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नारेबाजी से कविता कमजोर होती है : डॉ. मलखान सिंह सिसौदिया

डॉ. राजेश कुमार
आपकी पहली प्रकाशित कविता कौन-सी है?
मेरी पहली प्रकाशित कविता शोणित के नाले' है। यह कविता ४३-४४ में हंस में प्रकाशित हुई। इस कविता में मेरे कवि-व्यक्तित्व की व्यंजना है। मेरे प्रथम कविता-संग्रह बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ में यह कविता है। प्रगतिशील आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने मेरी इस कविता की जमकर प्रशंसा की है।
आपकी शोणित के नाले कविता में दुर्धर्ष अपराजेयता, बीमारी से लड़ने का भाव तथा मानवता का विचार-बोध निहित है। सुना जाता है कि यह कविता आपने बीमारी के दौरान ही लिखी थी। क्या इस कविता को आपके संस्कार-वृक्ष की बीज कविता कहा जा सकता है।
हाँ, आपने एकदम ठीक सोचा है। जरा कविता सुनिए -
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले।
क्यों मेरे ही दरवाजे पर रोगों ने डेरे डाले?
मन ने तन से कहा, साथ दो, पर पाया कोरा उत्तर।
हुए तटस्थ कुटुम्बी साथी कुछ आतंकित-से होकर॥
किन्तु न वे कायर सब मुझको हतोत्साह करने वाले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
युग से पिछड़े हुए हितैषी सड़ी सीख देने आते।
मैं अपनी रस्सियाँ तोड़ता, वे अपनी ताने जाते।
वे न साथ मेरा दे सकते, मैं भी खूब समझता हूँ।
चलता अपने पाँव, नियति का टूटा यान न चढ़ता हूँ।
तोल लिया मैंने अपना बल, देखूँ फौलादी ताले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
डट कर लड़ने की शिक्षा ही मिली दूध में माता के।
फिर मैं क्यों परवाह करूँ, क्या अक्षर किसी विधाता के?
मानव का लोहू बहता है मेरी स्फीत शिराओं में।
है प्रहार करने की ताकत अब भी सुदृढ़ भुजाओ में।
शीघ्र समझ लेंगी बाधाएँ पड़ीं कि वे किसके पाले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
धरती किसकी, मानव की या दानव की? होता निर्णय।
उसमें मेरा कितना हिस्सा, इसका भी मुझको निश्चय।
इसीलिए मैं आज मौत का पंजा भी मरोड़ दूँगा।
इस्पाती मुक्के से बीमारी की कमर तोड़ दूँगा।
युग-हलचल से देखूं मुझको कौन दूर रखने वाले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥'
यह कविता मेरे संस्कारों की बीज कविता ही है। इसमें दुनिया को बेहतर बनाने का माद्दा मिलता है। मेरी यह विचारधारा बाद में कविता-संग्रहों में भी पाई जाती है। इस कविता में तीन प्रमुख बातों पर ध्यान है। पहली बात है- दुनिया के भविष्य की चिन्ता, दूसरी बात है-अपने स्वास्थ्य की चिन्ता तथा तीसरी बात है-युगीन अंधजड़ता के प्रति प्रतिवाद तथा विद्रोह का भाव। मुझे क्रॉनिक मलेरिया था। उन दिनों यह बहुत खतरनाक था, मैं रजाई ओढ़े हुए काँप रहा था। मेरे पिताजी मेरे ऊपर लेटे हुए थे। मैं तब इन पंक्तियों को बुदबुदा रहा था-
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले।
क्यों मेरे ही दरवाजे पर रोगों ने डेरे डाले?
आपके कविता-संग्रह बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ' में गाँधी-जिन्ना मिलन पर एक कविता है-देश के दो हाथ मिलकर। गाँधी-जिन्ना मिलन की असफलता पर आप क्या कहेंगे।
जिन्ना की जड़ता तथा हठधर्मिता के कारण यह वार्ता परिणाम हीन रही। एकता स्थापित करने के लिए जितना उद्योग गाँधी कर सकते थे, उन्होंने किया। लेकिन जिन्ना अपनी जिद पर अड़े रहे। अंततः बातचीत बेनतीजा रही।
आपकी कुछ कविताओं में राजनैतिक चेतना है। मेरे विचार से राजनैतिक पूर्वग्रहों से कविता की शक्ति कमजोर होती है। इस सम्बन्ध में आपका क्या अभिमत है।
आपका कथन लगभग सही है। आज के जीवन में राजनीति का स्थान बन गया है। आज की राजनीति जीवन परक है। कविताओं में राजनैतिक चेतना नहीं होनी चाहिए। नारेबाजी से कविता कमजोर होती है। प्रगतिशील कविता में जहाँ नारेबाजी है, वहाँ संवेदनात्मकता का अभाव है। सांस्कृतिक चेतना के अभ्युदय से कविता प्राणवान्‌ होती है। मेरी कुछ कविताओं में राजनैतिक चेतना होने से कविता की शक्ति कमजोर हुई है। बाद में मैं किसी भी प्रकार के पूर्वग्रह से मुक्त हो गया हूँ। मैंने कोशिश की है कि कविता नारेबाजी से बचे। लाल सेना की नारेबाजी से बचकर साहित्य लिखा जाता, तो बेहतर होता। त्रिालोचन की कविताएँ इस दृष्टि से बेजोड़ हैं। वे भारतीय जन-संदर्भों से कविता ऊँचाई पर ले जाते हैं।
१९६५ के भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में सूली और शांति आपका लोकप्रिय काव्य-ग्रन्थ है। इस काव्य-ग्रन्थ में कश्मीर के प्राकृतिक सौन्दर्य का जैसा चित्रण है, वैसा अन्यत्रदुर्लभ है। इसमें युद्ध का वर्णन भी अद्भुत है। इस ग्रन्थ के बारे में आपकी क्या राय है।
सूली और शांति भावदशा और मनोदशा की अच्छी कृति है। कश्मीर-सुषमा की प्रशंसा रामविलास जी ने भी की है। १९५९ के आस पास कश्मीर में एक भ्रमणकारी दल के साथ गया। भ्रमणकारी योजना केन्द्र की थी। इसमें करीब सौ लोग गए थे। डलझील के किनारे निशातबाग था। इसमें हम ठहरे थे। सुबह बसों में निकल जाते थे, रात को आते थे। इसलिए इस वर्णन में इतना यथार्थ है। चेकोस्लोवाकिया का एक युवा भी यहीं मिल गया। वह हिन्दी-प्रेमी भी था। युद्ध का वर्णन रेडियो सुनने तथा समाचार-पत्र पढ़ने के आधार पर है। लोगों ने इसे सराहा है।
डाक्टर साहब, क्या आप अपनी साहित्यिक उपलब्धियों से परितुष्ट हैं।
अगर मुझे चार-पाँच वर्ष और मिल जाएँ, तो साहित्य के लिए कुछ विशिष्ट दे सकूँगा। एटा में रहने के कारण वह नहीं दे सका, जो मुझे देना चाहिए था। साहित्यिक क्षेत्र में दो चीजें बाधक बनीं-छोटी जगह, प्रधानाचार्य का पद। मैं अविनाशी सहाय आर्य इण्टर कालेज, एटा का प्रधानाचार्य रहा। यह स्कूल आर.एस.एस. का था। यहाँ दक्षिणपंथी लोग (आर.एस.एस. के लोग) ज्यादा थे। इन लोगों ने साहित्य में बाधा पहुँचाई। मुझे कालेज के प्रबन्धक परेशान करते रहे। मैं ईमानदार था। कोई मेरा बाल बाँका नहीं कर सका। आजकल संपाति-चिन्ता नामक प्रबन्ध-काव्य लिख रहा हूँ। यदि पूरा कर सका, तो ठीक होगा। इसमें मैंने राम के अन्तर-विरोधों को उजागर किया है। मैं संपाति पक्षी प्रकट करता हूँ। वह राम से अन्तर-विरोधों के प्रश्न करता है। राम निरुत्तर भाव से जल समाधि लेते हैं।
आप अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति किसे मानते हैं?
यह बता पाना थोड़ा मुश्किल है। बात की चिड़िया से मैं संतुष्ट हूँ। इसमें बौद्धिक चिन्तन है। यह मुक्त छन्द का संग्रह है। इसमें मेरी विचारधारा का विस्तार है। वैसे अभी हाल ही में प्रकाशित संस्मरणात्मक कृति बेहतर दुनिया के लिए संघर्षों के सहयात्री लिखकर मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता है।
डाक्टर साहब, संस्मरणात्मक लेखन में किन-किन चीजों का ध्यान रखना चाहिए?
सफल संस्मरण में अपने को सामने नहीं रखना चाहिए। होता क्या है, लोग स्वयं को हाइलाइट करते हैं। मैंने स्वयं को हाइलाइट नहीं किया। संस्मरण जिसके बारे में लिखा जा रहा है, उसी को हाइलाइट किया। किसी भी प्रकार की कुण्ठा को संस्मरण में स्थान नहीं देना चाहिए। संस्मरण में आरोपण की प्रवृत्ति से बचना चाहिए।
डाक्टर साहब, १९४२ के क्विट इण्डिया मूवमेन्ट में आपकी सक्रियता रही है। यद्यपि उस काल में आप बी.ए. के विद्यार्थी रहे, फिर भी आपने अपना योगदान किया है। इस बारे में आप बताइए।
मैं आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन से सम्बद्ध था। यू.पी. ब्रान्च में कार्य करता था। इसका उद्देश्य आजादी के लिए छात्रों को प्रेरित करना था। शिवदान सिंह चौहान भी इसमें थे। प्रगतिशील विचारों को प्रसारित करना भी हमारा ध्येय था। जब बम्बई (आजकल मुम्बई) में भारत छोड़ो आन्दोलन का नारा देने वाले कांग्रेस के सब नेता गिरफ्तार किए गए, तब आगरे में विद्यार्थियों ने जुलूस निकाला। मैं सेन्ट जोन्स कालेज, आगरा में बी.ए. का छात्र था। थाना हरीपर्वत पर एस०पी० ने जुलूस को तितर-बितर करना चाहा। मैं नेतृत्व कर रहा था। शाम चार बजे से लेकर रात सात बजे तक पुलिस से पथराव हुआ। दूसरे दिन मेरी गिरफ्तारी का वारण्ट जारी हुआ।
आज की आलोचना-पद्धति पर आपकी क्या राय है। आपकी दृष्टि में हिन्दी में सफल आलोचक कौन हैं?
आज की आलोचनात्मक-पद्धति वैयक्तिक ज्यादा है, साहित्यिक और सैद्धान्तिक उतनी नहीं है। आज की आलोचनात्मक पद्धति उतना प्रभावित नहीं करती है, जितना करना चाहिए। आलोचक या तो स्वयं को हावी कर देता है या आलोच्य को। आलोचना संतुलित होनी चाहिए। हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सबसे सफल आलोचक हैं। उनके बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम भी आदरणीय है। रामविलास जी की आलोचना में कहीं-कहीं वैयक्तिकता है। उनकी सीमाएँ हैं। वे जिससे खुश हों, उसे आसमान पर बिठा देते हैं, जिससे नाराज हों, उसे हीनमान बताते हैं। इसके बावजूद उनकी आलोचना ठीक है। कुछ लोगों ने रामविलास जी की आलोचना से असहमति तो जताई है, लेकिन उनकी मान्यताओं का सप्रमाण खण्डन नहीं किया है।
आपको कौन-कौन से पुरस्कार मिले हैं?
मुझे दो पुरस्कार मिले हैं। बाद में साहित्यिक राजनीतिक का शिकार रहा। सूली और शांति पर उत्तर-प्रदेश हिन्दी समिति का पुरस्कार ६८-६९ में मिला। १९७५-७६ में दीवारों के पार पर बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार मिला। हमारे देश में पुरस्कार भी राजनीति से प्रेरित हैं। मेरी किताबें भी देर से प्रकाशित हुईं। राजनीति भी बदल चुकी थी।
आप किन-किन कवियों से प्रभावित रहे हैं?
मैं आरम्भ में मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत से प्रभावित रहा हूँ। राष्ट्रीयता के मामले में एक सीमा तक दिनकर से भी प्रभावित हूँ। बाद में निराला का प्रभाव मुझ पर है। रचनात्मक प्रवेग मेरा अपने आपका है।
डाक्टर साहब, १९४३ ई. के तार सप्तक के प्रकाशन के बाद अज्ञेय एक नायक के रूप में सामने आते हैं। क्या तथाकथित प्रयोगवाद ने प्रगतिशील हिन्दी-कविता को क्षति पहुँचाई है।
कुछ समय तक अज्ञेय के व्यक्तित्व ने प्रगतिशील हिन्दी-कविता को आच्छादित किया। थोड़े समय तक क्षति भी हुई। लेकिन बाद में हिन्दी-कविता इससे उबर गयी।
कुछ पुराने कम्युनिस्टों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की निन्दा की है। मेरे विचार से नेताजी की देश-भक्ति को प्रश्नचिद्दित नहीं किया जा सकता। नेताजी के बारे में आपकी क्या अवधारणा है।
मैंने १९३९ में नेताजी का फारवर्ड ब्लॉक ज्वाइन किया। मैं इटावा में उपाध्यक्ष भी था। इटावा रेलवे स्टेशन पर मैं उनसे मिला। वे दिल्ली से इलाहाबाद जा रहे थे। वे बहुत आशावादी थे। नेताजी अग्रगामी दल को मजबूत करने पर बल दे रहे थे। उन्होंने कहा-हम अंग्रेजों को तबाह कर देंगे। उनका तबाह शब्द मुझे आज भी याद है। नेताजी सोवियत संघ से ही मदद लेना चाहते थे। लेकिन विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उन्हें जापान-जर्मनी का आश्रय लेना पड़ा। तब से मैं विचारों में अन्तर मानने लगा। वे सच्चे देशभक्त थे। उनकी मौत विमान-दुर्घटना में नहीं हुई। वे एटा में रिजोर रियासत में साढे तीन वर्ष संन्यासी के रूप में रहे। वह कई भाषाएँ जानते थे, अंग्रेजी बहुत अच्छी बोलते थे। वह ३०-४० बाल्टियों से नहाते थे। शॉलमारी आश्रम इन्होंने स्थापित किया। जब मैं यहाँ आया, वे रिजोर से जा चुके थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभिसीतारमैया को गाँधी जी ने खड़ा किया। बोस स्वंय खड़े हुए। बोस जीते। गाँधी ने स्वयं स्वीकार किया कि यह उनकी हार है। बाद मे बोस ने स्वयं इस्तीफा दे दिया। गाँधी जी के प्रति उनके मन में आदर-भाव तो था, लेकिन वे उनकी नीतियों में विश्वास नहीं रखते थे। समाजवादी विचारधारा नेहरू की ज्यादा थी। विचारधारा में सुभाष नम्बर दो पर थे। लेकिन राष्ट्र के प्रति मर मिटने का भाव सुभाष में सबसे ज्यादा था। उन दिनों सुभाष की लोकप्रियता शिखर पर थी। गाँधी, नेहरू, सुभाष से पीछे थे - लोकप्रियता में। उस समय की नीतियों के कारण नेताजी ने स्वयं को गुप्त रखा।
अभी हाल ही में वन्देमातरम्‌ के गायन को लेकर देश में उठा-पटक हुई है। आप भारतवासियों को इस संबंध में क्या कहेंगे।
इसको लेकर दोनों वर्गों को समझदारी से काम लेना चाहिए। इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ को अतिवादिता की हद तक खींचने की कोशिश की गई है। मैंने साम्प्रदायिक एकता पर बल दिया है। मैंने हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद नहीं रखा है।
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