Skip to main content

दादूदयाल : एक परिचय

शगुफ्ता नियाज़
मध्यकालीन भारतीय इतिहास (१५वीं शती से लेकर १७ वीं शती तक) सन्तों की वाणी में सिमट आया है। भारत का मध्यकाल सम्राटों एवं सामन्तों का युग था। उस समय में सर्वाधिक विशमता अधर्म थी तथा उसी समय भारत की संवेदनशील लोक चेतना में से उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक करूणा और मानवता के अनेक स्रोत फूट उठे जिन्हें हम सन्त कहते हैं।१
मययुगीन सन्त काव्य परम्परा में निश्चित रूप से दादू एक गौरवमयी विभूति है। दादू का काव्यत्व लोकमानस में अब तक जीवित रहा है और आगे भी रहेगा। उनके काव्य का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी भारतीय जनता के लिए अमृत वाणी के रूप में विद्यमान है। दादू की रचना का मूल पाठ भले ही विकृत हो गया हो परन्तु उन्होंने जो साहित्य सर्जन किया था वह आज भी लोक मानस में जीवित है।२
कवि युग द्रष्टा होता है। उसी कवि की रचनाएं सफल कही जाती है जो तत्कालीन दशा का ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक होती है। कवि की मानसिकता के निर्धारण में आस-पास के वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आस-पास का वातावरण कवि के मस्तिष्क को आधार प्रदान करता है। जो काव्य का माध्यम बनता है। यद्यपि संतों की साधना का स्वरूप आध्यात्मिक है परन्तु वे अपनी साधना का क्षेत्र सामाजिक चेष्टाओं को ही बनाते हैं।३ जिस समाज में वह जन्म लेता है वह आस-पास के परिवेश में हो रहे त्रास को भोगता है। इस भोगे हुए यर्थाथ को ही संतो ने अपनी वाणी का माध्यम बनाया है।
दादू के काव्य में कृषक एवं शिल्पी जीवन सम्बन्धी पृष्टभूमि को अच्छी तरह से समझने के लिए दादू का जीवन परिचय, व्यक्तित्व, जीवन दर्शन आदि परिवेश के बारे में जानना आवश्यक है।
सर्वप्रथम दादू के वैयक्तिक जीवन परिवेश पर एक विमर्शातमक दृष्टि से विचार करेंगे जिसने उन्हें अपनी काव्य-चेतना और उससे सन्दर्भित रूपक चेतना की संरचना के लिए प्रेरित किया।
दादू का व्यक्तित्व
सन्त शिरोमणि दादूदयाल का आविर्भाव साहित्य और समाज की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। यदि अन्याय और उत्पीड़न के समय में कोई समाज अपनी संवेदनशील चेतना के गर्भ से सन्त को जन्म नहीं दे पाता, तो वह अपने ही बोझ से डूब जाता है। सम-विषम का अन्तर्द्वन्द्व सामाजिक प्रक्रिया का आयाम है। यदि किसी समाज में संवेदनशीलता क्षीण हो जाये तो सम्भव है कि वहाँ सन्त का आविर्भाव न हो। उस दशा में समाज स्वयं टूट सकता है।४ उनका व्यक्तित्त्व केवल मानसिक गुण-दोष एवं प्रवृत्तियों का सार ही नहीं है बल्कि उनके चरित्र की विशेषताओं का आधार स्तम्भ था। वह उनके आन्तरिक जीवन का प्रकाशन है जिसमें व्यक्ति की प्रकृति, स्वभाव, अनुभवजन्य प्रवृत्तियाँ, चारित्रिक गुण-दोष, व्यक्तियों के प्रति व्यवहार, क्रिया-कलाप, रूप सौन्दर्य, ऐन्द्रिक क्षमताएँ, स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति, ज्ञान, तर्क-वितर्क, चिन्तन शक्ति, बौद्धिक और भावात्मक प्रवृत्तियों का समावेश होता है।५
मनुष्य का व्यक्तित्त्व वह अमूल्य निधि है जिसे प्राप्त करके व्यक्ति स्वयं की संकुचित सामान्य व साधारण सीमाओं से परे होकर व्यापकता, असामान्यता व असाधारणता को सहज ही अपना लेता है। वह अमृत तुल्य आत्म निधि है जिसको पाकर व्यक्ति अमर हो जाता है। व्यक्तित्त्व ही एक ऐसी निधि है जिसकी सुन्दरता स्वयंमेव व्यक्ति की सीमित, असुन्दर व छोटे स्वरूप को असीम सुन्दरम्‌ और महिमामय बनाकर उसको समाज के सामने प्रस्तुत करती है। सन्त के व्यक्तित्त्व की सार्थकता इसी पर आधारित है और किसी व्यक्तित्त्व को समझने के लिए उसके स्वभाव को जानना बहुत जरूरी है क्योंकि स्वभाव व्यक्तित्त्व का एक अभिन्न अंग है। स्वभाव से व्यक्तित्त्व का निर्माण होता है। इसलिए आत्मप्रेरक व्यक्तित्त्व ही जीवन के लिए संजीवनी समसिद्ध होती है। अतः दादू का स्वभाव और व्यक्तित्त्व भी तद्युगीन समाज के लिए संजीवनी सम ही था जहाँ उनके एक ओर उनके दैन्य व दयालु भाव एवं द्रवित प्रवृत्ति के कारण उनकी शिवमय प्रकृति का बोध होता है तो दूसरी ओर उनके सरल स्वभाव से उनके सत्यमय स्वरूप का परिचय होता है। अतः सन्त दादू के सत्य, शिव और सुन्दर स्वाभाविक स्वरूप का स्तुल्य व सराहनीय समन्वय तद्युगीन अस्तित्त्व के बहुमुखी संघर्ष में रत समस्त समाज के लिए संजीवनी-सम मणिकांचल योग के समान सौन्दर्यमय रूप धारण कर नवीन प्रेरणा का संदेश देता है।६
सन्त दादूदयाल के इस सरल, विनम्र, शान्त, शील, सत्य, संतोष और परोपकारी युक्त व्यक्तित्त्व ने पूरे मध्यकालीन साधकों में उच्च स्थान दिया है तथा पूरे सनातनी जीवन को नवीन आशा-आकांक्षाओं के साथ प्रस्फुटित किया है। उनके दयालु व्यक्तित्त्व ने समाज के समग्र जीवन को प्रभावित करके नयी आशाओं को सिंचित कर उसमें नये मूल्यों का संचार किया है। उन्होंने अपने युगीन परिवेश के साथ सच्चे प्रतिनिधि बनकर सजग व जागरूक प्रहरी का कार्य किया है। वे एक सच्चे धर्म सुधारक, समाज सुधारक और रहस्यवादी कवि थे। एक निडर व्यक्तित्त्व वाला साधक ही धर्म सुधारक तथा समाज सुधारक बन सकता है।७
दादू में नम्रता सर्वप्रधान गुण है। उनके व्यक्तित्त्व के बारे में कहा गया है कि सन्त दादूदयाल का व्यक्तित्त्व अत्यन्त आकर्षक था और उनके कोमल एवं हृदयग्राही स्वभाव के कारण अनेक व्यक्ति उनके प्रभाव में आ जाते थे उनके सत्संग का प्रभाव लोगों पर इस प्रकार पड़ता था कि वे उन्हें अपना गुरू तक स्वीकार कर लेते हैं और उनके आदेशानुसार आजीवन आचरण करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं।८
दादू के व्यक्तित्त्व के सामने पाखंडी, अहंकारी और दम्भी का अस्तित्त्व अपने आप ही समाप्त हो जाता है उनके कोमल, कान्त व करूणामय स्वभाव ने पारस की तरह सबको स्पर्श कर निकटता स्थापित कर सिर्फ अपनी ओर ही आकर्षित नहीं किया बल्कि उन्हें स्वर्णिम बनाने का सफल प्रयास भी किया है। वे सम्पूर्ण मानव जाति, समग्र विश्व और प्राणी मात्र के परम सेवक थे यही विश्व सेवक दादू निश्चित ही उस असीम व अनन्त की सेवाओं में सदैव दन्तचित्‌ रहने वाले असाधारण साधक थे, महान भक्त थे, महात्मा थे और अपने समय के गहन चिन्तनशील विचारक और सजग द्रष्टा। सरलता, स्वाभाविकता और शान्ति उनके स्वभाव के साथ घुलमिल गयी थी तो सम्य, शील और सन्तोष उनके व्यक्तित्त्व के साथ एकाकार हो चुके थे। दूसरों के दर्द को देखकर मोम की तरह करूणामय अंतःकरण के कारण एवं दैन्य और दयालुता की दिव्यता के कारण दादू दयाल कहलाये।९
दादू का आकर्षक व्यक्तित्त्व, हृदयग्राही स्वभाव, मनहरण वार्तालाप और प्रभावोत्पादक विचार निश्चित ही उनके साधारण जीवन की ज्योतिर्मय विशिष्टताएँ थी।१० डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिका में दादू के व्यक्तित्त्व के बारे में लिखा है - इनके स्वभाव में अमिय मिश्रित मधुरता अधिक थी। सामाजिक कुरीतियाँ, धार्मिक रूढ़ियों और साधना-सम्बन्धी मिथ्याचारों पर आघात करते समय दादू कभी उग्र नहीं होते थे अपनी बात कहते समय वे बहुत नम्र और प्रीत दिखते हैं।११ दादू के मधुर स्वभाव ने आश्चर्य जनक असर पैदा किया है यही कारण है कि दादू को अधिक शिष्य और सम्मानदाता मिले दूसरों की अपेक्षा अर्थात्‌ कबीर के।१२
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी वाणियों में प्रेमभाव निरूपण अधिक सरस और गम्भीर माना है।१३
डॉ० रामकुमार वर्मा ने लिखा है - दादू इतने अधिक दयालू थे कि लोग इन्हें दादूदयाल के नाम से पुकारने लगे।१४
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दादू दयाल स्वयं प्रखर बुद्धि के महात्मा थे। उनके व्यक्तित्त्व और स्वभाव की अमिट छाप का कारण उनका दयामय स्वभाव और दयापूर्ण व्यक्तित्त्व था। इन सबकी वजह से उनके व्यक्तित्त्व को उभारता है। यह दयाभाव धर्म का वृक्ष है जिसे सत्य के शुद्ध जल द्वारा खींचा जाता है तभी वह फलता फूलता है। अतः ये इस दयाभाव के धर्म वृक्ष के अमर फलों का सेवन करना चाहते हैं। जिसमें सत्य, शील, संतोष के भाव स्वाभाविक रूप में विद्यमान रहते हैं। दादू को दया की दयालुता और दयामय स्वभाव की एवं दयापूर्ण व्यक्तित्त्व की प्रतिमूर्ति कहा है।
जीवन काल
कवि की रचनाओं की स्वरूप संरचना में जन्म काल की एक अहम्‌ भूमिका होती है। सन्त एवं भक्त कवियों के जन्मकाल के सम्बन्ध में प्रमाणिक रूप से निर्णय करना सम्भव नहीं होता। ये अपने बारे में किसी प्रकार का कोई अवलोकन नहीं करते। यही कारण है कि अनेक भक्त सन्त कवियों की प्रमाणिक जीवनी को जानना अत्यन्त कठिन है। इनमें से कुछ की तो समकालीन सन्तों की परिचयात्मक या प्रषंसात्मक वर्णन मात्र से जानकारी सम्भव हो सकी है। परन्तु कुछ की सिर्फ अनेक किवदंतियों जन्मश्रुतियों या सम्प्रदायों या प्रषिष्यों की अतिष्योक्ति युक्त वर्णन से जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इस विषम परिस्थिति में अन्तः साक्ष्य और वाह्य साक्ष्य पर आधारित अनुसंधानात्मक वैज्ञानिक अध्ययन ही एक मात्र उपाय रह गया है, जिसके माध्यम से सन्देह के अन्धकार को दूर कर सत्य तथ्यों का सहारा ले, इन महापुरूषों की जीवनियों को प्रकाश में लाया जा सकता है।
दादू का जीवन-काल
सन्त दादू की जीवनी को प्रस्तुत करते समय हमारा लक्ष्य उनके जीवन सम्बन्धी तथ्यों को सन्दर्भ में विस्तार से देना उचित नहीं समझा क्योंकि अनेक विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में जीवन एवं जन्म-मृत्यु का उल्लेख पर्याप्त रूप में देखने को मिल जाता है। इन सबके आधार पर दादू के जीवन सन्दर्भों को आधार बनाकर उनकी रूपक चेतना को रेखांकित करना है।
दादू के बारे में चाहे जितनी भी किंवदन्तियाँ प्रचलित हो, पर उनके जन्म को लेकर अधिक विवाद इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने नामदेव, पीपा, रैदास व कबीर आदि सन्त कवियों का सादरपूर्वक अपनी साखियों में स्मरण किया है और यह स्मरण उनके परवर्ती होने का प्रमाण बन जाता है। उदाहरण स्वरूप देखिये -
नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै।
दादू बेगि बार नहि लागै, हरि सौ सबै सरै॥१५
दादू ने कबीर की मगहर में देहान्त के सम्बन्ध का भी अपनी साखियों में उल्लेख किया है। यथा -
काशी तजी मगहर गया, कबीर भरोसे राम,
सन्देही साई मिला, दादू पूरे काम।१६
इससे यह स्पष्ट है कि सन्त दादू ने उक्त सन्तों के पश्चात्‌ ही जन्म लिया था। सन्त नामदेव का जन्म समय कार्तिक ११ शक सम्वत्‌ ११९२ तद्नुसार सन्‌ १२६० ई० अथवा वि० सम्वत्‌ १३२६ कहा जाता है१७ तथा रैदास का समय भी विक्रम सम्वत्‌ १६०० के पूर्व अर्थात्‌ १५४३ ई० माना जाता है।१८
सन्त दादू के सदैव साथ रहने वाले उनके प्रमुख शिष्य स्वामी जनगोपाल ने जन्म लीला परची में भी यही कहा है -
संवत सोलह सौ इकात्तर, सन्त एक उपज्यौ भूमि पर
पच्छिम दिया अहमदाबाद तीठां साच परगटै दादू।१९
सन्त साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान क्षिति मोहन सेन और भक्त के रचयिता भी इसी जन्मतिथि (सन्‌ १५४४ ई०) को स्वीकार करते हैं।
वेलवेडियर प्रेस के संस्करण के अनुसार दादू का जन्म विक्रम सम्वत्‌ १६०१ अर्थात्‌ सन्‌ १५४४ ई० में हुआ था।२०
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मिश्र बन्धु, डॉ० नगेन्द्र, डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी ने भी इसी तिथि को स्वीकार किया। अतः उपयुर्क्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि दादू का जन्म सन्‌ १५४४ ई० को अर्थात्‌ १६वीं शताब्दी के मध्य मानकर चल सकते हैं।
सन्त दादू की मृत्यु के सन्दर्भ में विद्वानों में किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है। स्वामी जनगोपाल कृत जन्मलीला परची में उनकी मृत्यु का समय सम्वत्‌ १६६० की ज्येष्ठ बदी अष्टमी अर्थात्‌ सन्‌ १६०३ ई० माना गया है -
संवत सोलह सौ अठ साठा, जेठ बदी जु गए दिन आठा।
थावर पहर चढ्यौ दिन जबहि, ढिग के सिस सुध पाई तबहि॥२१
राघवदास कृत भक्त माल में इसी तिथि को मान्यता दी है -
सोलह सौ आठ में, जेठ आठे सनवार।
कृष्य पीष दिन पहर चढ़ता, स्वामी मिले करतार॥२२
यही तिथि दादू सम्प्रदाय में भी मानी जाती है। इसी कारण दादू सम्प्रदाय की प्रमुख गद्दी नराणा में आज भी फाल्गुनी ५ से ११ तक सात दिवस का मेला लगता है। इस प्रकार उनकी मृत्यु जेठ सुदी ८, सम्वत्‌ १६६० मानना ही समीचीन है।२३ मानक हिन्दी कोश में भी इसी तिथि को मान्यता दी है।
जीवन स्थली
संत दादू दयाल के जन्म स्थान के संदर्भ में अभी कुछ निर्णयात्मक ढंग से नहीं कहा जा सकता है। दादू के जन्म के सन्दर्भ में प्रचलित कुछ किवदंतियों के आधार पर दादू का जन्म स्थान अहमदाबाद माना जाता है। ऐसा विश्वास है कि अहमदाबाद नगर में लोदी रामजी नागर ब्राह्मण थे। उनके कोई संतान नहीं थी। अतः संतान प्राप्ति के लिए संत महात्माओं की बड़ी प्रेम से सेवा करते थे, प्रातः साबरमती में रोज स्नानार्थ जाते थे, एक दिन आते हुए एक तपःपूत महात्मा द्वारा वरदान प्राप्त हुआ कि सुबह स्नान करने साबरमती नदी में जाने पर तुम्हें नदी प्रवाह में कमल के फूलों में क्रीड़ा करते हुए एक दिव्य ब्रह्मज्ञानी बालक की प्राप्ति होगी, जैसा कि सद्गुण सागर के उद्धरण से स्पष्ट है -
गैबी संत मिल्यो तिहि बारा, करी बनिती चरन मंझारा।
मांग प्रानि यह वचन उचारा, तू चाहे तो देऊं सारा।
तू चाहे सो देहूँ तोई, भक्ति मुक्ति कामना कोई।
इस प्रकार संत के मिलने पर वरदान रूप में पुत्र प्राप्ति मांगी जिसके लिए जनगोपालजी कद्यत जन्मलीला में लिखा है-
सुन लो एक अरज हमारी, पुत्र बिना दुःख है भारी।
संत कद्यपा कर गिरा उचारी, जाह नदी तट बड़े संवारी।
दियो पुत्र तेहि ब्रह्म विचारी, देवे कुल को केई तारी।
बड़े संवार नदी तट जावै, बालक अधर सो तिरते आवै।
गोद माहि तब लेकर आयो, गैब दूध माता के पायो।
इहि विधि स्वामी जन्म जुलिया, लोदीराम पुत्र यों किया।२४
पाष्चात्य विद्वान नाइकल मैक्निकल२५ ने भी अपनी पुस्तक में इसी मत का समर्थन किया है। सन्त दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में हुआ था या नहीं, यह निर्णय करना हमारे कार्य का अंग नहीं है, उनका जन्म कहीं भी हुआ हो लेकिन उनकी जीवन साधना उनके जन्म स्थान से प्रारंभ नहीं होती। ऐसा माना जाता है कि अपनी वय के १८वें वर्ष में महान विभूति दादू ने अहमदाबाद छोड़ दिया और छः साल तक वे परिव्राजक की तरह जगह-जगह घूमते रहे और २६वर्ष की आयु में सांभर आए। यहीं से उन्होंने अपना सदुपदेश देना प्रारम्भ किया। इस स्थिति में भी दादू सांभर में ही टिक कर नहीं रहते थे। ३२वें वर्ष तक सांभर को अपना केन्द्र बनाने के बाद दादू आम्बेर आ गए। १३-१४ वर्ष के लिए आम्बेर दादू के ज्ञान प्रसार के परिवेश का केन्द्र रहा। अतः इस अवधि में भी दादू आम्बेर में स्थिर होकर नहीं बैठे। सन्‌ १६४५-४६ में ४४-४५ वर्ष की आयु में दादू ने अपने ज्ञान का प्रचार करने के लिए बड़ी यात्रा आरंभ की जो १०-१२ वर्ष तक निरन्तर चलती रही। १२ वर्ष की इस अवधि में सं० १६५५ में दादू नराणा आ गए। ५९ वे वर्ष में पुनः नराणा आकर दादू ने इस भौतिक शरीर को त्याग दिया।२६


Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क