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मुस्लिम स्त्रियाँ : स्वप्न और संघर्ष

- डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम'
यह कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि एक ओर विश्व के अनेक जातियों और समाज की स्त्रियाँ अनेक क्षेत्रों में न केवल पुरुषों से कांधा से कांधा मिलाकर साथ चल रही हैं, बल्कि कुछ एक क्षेत्रों में कठोर प्रतिस्पर्धा की चुनौतियों का बखूबी सामना कर रही हैं। लेकिन क्या भारतीय मुस्लिम समाज की स्त्रियों के संदर्भ में ऐसी कल्पना की जा सकती है? निस्संदेह मुस्लिम समाज में अनेक ऐसी जातियाँ हैं, जिनकी महिलाएँ अपने स्वप्न और संघर्ष से कोसों दूर पगडंडी पर खड़ी अपलक चाँद को निहार कर ही संतुष्ट हैं। वहाँ तक पहुँचने का उनके मन में कोई ख्वाब नहीं है। वास्तव में जिनके कांधों पर चाँद तक पहुँचने का साधन मुहैया कराने की जिम्मेदारी है। वे अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह में कोताही बरतते रहे हैं। स्त्रियों को बच्चे जनने की मशीन समझ रखा है। वे उनकी खेतियाँ हैं, जिसे वे जैसे चाहें इस्तेमाल करके संतुष्ट हैं। स्त्रियाँ उनके आचरण और व्यवहार से संतुष्ट हों या नहीं? यह सवाल उसके लिए समाज ने हराम करार दे रखा है।
नतीजतन आज इस देश की दूसरी सबसे बड़ी बहुसंख्यक आबादी का एक बड़ा हिस्सा जो मुस्लिम स्त्रियों का है। वह गाँवों में गदहे की लीद, लकड़ी, पत्ते, गोवर के उपले, मिट्टी के चूल्हे में चावल की भूसी झौंकते किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करती हैं। जबकि शहरी मुस्लिम मुहल्लों में टाट के परदे से बाहर निकल कर मदरसे या सरकारी स्कूलों तक कुछ एक पहुँचती हैं, जिस पर भी माता-पिता और अभिभावकों को डर सताया करता है कि बेटी को जमाने की हवा न लग जाए। इस पर तुर्रा यह कि उनकी सोच लफ्जी जमा खर्च के सिवाए कुछ नहीं कहा जा सकता है।
मेरी दृष्टि में मुस्लिम स्त्रियाँ दलित समाज की स्त्रियों से भी सौ कदम पीछे चल रही हैं। उन्हें अपने अस्तित्त्व का अर्थ ही मालूम नहीं है? समाज धर्म, संस्कृति और तहजीब के नाम पर आधुनिक शिक्षा से दूर ही रखना चाहता है फिर भी क्या समाज में अन्य समाजों की अपेक्षा बुराइयों का प्रतिशत कम है। मेरी समझ में तो नहीं। इस मुद्दे पर कोई बात या विचार करना चाहें तो सीधे फतवे की चक्कर में फंसाने की बात होती है। फिर भला किसी और को क्या और क्यों चिन्ता होगी? आज भी देख रहा हूँ कि देहात हो या पुरानी आबादी वाले गरीब मुसलमानों के मुहल्ले इन स्थानों पर आबाद मुस्लिम परिवार की सोच का दायरा बेइंतिहा संकीर्ण दिखाई देता है। वे अब भी बच्चियों को मदरसे या सरकारी स्कूल की दो-चार जमातें पढ़ा देना ही काफी समझते हैं। वह बारह-चौदह साल की हुई नहीं कि उसके पैरों में रिश्तों की बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं अथवा कोशिशें शुरू हो जाती हैं। उसके दिलो दिमाग पर रूढ़िवादी, परम्परावादी एवं मजहबी सोच के पहरे बिठा दिए जाते हैं। उसे स्वयं को संसार में किसी योग्य सिद्ध करने से पहले पाँव में शरम संकोच की बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं। वह अपने अस्तित्त्व के सम्बन्ध में कुछ नहीं सोच पाती और न ही कोई तर्क संगत निर्णय ले पाती है। सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं को तोड़ने की हिम्मत करना तो एक दिवास्वप्न ही कहा जाएगा।
मुस्लिम स्त्रियों के लिए यह कितनी बड़ी सामाजिक त्रासदी है कि यदि अपनी ही बेटियों या बच्चियों के हक में माता-पिता या अभिभावक कोई गलत निर्णय लेते हैं अथवा परिणाम अचानक विपरीत स्थितियों के साथ प्रकट होता है। तो वे तुरन्त यह कहकर पिंड छुड़ा लेते कि, ‘यह उसकी किस्मत का लिखा था। वरना हमने सब कुछ तो देखभाल कर ही किया था। किसी और को क्यों कसूरवार ठहराएँ। यह अल्लाह का लिखा था जो हो गया।'
मध्यमवर्गीय एक अशिक्षित परिवार में घटित घटना का एक गवाह मैं स्वयं भी हूँ इसलिए बताता चलूं कि सोफिया का विवाह एक देहात परिवेश में सम्पन्न परिवार में हुआ तो सबको बड़ी खुशी हुई। चूंकि सोफिया का एक भाई डॉक्टर बन चुका था और दूसरा एयर फोर्स में इंजीनियर बनकर अम्बाला जा चुका था। तीसरा भाई पटना में कालेज की पढ़ाई पूरी कर रहा था। उसके पिता स्वयं सरकारी स्कूल के शिक्षक थे। किन्तु आपको यह जानकर दुखद आश्चर्य होगा कि उन्होंने अपने औलाद के रूप में केवल अपने पुत्रों को ही सदैव गणना की। बेटियों की परवरिश कुछ इस ढंग से की थी कि वह भी कहने से नहीं चूकतीं, ‘क्या अब्बू को औलाद नहीं है जो वह जमीन जायदाद में मुझे और मेरी बहनों को हिस्सा देंगे।' ऐसी सोच की मिसाल किसी और भारतीय सम्प्रदाय में शायद ही मिले। इस मामले में गौरतलब सवाल यह है कि सोफिया सबसे छोटी होने के कारण कुछ पढ़ना-लिखना सीख गई थी। उसके अंदर दुनिया की समझ विकसित हो चली थी इसलिए, कभी-कभी अपने शौहर को परिवार के माहौल से निकलने की सलाह भी देती। दरअसल हुआ यह कि सोफिया की सास से किसी बात पर अनबन हो गई। उसने खाना तो बनाया किन्तु किसी को खाने को निकाल कर नहीं दिया। शौहर ने उसे गुस्से में देखा अपनी माँ से खाना मांगकर खा लिया। परिणाम यह हुआ कि रात भर भूखी रही सोफिया ने खेतों में छिड़कने वाली कीटनाशक दवा की शीशी मुँह में उडेल ली। उसकी हालत बिगड़ती देखकर उसे दूर दराज के शहर ले जाने की तैयारी की गयी किन्तु बीच रास्ते में ही उसकी मौत हो गई।
सोफिया के पिता जी आये तो बोले, ‘अब तो जो होना था हो चुका। लाश को कफ़न-दफ़न की तैयारी की जाए।'' जबकि उसकी मौत के बाद आस पड़ोस ने भी मुँह खोला। वह बरसों से सास की प्रताड़ना की शिकार थी। उसे कोल्हू के बैल के समान पेर कर रखती थी। वह घर की बहू नहीं बल्कि उस परिवार की एक बंधुआ थी जिसके पक्ष में शौहर ने कभी जुबान खोलने की जुर्रत नहीं की। उस दिन यह जानते हुए भी कि बीवी ने पिछली रात से कुछ नहीं खाया है। वह स्वयं खाने बैठ गया। यह उसे इतना नागवार गुजरा। उसने अपने जीवन को ही ख़त्म कर डाला।
मैं नहीं समझता कि मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति के चित्राण के लिए इससे बेहतर कोई दूसरी मिसाल हो सकती है। विचारणीय प्रश्न यह है कि मुस्लिम समाज सम्पूर्ण विश्व को शिक्षित करने का दावा करता है। इस्लामिक विश्व की कल्पनाएँ साकार करना चाहता है लेकिन इस विश्व में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति कितनी बेहतर होगी। यह किसी ने कभी स्पष्ट नहीं किया, न तो किसी इस्लाम शिक्षाविद् ने, न मुफ्ती ने, न मौलाना ने।
ऐसी भेदभावपूर्ण और उपेक्षाओं से केवल भारतीय मुस्लिम स्त्रियाँ ही नहीं, बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान एवं बंगलादेश की औरतें भी पीड़ित एवं प्रताड़ित हैं। तसलीमा नसरीन अपनी आजाद ख्याल नजरिए के लिए यूरोप और अमेरिका के बाद अब भारत में बसना चाहती हैं बशर्ते कानूनी तौर पर इजाजत दी जाए। इससे जाहिर है कि इस्लाम धर्म में स्त्रियों के जिन अधिकारों की व्याख्या की गई है। उसकी गूंज अब तक महिलाओं के कानों तक नहीं पहुँचने दी गई हैं।
पड़ोसी देश हो या भारत में मुस्लिम महिलाओं के साथ शोषण, दमन एवं उत्पीड़न के जो मामले उजागर हुए विशेषकर बलात्कार और व्यभिचार के जैसे मामले जाहिर हुए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम समाज बाहरी तौर पर सशक्त भले ही दिखाई दे लेकिन भीतरी तौर पर पूर्णतया खोखला एवं जर्जर हो चुका है। समाज पर शिक्षितों का प्रभाव सीमित है अथवा शहरी परिवारों तक ही शिक्षा दीक्षा को मान्यता मिली है। निम्न वर्गीय मुस्लिम समाज के संबंध में ही सच्चर समिति ने जो विचार प्रकट किए हैं और अपने जिन सुझावों और परामर्शों को कार्यरूप देने की सलाह दी है। वे बरसों पहले होने चाहिए थे यानी कि चालीस बरस पूर्व। तब कहीं मुस्लिम समाज में किसी परिवर्तन की हवा अनुभव की जाती।
यह सर्वविदित है कि मुस्लिम समाज भी अनेक स्तरों पर विभाजित है और एक ही सम्प्रदाय से आबाद मुहल्लों में भी अनेक नेताओं, ओलेमाओं, पीरों के प्रभाव रेखांकित किए जा सकते हैं जो अलग-अलग मान्यताओं और धार्मिक परम्पराओं के पोषक हो उठते हैं। इस समाज के पिछड़ेपन में ऐसे लोगों का योगदान भी कम नहीं है इन सब लोगों ने एक खुदा के अलावा असंख्य पीरों और फकीरों के नाम पर मजहबी दुकानें खोल रखी हैं जहाँ बच्चे की पैदाईश से लेकर खोई चीजें मिलने तक के दुआ, ताबीज और लोहबान तक बेचने का धंधा जोरों शोर से चल रहा है। किसी को कोई एतराज नहीं है। किसी ने भूत भगाने की दुकान खोल रखी है तो किसी ने खुदा की अवतरित धर्म ग्रन्थ पवित्र कुरआन की आयतों को बेचने का धंधा कर रखा है। इस गोरखधंधे पर शिक्षित मुसलमानों को भी कोई आपत्ति नहीं है। वे खामोश है। उनकी जुबानों पर ताले जड़े हैं। वे कुछ बोलना नहीं चाहते, कहना नहीं चाहते क्यों इनको भी मुल्लाओं, मौलानाओं और फरेबियों से उतना ही डर है, जितना एक जाहिल, अनपढ़ गंवार स्त्री-पुरुष की।
कुल मिलाकर मुस्लिम स्त्रियों के पांवों के नीचे कोई पुख्ता जमीन नहीं दिखाई देती। स्त्रियाँ अपनी चुप्पी तोड़ने की हिम्मत करें तो किसके भरोसे। माता-पिता और अभिभावक बेकार की चिंताओं में लिप्त दिखाई दें। वे उनकी भावनाएँ समझ ही न पाएँ। वे अपने दिल की बात कहें तो किससे? जबकि वक्त का तकाजा यह है कि स्त्रियों को भी आधी रोटी खायेंगे, फिर भी स्कूल जायेंगे कि तर्ज पर घर परिवार से तालीम हासिल करने का हौसला दिया जाना चाहिए। वह भी पढ़-लिखकर युवकों के समान घर परिवार के स्वावलम्बन में अहम्‌ भूमिका का निर्वाह कर सकती हैं। इस विश्वास को बल मिलना चाहिए। उन्हें भी पारिवारिक समस्याओं के निबटारे में हिस्सेदारी करने का अवसर देना चाहिए। इससे निर्णय लेने की क्षमता, गुणवत्ता में वृद्धि स्वाभाविक है। किन्तु यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि देश के जिस संविधान ने अनुच्छेद १३,१४,१५, १६ तथा अन्य संबंधित अनुच्छेदों में लिंगभेद का प्रतिशोध किया है। इसका लाभ मुस्लिम स्त्रियाँ उठाने से वंचित रह गयीं। कारण समाज के कर्णधारों में नवचेतना का अभाव एवं समाज पर पुरुषों का एकछत्रा प्रभुत्व। मुस्लिम स्त्रियाँ घर परिवार की दहलीज लांघ ही न सकें इसलिए उनके अस्तित्व के विकास में धार्मिक कारकों को बेहतर अवरोधक के रूप में प्रयोग किया गया। एक मुस्लिम स्त्री की दुनिया शहर से आरम्भ होती है और जन्नत की कामना के साथ खत्म होती है आधुनिक शिक्षा से वंचित समाज की अस्सी प्रतिशत स्त्रियों को सांसारिक, परिवर्तन की हवा तक नहीं लगती। वास्तव में देश में मुस्लिम स्त्रियों की अधिकारों से अनभिज्ञता और परिस्थितियों को विधमता ने परिवार को एक ऐसी पाठशाला के रूप में विकसित किया है, जहाँ केवल पुरुषों का सर्वत्रा एकाधिकार कायम है। फलतः अधिकांशतः मामलों में ऐसे कि तलाक और मेहर की रकम तक नहीं मिलती। समाज में बमुश्किल एक प्रतिशत महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त है।
इस सामाजिक अन्याय एवं उत्पीड़न के बावजूद मुस्लिम स्त्रियाँ अपने अधिकारों के लिए आज तक सड़कों पर एक जुलूस तक नहीं निकाल पायीं, जबकि अन्य समाजों में स्त्रियों के उत्पीड़न से पीड़ित पुरुषों ने दिल्ली की सड़कों पर जुलूस लेकर निकल पड़े। अनुमान लगाया जा सकता है कि सामाजिक शोषण दमन सहने की क्षमता किसमें अधिक है जबकि मुस्लिम स्त्रियाँ चुप्पी साधे रहती है तो इसलिए, उनके दिलो दिमाग में पुरुषों के दबदबे का खौफ और दहशत समाया रहता है तो वह अपने साथ होने वाली प्रत्येक घटना के लिए खुदा को जिम्मेदार ठहरा कर खामोश रह जाती हैं। जो हकीकत में स्त्रियों को बराबरी का अधिकार देने के लिए जवाबदेह होते हैं।

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