैसा कि उससे पहले कहा गया है कि दलित चेतना हजारों साल के उत्पीड़न से मुक्त होने की इच्छा ही दलित चेतना है।
दलित लेखन में दलित लेखकों और गैर-दलित लेखकों की अपनी-अपनी भूमिकाएँ क्या हैं? क्या ग़ैर दलित लेखक दलित साहित्य के प्रति पूर्व धारणा से ग्रस्त है साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे कि क्या दलित साहित्यकारों पर सवर्ण विचारधारा का प्रभाव है?
दलित लेखन में दलित लेखकों और गैर दलित लेखकों की भूमिकाएँ अलग-अलग ही हैं। अभी तक जो हिन्दी साहित्य में गैर दलित लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य सामने आया है उसका मुख्य स्वर यथास्थिति बनाए रखने का है। वह आदर्शवादी और सुधारवादी दृष्टिकोण के तहत लिखा गया है, और एक मुख्य बात है कि उन रचनाओं में दलित व्इरमबज की तरह इस्तेमाल हुए हैं, ...की तरह नहीं। जहाँ ... की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश हुई है, वहाँ भी दलितों के आन्तरिक चित्रण का अभाव दिखाई पड़ता है। दलित लेखकों ने दलित पात्रों को ...की तरह लिखा और उनकी सामाजिक भूमिकाओं को प्रतिबद्धता के साथ चित्रित किया है। जहाँ तक दलित साहित्यकारों पर सवर्णों के प्रभाव का कारण है। दलित साहित्य के पूर्व अनेक रचनाकार उसी प्रभाव में आकर लेखन कार्य कर रहे थे। आज भी ऐसे अनेक जन्मा दलित लेखक हैं जो कहते हैं वे दलित लेखक नहीं हैं। उनकी रचनाओं में सवर्ण-सोच का प्रभाव दिखायी पड़ता है, उनकी रचनाओं में दलित चेतना और दलित-संघर्ष का अभाव साफ-साफ देखा जा सकता है।
सदियों का सन्ताप और बस बहुत हो चुका आपके दो कविता संग्रह है। सलाम एवं घुसपैठिए आपके कहानी संग्रह है तथा जूठन आपकी आत्मकथा है। दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र पुस्तक भी आपने लिखी है। मैं जानना चाहती हूं कि आपको दलित साहित्य की रचना करने में कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्या सवर्णों के अलावा आपके अपनों ने भी आपको आहत किया?
जब मैंने लिखना शुरू किया तो बहुत सारी कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ मेरे सामने थीं। छपने-छपाने की समस्याओं से भी जूझना पड़ा। उस समय की चर्चित पत्रिका सारिका ने दस वर्ष तक मेरी कहानी अपने पास रखकर लौटाई थी इस आशय के साथ यदि और इन्तजार कर सकते हैं तो भेज दीजिए हम उसे छापेंगे। अब आप इसी से अन्दाज लगा सकते हैं कि हिन्दी सम्पादकों का रवैया दलित लेखक के साथ कैसा रहा, किसी भी लेखक के लिए दस वर्ष बहुत होते हैं लेकिन सम्पादकों को यह करते समय कतई शर्मिन्दगी नहीं हुई और वे लगातार दलित रचनाओं के साथ यही करते रहे। जहाँ तक अपनों का सवाल है, ऐसे कई दलित प्रकाशक थे जिनके पास मैं अपनी पुस्तकें लेकर गया, लेकिन वहाँ भी जातिवाद कुण्डली मारे बैठा था और दलित लेखकों में मैं अकेला लेखक था जिसकी कोई भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी।
दलित कविता लिखने का विचार आपके मन में कब और कैसे आया?
मैंने अपने बचपन में ही इस बात को महसूस कर लिया था कि हमारा समाज तमाम प्रताड़नाओं, उत्पीड़न, शोषण को चुपचाप सह रहा है। ऐसा नहीं है कि उसको बयान नहीं करते थे। वे अपने घरों में या बिरादरी के छोटे-मोटे समारोहों या कार्यक्रमों में शोषण के खिलाफ बोलते थे। लेकिन उनकी आवाज अनसुनी रह जाती थी, और जब मेरा परिचय साहित्य से हुआ तो मुझे लगा कि साहित्य ही इस आवाज को दूसरों तक पहुंचा सकता है। मैंने बचपन में ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं।
कहानी लिखने के पीछे कौन-सा दर्द छिपा है?
कहानी लिखने के पीछे भी वही स्थितियाँ मौजूद थीं जो बात कविता में सीधे-सीधे नहीं कही जा सकती है। वह कहानी के माध्यम से ज्यादा आसानी से लोगों तक जा सकती है। जीवन का यथार्थ, उसके उसी रूप में, जैसा मौजूद है, पाठकों तक पहुंचाने में कहानी विधा की अपनी महत्ता है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कथाकथन कार्यक्रमों के माध्यम से ये अनुभव और ज्यादा गहरे हुए थे। दिल्ली की दलित बस्तियों में राजेन्द्र यादव जी के साथ ऐसे अनेक कार्यक्रम हुए जहां आम आदमी सीधे कहानियों से जुड़ता था।
डॉ. अम्बेडकर और महात्मा गाँधी में से प्रेमचन्द पर किसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। क्या प्रेमचन्द का कुछ लेखन दलितों के लिए समर्पित है?
प्रेमचन्द पर गाँधी के प्रभाव से पहले आर्य समाज का प्रभाव था। उनकी बहुत सारी रचनाएं आदर्शवाद की मानसिकता के साथ लिखी गईं। बाद में वे गाँधी जी के प्रभाव में आते हैं और कर्मभूमि, रंगभूमि जैसी रचनाएं लिखते हैं। अम्बेडकर का प्रभाव उन पर सीधे-सीधे नहीं दिखाई देता लेकिन सामाजिक दबाव के तहत उन्होंने कुछ ऐसी कहानियाँ लिखीं, जिन पर अम्बेडकर का प्रभाव साफ दिखाई पड़ता है। उदाहरण के तौर पर ठाकुर का कुंआ, दूध का दाम और मंत्र जैसी कहानियाँ अम्बेडकर के प्रभाव की कहानियाँ हैं। लेकिन ३५० कहानियों में से तीन-चार कहानियाँ लिखकर वे दलित के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। उनकी ज्यादातर कहानियाँ गाँधीवादी प्रभाव के सुधारवादी दृष्टिकोण की कहानियाँ हैं।
दलित साहित्य के बारे में हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचकों का नजरिया क्या है?
आरम्भिक दौर में हिन्दी के आलोचकों का नजरिया दलित साहित्य के प्रति नकारात्मक ही रहा है। आज भी ऐसे अनेक आलोचक हैं जो दलित साहित्य को साहित्य मानने को तैयार नहीं हैं। लेकिन दलित साहित्य को ऐसे आलोचकों की स्वीकृति की जरूरत नहीं है, क्योंकि दलित साहित्य का फलक व्यापक है। वह समाज की बेहतरी के लिए समर्पित है और समाज में बदलाव की प्रक्रिया का समर्थक है। उसका उद्देश्य भिन्न है। जो लोग भारतीय समाज व्यवस्था के समर्थक हैं उन्हें दलित साहित्य क्यों स्वीकार होगा। ऐसे आलोचक ब्राह्मणवादी मानसिकता के साथ साहित्य को पढ़ते हैं।
दलित विमर्श पर आज लगभग हर पत्रिाका अपने विशेषांक निकाल रही है। क्या दलित विशेषांक निकालने वालों के यथार्थ से अवगत करायेंगे साथ ही यह भी बताना चाहेंगे कि दलित विमर्श के पीछे का विमर्श क्या है?
हाँ, प्रत्येक पत्रिाका दलित विशेषांक निकाल रही है लेकिन उनमें से बहुत सारी पत्रिकायें हैं, जो आज भी दलित रचनाकारों को छापने का मन नहीं बना पा रही हैं। बल्कि उनके विरोध में ही कभी टिप्पणियाँ, कभी लेख प्रकाशित करने में पीछे नहीं हैं। इसीलिए ऐसे सम्पादकों के तमाम गठजोड़ कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते हैं। ऐसे सम्पादकों को अवसरवाद के बजाए पहले अपनी मानसिकता को बदलना होगा और दलित विमर्श में सक्रिय भागीदारी करनी होगी। दलित विशेषांक निकालने से पहले दलित रचनाओं को स्थान देना होगा। दलित साहित्य के उद्देश्य को भी समझना होगा।
दलित और स्त्रीदोनों ही सामाजिक शोषण के शिकार रहे हैं। क्या आप इससे सहमत है?
हाँ, बिलकुल सहमत हूँ। मैं स्वयं इस बात को मानता हूँ जिन स्थितियों से दलितों को गुजरना पड़ा है। उन्हीं स्थितियों से स्त्रियाँ भी गुजर रही हैं। दलित यदि मन्दिरों में नहीं जा सकते हैं तो दक्षिण के एक मन्दिर में स्त्री के प्रवेश को लेकर हंगामा मचा हुआ है। दलित के भगवान की मूर्ति छू लेने से भगवान अपवित्रहो जाते हैं वही स्थिति महिलाओं की भी है। दक्षिण ही नहीं उत्तर भारत में अनेक ऐसे मन्दिर हैं जहाँ स्त्रियों के प्रवेश को निषेध किया गया है। घरेलू स्तर पर भी स्त्रियों के अधिकार नगण्य हैं। उन्हें पांव की जूती मानने वालों की कमी नहीं। तरह-तरह के बंधनों में उन्हें जकड़ा हुआ है और यह सब धर्म और संस्कृति के नाम पर होता है।
दलित साहित्य को लेकर आपकी भविष्य में क्या रणनीति है और क्या योजना है?
दलित साहित्य को लेकर भविष्य में रणनीति और योजना को लेकर इस तरह अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता है। किसी एक लेखक के करने से कुछ नहीं होता। एक समूह होता है लेखकों का। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से आने वाले समय को तय करता है।
वरिष्ठ दलित साहित्यकारों ने मार्ग तैयार किया है उस पर चलने के लिए उभरते दलित रचनाकारों का आप कैसे मार्ग दर्शन करना चाहेंगे?
उभरते रचनाकारों को अपनी दृष्टि को साफ करने के लिए अपनी अध्ययनशीलता को बढ़ाना होगा और साहित्य के सरोकारों को गम्भीरता के साथ विश्लेषण करके समझना होगा। आज जिस तरह से स्थितियां बदल रही हैं, उनमें कई तरह की चुनौतियाँ हमारे सामने हैं। उन चुनौतियों को दूर करना और अपनी प्रतिबद्धता के द्वारा समाज में बदलाव की प्रक्रिया को, रचनाओं के द्वारा रेखांकित करना होगा।
क्या हिन्दी दलित साहित्य पर मराठी दलित साहित्य का प्रभाव है?
दलित साहित्य की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई है और डॉ. अम्बेडकर का आन्दोलन भी पहले महाराष्ट्र में शुरू हुआ और इसके बाद ही देश के अन्य राज्यों में उसका विस्तार हुआ। इस विस्तार के कारण ही हिन्दी में दलित साहित्य का विकास हुआ और यह कोई अनुचित बात नहीं है। एक जगह से दूसरी जगह पर साहित्य का प्रभाव पड़ता है। हिन्दी में इससे पूर्व ऐसी घटनाएं हुई हैं। भक्ति काव्य दक्षिण के प्रभाव से शुरू हुआ। छायावाद पर यूरोप के रोमान्टिक प्रभाव को देखा जा सकता है। निराला पर विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रेमचन्द पर आर्य समाज का प्रभाव, गाँधीवाद का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद पर मार्क्स का प्रभाव देखा जा सकता है। जनवादी दौर की तमाम कहानियाँ वामपंथी प्रभाव से मुक्त नहीं हैं।
आप कहानियाँ लिखते हैं आप अपनी कहानियों के माध्यम से शोषितों को क्या संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं, विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे, साथ ही यह भी बताने का कष्ट करेंगे कि समाज में घुसपैठिए कहाँ-कहाँ पर मौजूद हैं?
कहानी मैं सिर्फ शोषितों के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मैं कहानियाँ लिख रहा हूँ शोषितों के दर्द को, उनकी वाणी को शब्द देने के लिए ताकि शोषकों के छद्म और शोषण की सही-सही तस्वीर साहित्य के माध्यम से लोगों तक जा सके। वे तमाम लोग जो ये कहते हैं कि देश में जातिवाद नहीं है उन्हें बताया जा सके कि देश में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और जहाँ तक घुसपैठियों का सवाल है ऐसे लोगों की कमी नहीं है। जो दलितों की हर-एक गतिविधि को अपने कार्य क्षेत्रों में अनावश्यक घुसपैठ मानते हैं। जबकि यह उनकी घुसपैठ नहीं, बल्कि ये उनका मौलिक अधिकार है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकें।
कुछ दलित साहित्यकार अपने को डॉ. अम्बेडकर से भी बड़ा स्थापित करने की जुगाड़ में रहते हैं? उनसे दलित साहित्य का कितना भला होगा।
ऐसे लोगों से साहित्य का भला तो बाद की बात है, वे पहले अपने को ही बड़ा बना लें और यदि कोई व्यक्ति डॉ. अम्बेडकर से अपने को ही बड़ा बना लेता है तो यह हीनता की नहीं गर्व की बात होगी लेकिन उससे पहले उसे अपने इर्द-गिर्द अच्छी तरह से देख लेना चाहिए कि वह कहाँ खड़ा है। झूठ ज्यादा दिन नहीं चलता, मुखौटे में भी चेहरा तो दिखायी दे ही जाता है।
साहित्य में दलित विमर्श क्या है? साहित्य में यह कब प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है?
साहित्य में दलित विमर्श से सीधा-सीधा तात्पर्य दलित साहित्य आन्दोलन और अम्बेडकर विचारधारा से है। इसका सूत्रापात डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से हुआ जो आज भी जारी है। यह विमर्श दलित मुक्ति से जुड़ा है।
दलित आन्दोलन का दलितों के व्यापक धरातल पर क्या कोई प्रभाव पड़ रहा है? अगर पड़ रहा है तो किस प्रकार?
बिलकुल पड़ रहा है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दलितों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है। जिसकी प्रेरणा उन्हें दलित आन्दोलन से ही मिली है और भविष्य में भी इसके सकारात्मक परिणाम दिखायी देंगे। आज दलितों में मुक्ति की छटपटाहट बढ़ी है। वे समाज में समता, बंधुता के लिए संघर्षरत हैं और यह सब दलित आन्दोलन से प्रेरित होकर हुआ है, इसमें दलित साहित्य ने सकारात्मक भूमिका निभायी है।
****************************************************

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी