Skip to main content

राजनैतिक बनाम सामाजिक लोकतंत्र

रामशिव मूर्ति यादव
भारत का समाज लम्बे अरसे से अन्यायी रहा है। इसका अन्यायी चरित्र दो तरह के प्रशासनों से तैयार हुआ है- प्रथमतः, राजनैतिक प्रशासन और द्वितीयतः, सामाजिक प्रशासन। राजनैतिक प्रशासन का सम्बन्ध जहाँ वाह्य से है, वहीं सामाजिक प्रशासन का सम्बन्ध आन्तरिक से है। अर्थात प्रथम जहाँ शरीर को प्रभावित करता है वहीं दूसरा मन या आत्मा को। प्रथम जहाँ संविधान, कानून, दण्ड, कारागार के माध्यम से भयभीत करके नियंत्रण रखता है, वहीं दूसरा मन या आत्मा पर जन्म से ही धर्म, ई , नैतिकता, स्वर्ग-नरक इत्यादि सामाजिक संस्कारों और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से नियंत्रण रखता है। प्रथम जहाँ पुलिस, सेना, नौकरशाही का इस्तेमाल करता है, वहीं दूसरा पंडा-पुरोहित, पुजारी, साधु, शंकराचार्य के माध्यम से शासन करता है। यद्यपि दोनों ही तरह के प्रशासनों ने पूरे समाज को अपने अनुरूप जकड़ रखा है परन्तु सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी है क्योंकि यह लम्बे समय से चली आ रही तमाम परम्पराओं, रीति-रिवाजों और संस्कारों के माध्यम से समाज को शासित करता है, जिससे इसका प्रभाव भी लम्बी अवधि तक चलता है। सामाजिक प्रशासन के सभी कारक स्थिर और स्थायी होते हैं, जैसे ईश्वर की अवधारणा, धर्म की अवधारणा, रीति-रिवाज और परम्पराओं की अवधारणा। ये अवधारणायें आये दिन परिवर्तित नहीं होतीं वरन्‌ सदियों तक सतत्‌ अपने आप चलती रहती हैं। निहित स्वार्थी वर्ग बीच-बीच में इसके अनुकूल वातावरण भी तैयार करते रहते हैं, जिससे कि यह पौधा मुरझाने नहीं पाता। इसके विपरीत राजनैतिक प्रशासन परिवर्तित होता रहता है, यथा- संविधान, कानून, सरकारें सभी समय-समय पर बदलते रहते हैं। कभी-कभी तो विदेच्ची शासक भी कब्जा कर अपना राजनैतिक प्रशासन स्थापित कर लेते हैं जैसे भारत में मुगलों और अंग्रेजों का शासन। परन्तु इनके समय में भी सामाजिक प्रशासन ज्यों का त्यों बरकार रहा। कारण कि पहले से जिस वर्ग का सामाजिक प्रशासन पर प्रभुत्व था, उस वर्ग को मिलाकर शासन करना इन विदेशियों को सुविधाजनक लगा। अतः मुगलों और अंग्रेजों इत्यादि ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं किया। सुसान बेली ने अपनी पुस्तक कास्ट सोसायटी एण्ड पॉलिटिक्स इन इण्डिया' में जिक्र किया है कि-१८वीं सदी में देशी शासकों ने अपने राजतंत्र का अधिकाधिक ब्राह्मणीकरण किया और कुछ ने तो राज्य के महत्वपूर्ण पद और कार्य ब्राह्मण मूल के लोगों को ही सौंपे। अंग्रेजों ने इस परम्परा को न केवल बरकरार रखा अपितु उसे संस्थाबद्ध भी किया।
उल्लेखनीय है कि जिस वर्ग या जाति के हाथ में सामाजिक प्रशासन होता है, प्रायः उसी के हाथ में राजनैतिक प्रशासन भी हो जाता है। वस्तुतः सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है। भारत में द्विजवर्ग ने इस स्थिति का फायदा उठाकर सदियों से राजनैतिक और सामाजिक दोनों प्रशासनों पर अपना नियन्त्रण बनाये रखा और आज भी काफी हद तक वही स्थिति बरकरार है। यहाँ तक कि मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल में भी इन द्विजों के हितों पर खरोंच तक नहीं आई और इसी के सहारे उन्होंने जमींदार, आनरेरी मजिस्ट्रेट, तालुकदार जैसे तमाम महत्वपूर्ण पदों को हथिया लिया। विदेशी शासकों के लिए यह सुविधाजनक भी था क्योंकि स्थानीय प्रभुत्व वर्ग को मिलाने से उनका काम आसान हो गया। सामाजिक प्रशासन में परिवर्तन करना यद्यपि किसी क्रान्ति से कम नहीं, परन्तु समय-समय पर तमाम महान विभूतियों ने इसको चुनौती दी है और उसके सुखद परिणाम भी सामने आये। कबीरदास, रैदास, गुरुनानक, नारायणगुरु, ज्योतिबा फुले, डॉ० अम्बेडकर इत्यादि ने सामाजिक प्रशासन के पुरातनपंथी कारकों - अन्धविश्वासों, रूढ़िगत परम्पराओं, मूर्तिपूजा, अस्पृश्यता, जातिवाद इत्यादि पर हमला बोला। शिवाजी को शासन सत्ता तब मिली जब महाराष्ट्र के संतों ने द्विजों के सामाजिक प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाई तो दक्षिण में पेरियार ने जब ब्राह्मणवाद के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा, तब द्रमुक पार्टी सत्ता में आयी। बिहार में १९१५ के दौरान निम्न समझी जाने वाली जातियों ने जनेऊ पहन कर अपनी सामाजिक हैसियत को आगे बढ़ाने का आन्दोलन आरम्भ किया। इसी प्रकार जब डॉ० अम्बेडकर ने ब्राह्मणवादी संस्कृति और मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ खुला आन्दोलन छेड़ा तो दलितों में चेतना पैदा हुई और उसी का प्रतिफल है कि आज दलित सत्ता के तमाम शीर्ष ओहदों तक पहुँच पाए हैं।
स्पष्ट है कि बिना सामाजिक प्रशासन के राजनैतिक प्रशासन नहीं मिलता और मिलता भी है तो उसका चरित्र स्थायी नहीं होता। कारण कि उस वर्ग के लोगों में जागरुकता, चेतना और स्वाभिमान का अभाव होता है, जिससे वे अपने जायज अधिकारों को नहीं समझ पाते। उनको जन्म से ही ऐसे संस्कारों और हीनता के भावों से कुपोषित कर दिया जाता है कि वे संघर्ष करना भूलकर भाग्यवाद के सहारे जी रहे होते हैं। उनको कोल्हू के बैल की तरह एक घेरे में ही सीमित कर दिया जाता है। अतः सामाजिक परिवर्तन के लिए इस वर्ग को जागरुक, चेतनशील और चौकन्ना बनना होगा तभी वास्तविक रूप से सामाजिक परिवर्तन आयेगा और राजनैतिक परिवर्तन के लिए सामाजिक परिवर्तन का होना एक अति आवश्यक कारक है। इस हेतु सर्वप्रथम समाज को बदलना पड़ेगा, जो कि एक दुरूह कार्य है। वैसे तो समय-समय पर ऐसे बहुतेरे समाज सुधारक हुये, जिन्होंने सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई परन्तु ये सभी पुरातनपंथी समाज व्यवस्था के पोषक द्विज वर्गों में से ही थे। फिर यह कैसे सम्भव है कि ये अपने ही लोगों को सदियों से प्राप्त जन्मना विशेषाधिकारों का हनन करते। इन समाज सुधारकों ने ऊपरी तौर पर सामाजिक व्यवस्था को बदलने का प्रयास तो किया, किन्तु उस पुरातनपंथी सामाजिक व्यवस्था की जड़ पर हमला नहीं किया। कहीं न कहीं यह एक तरह से शोषित, पिछड़े और दलित वर्ग के बीच फूट रही चिंगारी को दबाने के लिए महज एक सेफ्टी-वाल्व के रूप में साबित हुआ और यही कारण था कि इन समाज सुधारकों के प्रयास से सामाजिक व्यवस्था में कोई बुनियादी और दूरगामी परिवर्तन सम्भव नहीं हुआ। द्विज वर्ग की सामाजिक प्रभुता ज्यों की त्यों बनी रही और समाज में ऊँच-नीच की भावना और जातिगत कारक जैसे तत्व यथावत्‌ बने रहे जिससे सामाजिक लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका।
डॉ० अम्बेडकर ने कहा था कि राजनैतिक सुधारों की अपेक्षा सामाजिक सुधार ज्यादा कठिन हैं। अपने कटु अनुभवों के आधार पर उन्होंने देख लिया था कि हिन्दू धर्म में विगत के तमाम सुधारवादी आन्दोलनों के बावजूद समता और भ्रातृत्व की भावना नहीं आ पाई और भविष्य में भी इसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नजर नहीं दिख रही थी। १९३५ में एक सभा में उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि-आप लोग ऐसा धर्म चुनें, जिसमें समान दर्जा, समान अधिकार और समान अवसर हों। डॉ० अम्बेडकर को हिन्दू जाति-व्यवस्था का बचपन से ही काफी कटु और तीखा अनुभव था और इसीलिये उन्होंने भारतीय संस्कृति को जाति आधारित ब्राह्मण संस्कृति कहा था। वे हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था से सर्वाधिक आहत थे। यही कारण रहा कि वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के खिलाफ जैसा खुला संघर्ष उन्होंने किया, वैसी मिसाल भारत के इतिहास में मिलना दुर्लभ है। डॉ० अम्बेडकर ने संविधान सभा को संविधान समर्पित करते हुये कहा था कि-राजनैतिक लोकतन्त्र तभी सार्थक होगा जब देश में सामाजिक लोकतन्त्र कायम होगा। संविधान तो लागू हो गया पर दुर्भाग्य से आज तक भारत में सामाजिक लोकतन्त्र स्थापित नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है कि निहित स्वार्थी वर्गों ने बड़े जटिल ताने-बाने के माध्यम से अपना सामाजिक प्रशासन स्थापित कर रखा है और धर्मिक संस्कारों व सांस्कृतिक परम्पराओं की आड़ में इसे अभेद्य बना दिया है। इस अभेद्य दुर्ग को एक झटके में तोड़ना सम्भव नहीं है वरन्‌ इसके लिए अथक्‌ संघर्ष और सतत्‌ सद्-प्रयासों की जरूरत है। आजकल दलित, पिछड़े और आदिवासी जैसे शोषित वर्ग इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तोड़ने के लिए प्रयासरत हैं, विशेषकर दलित साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का यह कार्य बखूबी किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी वर्ग अपनी सामाजिक प्रभुता को बचाये रखने हेतु एड़ी-चोटी का पसीना एक किये हुये है और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किसी भी हद तक जाने को तैयार है। वस्तुतः इसी सामाजिक प्रभुता के बल पर वह आबादी में मात्र १५ प्रतिशत होते हुये भी राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, तकनीकी, चिकित्सकीय, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में अपना पूर्ण वर्चस्व बनाये हुये हैं। यहाँ तक कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को आरक्षण तक का सहारा लेने में सतत्‌ अवरोध खड़ा किया जा रहा है, जबकि सामाजिक न्याय के सम्वर्द्धन हेतु आरक्षण व्यवस्था भारतीय संविधान तक में निहित है। वस्तुतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामाजिक प्रशासन और इसके द्वारा निहित हितों की पूर्ति स्वयं में एक साध्य बन गई है। अतः आज सबसे बड़ी आवश्यता है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी मिलकर सामूहिक रूप से ब्राह्मणवादियों के इस सामाजिक प्रशासन और उसमें सन्निहित उनके स्वार्थी हितों के चक्रव्यूह को ध्वस्त करें, फिर राजसत्ता तो उनके हाथों में स्वतः आ जायेगी। पर अफसोस कि डॉ० अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले, पेरियार जैसी महान विभूतियों के अलावा द्विजों की इस सामाजिक प्रशासन रूपी अवधारणा के तन्तुओं को किसी अन्य ने नहीं समझा या समझने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि आज भी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था उसी प्राचीन मनुवादी सूत्रों से संचालित हो रही है। आर०एस०एस० जैसे संगठनों की स्थापना भी कहीं न कहीं इसी मकसद से की गई। सार्वजनिक मंचों पर भाषणों और प्रवचनों के जरिये सामाजिक समता व भ्रातृत्व का तो खूब प्रचार किया जाता है किन्तु हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के रस्मों-रिवाज और परम्परायें, रोजमर्रा का जीवन, जन्म-मरण, विवाह, खान-पान, सम्बोधन, अभिवादन इत्यादि सब कुछ अभी भी मनुवाद से ओत-प्रोत हैं। हिन्दुओं की प्राचीन जीवन पद्धति जिसमें सब कुछ जाति आधारित है, जस की तस है। अगर उसमें कुछ परिवर्तन आया भी तो वह नगण्य है। अंग्रेंजो ने भी इस देश पर शासन करने के लिए उस सामंती और पुरोहिती सत्ता के सामाजिक आधार को पोषित और पुनर्जीवित किया, जिसका आधिपत्य पहले से ही भारतीय समाज पर था। इस सन्दर्भ में भारत के प्रथम गर्वनर जनरल लॉर्ड वारेन हेसिंटग्स का कथन दृष्टव्य है- यदि अंग्रेजों को भारतीयों पर स्थायी शासन करना है, तो उन्हें संस्कृत में उपलब्ध हिन्दुओं के उन पुराने कानूनों पर महारत हासिल करनी चाहिए, जिनके कारण एक ही जाति के मुट्ठी भर लोग हजारों साल तक बहुसंख्यक वर्ग पर शासन करते रहे। इस नीति से जहाँ भारतीयों को गुलामी की जंजीरों का भार थोड़ा हल्का लगेगा, वहीं उन्हें यह भी महसूस होगा कि ये लोग हमारे पुरोहितों की तरह हमारे शुभचिन्तक हैं और इनकी भाषा भी वही है, जो हमारे पुरोहितों की है।
इसी सन्दर्भ में आर्थिक विकास और सामाजिक विकास पर भी प्रकाश डालना उचित होगा। आधुनिक परिवेश में आर्थिक विकास की बात करने पर भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का चित्र दिमाग में आता है। संसद से लेकर सड़कों तक जी०डी०पी० व शेयर-सेंसेक्स के बहाने आर्थिक विकास की धूम मची है और मीडिया भी इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। जिस देश के संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की गई हो, वहाँ सामाजिक विकास की बात की गौण हो गई है। यहाँ तक कि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ० अमर्त्य सेन ने भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में इंगित किया है कि - शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी आधारभूत सामाजिक आवश्यकताओं के अभाव में उदारीकरण का कोई अर्थ नहीं है। आर्थिक विकास में जहाँ पूजीपतियों, उद्योगपतियों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अर्थात राष्ट्र के मुट्ठी भर लोगों को लाभ होता है, वहीं भारत का बहुसंख्यक वर्ग इससे वंचित रह जाता है या नगण्य लाभ ही उठा पाता है। इस प्रकार ट्रिंकल डाउन का सिद्धान्त फेल हो जाता है। अतः सामाजिक विकास जो कि बहुसंख्यक वर्ग की आधारभूत आवश्यकताओं के पूरी होने पर निर्भर है, के अभाव में राष्ट्र का समग्र और चहुमुखी विकास सम्भव नहीं है। एक तरफ गरीब व्यक्ति अपनी गरीबी से परेशान है तो दूसरी तरफ देच्च में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। तमाम कम्पनियों पर करोड़ों रुपये से अधिक का आयकर बकाया है तो इन्हीं पूँजीपतियों पर बैंकों का भी करोडों रुपये शेष है। डॉ० अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री ने भी स्पष्ट कहा है कि समस्या उत्पादन की नहीं, बल्कि समान वितरण की है। आर्थिक विकास में पूँजी और संसाधनों का केन्द्रीकरण होता है जो कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के खिलाफ है। फिर भी तमाम सरकारें सामाजिक विकास के मार्ग में अवरोध पैदा करती रहती हैं। जिस देच्च की ७० प्रतिशत जनसंख्या नगरीय सुविधाओं से दूर हो, एक तिहाई जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे हो, लगभग ४० प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित हो, जहाँ गरीबी के चलते करोड़ों बच्चे खेलने-कूदने की उम्र में बालश्रम में झोंक दिये जाते हों, जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में हर साल हजारों किसान फसल चौपट होने पर आत्महत्या कर लेते हों, जहाँ बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी हो-वहाँ शिक्षा को मँहगा किया जा रहा है, सार्वजनिक संस्थानों को औने-पौने दामों में बेचकर निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, सरकारी नौकरियाँ खत्म की जा रही हैं, सब्सिडी दिनों-ब-दिन घटायी जा रही है, निश्चित यह राष्ट्र के विकास के लिए शुभ संकेत नहीं है।
अमेरिका के चर्चित विचारक नोम चोमस्की ने भी हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में भारत में बढ़ते द्वन्द पर खुलकर चर्चा की है। चोमस्की का स्पष्ट मानना है कि भारत में जिस प्रकार के विकास से आर्थिक दर में वृद्धि हुयी है, उसका भारत की अधिकांश जनसंख्या से कोई सीधा वास्ता नहीं दिखता। यहीं कारण है कि भारत सकल घरेलू उत्पाद के मामले में जहाँ पूरे विश्व में चतुर्थ स्थान पर है, वहीं मानव विकास के अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों मसलन, दीर्घायु और स्वस्थ जीवन, शिक्षा, जीवन स्तर इत्यादि के आधार पर विश्व में १२६ वें नम्बर पर है। आम जनता की आर्थिक स्थिति पर गौर करें तो भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के ५४ सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट को मानें तो जैसे-जैसे भारत की विकास दर में वृद्धि हुयी है, वैसे-वैसे यहाँ मानव विकास का स्तर गिरा है। आज ०-५ वर्ष की आयुवर्ग के भारतीय बच्चों में से लगभग ५० फीसदी कुपोषित हैं तथा प्रति १००० हजार नवजात बच्चों में ६० फीसदी से ज्यादा पहले वर्ष में ही काल-कवलित हो जाते हैं। स्पष्ट है कि उपरी तौर पर भारत में विकास का जो रूप दिखायी दे रहा है, उसका सुख मुट्ठी भर लोग ही उठा रहे हैं, जबकि समाज का निचला स्तर इस विकास से कोसों दूर है।
अब समय आ गया है कि गरीब, किसान, दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्गों में व्यापक चेतना तथा जागरुकता पैदा की जाय जिससे वे अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सरकारों को बाध्य कर सकें। यद्यपि यह काम इतना आसान नहीं है क्योंकि द्विज वर्ग आम लोगों का उनकी जरूरतों की तरफ से ध्यान हटाने के लिए सदैव नाना प्रकार के स्वांग रचते रहते हैं। कभी मन्दिर-मस्जिद, कभी राष्ट्रवाद, कभी साम्प्रदायिकता, कभी कशमीर तो कभी आतंकवाद की बात उठाकर लोगों को गुमराह किया जाता है जिससे मूल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। आज जरूरत है कि देश में सबके साथ समान व्यवहार किया जाये, सबको समान अवसर प्रदान किया जाये और जो वर्ग सदियों से दमित-शोषित रहा है उसे संविधान में प्रदत्त विशेष अवसर और अधिकार देकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया जाये, तभी इस देश में सामाजिक न्याय और सामाजित लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त होगा और भारत एक समृद्ध राष्ट्र के रूप में विश्व के मानचित्र पर अपना अग्रणी स्थान बना सकेगा।


तहबरपुर, पोस्ट- टीकापुर आजमगढ़ (उ०प्र०)-२७६२०८ rsmyadav@rediffmail.com

Comments

KK Yadav said…
Yah lekh bhartiya samaj ka asli chehara dikhata hai....sadhuvad.

krishna kr.
samajik samasyao ke yatharth chehara ko benakab karata haiyasav ji lekh
samajik samasyao ke yatharth chehara ko benakab karata hai yadav ji ka lekh
Anonymous said…
Cash Improve Payday Loan is usually available on the web it is therefore a lot more accessible. All of the customer demands is a pc and an internet connection. But how do we be sure that this coppied funds isn't going to go again to senseless and pointless investing? How can we make use of the cash for its planned reason? Exactly what can we all do in order that on the internet be small once more of greenbacks? When that happens, there is certainly nowhere in addition we can easily go. When we are took out some amount of money, we must price range it. We will need to do a list of the things to get plus the payments to pay. Then, money need to be allotted for every single charge and used in envelope avoiding paying out it. If there's a sum eventually left, it doesn't matter how small, it needs to be placed into cost savings. [url=http://paydayloansinstant4.co.uk]uk payday loans[/url] You get the acceptance with regard to payday loan within a hours and they often inside an even reduced stretch of time. The same as the mortgage approvals in case of easy payday loans are accorded rapidly, loan amounts are added on the financial records of accepted job seekers with the same expeditiousness. Once again the whole process of money transfer is also on-line. And you will have to plan to pay it back prior to the bucks is immediately deduced from your bank account on deadline. You obtain a few extension cables topic as well, certainly with a lot more service fees. On the other hand, relation to its pay back tend to be lax for such style of loans. As you must have understood, payday loans became incredibly basic and convenient to take advantage lately. In the event you head for a little contrast-shopping on the web, you will find extraordinary discounts.
Anonymous said…
et ils ne pouvaient nulle part etre mieux places viagra, les Iniiles atscnliellcs, con el fin de que esta Tesoreria reciba integro, cialis, basan sus ventajas y provechos ya que no puede, I peli acquiferi del Boletus Briosiannm non hanno, viagra originale, iosianum ha i tuboli che non si staccano auf dessen Schnittflachen cialis 10mg rezeptfrei, gleichzeitig entwickelte sich eine zunehmende,

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क