- डॉ. हरेराम पाठक
स्त्रीवादी लेखन क्या है? उसका समग्र रूप क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर देती हुई प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका वी. वीरलक्ष्मी देवी कहती हैं - ‘‘पितृ सत्तात्मक समाज की पहचान के रूप में चले आ रहे स्त्री के वक्ष को ढकने वाले पल्लू को जला डालने का काम सबसे पहले करना चाहिए। यह बताने के लिए जय प्रभा ने ‘‘पल्लू को फूँक दो'' नामक कविता लिखी।''
‘‘जिस संस्कृति ने पुरुषों द्वारा स्त्री के ऊपर चटखारे भरा वर्णन किया जाता है, उस संस्कृति को खत्म कर देना है।''
‘‘अपने शारीरिक परिवर्तनों के प्रति स्त्री का स्पंदन स्वानुभूति के आधार पर होना चाहिए।''
‘‘रजोधर्म स्त्री की प्रकृति-दत्त क्रिया है। उसको धार्मिक प्रतिबंधों के घेरे में लाकर और निषिद्ध विषय के रूप में चित्रिात करके स्त्री की अवमानना की गई है। समाज में बद्धमूल इस विचार पद्धति का मूलोच्छेद अत्यंत आवश्यक है।''
‘‘संतानोत्पत्ति के केन्द्र के रूप में परिणत स्त्री को और इसमें स्वेच्छा न रखने वाली स्त्री को अपनी प्रसव वेदना का उद्घोष करने की जो आवश्यकता है, उसे स्त्रीवादी कवयित्रिायों ने पहचाना।''
‘‘चूँकि स्त्रियाँ संतानोत्पत्ति द्वारा सामाजिक उत्पादन में भागीदारी कर रही हैं, इसलिए इस कार्य को समाज के उत्पादक श्रम के एक भाग के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए।''
‘‘घर का काम और रसोई घर की चाकरी भी जब सामाजिक उत्पादन का एक हिस्सा बनेंगे तभी स्त्रियों की चाकरी का मूल्य होगा और जब तक ऐसा नहीं होगा, स्त्री रसोई घर की बाँदी ही रहेगी।''१
आज वी. वीरलक्ष्मी ही नहीं अधिकांशतः स्त्रीवादी लेखिकाएँ उपर्युक्त दलीलें पेश कर रही हैं, और इसे ही नारी-मुक्ति का क्रांतिकारी कदम मानने लगी हैं।
जिस दिन समाज ने स्त्री के वक्ष को ढकने के लिए दुपट्टे की व्यवस्था की होगी, उस दिन यह सोचा भी न होगा कि वही स्त्री एक दिन उसकी दी हुई व्यवस्था पर ‘पितृ सत्तात्मक' होने का आरोप लगायेंगी। कवयित्री जयप्रभा ‘पल्लू को फूँक दो' नामक कविता में उद्घोषणा करती हैं - ‘चाहूँ कि चलता-फिरता शव न बनूँ। तो पहले पल्लू को फूँकना होगा।' प्रश्न उठता है कि क्या पल्लू को फूँक देने से नारी चलता-फिरता शव बनने से बच पायेगी? नारी शरीर के चंद वस्त्रों को जला डालने से नारी मुक्ति नहीं हो जाया करती, मुक्ति मन की होती है। स्त्री को शव बनने से बचाने के लिए वैचारिक आन्दोलन की आवश्यकता है। उसे यह ख्याल रखना होगा कि उसकी लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष से नहीं है, थोपी गई, अप्रासंगिक, अप्राकृतिक एवं अवमूल्यित हो चुकी ऐसी जड़ प्रथाओं से है जो नारी-अस्मिता के साथ क्रूर मजाक करती आयी हैं। इस प्रकार के नारी-जागरण एवं नारी-मुक्ति के मार्ग से स्वयं नारियाँ भी बाधक बन सकती हैं अथवा बनी हुई हैं। अतः वैसी नारियों की मनोवृत्ति को परिष्कृत कर उनमें वैचारिक एवं उद्देश्यपूर्ण उर्ध्वमुखी क्रांतिकारी चेतना भरने की आवश्यकता है। स्त्रीवादी आन्दोलन का उद्देश्य स्त्री को कमजोर बनाने वाले हरेक
जीवाणु से लड़ने के लिए होना चाहिए, चाहे वह जीवाणु पुरुष प्रकृति की देन हो या स्त्री प्रकृति की। परन्तु आश्चर्य की बात है कि आज नारी-मुक्ति आन्दोलन इन सारी बातों को नजर अंदाज कर वैवाहिक मान्यताओं को तोड़ने, दुपट्टे को जलाने, देह-मुक्ति के नारे लगाने, मातृत्व को पांव की बेड़ी बतलाने, संतानोत्पत्ति को उत्पादक श्रम मानकर परिवार को क्रय-विक्रय स्थल बनाने एवं धार्मिक मान्यताओं के प्रति अनास्था व्यक्त करने में लगा हुआ है।
स्त्रीवादी आन्दोलन के उद्देश्य को अभिव्यक्त करती हुई वी. वीरलक्ष्मी देवी कहती हैं - ‘‘पुरुषोचित विचार पद्धति द्वारा जड़ीभूत चेतना पर आघात करना ही इसका मुख्य उद्देश्य है।''२ प्रश्न उठता है कि यदि स्त्रियों के विचार स्वयं स्त्री के ही उत्थान में बाधक हों तो क्या उन पर कुठाराघात करने की आवश्यकता नहीं है?
वो लिखती हैं कि ‘‘स्त्री की दृष्टि से लैंगिक अनुभव का चित्रण निर्लज्जता का विषय माना जाता है''३ बिलकुल गलत है। साहित्य-मर्मज्ञों ने कभी भी स्त्री की दृष्टि से लैंगिक अनुभव के चित्राण को निर्लज्जता का नाम नहीं दिया है। संस्कृत साहित्य में स्त्री द्वारा किए गए ‘लैंगिक अनुभव' के सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं। कवयित्री विज्जिका देवी द्वारा लिखित एक उदाहरण प्रस्तुत है - ‘‘धन्यासि या कथयसि प्रिय-संगमेऽपि/ विश्रब्ध चाटुक शतानि रंतातरेषु।/नीवीं प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण/सख्यः शपामि यदि किंचदपि स्मरमि।''४ अर्थात् ‘‘हे सखि! तुम धन्य हो जो संभोग के समय भी विश्वास और धैर्य के साथ सैकड़ों मीठी-मीठी बातें कर लेती हो। मैं तो तुम सबके सामने शपथ करके कहती हूँ कि ज्यों ही प्रिय मेरी नीवी पर हाथ रखता है, त्यों ही बेसुध हो जाती हूँ और फिर मुझे कुछ याद ही नहीं रहता कि प्रिय ने क्या किया?'' इन पंक्तियों में स्त्री-पुरुष समागम में स्त्री को होने वाली अनुभूति का मार्मिक चित्राण है। मैं यह बता देना चाहता हूँ कि ‘काव्य प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट ने विज्जिका देवी द्वारा लिखित इन पंक्तियों की काफी सराहना की है एवं उन्हें ‘काव्यप्रकाश' में उद्धृत भी किया है। इस प्रकार स्वानुभूति के आधार पर नारियाँ सदियों से अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करती रही हैं और उसे पुरुष का समर्थन प्राप्त होता रहा है।
जिस प्रकार प्रत्येक आन्दोलन के आरम्भ में अनिश्चितता की स्थिति होती है, उसके स्वरूप एवं सिद्धान्त गठन में वैचारिक मतभेद होने लगते हैं उसी प्रकार नारी मुक्ति आन्दोलन को लेकर भी तरह-तरह की व्याख्याएँ प्रस्तुत की जाने लगी हैं। बहुत-सी लेखिकाएँ एवं लेखकगण नारी मुक्ति का सम्बन्ध स्त्री-देह की स्वतंत्रता से लगा रहे हैं। इस सम्बन्ध में राजेन्द्र यादव कहते हैं - ‘‘यदि आर्थिक आत्मनिर्भरता ही स्वाधीनता की कुंजी है तो जब तक स्त्री के पास देह है और संसार के पास पुरुष, तब तक स्त्री को चिंता की क्या जरूरत? जरूरत है तो देह को पुरुष के स्वामित्व से मुक्त करके अपने अधिकार में लेने की, क्योंकि यौन शुचिता, पतिव्रत, सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के सम्मान का नहीं पुरुष के अहंकार की दीनता और असुरक्षा का पैमाना है, पितृ सत्ता के मूल्य हैं और स्त्री की बेड़ियाँ हैं। जिसने ये बेड़ियाँ उतार दी हैं वह स्त्री विशिष्ट है।''५ इस प्रकार राजेन्द्र यादव नारी मुक्ति के नाम पर देह-व्यापार की अबाध छूट दे देते हैं। उनकी नजर में यौन-शुचिता पतिव्रत एवं सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के लिए बेड़ियाँ हैं। वे ‘आदमी की निगाह में औरत' नामक अपनी पुस्तक में स्त्री को वेश्यावृत्ति की हद तक छूट देने के पक्ष में हैं। वे लिखते हैं - ‘‘विडम्बना है कि नारी का अगर स्वतंत्र होना है तो वेश्या बनने के सिवा कोई रास्ता नहीं है, तभी वह जी सकेगी। वर्ना उसकी लगाम पिता, पति, पुत्र के ही हाथ में है।''६ अपनी बात की पुष्टि के लिए वे यशपाल की ‘दिव्या' का उदाहरण देते हैं और स्थविर के कथन को उद्धृत करते हैं कि ‘वेश्या स्वतंत्र नारी है।'७
वेश्यावृत्ति नारी दासता, विवशता एवं दीनता की पराकाष्ठा है जहाँ चन्द पैसों के लोभ में स्त्री पुरुष के इशारे पर नाचती है और पलभर के लिए ही सही पुरुष उसके जि+स्म का मनमाना प्रयोग करता है। क्या राजेन्द्र यादव की दृष्टि में यही है नारी मुक्ति? यदि यही नारी मुक्ति है तो नारी जीवन की इतनी शर्मनाक अधोगति कोई दूसरी हो भी नहीं सकती। देह-व्यापार उपभोक्तावादी संस्कृति की बेड़ियों में जकड़ी नारी जाति का सबसे घृणास्पद काला अध्याय है जिसे समूल नष्ट किए बिना नारी मुक्ति का झंडा उठाना कोरी राजनीतिक चालबाजी है। परन्तु राजेन्द्र यादव यह बात भला क्यों समझें। उपभोक्तावादी संस्कृति पर प्रहार करती हुई प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका जर्मेन ग्रीयर लिखती हैं - ‘‘क्रांति के लिए जरूरी है कि स्त्रियाँ पूँजीवादी राज्य में उपभोक्तावादी बनने से इंकार कर दें। ऐसा करके ही वह सम्बद्ध उद्योगों को करारा झटका दे सकती हैं।''८ यहाँ यह भी स्पष्ट है कि जर्मेन ग्रीयर केवल सम्बद्ध उद्योगों को झटका देने की बात ही कह रही हैं, स्त्रियों की उपभोक्तावादी मानसिक गुलामी से मुक्त होने की बात नहीं कह रही हैं। सच्चाई यह है कि उद्योगों को झटका देने की बात बाद की है पहले स्त्रियों को अपनी मानसिक गुलामी को झटका देना होगा। रमणिका गुप्ता उपभोग की शिकार स्त्रियों के पीछे पुरुष प्रधान समाज को सौ फीसदी जिम्मेदार ठहराती हुई कहती हैं - ‘‘क्या सामंती समाज या पूँजीवादी समाज में औरत उपभोग की वस्तु नहीं बनाई गई?''९ आज सारा समाज देख रहा है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था में औरत उपभोग की वस्तु बनने के लिए लालायित है। आज औरत ‘बदनउघाडू' विज्ञापन में घर से नाता तोड़कर भी शामिल होने की दौड़ लगा रही है। विश्व सुंदरियों का फिल्मी दुनिया का चक्कर लगाना एवं अंग प्रदर्शन में बढ़-चढ़कर भाग लेना क्या उनकी विकृत एवं अश्लील मानसिकता का द्योतक नहीं है? क्या इसके लिए भी पुरुष सत्तात्मक समाज ही दोषी है?
वी. वीरलक्ष्मी देवी संतानोत्पत्ति को उत्पादन का एक हिस्सा मानती हुई यह माँग करती है कि ‘‘इसे समाज में उत्पादक श्रम के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए और इस प्रकार घर में ही उसे वेतन भोगी नारी का एक अहं दर्जा मिलना चाहिए।''१० मेरी समझ में ऐसी मान्यताओं को स्थापित करने से घर परिवार संवेदनशून्य होकर क्रय-विक्रय का एक ऐसा व्यापार स्थल बन जायेगा जहाँ परस्पर प्रेम एवं सहयोग का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा और तब, जिस बाजारवाद की हम निन्दा कर रहे हैं उसका विस्तार चुहानी (रसोई घर) तक हो जायेगा। घर में ही बाजारवाद की एक नई संस्कृति जन्म लेगी। जिस संतानोत्पत्ति की महिमा से विभूषित ‘जननी' को स्वर्गादपि गरीयसी कहा गया है उसे उत्पादन का हिस्सा मानकर व्यापार का रूप देना विकृत मानसिकता का द्योतक है। ऐसी नारीवादी लेखिकाओं पर प्रहार करती हुई मृदुला गर्ग कहती है - ‘‘इस उग्र नारीवाद ने मातृत्व को स्त्री के पाँव की बेड़ी बताया और एकदम विपरीत पूर्वग्रह को जन्म दिया। यहाँ तक कि गर्भपात के अधिकार को नारी-स्वातंत्रय का पर्याय बना दिया गया। विडम्बना देखिए कि लड़ाई छिड़ी पश्चिम में और गर्भपात का निर्बाध अधिकार मिल गया हिन्दुस्तानी औरत को।''११ स्त्री पुरुष के दाम्पत्य जीवन की महिमा को महादेवी जी ने मुक्तकंठ से स्वीकार किया है एवं मातृत्व को महिमामंडित किया है। वे कहती है - ‘‘स्त्री पत्नी बनकर पुरुष को वह नहीं दे सकती जो उसकी पशुता का भोजन है। इसी से पुरुष ने कुछ सौन्दर्य की प्रतिमाओं को पत्नीत्व तथा मातृत्व से निर्वासित कर दिया। वह स्वर्ग में अप्सरा बनी और पृथ्वी पर वीरांगना।''१२ परन्तु अपने आपको उत्तर-आधुनिक मानने वाली तथाकथित नारी मोर्चा का कमान संभालने वाली नारियाँ भला महादेवी जी की बातों की ओर क्यों ध्यान दें? वी. वीरलक्ष्मी एवं रमणिका गुप्ता तथा पुरुषों में राजेन्द्र यादव विवाह संस्कार को पाँव की बेड़ी मानते हैं परन्तु महादेवी जी विवाह को तीर्थ मानती हुई कहती हैं - ‘‘यदि लड़की के जन्म के साथ विवाह की चिंता न कर उसके विकास के साधनों की चिन्ता की जाए, उनके लिए रुचि के अनुसार कला, उद्योग-धंधे तथा शिक्षा के दरवाजे खुले हों जो उन्हें स्वावलम्बी बना सकें तब अपनी शक्ति और इच्छा को समझकर यदि वे जीवन संगी चुन सकें तो विवाह उनके लिए तीर्थ होगा।''१३ महादेवी जी की विशेषता यह है कि वह वैवाहित जीवन से अलग होकर भी उसके (वैवाहिक जीवन) महत्त्व को अस्वीकार नहीं करती हैं। परन्तु राजेन्द्र यादव की दृष्टि में महादेवी जी की एकाकी जिन्दगी विद्रोह का प्रतीक है पुरुषों के प्रति विद्रोह का प्रतीक। वे मानते हैं कि रहस्यवाद की ओर महादेवी जी का झुकाव वस्तुतः ‘मेटाफिजिकल स्यूसाइड' है यानी तत्त्वतः आत्महत्या। दूसरे शब्दों में ‘‘यह सामाजिकता का अस्वीकार या स्थूल के प्रति सूक्ष्म विद्रोह है।''१४ वैसे राजेन्द्र यादव के लिए सामाजिकता, असामाजिकता के अपने बनाए हुए मानक हैं। अपनी बात की पुष्टि के लिए वे अलबर्ट कामू की उक्ति का सहारा लेते हैं। उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत' सही अर्थों में एक ऐसी पुस्तक है जिसमें ‘आदमी' नहीं बल्कि स्वयं उनकी ही दृष्टि में नारियों के प्रति भड़काऊ बयानबाजी की गई है।
कहना गलत न होगा कि नारी मुक्ति के नाम पर हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसे लेखन हुए हैं जिन्हें नारी मुक्ति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। उदाहरण स्वरूप दीप्ति खंडेलवाल की अचला(प्रतिध्वनियाँ) अपने पति को बता देती है कि उसके गर्भ में पलता बच्चा उसका नहीं, उसके प्रेमी का है। ‘मेरा नरक अपना है' निरुपमा सेवती का उपन्यास है जिसकी नायिका पिंकी का विवाह की जड़ प्रथा से विरोध है। वह सुनील के बच्चे की माँ बनती है, पर शादी नहीं करती। कुसुम अंसल का उपन्यास ‘उसकी पंचवटी' की नायिक साध्वी अपने पति के बड़े भाई का गर्भ धारण करती है। मृदुला गर्ग का बहुचर्चित उपन्यास ‘चित्तकोबरा' में विवाहेत्तर सम्बन्धों पर चटखारे भरा वर्णन है।
इन उपन्यासों के अतिरिक्त बहुत ऐसे नारी-लेखन हैं जिनमें पारिवारिक सामंजस्य एवं समरसता स्थापित करने की चेष्टा की गयी है। मृदुला गर्ग ने अपने एक उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप' में यह दिखलाया है कि उपन्यास की नायिका मनीषा अपनी अपरिपक्वता के कारण पति को छोड़कर प्रेमी के पास चली जाती है और पुनः प्रेमी पति से ऊबकर पूर्वपति से मिलने लगती है। नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी' की नायिका महरूख न अपने बाप के घर का आश्रय लेती है न अपने मनचले शौहर के पास ही रहती है। वह अपने परिश्रम के बल पर अपना अलग ‘घर' बनाने में सफल होती है जिसमें रहते हुए उसे न अपने शौहर का खौफ़ सताता है न बाप के घर से विदा होने का डर। मंजुल भगत की ‘अनारो' भी इसी प्रकार परिश्रम के बल पर अपने जीवन के रास्ते खुद तय करती है। कठगुलाब (मृदुला गर्ग) की सहज नायिकायें हैं - नर्मदा और मारियान, दोनों दमित शोषित होने के बावजूद सहजता और स्वाभाविकता से अपना विरोध दर्ज करती हैं। मानवीय करुणा पीड़ा और संवेदना के मूलभूत समीकरणों से परिचित और उन्हें आत्मसात् करती हुई उन दोनों के लिए यह समाज ही एक परिवार है। दोनों बंध्या नारियाँ इस सृष्टि को ही अपनी कोख का आंगन मानती हैं।१५ इस उपन्याय में लेखिका ने एक अहम् प्रश्न उठाया है - नमिता की आधुनिक विचारों वाली बेटी नीरजा पुरुष के साथ तभी संभोग करना चाहती है जब वह गर्भधारण कर सके, परन्तु जब उसे पता चलता है कि डिम्ब धारण के लिए वह सक्षम नहीं है तो उसके सारे क्रांतिकारी विचार हवा हो जाते हैं। इन सब उदाहरणों से ज्ञात होता है कि पारिवारिक मूल्यों को चुनौती देकर एवं लिंग सम्बन्धी प्राकृतिक देन एवं स्थापित बुनियादी मान्यताओं के खिलाफ़ प्रतिक्रियात्मक विष-वमन कर क्रांतिकारी नहीं हुआ जा सकता है। समाज में ऐसी अनेक समस्याएँ हैं जिनके उन्मूलन के लिए सार्थक एवं न्याय संगत लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है पर ये सारी लड़ाइयाँ समाज की सार्थक परम्पराओं के विरुद्ध नहीं बल्कि निरर्थक परम्पराओं के विरुद्ध होनी चाहिए।
जैनेन्द्र जी की ‘सुनीता' से चलकर जो कुंठाजनित नारी मुक्ति निर्वस्त्राीकरण के उदारवादी रास्ते से चलकर राजेन्द्र यादव के ‘आदमी की निगाह में औरत' तक आती है, वह ‘नारी मुक्ति' के नाम पर छलावा है। इस छलिया दर्शन को न समझ पाने के कारण बहुत-सी लेखिकायें भी अपनी रचनाओं के माध्यम से बड़ी चीजें परोसने लगी थीं जिसके लिए पुरुष बेचैन रहता है। परन्तु यह सुखद उपलब्धि कही जायेगी कि विभिन्न ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए नारी लेखन अब अपनी स्वस्थ परम्परा का मानक तैयार कर चुका है। इसकी अगली कड़ी अनामिका की पुस्तक ‘स्त्री का मानचित्रा' है। नारीवाद पर प्रकाशित इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में अनामिका ने स्त्री आन्दोलन के बुनियादी पहलुओं पर विचार करते हुए लिखा है -
स्त्री आन्दोलन, प्रतिशोध पीड़ित नहीं है।
स्त्री आन्दोलन की समर्थक स्त्रियाँ पुरुष नहीं बनना चाहतीं।
स्त्री और पुरुष की लड़ाई का व्याकरण सामंतों और आसामियों, पूँजीपतियों और मजदूरों, औपनिवेशिक ताकतों और शोषित के बीच की लड़ाई के व्याकरण से अलग है। सम्पन्न और विपन्न, ऊँच और नीच, शासक और शासित, गोरे और काले के बीच तो जंग छिड़ी है उनमें प्रतिपक्षियों के हित निकाय अलग-अलग है इसलिए हार और जीत वहाँ एक अलग ही मायने रखती है। लेकिन स्त्री और पुरुष के बीच की लड़ाई में हित निकाय अलग-अलग नहीं होते। दोनों का हित निकाय एक ही होता है-परिवार।स्त्री आन्दोलन धनी महिलाओं का कोरा वाग्विलास और न्यूज में बने रहने की उनकी साजिश नहीं है। ग्रासरूट स्तर तक इसका विस्तार है।१६
अनामिका की यह पुस्तक स्त्रीत्व का सही मानचित्रा बनाने में सफल होगी एवं स्त्री आन्दोलन की विभिन्न भ्रांतियों को दूर करती हुई स्वस्थ संभावनाओं की प्रतिष्ठा करने में सहायक सिद्ध होगी, ऐसी आशा है।
संदर्भ -
१. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-७५, पृ. १२६
२. वही, पृष्ठ १२६
३. वही, पृष्ठ १२७
४. कवीन्द्र वचन, पृ. २९८
५. हंस, फरवरी २०००, वक्तव्य, राजेन्द्र यादव
६. वर्तमान साहित्य, जून २००१, पृ. १५
७. वही, पृष्ठ १५
८. आजकल, मई २००१, पृ. ४५
९. वर्तमान साहित्य, मार्च २००१, पृ. ५
१०. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-७५, पृ. १२८
११. हंस, फरवरी २०००, आलेख, मृदुला गर्ग, पृष्ठ १६७
१२. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, पृ. ११५
१३. वही, पृ. ९९
१४. वर्तमान साहित्य, आदमी की निगाह में औरत, आलेख, राजेन्द्र यादव, पृ. १५-१६
१५. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-७५, पृ. १६१
१६. स्त्री का मानचित्रा, अनामिका, प्रस्तावना से
स्त्रीवादी लेखन क्या है? उसका समग्र रूप क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर देती हुई प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका वी. वीरलक्ष्मी देवी कहती हैं - ‘‘पितृ सत्तात्मक समाज की पहचान के रूप में चले आ रहे स्त्री के वक्ष को ढकने वाले पल्लू को जला डालने का काम सबसे पहले करना चाहिए। यह बताने के लिए जय प्रभा ने ‘‘पल्लू को फूँक दो'' नामक कविता लिखी।''
‘‘जिस संस्कृति ने पुरुषों द्वारा स्त्री के ऊपर चटखारे भरा वर्णन किया जाता है, उस संस्कृति को खत्म कर देना है।''
‘‘अपने शारीरिक परिवर्तनों के प्रति स्त्री का स्पंदन स्वानुभूति के आधार पर होना चाहिए।''
‘‘रजोधर्म स्त्री की प्रकृति-दत्त क्रिया है। उसको धार्मिक प्रतिबंधों के घेरे में लाकर और निषिद्ध विषय के रूप में चित्रिात करके स्त्री की अवमानना की गई है। समाज में बद्धमूल इस विचार पद्धति का मूलोच्छेद अत्यंत आवश्यक है।''
‘‘संतानोत्पत्ति के केन्द्र के रूप में परिणत स्त्री को और इसमें स्वेच्छा न रखने वाली स्त्री को अपनी प्रसव वेदना का उद्घोष करने की जो आवश्यकता है, उसे स्त्रीवादी कवयित्रिायों ने पहचाना।''
‘‘चूँकि स्त्रियाँ संतानोत्पत्ति द्वारा सामाजिक उत्पादन में भागीदारी कर रही हैं, इसलिए इस कार्य को समाज के उत्पादक श्रम के एक भाग के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए।''
‘‘घर का काम और रसोई घर की चाकरी भी जब सामाजिक उत्पादन का एक हिस्सा बनेंगे तभी स्त्रियों की चाकरी का मूल्य होगा और जब तक ऐसा नहीं होगा, स्त्री रसोई घर की बाँदी ही रहेगी।''१
आज वी. वीरलक्ष्मी ही नहीं अधिकांशतः स्त्रीवादी लेखिकाएँ उपर्युक्त दलीलें पेश कर रही हैं, और इसे ही नारी-मुक्ति का क्रांतिकारी कदम मानने लगी हैं।
जिस दिन समाज ने स्त्री के वक्ष को ढकने के लिए दुपट्टे की व्यवस्था की होगी, उस दिन यह सोचा भी न होगा कि वही स्त्री एक दिन उसकी दी हुई व्यवस्था पर ‘पितृ सत्तात्मक' होने का आरोप लगायेंगी। कवयित्री जयप्रभा ‘पल्लू को फूँक दो' नामक कविता में उद्घोषणा करती हैं - ‘चाहूँ कि चलता-फिरता शव न बनूँ। तो पहले पल्लू को फूँकना होगा।' प्रश्न उठता है कि क्या पल्लू को फूँक देने से नारी चलता-फिरता शव बनने से बच पायेगी? नारी शरीर के चंद वस्त्रों को जला डालने से नारी मुक्ति नहीं हो जाया करती, मुक्ति मन की होती है। स्त्री को शव बनने से बचाने के लिए वैचारिक आन्दोलन की आवश्यकता है। उसे यह ख्याल रखना होगा कि उसकी लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष से नहीं है, थोपी गई, अप्रासंगिक, अप्राकृतिक एवं अवमूल्यित हो चुकी ऐसी जड़ प्रथाओं से है जो नारी-अस्मिता के साथ क्रूर मजाक करती आयी हैं। इस प्रकार के नारी-जागरण एवं नारी-मुक्ति के मार्ग से स्वयं नारियाँ भी बाधक बन सकती हैं अथवा बनी हुई हैं। अतः वैसी नारियों की मनोवृत्ति को परिष्कृत कर उनमें वैचारिक एवं उद्देश्यपूर्ण उर्ध्वमुखी क्रांतिकारी चेतना भरने की आवश्यकता है। स्त्रीवादी आन्दोलन का उद्देश्य स्त्री को कमजोर बनाने वाले हरेक
जीवाणु से लड़ने के लिए होना चाहिए, चाहे वह जीवाणु पुरुष प्रकृति की देन हो या स्त्री प्रकृति की। परन्तु आश्चर्य की बात है कि आज नारी-मुक्ति आन्दोलन इन सारी बातों को नजर अंदाज कर वैवाहिक मान्यताओं को तोड़ने, दुपट्टे को जलाने, देह-मुक्ति के नारे लगाने, मातृत्व को पांव की बेड़ी बतलाने, संतानोत्पत्ति को उत्पादक श्रम मानकर परिवार को क्रय-विक्रय स्थल बनाने एवं धार्मिक मान्यताओं के प्रति अनास्था व्यक्त करने में लगा हुआ है।
स्त्रीवादी आन्दोलन के उद्देश्य को अभिव्यक्त करती हुई वी. वीरलक्ष्मी देवी कहती हैं - ‘‘पुरुषोचित विचार पद्धति द्वारा जड़ीभूत चेतना पर आघात करना ही इसका मुख्य उद्देश्य है।''२ प्रश्न उठता है कि यदि स्त्रियों के विचार स्वयं स्त्री के ही उत्थान में बाधक हों तो क्या उन पर कुठाराघात करने की आवश्यकता नहीं है?
वो लिखती हैं कि ‘‘स्त्री की दृष्टि से लैंगिक अनुभव का चित्रण निर्लज्जता का विषय माना जाता है''३ बिलकुल गलत है। साहित्य-मर्मज्ञों ने कभी भी स्त्री की दृष्टि से लैंगिक अनुभव के चित्राण को निर्लज्जता का नाम नहीं दिया है। संस्कृत साहित्य में स्त्री द्वारा किए गए ‘लैंगिक अनुभव' के सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं। कवयित्री विज्जिका देवी द्वारा लिखित एक उदाहरण प्रस्तुत है - ‘‘धन्यासि या कथयसि प्रिय-संगमेऽपि/ विश्रब्ध चाटुक शतानि रंतातरेषु।/नीवीं प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण/सख्यः शपामि यदि किंचदपि स्मरमि।''४ अर्थात् ‘‘हे सखि! तुम धन्य हो जो संभोग के समय भी विश्वास और धैर्य के साथ सैकड़ों मीठी-मीठी बातें कर लेती हो। मैं तो तुम सबके सामने शपथ करके कहती हूँ कि ज्यों ही प्रिय मेरी नीवी पर हाथ रखता है, त्यों ही बेसुध हो जाती हूँ और फिर मुझे कुछ याद ही नहीं रहता कि प्रिय ने क्या किया?'' इन पंक्तियों में स्त्री-पुरुष समागम में स्त्री को होने वाली अनुभूति का मार्मिक चित्राण है। मैं यह बता देना चाहता हूँ कि ‘काव्य प्रकाश' के रचयिता आचार्य मम्मट ने विज्जिका देवी द्वारा लिखित इन पंक्तियों की काफी सराहना की है एवं उन्हें ‘काव्यप्रकाश' में उद्धृत भी किया है। इस प्रकार स्वानुभूति के आधार पर नारियाँ सदियों से अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करती रही हैं और उसे पुरुष का समर्थन प्राप्त होता रहा है।
जिस प्रकार प्रत्येक आन्दोलन के आरम्भ में अनिश्चितता की स्थिति होती है, उसके स्वरूप एवं सिद्धान्त गठन में वैचारिक मतभेद होने लगते हैं उसी प्रकार नारी मुक्ति आन्दोलन को लेकर भी तरह-तरह की व्याख्याएँ प्रस्तुत की जाने लगी हैं। बहुत-सी लेखिकाएँ एवं लेखकगण नारी मुक्ति का सम्बन्ध स्त्री-देह की स्वतंत्रता से लगा रहे हैं। इस सम्बन्ध में राजेन्द्र यादव कहते हैं - ‘‘यदि आर्थिक आत्मनिर्भरता ही स्वाधीनता की कुंजी है तो जब तक स्त्री के पास देह है और संसार के पास पुरुष, तब तक स्त्री को चिंता की क्या जरूरत? जरूरत है तो देह को पुरुष के स्वामित्व से मुक्त करके अपने अधिकार में लेने की, क्योंकि यौन शुचिता, पतिव्रत, सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के सम्मान का नहीं पुरुष के अहंकार की दीनता और असुरक्षा का पैमाना है, पितृ सत्ता के मूल्य हैं और स्त्री की बेड़ियाँ हैं। जिसने ये बेड़ियाँ उतार दी हैं वह स्त्री विशिष्ट है।''५ इस प्रकार राजेन्द्र यादव नारी मुक्ति के नाम पर देह-व्यापार की अबाध छूट दे देते हैं। उनकी नजर में यौन-शुचिता पतिव्रत एवं सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के लिए बेड़ियाँ हैं। वे ‘आदमी की निगाह में औरत' नामक अपनी पुस्तक में स्त्री को वेश्यावृत्ति की हद तक छूट देने के पक्ष में हैं। वे लिखते हैं - ‘‘विडम्बना है कि नारी का अगर स्वतंत्र होना है तो वेश्या बनने के सिवा कोई रास्ता नहीं है, तभी वह जी सकेगी। वर्ना उसकी लगाम पिता, पति, पुत्र के ही हाथ में है।''६ अपनी बात की पुष्टि के लिए वे यशपाल की ‘दिव्या' का उदाहरण देते हैं और स्थविर के कथन को उद्धृत करते हैं कि ‘वेश्या स्वतंत्र नारी है।'७
वेश्यावृत्ति नारी दासता, विवशता एवं दीनता की पराकाष्ठा है जहाँ चन्द पैसों के लोभ में स्त्री पुरुष के इशारे पर नाचती है और पलभर के लिए ही सही पुरुष उसके जि+स्म का मनमाना प्रयोग करता है। क्या राजेन्द्र यादव की दृष्टि में यही है नारी मुक्ति? यदि यही नारी मुक्ति है तो नारी जीवन की इतनी शर्मनाक अधोगति कोई दूसरी हो भी नहीं सकती। देह-व्यापार उपभोक्तावादी संस्कृति की बेड़ियों में जकड़ी नारी जाति का सबसे घृणास्पद काला अध्याय है जिसे समूल नष्ट किए बिना नारी मुक्ति का झंडा उठाना कोरी राजनीतिक चालबाजी है। परन्तु राजेन्द्र यादव यह बात भला क्यों समझें। उपभोक्तावादी संस्कृति पर प्रहार करती हुई प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका जर्मेन ग्रीयर लिखती हैं - ‘‘क्रांति के लिए जरूरी है कि स्त्रियाँ पूँजीवादी राज्य में उपभोक्तावादी बनने से इंकार कर दें। ऐसा करके ही वह सम्बद्ध उद्योगों को करारा झटका दे सकती हैं।''८ यहाँ यह भी स्पष्ट है कि जर्मेन ग्रीयर केवल सम्बद्ध उद्योगों को झटका देने की बात ही कह रही हैं, स्त्रियों की उपभोक्तावादी मानसिक गुलामी से मुक्त होने की बात नहीं कह रही हैं। सच्चाई यह है कि उद्योगों को झटका देने की बात बाद की है पहले स्त्रियों को अपनी मानसिक गुलामी को झटका देना होगा। रमणिका गुप्ता उपभोग की शिकार स्त्रियों के पीछे पुरुष प्रधान समाज को सौ फीसदी जिम्मेदार ठहराती हुई कहती हैं - ‘‘क्या सामंती समाज या पूँजीवादी समाज में औरत उपभोग की वस्तु नहीं बनाई गई?''९ आज सारा समाज देख रहा है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था में औरत उपभोग की वस्तु बनने के लिए लालायित है। आज औरत ‘बदनउघाडू' विज्ञापन में घर से नाता तोड़कर भी शामिल होने की दौड़ लगा रही है। विश्व सुंदरियों का फिल्मी दुनिया का चक्कर लगाना एवं अंग प्रदर्शन में बढ़-चढ़कर भाग लेना क्या उनकी विकृत एवं अश्लील मानसिकता का द्योतक नहीं है? क्या इसके लिए भी पुरुष सत्तात्मक समाज ही दोषी है?
वी. वीरलक्ष्मी देवी संतानोत्पत्ति को उत्पादन का एक हिस्सा मानती हुई यह माँग करती है कि ‘‘इसे समाज में उत्पादक श्रम के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए और इस प्रकार घर में ही उसे वेतन भोगी नारी का एक अहं दर्जा मिलना चाहिए।''१० मेरी समझ में ऐसी मान्यताओं को स्थापित करने से घर परिवार संवेदनशून्य होकर क्रय-विक्रय का एक ऐसा व्यापार स्थल बन जायेगा जहाँ परस्पर प्रेम एवं सहयोग का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा और तब, जिस बाजारवाद की हम निन्दा कर रहे हैं उसका विस्तार चुहानी (रसोई घर) तक हो जायेगा। घर में ही बाजारवाद की एक नई संस्कृति जन्म लेगी। जिस संतानोत्पत्ति की महिमा से विभूषित ‘जननी' को स्वर्गादपि गरीयसी कहा गया है उसे उत्पादन का हिस्सा मानकर व्यापार का रूप देना विकृत मानसिकता का द्योतक है। ऐसी नारीवादी लेखिकाओं पर प्रहार करती हुई मृदुला गर्ग कहती है - ‘‘इस उग्र नारीवाद ने मातृत्व को स्त्री के पाँव की बेड़ी बताया और एकदम विपरीत पूर्वग्रह को जन्म दिया। यहाँ तक कि गर्भपात के अधिकार को नारी-स्वातंत्रय का पर्याय बना दिया गया। विडम्बना देखिए कि लड़ाई छिड़ी पश्चिम में और गर्भपात का निर्बाध अधिकार मिल गया हिन्दुस्तानी औरत को।''११ स्त्री पुरुष के दाम्पत्य जीवन की महिमा को महादेवी जी ने मुक्तकंठ से स्वीकार किया है एवं मातृत्व को महिमामंडित किया है। वे कहती है - ‘‘स्त्री पत्नी बनकर पुरुष को वह नहीं दे सकती जो उसकी पशुता का भोजन है। इसी से पुरुष ने कुछ सौन्दर्य की प्रतिमाओं को पत्नीत्व तथा मातृत्व से निर्वासित कर दिया। वह स्वर्ग में अप्सरा बनी और पृथ्वी पर वीरांगना।''१२ परन्तु अपने आपको उत्तर-आधुनिक मानने वाली तथाकथित नारी मोर्चा का कमान संभालने वाली नारियाँ भला महादेवी जी की बातों की ओर क्यों ध्यान दें? वी. वीरलक्ष्मी एवं रमणिका गुप्ता तथा पुरुषों में राजेन्द्र यादव विवाह संस्कार को पाँव की बेड़ी मानते हैं परन्तु महादेवी जी विवाह को तीर्थ मानती हुई कहती हैं - ‘‘यदि लड़की के जन्म के साथ विवाह की चिंता न कर उसके विकास के साधनों की चिन्ता की जाए, उनके लिए रुचि के अनुसार कला, उद्योग-धंधे तथा शिक्षा के दरवाजे खुले हों जो उन्हें स्वावलम्बी बना सकें तब अपनी शक्ति और इच्छा को समझकर यदि वे जीवन संगी चुन सकें तो विवाह उनके लिए तीर्थ होगा।''१३ महादेवी जी की विशेषता यह है कि वह वैवाहित जीवन से अलग होकर भी उसके (वैवाहिक जीवन) महत्त्व को अस्वीकार नहीं करती हैं। परन्तु राजेन्द्र यादव की दृष्टि में महादेवी जी की एकाकी जिन्दगी विद्रोह का प्रतीक है पुरुषों के प्रति विद्रोह का प्रतीक। वे मानते हैं कि रहस्यवाद की ओर महादेवी जी का झुकाव वस्तुतः ‘मेटाफिजिकल स्यूसाइड' है यानी तत्त्वतः आत्महत्या। दूसरे शब्दों में ‘‘यह सामाजिकता का अस्वीकार या स्थूल के प्रति सूक्ष्म विद्रोह है।''१४ वैसे राजेन्द्र यादव के लिए सामाजिकता, असामाजिकता के अपने बनाए हुए मानक हैं। अपनी बात की पुष्टि के लिए वे अलबर्ट कामू की उक्ति का सहारा लेते हैं। उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत' सही अर्थों में एक ऐसी पुस्तक है जिसमें ‘आदमी' नहीं बल्कि स्वयं उनकी ही दृष्टि में नारियों के प्रति भड़काऊ बयानबाजी की गई है।
कहना गलत न होगा कि नारी मुक्ति के नाम पर हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसे लेखन हुए हैं जिन्हें नारी मुक्ति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। उदाहरण स्वरूप दीप्ति खंडेलवाल की अचला(प्रतिध्वनियाँ) अपने पति को बता देती है कि उसके गर्भ में पलता बच्चा उसका नहीं, उसके प्रेमी का है। ‘मेरा नरक अपना है' निरुपमा सेवती का उपन्यास है जिसकी नायिका पिंकी का विवाह की जड़ प्रथा से विरोध है। वह सुनील के बच्चे की माँ बनती है, पर शादी नहीं करती। कुसुम अंसल का उपन्यास ‘उसकी पंचवटी' की नायिक साध्वी अपने पति के बड़े भाई का गर्भ धारण करती है। मृदुला गर्ग का बहुचर्चित उपन्यास ‘चित्तकोबरा' में विवाहेत्तर सम्बन्धों पर चटखारे भरा वर्णन है।
इन उपन्यासों के अतिरिक्त बहुत ऐसे नारी-लेखन हैं जिनमें पारिवारिक सामंजस्य एवं समरसता स्थापित करने की चेष्टा की गयी है। मृदुला गर्ग ने अपने एक उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप' में यह दिखलाया है कि उपन्यास की नायिका मनीषा अपनी अपरिपक्वता के कारण पति को छोड़कर प्रेमी के पास चली जाती है और पुनः प्रेमी पति से ऊबकर पूर्वपति से मिलने लगती है। नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी' की नायिका महरूख न अपने बाप के घर का आश्रय लेती है न अपने मनचले शौहर के पास ही रहती है। वह अपने परिश्रम के बल पर अपना अलग ‘घर' बनाने में सफल होती है जिसमें रहते हुए उसे न अपने शौहर का खौफ़ सताता है न बाप के घर से विदा होने का डर। मंजुल भगत की ‘अनारो' भी इसी प्रकार परिश्रम के बल पर अपने जीवन के रास्ते खुद तय करती है। कठगुलाब (मृदुला गर्ग) की सहज नायिकायें हैं - नर्मदा और मारियान, दोनों दमित शोषित होने के बावजूद सहजता और स्वाभाविकता से अपना विरोध दर्ज करती हैं। मानवीय करुणा पीड़ा और संवेदना के मूलभूत समीकरणों से परिचित और उन्हें आत्मसात् करती हुई उन दोनों के लिए यह समाज ही एक परिवार है। दोनों बंध्या नारियाँ इस सृष्टि को ही अपनी कोख का आंगन मानती हैं।१५ इस उपन्याय में लेखिका ने एक अहम् प्रश्न उठाया है - नमिता की आधुनिक विचारों वाली बेटी नीरजा पुरुष के साथ तभी संभोग करना चाहती है जब वह गर्भधारण कर सके, परन्तु जब उसे पता चलता है कि डिम्ब धारण के लिए वह सक्षम नहीं है तो उसके सारे क्रांतिकारी विचार हवा हो जाते हैं। इन सब उदाहरणों से ज्ञात होता है कि पारिवारिक मूल्यों को चुनौती देकर एवं लिंग सम्बन्धी प्राकृतिक देन एवं स्थापित बुनियादी मान्यताओं के खिलाफ़ प्रतिक्रियात्मक विष-वमन कर क्रांतिकारी नहीं हुआ जा सकता है। समाज में ऐसी अनेक समस्याएँ हैं जिनके उन्मूलन के लिए सार्थक एवं न्याय संगत लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है पर ये सारी लड़ाइयाँ समाज की सार्थक परम्पराओं के विरुद्ध नहीं बल्कि निरर्थक परम्पराओं के विरुद्ध होनी चाहिए।
जैनेन्द्र जी की ‘सुनीता' से चलकर जो कुंठाजनित नारी मुक्ति निर्वस्त्राीकरण के उदारवादी रास्ते से चलकर राजेन्द्र यादव के ‘आदमी की निगाह में औरत' तक आती है, वह ‘नारी मुक्ति' के नाम पर छलावा है। इस छलिया दर्शन को न समझ पाने के कारण बहुत-सी लेखिकायें भी अपनी रचनाओं के माध्यम से बड़ी चीजें परोसने लगी थीं जिसके लिए पुरुष बेचैन रहता है। परन्तु यह सुखद उपलब्धि कही जायेगी कि विभिन्न ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए नारी लेखन अब अपनी स्वस्थ परम्परा का मानक तैयार कर चुका है। इसकी अगली कड़ी अनामिका की पुस्तक ‘स्त्री का मानचित्रा' है। नारीवाद पर प्रकाशित इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में अनामिका ने स्त्री आन्दोलन के बुनियादी पहलुओं पर विचार करते हुए लिखा है -
स्त्री आन्दोलन, प्रतिशोध पीड़ित नहीं है।
स्त्री आन्दोलन की समर्थक स्त्रियाँ पुरुष नहीं बनना चाहतीं।
स्त्री और पुरुष की लड़ाई का व्याकरण सामंतों और आसामियों, पूँजीपतियों और मजदूरों, औपनिवेशिक ताकतों और शोषित के बीच की लड़ाई के व्याकरण से अलग है। सम्पन्न और विपन्न, ऊँच और नीच, शासक और शासित, गोरे और काले के बीच तो जंग छिड़ी है उनमें प्रतिपक्षियों के हित निकाय अलग-अलग है इसलिए हार और जीत वहाँ एक अलग ही मायने रखती है। लेकिन स्त्री और पुरुष के बीच की लड़ाई में हित निकाय अलग-अलग नहीं होते। दोनों का हित निकाय एक ही होता है-परिवार।स्त्री आन्दोलन धनी महिलाओं का कोरा वाग्विलास और न्यूज में बने रहने की उनकी साजिश नहीं है। ग्रासरूट स्तर तक इसका विस्तार है।१६
अनामिका की यह पुस्तक स्त्रीत्व का सही मानचित्रा बनाने में सफल होगी एवं स्त्री आन्दोलन की विभिन्न भ्रांतियों को दूर करती हुई स्वस्थ संभावनाओं की प्रतिष्ठा करने में सहायक सिद्ध होगी, ऐसी आशा है।
संदर्भ -
१. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-७५, पृ. १२६
२. वही, पृष्ठ १२६
३. वही, पृष्ठ १२७
४. कवीन्द्र वचन, पृ. २९८
५. हंस, फरवरी २०००, वक्तव्य, राजेन्द्र यादव
६. वर्तमान साहित्य, जून २००१, पृ. १५
७. वही, पृष्ठ १५
८. आजकल, मई २००१, पृ. ४५
९. वर्तमान साहित्य, मार्च २००१, पृ. ५
१०. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-७५, पृ. १२८
११. हंस, फरवरी २०००, आलेख, मृदुला गर्ग, पृष्ठ १६७
१२. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, पृ. ११५
१३. वही, पृ. ९९
१४. वर्तमान साहित्य, आदमी की निगाह में औरत, आलेख, राजेन्द्र यादव, पृ. १५-१६
१५. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-७५, पृ. १६१
१६. स्त्री का मानचित्रा, अनामिका, प्रस्तावना से
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