Skip to main content

हर इंसान के अन्दर साहित्यकार छिपा होता हैः प्रो. जमाल अहमद सिद्दीकी

डॉ. मेराज अहमद एवं डॉ. फ़ीरोज अहमद
डाक्टर साहब, संक्षेप में पारिवारिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए?
जन्म फैजाबाद (वर्तमान में अम्बेडकर नगर) जिले में स्थित एक गाँव के संभ्रान्त परिवार में हुआ। खेती बाड़ी थी लेकिन की नहीं, करायी जाती थी। परिवार में पढ़ाई-लिखाई का माहौल था। अधिकांश लोग शिक्षक थे। एक चचा ने वकालत शुरू कर दी थी। हाईस्कूल गाँव से करके गर्वमेन्ट कालेज फैजाबाद से इंटरमीडिएट किया। इसी बीच मेरे बड़े भाई अलीगढ़ में पढ़ने आ गये थे। मैं इंटर के बाद इलाहाबाद जाने के लिए तैयार था, लेकिन बड़े भाई ने अलीगढ़ की ऐसी तस्वीर खींची कि मैंने इलाहाबाद के बजाए अलीगढ़ आ गया। बी.ए., एम.ए. यहीं से किया। शोध के लिए दिल्ली के स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स में गया ही था कि मेरी नियुक्ति आगरा विश्वविद्यालय के एक कालेज में हो गयी। थोड़े दिन के बाद मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आ गया। तब से यहीं हूँ।
अपने अध्ययन काल में क्या कभी आपका विषय के रूप में साहित्य से सम्बन्ध रहा है?
नहीं, हाईस्कूल और इंटर में हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी विषय के रूप में जरूर पढ़ा लेकिन बाद में छूट गया। हाँ! साहित्य से दिलचस्पी जरूर रही। परिवार से थोड़े-बहुत साहित्यिक संस्कार मिले। शुरुआती दिनों में प्रेमचन्द के उपन्यास, कहानियों ने भी साहित्य में रुचि बढ़ायी लेकिन साहित्य से मेरा कोई प्रोफेशनल सम्बन्ध नहीं था इसलिए जो अच्छा लगा वही पढ़ा। यही कारण है कि साहित्य का मेरा ज्ञान बहुत अच्छा नहीं है।
फिर भी दिलचस्पी के लिए ही सही, साहित्य आपने पढ़ा ही, तो निश्चित रूप से कुछ न कुछ उसकी समझ आपके मन में बनी ही होगी। विशुद्ध रूप से आपके अपने दृष्टिकोण से साहित्य क्या है?
यकीनन बनी ही नहीं मुझे लगता है कि साफ भी है। एक खास बात यहाँ यह जरूर है कि जब मैंने समाजशास्त्र पढ़ा तब यह दृष्टि साफ हुई। साहित्य अपने समाज को निरूपित करता है और उससे प्रभावित भी होता है। मध्ययुगीन समाज को लेकर लिखे गये साहित्य में उस युग की बड़ी साफ झलक दिखाई पड़ती है और आधुनिक युग का परिवर्तन भी साहित्य में साफ-साफ दिखाई देता है। परिवर्तन सभी विधाओं में दिखाई देता है। मैं इसे तीन तरीके से देखता हूँ-आजादी के पहले के साहित्य को अगर देखिए तो तत्कालीन समाज और उसकी विसंगतियाँ, गरीबी, अन्याय और शोषण, जातीय विभाजन आदि को ले करके साहित्य की रचना हुई। आजादी की जंग के समानान्तर बहुत से साहित्यकारों ने आजादी को लेकर विविध स्तरों पर रचना की। प्रगतिशील लेखन की शुरुआत हो गयी थी। उसी समय यूरोप के इंडीविजुअल की चिन्ता ने भी यहाँ के साहित्य को प्रभावित किया। फलस्वरूप तमाम तरह के आन्दोलन या मूवमेन्ट पनपने लगे। आजादी के बाद जो साहित्य आया उसकी समस्यायें अलग तरीके की थीं। आजादी को लेकर के जो अपेक्षाएँ और आकांक्षाएँ थीं उनको ले करके साहित्य रचा गया इसी तरीके से राजनीतिक परिवर्तन और समाज के विभिन्न समुदायों में जो बिखराव और अलगाव पनपने लगा उसको साहित्य ने केन्द्र में स्थान दिया। उदाहरण के तौर पर राजनीति के जाति व्यवस्था पर पड़े प्रभाव की प्रस्तुति को हम साहित्य में देख सकते हैं। इधर के साहित्य को जो मैंने देखा उसे देखकर लगता है कि साहित्य अब भावात्मक हो रहा है। इसी के साथ-साथ मुख्तलिफ तबके जैसे महिलाएँ, दलित और अल्पसंख्यक तथा कमजोर वर्ग है उसकी अन्तःपीड़ा को भी साहित्य टटोल रहा है।
तो क्या जिनकी समस्याओं को खंगाला और टटोला जा रहा है उनके लिए वह साहित्य किसी स्तर पर कारगर हो रहा है? इसका उनको लाभ मिल रहा है?
भारतीय सन्दर्भों में देखा जाए तो ऐसा नहीं है, जैसा कि यूरोप में। यह बात सिर्फ साहित्य में ही नहीं, चाहे राजनीति हो या शिक्षण संस्थाएँ। वैचारिक रूप से तो समस्याओं को उजागर किया जाता है वास्तविकता के धरातल पर जिसको हम व्यवहारिक रूप कहते हैं, यह कहिए कि ऐक्शन के लेबल पर वह हमको नहीं दिखाई देता है। नतीजे के तौर पर साहित्य के माध्यम से सामाजिक रूपान्तर की जो प्रक्रिया होनी चाहिए थी वह दिखाई नहीं देती है। दरअसल जिनकी समस्या है लोग उनसे दूर रहकर उन्हें समझना और उठाना चाहते हैं इसलिए तालमेल नहीं बैठ पाता है।
आखिर फिर कैसा प्रयास किया जाए कि जिसके ऊपर साहित्य लिखा जा रहा है उससे साहित्य का सम्बन्ध स्थापित हो सके? इस संदर्भ में आप समाजशास्त्री की हैसियत से क्या सोचते हैं?
मेराज साहब, किसी शायर का एक मिसरा याद आ रहा है - 'खूने शहीद से भी कीमत के सिवा फनकार की कलम की सिहायी की बूंद' माना यह जाता है कि साहित्य किसी समय या समाज के आन्दोलन को अभिव्यक्त करने का सबसे बड़ा साधन है। लेकिन २० वीं सदी के औद्योगिक समाज में मार्क्सवादी दृष्टिकोण से रचना जरूर हुई लेकिन यह रचनाएँ परिवर्तन का साधन नहीं बन पायी। २० वीं शताब्दी की आखिरी दहाई और उसके बाद साहित्य की वह हैसियत नहीं कि वो समाज को कोई ठोस आधार दे सके। एक बात और है कि समाज को प्रभावित करने वाली ताकत अब साहित्य और साहित्यकारों के हाथ से निकल कर कुछ हद तक पापुलर क्षेत्रों में चली गयी है। इसमें मीडिया का बड़ा अहम्‌ स्थान है। सिनेमा है। यह समाज के बड़े अहम्‌ हिस्से हो गए हैं। कुछ तो साहित्यकारों की रचना और उसके पाठक सीमित होते जा रहे हैं इसलिए भी अब साहित्य समाज को बहुत गहराई से प्रभावित नहीं कर पा रहा है।
इसका मतलब यह है कि आप कहना चाह रहे हैं कि साहित्यकारों को अगर आवाम से जुड़ना है जिनके लिए वह बात कर रहे हैं जिनके लिए लिख रहे हैं उनके लिए लिखने के लिए वह मीडिया इत्यादि से जो पापुलर मीडिया है, उनसे जुड़ें?
ऐसा ही हो रहा है साहित्यकार संचार माध्यम से पहले भी जुड़े थे। जुड़ भी रहे हैं। अगर नहीं जुड़े हैं तो उनके परिणाम दूरगामी नहीं हो सकते हैं। लेकिन यह भी है कि पॉपुलर इश्यू जो भी उठाये जायेंगे अगर उनमें गंभीरता नहीं है तो वह बहुत आगे तक नहीं जा पायेंगे। किसी भी इश्यू को टिकाऊ होने के लिए जब तक उसमें साहित्यिक पुट नहीं होगा उसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य नहीं होगा तब तक वह इश्यू उपयोग की वस्तु नहीं बन सकता है न ही उसके माध्यम से किसी खास बदलाव की कल्पना ही की जा सकती है।
आप अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे बड़े शिक्षण संस्थान से जुड़े हैं विश्वविद्यालय में साहित्यिक गतिविधियों की जो स्थिति है उसे किस स्तर की मानते हैं? उससे संतुष्ट हैं कि नहीं?
कोई भी विश्वविद्यालय हो, चाहे अलीगढ़ या दूसरा, बुनियादी तौर पर यह ज्ञान के केन्द्र होते हैं यहां पर नई पीढ़ी के जेहन तैयार होते हैं। विचार गढ़े जाते हैं। साहित्य विचारों को स्वरूप देने का बहुत सशक्त माध्यम है। विडम्बना की बात यह है कि हमारे विश्वविद्यालय के साथ-साथ दूसरे विश्वविद्यालयों में भी साहित्यिक संस्कृति कमजोर पड़ी है। यहां पर भी पॉपुलर मीडिया का दखल बढ़ा है। एक सच्चाई यह भी है कि उच्च शिक्षा विशिष्ट वर्ग के दायरे से निकलकर साधारण वर्ग के दायरे में आ गयी है और साधारण वर्ग में प्रोफेशनलिज्+म का जोर इतना बढ़ा है कि अब लोगों के पास समय ही नहीं बचा है कि वह इस क्षेत्र में जा करके समय गुजार सकें। इसे हम व्यवहारिकता का असर भी कह सकते हैं।
यानी की बाजारवाद का प्रभाव?
बिल्कुल, मार्केट ने पिछले १५ वर्षों में यानी कि ९० के बाद का जो दशक है उसमें उपभोक्ता संस्कृति को बहुत ज्यादा पनपाया है। ज्ञान का भी वस्तु के रूप में इस्तेमाल होने लगा है। उसकी मर्यादा, गरिमा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाती है इसलिए आप भी जानते हैं कि पॉपुलर साहित्य का प्र्रभाव पड़ा है। आज साहित्य की यह मजबूरी है कि उससे किसी न किसी स्तर पर मार्केट की जरूरत से मैचिंग करनी पड़ती है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य के सामाजिक सन्दर्भों में साहित्य की कोई विशिष्ट भूमिका हो सकती है?
शायद आप जो समसामयिक साम्प्रदायिकता है, नगरीकरण है, आपाधापी है, गतिशीलता आदि के संदर्भ में बात कर रहे हैं?
जी?
देखिए, पिछले २५-३० वर्षों में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है। नई ह्‌यूमन एक्टिविटीज, नये-नये काम और नये-नये वर्ग उभरे हैं। खासतौर से प्रोफेशनलिज्म का हर क्षेत्र में जैसा असर दिखाई दे रहा है, पहले कभी नहीं था। पहले सम्बन्धों में टिकाऊपन था अब गतिशीलता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि साहित्य की भूमिका कम हुई है। दरअसल साहित्य इंसान की बड़ी मौलिक एक्टिविटी है। मैं तो यह भी कहता हूँ कि प्रत्येक इंसान मूलतः साहित्यिक होता है। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर यह गुण छुपा होता है। बात असल में यह है कि कुछ लोग अभिव्यक्त कर ले जाते हैं, बहुत सारे नहीं। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं यह कहना चाहूँगा कि साहित्यकार जब कुछ सम्प्रेषित करता है तो बहुत बड़ी संख्या में जब लोगों को यह लगता है कि ऐसा तो मैं भी सोच रहा था लेकिन उसके पास भाषा नहीं थी। इसलिए ऐसा कह नहीं पाया। जहाँ तक साहित्य के मूल या उसकी भूमिका की बात है, उसके स्कोप की बात है, फैलाव की बात है, वह कभी कम होने वाली नहीं। हाँ, टाइम का एक टेम्परामेंट होता है। आधुनिक समय का मिजाज बहुत तेज है। साहित्य गरिमामय होता है इसलिए साहित्य को समझने के लिए ठहराव की जरूरत होती है। चूँकि समय की कमी है इसलिए साहित्य उनका शिकार हो रहा है।
डाक्टर साहब, आपका सम्बन्ध समाजशास्त्र से है इसके अध्ययन में साहित्य कहा तक मदद करता है?
यह बड़ा मशहूर कथन है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाजषास्त्र समाज का अध्ययन। लिहाजा मद्द तो करेगा ही। समाज के अध्ययन की जो विभिन्न प्रविधियाँ हैं उनमें एक है ऐतिहासिक प्रविधि। इसके अन्तर्गत वर्तमान को प्रभावित करने वाले अतीत की वास्तविकता को समझने में साहित्य की मदद ली जाती है। हालांकि साहित्य में सामाजिक वास्तविकता की सम्पूर्णता नहीं होती है क्योंकि उसमें साहित्यकार का मर्म उसका अपना सच उसकी प्रतिबद्धता कुंठाएं और व्यक्तिगत प्रक्रियाएँ होती हैं, लेकिन समाजशास्त्री उसको पढ़कर अपने काम की चीज ले लेते हैं। उदाहरण के लिए मैं बताऊँ कि किसी साहित्य में मान लीजिए कि चित्रण है अस्पृश्यता का, हो सकता है कि जिस स्तर का चित्रण किया गया है वैसी अस्पृश्यता न हो लेकिन यह तो यक़ीनी बात है कि अस्पृश्यता का अस्तित्व रहा होगा तभी तो यह चित्रण किया गया होगा? साहित्य हमेशा से ही समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण साधन रहा है।
साहित्यिक हल्के में यह बात आमतौर पर कही जाती रही है कि २० वीं शताब्दी उत्तरार्ध के सामाजिक इतिहास के अध्ययन में प्रेमचन्द के साहित्य का बड़ा अहम्‌ रोल है। इस संदर्भ में आपकी क्या टिप्पणी है?
देखिए, जितना प्रेमचंद को मैंने पढ़ा है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने साहित्य के माध्यम से अपने समय की सच्चाई, कुंठाओं, अन्दरूनी कन्ट्रीडिक्शन को बड़ी हिम्मत के साथ उठाया है। समाज में धर्म और नैतिकता, वर्ग वैभिन्य इत्यादि के साथ-साथ गरीबों के दुख-दर्द, उच्च वर्ग के द्वन्द्व इन सारी सामाजिक स्थितियों का प्रेमचन्द जी ने बड़ी गहराई के साथ चित्रण किया है। इससे आप समझ सकते हैं कि उनकी क्या भूमिका हो सकती है।
आपका सबसे प्रिय साहित्यकार कौन है?
यह सवाल जरा मुश्किल है क्योंकि मैंने साहित्य को किसी खास नजरिये से पढ़ा नहीं है। हाँ, जो प्रगतिशील लेखक हैं या उनसे संबंधित साहित्यकार हैं वह मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनको मैं महत्त्वपूर्ण इसलिए मानता हूँ क्योंकि वे परिवर्तन के हामी है परिवर्तन से मेरा अर्थ विकास करने वाली शक्तियों के उद्घाटन से है, नारे से नहीं। प्रेमचंद उनमें से हैं जो परिवर्तन के हामी है। उर्दू में अल्लामा इकबाल का दर्शन भी मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उनके केन्द्र में व्यक्ति। वह अपने साहित्य के माध्यम से व्यक्ति की अहमियत को सामने लाते है। ऐसा व्यक्ति जिसका किसी वर्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है। दरअसल इकबाल के दर्शन को किसी समय, समुदाय या वर्ग से बाँधकर नहीं रख सकते हैं। इसलिए वह मुझे बेहद पसंद है।
वर्तमान में ऐसे कुछ साहित्यकार हैं जिनसे आप मिलते-जुलते रहते हैं?
देखिए, साहित्य मेरा विषय नहीं बल्कि दिलचस्पी है। इसलिए बहुत व्यवस्थित तरीके से नहीं लेकिन यदाकदा जैसे नामवर सिंह या अलीगढ़ में के.पी. सिंह, नमिता सिंह, ये मुलाकातें अचानक ही होती हैं।
कैसा लगता है उस समय आपको?
किसी दार्शनिक ने कहा है कि - साहित्यकार बौद्धिक होता है इसलिए विचारों की बात करता है। इसलिए उससे मिलकर अच्छा लगता है।
आपके नजरिए से कोई ऐसा विषय है जिस पर आपको लगता है कि लिखा जाना चाहिए?
देखिए, मैं साहित्यकार नहीं समाजशास्त्री हूँ इस दृष्टि से कहूँगा कि इधर २०-२५ वर्षों में बड़ा परिवर्तन हुआ है। उसे साहित्यकार केन्द्र में रखे हैं, अह्‌म बात यह है कि अल्पसंख्यक एक बड़ा मुद्दा हो सकता है। जो कि कमजोर है। संविधान इत्यादि के माध्यम से इनको ऊपर लाने का काम तो किया ही जा रहा है दूसरे और भी कमजोर वर्ग हैं। उनके साथ भी यही स्थिति है लेकिन उससे बात बनती नहीं है। इनको दो नज+रिये से देखना होगा मुस्लिम की हैसियत से विशेष रूप से मुसलमानों के बारे में बात करना चाहूँगा। दरअसल उसकी जो कमजोर हालत है उसका एक कारण बाह्य भी है लेकिन उसके कारक उनकी अपनी सामाजिक रचना के अन्दर भी मौजूद हैं। कमोवेश दूसरे कमजोर वर्गों के लिए कहीं जा सकती है। जैसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियाँ आदि। कानून बना करके इनको आगे लाना एक हद तक ही मुमकिन है। उसे अपने आप भी सोचना होगा दरअसल जब तक उनके अंदर ही मंथन नहीं होगा, इसके लिए इस समाज के बुद्धिजीवी, राजनीतिक नेतृत्व और धार्मिक नेतृत्व को आगे आ करके संजीदगी और ईमानदारी से अपने अंदर झाँकना होगा। समय के साथ बदलना होगा यानी कि खुद ही कोशिश करनी होगी। बाहर से मदद आने के बाद वह बदलाव आ ही नहीं सकता। जिसकी वह अपेक्षा करता है। इधर दंगे-फसाद, बाबरी मस्जिद की शहादत आदि से लोगों को बड़ी तकलीफें हुई। काफी कुछ इस पर लिखा भी गया। धर्म निरपेक्षता की बहुत बात हुई लेकिन धर्म निरपेक्षता एकपक्षीय नहीं होनी चाहिए। अल्पसंख्यक ये सोचता है कि बहुसंख्यक हमारे लिए सेकुलर हों भारत का संविधान भी यही कहता है। लेकिन जब उससे धर्म निरपेक्ष होने की बात कही जाती है तो कहता है कि हम अल्पसंख्यक हैं तो उसे भी सेकुलर होने की जरूरत है।
कुल मिलाकर आप यह कहना चाहते हैं कि दबे-कुचले और अल्पसंख्यक वर्ग की अपनी जिम्मेदारी भी है?
बिल्कुल, उन्हें आत्ममंथन करना होगा, अपनी कमियों और खूबियों को अंडरलाइन करना होगा। परिवर्तन के लिए अन्दर से योजना बनानी होगी। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक अपेक्षित परिवर्तन नहीं होगा।
आपका तात्पर्य यह है कि अगर इसी तथ्य को इन्हीं सन्दर्भों को अपनायें तो साहित्य में अच्छी चीज आ सकती है?
बिल्कुल ये साहित्यकार के लिये अच्छा विषय हो सकता है कि चाहे अल्पसंख्यक हो चाहे दलित। वह जैसा अपने लिए सोचते हैं वैसा दूसरे के लिए करना चाहिए और इसी को विषय के रूप में अपनाना चाहिए। मेराज साहब, साम्प्रदायिकता को मैं सिर्फ धर्म के सन्दर्भों में नहीं देखता इसके सामाजिक संदर्भ भी हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि हम जो करते हैं ठीक है लेकिन दूसरे हमारे लिए ऐसा न करें। दरअसल यह है साम्प्रदायिकता । जबकि हकीकत यह है कि वो चीज हमारे लिए बुरी है तो दूसरों के लिये बुरी होनी चाहिए।
एक समाजशास्त्री की हैसियत से नवोदित साहित्यकारों से क्या कहना चाहेंगे? यानी संदेश?
मैं तो संदेश नहीं देना चाहता, साहित्यकार असल में और आमतौर पर बड़ा ईमानदार होता है। इसलिए वह बहुत देर तक मिथ्या को छिपाकर आडियेन्स तक नहीं पहुँच पायेगा। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि आडियेंस को बहुत देर तक भ्रम में नहीं रख पायेगा। इसलिए साहित्यकारों को समाज के लिए सकारात्मक सोच रखनी चाहिए। उसके विकास में सहयोग दें। जन अपेक्षाओं को ईमानदारी से पेश करें अगर साहित्यकार ऐसा करता है तो शायद सामाजिक संदर्भ में इसका बहुत बड़ा योगदान होगा।
********************************

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क