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छिन्नमूल : सरनामी की शब्द-संपदा का गवाक्ष





प्रो. मेराज अहमद
हिन्दी जीवित भाषा है। गति जीवन्तता का द्योतक होती है। भाषा का विस्तार उसकी गतिशीलता का ही परिणाम है। हिन्दी की विविध बोलियाँ उसके विस्तृत स्वरूप का ही परिचायक है। हिन्दी प्रदेश की सीमाओं के बाहर राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर भी इसका प्रसार इसके व्यापकत्त्व के कारण ही है। यह अपनी सीमा क्षेत्रा से इतर न केवल संप्रेषण का   माध्यम है, अपितु इसकी सहज विकासशील प्रवृत्त के कारण उसके स्थानीय रूप भी अस्तित्व में आये। भारत में दकनी और मुम्बईया हिन्दी के साथ दक्षिण भारतीयों की हिन्दी के रूप को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यद्यपि इसका प्रयोग विश्व के अधिकांश देशों में जहाँ भारतीय रोजी-रोटी के लिए प्रवासी के रूप में गये वहाँ उनके बीच होता ही है, उल्लेखनीय यह कि भारतवंशी बहुल देशों में प्रवासियों की हिन्दी भिन्न लगभग चार-पाँच पीढ़ियों के साथ की गयी यात्रा के दौरान हिन्दी भाषी प्रदेश की बोलियों और अहिन्दी भाषी क्षेत्रा में प्रयुक्त उसके स्वरूप के समानान्तर ही उनका निजी स्वरूप न केवल निर्मित हो रहा है अपितु फल-फूल भी रहा है। विशेष रूप से ब्रिटेन, मलेशिया, मॉरीशस, वर्मा, गयाना, त्रिनिदाद, फिजी तथा सूरीनाम इत्यादि में बसी भारतवंशियों के रोजगार की भाषा भले ही जिस देश के नागरिक हैं वहाँ की हो, परन्तु उनके आपसी संवाद की भाषा के रूप में उनके पुरखों द्वारा सहेज कर अपने साथ ले जायी गयी भाषाओं को आधार बनाकर बनी भाषा ही है। परिवर्तन भी जीवित भाषा की महती प्रवृत्ति है। अतः समय के प्रवाह में स्थानीय प्रभाव से पूवजों के साथ आयी उनके देश की भाषा का अनुकूलन हुआ, लेकिन इतना भी नहीं कि उनकी  बोधगम्यता समाप्त हो गयी हो। इसीलिए उन्हें भी हिन्दी की एक शैली के रूप में देखे जाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सरनामी हिन्दी का ऐसा ही भाषायी रूप है।
दास प्रथा समाप्त हो जाने के बाद सूरीनाम में कृषि कार्यों के लिए शासकों का ध्यान दक्षिण एशिया के मजदूरों की तरफ गया। नीदरलैंड के सम्राट विलियम तृतीय और ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने 1870 में एक शर्तनामे पर सहमति बनाकर भारतीयों मजदूरों को सूरीनाम लाने की प्रक्रिया आरम्भ की। यह प्रक्रिया 1916 तक चलती रही। आने वाले मजदूरों को पाँच वर्ष कार्य करने के बाद स्वदेश जाने की अनुमति थी, लेकिन जो लोग वहाँ बसना चाहते थे उनको पाँच एकड़ जमीन और कुछ नकदी भी दी जाती थी। दो तिहाई मजदूरों ने सूरीनाम में ही रहने का विकल्प चुना। जो लोग लौटे भी उनमें से भी बहुतों को भारत के रूढ़िवादी समाज ने स्वीकृति नहीं दी तो उनमें से भी कुछ लोग दुबारा लौट आये। फिर तो सूरीनाम के ही नागरिक होकर वहीं की उन्नति और विकास में लग गये। बहुतों ने खेती के अतिरिक्त दूसरे पेशे भी अपनाये। समय के साथ भारतीयों के श्रम और मेधा ने उन्हें वहाँ स्थापति कर दिया।1 शर्तबन्दी के समाप्त हो जाने के बाद सूरीनाम को अपने राष्ट्र के रूप में स्वीकार चुके भारतीयों में अधिकांश भारतीय जो कि मुख्यरूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से थे उन लोगों ने संप्रेषण के लिए अपने जिलों और क्षेत्रा से साथ में आयी बोलियों को आधार बनाकर अपनी भाषा गढ़ी। सन् 1964 सूरीनाम के भाषाविद् श्री जे. एच. ज्ञानाधीन ने भारतीय प्रवासियों की भाषा को सरकारी और राष्ट्रीय स्तर पर ‘सरनामी’ संज्ञा से अभिहीत किया।2 1975 में सूरीनाम की स्वतंत्राता के बाद सुरीनाम में रहने वाला भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा बेहतर भविष्य की तलाश में नीदरलैंड चला गया। वह अपने साथ सरनामी भाषा को भी ले गया। इसलिए यह भी देखा जा सकता है कि सूरीनाम के साथ हॉलैंड के भारतीय भी सरनामी का प्रयोग करते हैं।
ब्रिटिश उपनिवेश में भारतीयों ने अंग्रेजी को अपना लिया लेकिन सूरीनाम, मॉरीशस इत्यादि गैर-ब्रिटिश उपनिवेश वाले राष्ट्रों में डच इत्यादि के कारण भारतीय भाषा का प्रयोग कदाचित् उनकी विवशता भी थी। पूर्वी बोलियों में मुख्य रूप से अवधी और भोजपुरी ही सूरनामी का आधार हैं, परन्तु हिन्दी की लचीली प्रवृत्ति के कारण पूर्वी हिन्दी से पनपी सरनामी ने सूरीनाम में चलने वाली डच, स्रनांगतोंगो तथा अंग्रेजी की शब्दावली को भी खुलेपन के साथ अपनाया। दरअसल भारतीयों के लिए जो शब्द नये थे उनके लिए स्थानीय प्रयुक्तियों से शब्द लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। संस्कृत की शर्करा जो कि अंग्रेजी में शुगर है तथा डच में साउकर वह हिन्दुस्तानियों के लिए सकरू होकर सरनामी की अपनी संपदा हो गयी। मैनेजर के लिए मंझा, एग्रीमेंट के लिए गिरमिट, किचन के लिए कुकुरू तथा रसोइयाँ के लिए किचनैया, माँ के लिए मुदर इत्यादि सरनामी की शब्द संपदा का वह रूप है जो स्थानीय भाषा से आगत है।3  
वास्तव में सरनामी सूरीनाम के भारतीयों तथा स्वतंत्राता मिलने के बाद नीदरलैंड जा बसे भारतवंशियों की महतारी भाषा है। निश्चित ही इसका मूलधार हिन्दुस्तानी है, परन्तु लेखन हेतु रोमन लिपि का प्रयोग किया जाता है। इसका विकास भारतवंशियों के बीच संपर्क भाषा के रूप में ही हुआ है, लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में भी इसी का प्रयोग होता है। पुजारी, पंडित, समाजसेवी, सांस्कृतिक-कर्मी तथा राजनीतिज्ञों के प्रयोग से ही यह न केवल विकसित हुई अपितु उनके द्वारा प्रसारित होने वाले विचार और उसके आदान-प्रदान की भाषा का भी कार्य कर रही है। नीदरलैंड और सूरीनाम के भारतवंशियों द्वारा प्रयुक्त सरनामी भाषा की पहचान न केवल उनके आपसी संप्रेषण की भाषा के रूप में है, अपितु उसमें साहित्य का भी सृजन हो रहा है। रेडियो, टेलीवीजन के प्रसारण की व्यवस्था है। नीदरलैंड और सूरीनाम के भारतवंशियों द्वारा कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, एकांकी और गीत इत्यादि लिखे जा रहे हैं।4 मुंशी रहमान खाँ, श्री लक्ष्मण दत्त श्रीनिवासी, जीत नाराइन, श्री हरिदेव सहतू, पं. रामदेव रघुवीर, सुशीला बलदेव मल्हू इत्यादि पुरानी पीढ़ी के सरनामी भाषा के रचनाकार और संस्कृतकर्मी हैं। संध्या भग्गू, तेज प्रसाद खेदू, सुशील सुक्खू, देवानन्द शिवराज, धीरज कन्हाई, प्रेमानन्द भोंदू, रबीन सतनाराइन सिंह, बलदेव सिंह, सूर्य प्रसाद बीरे, चित्रा गयादीन इत्यादि साहित्यकार ऐसे हैं जो सरनामी की ज्योति वर्तमान में भी को जलाए हुए हैं।  
सरनामी निसंदेह हिन्दी अथवा हिन्दुस्तानी की एक बोली के रूप में ही देखी-समझी जानी चाहिए, परन्तु नाम ज्ञान के अतिरिक्त भारत में उसके स्वरूप और वैशिष्ट्य को जानने-समझने का प्रयत्न ही नहीं हुआ। उसका नाम लेते हुए उसे हिन्दी के वैश्विक आधार का नियामक के रूप में उल्लेख भी किया जाता है। हम हिन्दी के विस्तार का उल्लेख करके गौरवान्वित भी होते हैं। भारत में उसकी ऊपरी सतह पर चर्चा भले ही हो जाती है, लेकिन कहना अनुचित न होगा कि जहाँ एक तरफ तमाम तरह की असुविधाओं, अवरोधों के बावजूद सूरीनाम और नीदरलैंड के भारतवंशी सरनामी भाषा को प्रयोग में ला रहे हैं और अपने सीमित संसाधनों के बावजूद उसकी उन्नति और विकास में रत हैं वहीं देश में उसे हिन्दी की संपदा और विस्तार के संदर्भ में रेखांकित करते हुए गौरवान्वित भले हों लें, उनके प्रयत्नों के सहयोगी के रूप में सरनामी के      अध्ययन और उसके विस्तार और स्थायित्व के संदर्भ में भूमिका निभाने के संदर्भ में सक्रिय नहीं हैं। दरअसल सशक्त और हिन्दी के गौरव की वाहक होने के बावजूद सरनामी भारत में अनजानी और तिरस्कृत ही है। इधर 21वीं शताब्दी में जबसे हिन्दी आलोचकों का ध्यान प्रवासी साहित्य की तरफ उन्मुख हुआ है कारण चाहे जो हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि अभी तक हम हिन्दी के जिस उपेक्षित गवाक्ष से हम आँख मूँदे थे उससे न केवल रूबरू होने का अवसर मिला है, बल्कि अभिव्यक्ति के ऐसे पहलुओं से परिचय हुआ है जो हिन्दी साहित्य के विस्तार और वैश्विक शक्ति का परिचायक है। जैसे-जैसे प्रवासी साहित्य के अध्ययन का दायरा बढ़ता जा रहा है हमारी साहित्यिक संपदा तो विस्तार पा ही रही है, ज्ञान के नये-नये गवाक्ष भी खुल रहे हैं। सूरीनाम में प्रयुक्त होने वाली हिन्दी अर्थात् सरनामी की संपदा को भारत में पस्तुत करने के संदर्भ में प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी के सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘छिन्नमूल’ की बड़ी ही महती भूमिका है। विश्व हिन्दी फाउन्डेशन की निदेशक प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी 21वीं शताब्दी के आरम्भ में कैरेबियन देश सूरीनाम के भारतीय दूतावास में कार्य करने के लिए गयी तो वहीं की होकर रह गयीं। वर्तमान में वह यूरोपीय देश नीदरलैंड की निवासी हैं। कुशल प्रशासक एवं संगठनकर्ता के अतिरिक्त उनका साहित्यक व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनकी लगभग पैंतालीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिसमें शोध, आलोचना, भाषा-शिक्षण डायरी, यात्रा, कविता, कहानी और उपन्यास सभी विधाओं की रचनाएँ हैं। पुष्पिता अवस्थी की सक्रियता के संदर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद की महासचिव के रूप में की जाने वाली सेवा का ही यह परिणाम है कि उन्होंने विदेशों में पनपी और पल्लवित और पुष्पित हो रही भारतीय संस्कृति और वहाँ के निर्मित उनके समाज को न केवल गहराई से समझा है अपितु समय के साथ होने वाले सांस्कृतिक परिवर्तनों को महसूस भी किया है। ‘छिन्नमूल’ सूरीनाम की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन की अभिव्यक्ति के संदर्भ में दस्तावेजी हैसियत का उपन्यास प्रतीत होता है। 
मान्यता यह है कि प्रवासी रचनाकार आमतौर पर अपने मूलनिवास के प्रति नेस्टॉलजिक होते हैं।5 प्रवासी साहित्यकारों की उस देश के प्रति जहाँ वह प्रवास के दौरान निवास करते हैं बहुत सहज नहीं होते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में प्रायः अपनी जड़ों से जुड़ाव के कारण नकारात्मक प्रभाव दिखता है या फिर वह वहाँ की जीवनशैली और चकाचौंध में डूबकर वहाँ की सभ्यता और संस्कृति की अवधारणात्मक मान्यताओं में उलझे कभी उसकी प्रशस्ति तो कभी उसके प्रति उदासीनता का भाव व्यक्त करते हुए अपनी तमाम क्षमताओं के बावजूद अक्सर यथार्थ की अपेक्षा मान्यताओं पर आधारित अभिव्यक्ति में ही लगे रह जाते हैं। पुष्पिता जी ‘छिन्नमूल’ के माध्यम से सूरीनाम के भारतवंशियों के वर्तमान सामाजिक परिदृष्य के विविध रूपों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए उनकी संस्कृति और समाज पर पड़ने वाले आधुनिकता के प्रभावों को निर्पेक्ष दृष्टि से गहरी पड़ताल के साथ परसती हैं। प्रवासी रचनाकारों की कम ही रचानएँ ऐसी हैं जो रचनाकार के स्व से मुक्त जहाँ वह हैं वहाँ की संस्कृति, जीवन और समाज की अभिव्यक्ति पर आधारित हों। ‘छिन्नमूल’ की महत्ता इस तथ्य में भी निहित है कि कथाकार ने सूरीनाम के भारतवंशियों की संस्कृति, जीवन और समाज को बड़ी ही निर्पेक्ष दृष्टि के साथ देखने और समझने तथा ईमानदारी से बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अभिव्यक्त किया है। इसी के साथ उल्लेखनीय यह भी है कि सूरीनाम की संस्कृति और समाज की अभिव्यक्ति के लिए ऐसे भाषायी औजार का उन्होंने प्रयोग किया है जो गहराई से उनके लक्ष्य की पूर्ति विषयवस्तु के धरातल पर करता है उसी के समानान्तर ही सरनामी भाषा के शब्द संसार से भी परिचित कराता है।
सूरीनाम में प्रयुक्त सरनामी की शब्द संपदा में प्रयुक्त शब्द ऐतिहासिक दृष्टि से दो प्रकार के हैं। पहली श्रेणी के शब्दों में सूरीनाम की स्थानीय भाषाओं से ग्रहण किए गये शब्द हैं। दूसरी श्रेणी में वह शब्द आते हैं जो भारतवंशियों की मूल भाषा अर्थात् अवधी-भोजपुरी से ग्रहण किये गये हैं। सरनामी में गैर-भारतीय भाषाओं की शब्द-संपदा के अन्तर्गत सूरीनाम में स्थानीय रूप से प्रयुक्त विविध भाषाओं से ग्रहण की गयी शब्दावली ही उपन्यास में सौ के आस-पास है। उनकी प्रयुक्ति दिलचस्प तथा हिन्दी की ग्राह्यता का भी परिचायक है। रचनाकार ने अधिकांश ऐसे शब्द जो गैर-हिन्दी या भारतीय शब्द हैं उनका अर्थ शब्द के साथ ही कोष्ठक में दे दिया है। अस्प्राक6 मिलकर के लिए, आपरेशी7 ऑपरेशन के लिए प्रयुक्त हुआ है। आरकाठी8 का अर्थ है वह दलाल जो भारतीयों को लालच देकर गन्ने की खेती के लिए विदेश ले जाते थे। इस्ताक्थन9 का अर्थ संस्था, इंदिया10 भारत के लिए तथा एयरको11 एयरकन्डीशनर के लिए सरनामी में प्रयुक्त होता है।
कफरी एवं कफन्नी12 उन नीग्रो लोगों के लिए प्रयुक्त होता है जो सूरीनाम में भारतवंशियों के सहवासी हैं। कनाल13 नहर तथा कूलफास14 जो कि कूल और फास्ट के तद्भव फास से मिलकर बना है, फ्रिज के लिए प्रयुक्त शब्द है। कारासाबी15 लकड़ी की कला के लिए प्रयुक्त हुआ है। फीस्ट16 त्योहार, कंडाल17 कनाल या नहर, कामर18 कमरा के लिए प्रयुक्त शब्द है। कमरा के कामर प्रयोग पूर्वी भाषा के प्रभाव का परिणाम है। कोनइन19 खरगोश के गोश्त को कहते हैं। सूरीनाम में खरगोश का माँस बड़े चाव से खाया जाता है। नायक रोहित का पसंदीदा भोजन है। कंट्राकी20 कंट्रैक्ट पर गये लोग, मोई21 अच्छा, सुन्दर, स्वादिष्ट इत्यादि के लिए सरनामी में प्रयुक्त बहुप्रचलित शब्द है। बाल काटने की दुकान के लिए कापर शॉप22 प्रयुक्त होता है। कवर23 अटैची, कीन24 माँगकर, कासी25 अलमारी एवं केन26 गन्ने के लिए प्रयोग में प्रचलित है। खनाल27 अर्थ स्क्रीम्स झींगा, गोयन्ती28 आदत, गारवेज बॉक्स29 कूड़ादान, गोतरू30 गटर के स्थान पर सरनामी में सूरीनाम में बोली जाने वाली भाषाओं से आगत है। जुरनाल31 प्रसारित होने वाली खबर के लिए, लाउन्ज के लिए जाल32 तथा टायलॉट33 शब्द पखाना का बोधक है। डाम34 सड़क को कहते हैं। दरअसल हिन्दी में सड़क बनाने के लिए प्रयुक्त तारकोल लोक बोली में डामर कहलाता है। डोक्सा35 डक से रूपांतरित है। इसको बत्तख के पर्याय के लिए सरनामी में प्रयोग करते हैं। डूजजैल36 नहाने की की क्रीम होती है। ताफल37 मेज, तीता38 मिट्टी का तेल, तेखन39 हस्ताक्षर, तास40 झोला ऐसे शब्द हैं जो सरनामी में प्रयुक्त होते हैं। निश्चित ही ये शब्द स्थानीय हैं, परन्तु बड़ी ही सहजता से भारतवंशियों ने अपनी भाषा में सम्मिलित कर लिए हैं। दन्क्यिवेल41 धन्यवाद के लिए प्रयुक्त शब्द है। दतरा42 डॉक्टर के लिए, दाख43 का अर्थ छत तथा नोटा44 रशीद का सरनामी रूप है। नौटारस45 नोटरी फीस यानी खेत जमीन की रजिस्ट्री की प्रक्रिया के अंग को कहते हैं। कैरेबियन की भाषा को भारतवंशी नीदरलॉण्ड ताल46 कहते हैं। प्लांटेशन47 बहुप्रयुक्त शब्द है। यह बगान के लिए प्रयोग में लाया जाता है। वित्त मंत्रा हेतु बड़ी ही दिलचस्प प्रयुक्ति पेयिंग मिनिस्टर48 है। पन्ती49 थैली के अर्थ में, पलंगा50 लकड़ी का पटरा एवं परासिस51 सरनामी में शुद्ध के लिए प्रयोग में लाया जाता है। घर के प्रमुख द्वार को पोर्ट52 कहा जाता है। उल्लेखनीय यह है कि प्रस्तुत शब्द की प्रवासियों के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। बंदरगाह से जाकर अनजाने देश में उनका सामना इसी से हुआ। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर उसका प्रयोग उनकी दैनन्दिनी होना ही था।
‘छिन्नमूल’ में फोरसीटर53 शब्द की बार-बार होने वाली प्रयुक्ति के आधार पर कहा जा सकता है कि यह वहाँ की जीवनशैली में बहुप्रयुक्त है। सरनामी में इसका प्रयोग संस्था के अध्यक्ष के लिए किया जाता है। भारतवंशियों ने भारतीय भाषा और संस्कृति को बचाने और आगे ले जाने के लिए विविध क्षेत्रों में जो कार्य किये गाये उनमें अधिकांश कार्य विविध सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के माध्यम से ही किये गये। फारज़ेखरिंग54 बीमा के लिए, फाइल55 का प्रयोग नक्शा के लिए और हवाई जहाज के लिए फ्लिक्थि मशीन56 का प्रयोग होता है, फायलाबी57 डच फूल का पौधा होता है। फरकिजिंग58 का प्रयोग चुनाव के लिए होता है। 
ब्रुख़59 पुल के अर्थ में, बाख्तेन60 प्रतीक्षा, ब्रोम61 आटो साइकिल अर्थात् मोटर साइकिल और बुडड़क्की62 भी संभवतः पुल के लिए प्रयुक्त होता है। बस्त्यूर63 समिति का पर्याय है। बंदक्त64 भी धन्यवाद के लिए प्रयुक्त शब्द है। बोइती65 गाँव के लिए, बकुआ66 केला के लिए, ब्रोन्स बेर्ख67 सुनहरी झील, बैडकामर68 बाथरूम के लिए सरनामी में प्रयुक्त होता है। बुल69 बैल के लिए बिजेक70 का अर्थ व्यस्त होता है। बिजी के वजन पर ही निर्मित लगता है। बुरुकवा71 कच्छा के लिए एवं तला हुए अण्डे को बाका72 कहते हैं। बकार्डी73 एक प्रकार का पेय होता है। बकरा74 डच कंट्रोलर के लिए प्रयुक्त शब्द, बकन्नी75 डच और गोरी औरतें, मनेर76 माननीय,  मस्कीटवा77 मच्छर तथा चीन से आये हुए लोगों को भारतीय चिनवा78 के नाम से संबोधित करते है। कमरकूसा79 सूरीनाम का एक विशष्े ट्राफिकल फल, मार्क80 बाजार, मलाई81 जावानीज अर्थात् जावा द्वीपवासी, मुइलक82 परेशानी का सरनामी पर्याय है। 
नदी के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द रीवा83 रिवर से बना है। रित84 छोटी पाइप, लेनी85 लोन एवं लोंप86 का अर्थ घूमना होगा। वेइर्न87 वाइन अर्थात् शराब, वातरकान्त88 नदी के तट को प्रतीकायित करता है। 
स्पोइती89 सरनामी में चिकित्सा से संबंधित है। यह इंजेक्शन का पर्याय है। सेकेन हाउर्स90 अर्थात् बीमारों का घर यानी अस्पताल, सऔना91 भाप का स्नान, सरकारी ब्रीफ92 सरकारी पत्रा, आदेश इत्यादि के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं। सोर्गकृसोर्खुअ93 सेवा के अर्थ में सिस94 पैसा के और हेमक95 झूला या झूले वाली चारपाई को कहते हैं। निसंदेह उपर्युक्त शब्द एक रचना विशेष में प्रयुक्त हुए हैं इसलिए यह माना जा सकता है कि यह सरनामी में स्थानीय भाषा से ग्रहण की गयी शब्द संपदा के एक बहुत छोटे से हिस्से से परिचित कराते हैं, परन्तु सरनामी में स्थानीय भाषा से ग्रहण किए गये शब्दों की भूमिका अवश्य प्रस्तुत करते हैं। इसका श्रेय ‘छिन्नमूल’ को जाता है। ‘छिन्नमूल’ को सूरीनाम के भारतवंशियों की संस्कृति, जीवन और समाज की अभिव्यक्ति के साथ सरनामी की शब्द संपदा से परिचित कराते हुए भविष्य में सरनामी भाषा के विस्तृत अध्ययन को आधार प्रदान करने वाले उपन्यास के रूप में भी रेखांकित किया जा सकता है।
दूसरी श्रेणी के शब्द में वह शब्द आते हैं जो सूरीनाम पहुँचे भारतीयों के पुरखों के साथ आये थे। यद्यपि गिरिमिटियों को देश के सभी भागों से ले जाया गया परन्तु उनमेंं अधिक संख्या पूर्वी बोली के निवासियों की थी। इसीलिए अवधी और भोजपुरी का ही वहाँ की भाषा पर अधिक प्रभाव दिखता है। बाकी ब्रज और दूसरी बोली भाषा के लोग और उनकी बोलियाँ  और भाषाएँ जो छुट-पुट रूप में गयीं वह भी पूर्वी बोली के प्रभाव की जद से बच नहीं पायीं। ‘छिन्नमूल’ में सरनामी में प्रयुक्त होने वाले  पूर्वी बोली के भी सौ के आस-पास ही शब्दों का प्रयोग हुआ है। 
पूर्वी बोलियों में अगोर96 का अर्थ प्रतीक्षा होता है। (संदर्भ- हरनारायण भाई इसी जगह बैठकर राह अगोर रहे थे।) आजा-आजी97 दादी के अर्थ तें प्रयुक्त होता है। करिया98 काला के लिए तथा करेर99 शब्द कड़ा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। कटिया100 सूरीनाम में मछली मारने के काँटे के लिए प्रयुक्त होता है। अवधी में भी इसी संदर्भ में यह शब्द प्रयुक्त होता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि अवध में इसके लिए बंसी शब्द का भी प्रयोग करते हैं। कन्हैया की बाँसुरी और मछली पकड़ने के लिए प्रयुक्त बंसी यानी काँटा, दोनों के कार्यों में समानता है। यह भी अध्ययन का विषय। परिनिष्ठित हिन्दी में कीड़ा के लिए सरनामी में को किरउन101 का प्रयोग हुआ है। यह पूर्वी भाषा का शब्द है। कामगार के लिए कमकरता102 शब्द का प्रयोग होता है। कसाढ़ी103 मलाई के लिए सरनामी में प्रयुक्त होता है। इसका पूर्वी बोली में साढ़ी रूप भी प्रयोग में लाया जाता है। खइका104 अथवा खइबा संज्ञा पद खाना के अर्थ में तथा खजुआना105 क्रियापद खुजलाने के लिए, खुशवंती106 बोड़ा अर्थात् लोविया के लिए और गाभिन107 गर्भ धारित पालतू मवेशियों के लिए पूर्वी बोली में बहुप्रचलित है। गरीबताई108 गरीबी, चँहटा109 बरसात समाप्त हो जाने के पश्चात् जमें हुए मटीले पानी के लिए प्रयुक्त शब्द है। परिनिष्ठित हिन्दी में कीचड़ का पर्याय है, परन्तु चँहटा जैसी सटीक अर्थछवि को व्यक्त करने में यह शब्द सफल नहीं होता है। चुअना कंडाल110 टपकने वाला बरतन, चइला111 जलाने की लकड़ी, चुरना112 पकना के लिए सरनामी में प्रयुक्त होता है। चमोटी113 बेल्ट के पर्याय के रूप प्रयुक्त होने वाला नितांत देशी शब्द है। चिराग114 शब्द स्ट्रीट-लाइट के लिए प्रयुक्त होकर शब्दों के आवश्यकतानुसार होने वाले अर्थपरिवर्तन को भी रेखांकित करता है। सरनामी ने ताकत के लिए पूर्वी बोली के शब्द जाँगर115 को लिया है तथा जोंहना116 प्रतीक्षा करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। झूरा117 अवधी में सूखा परन्तु सरनामी में इसे भीषण गर्मी के लिए प्रयुक्त किया जाता है। झाँट118 उबकाई या उल्टी के लिए प्रयोग में लाया जाता है। झुरिया119 गंडे जैसा धागा जो पैरों में बाँधा जाता होगा उसके लिए शब्द का प्रयोग होता है। ये शब्द अब पूर्वी बोलियों से विलुप्त प्राय हैं।
टेम120 समय के लिए पूर्वी बोलियों में आमफहम शब्द है, टमाटी121 टमाटर से निर्मित शब्द है। देहिया122 सरनामी में शरीर का पर्याय है परन्तु  इस शब्द का प्रयोग उपन्यास में123 योनि के लिए भी हुआ है। नगीचे124 निकट के लिए एवं  निकियाना125 बनाना, जैसे मछली इत्यादि की सफाई के लिए प्रयुक्त भोजपुरी की शब्द संपदा है। निहुरना126 शब्द विशेष अवस्था में झकुने के लिए प्रयुक्त होता है।
पुरनियाँ127 का हिन्दी अर्थ बूढ़ा होता है। पूर्वी बोली का यह शब्द सरनामी में उपयोग में लाया जाता है। पिराना128 का दर्द होना अथवा पीड़ा होना, पोसना129 पालने के लिए सरनामी में प्रयुक्त हुआ है, पैंट के पतलून130, प्लेट के लिए पिलेटी131 अंगेजी से लोक भाषा में आये शब्द का उदाहारण है। इसे सरनामी में ग्रहण किया गया है। पिसान132 आटा के लिए प्रयुक्त ऐसा शब्द है जो सार्थक होने के बावजूद प्रयुक्ति में सिमटता जा रहा है। बारना133 का अर्थ जलाना क्रिया है। बिसाइन134 का अर्थ बिसांध है, परन्तु उपन्यास में माँस मछली के अर्थ में प्रयुक्त है। पूर्वी बोलियों में छुट-पुट रूप में यह प्रयुक्ति बरकरार है। बप्पा135 पिता के लिए संबोधन, बेटवा136 बेटा तथा बटलोई137 खाना बनाने की पतीली का बोधक होता है। मोहन भोग138 हलुआ के लिए और चावल के लिए भात139 की प्रयुक्ति पूर्वी बोलियों की प्रचलित प्रयुक्तियों में है जो सरनामी में ग्रहण की गयी है। भाँटा140 के लिए बैगन, भिटान141 के लिए मिलना हिन्दी में प्रयोग होता है। आदमी के लिए मनई142 तथा पत्नी अथवा औरत के लिए मेहरारू143 सरनामी में पूर्वी बोलियों से लिए गये शब्द हैं। 
लीलना144 निगलना के लिए, लपटियाना145 जुटना या लग जाना के लिए, लौकना146 जो कि लक्षित का तद्भव है सरनामी पूर्वी बोली से ग्रहण किया गया है। यह दिखना क्रिया का सतानार्थी है। स्कार्फ147 के लिए ओढ़नी तथा लॉग स्कर्ट148 के लिए लँहगा की प्रयुक्ति भी गौरतलब है। डॉक्टरी149 हकीमी और वैद्यकी के वजन पर प्रैक्टिस के लिए प्रयुक्त तभी साथी के लिए स्ांघती150 और जल्दी के लिए हाली151 पूर्वी बोली से ग्रहण की गयी शब्दावली है। बिहान152 अगला दिन या कल के लिए, दुब्बर153 कमजोर, बप्पा154 पिता तोप155 ढक, भुइयाँ156 जमीन, जियरा जुड़ाना157 संतोष मिलना के लिए पूर्वी बोली से ग्रहण शब्द हैं। नेनुआ, तरोई, लौकी, कोहड़ा, सेम158 इत्यादि सब्जियाँ जो कि खाँटी पूर्वी भाषा क्षेत्रा की हैं उसे भी सूरीनाम जाने वाले भारतीय नाम के साथ ले गये। 
इमामबख्श, देवकली, बदरी, मँहगू, नत्था, छीटू, चरन, बली, मुहम्मद, गनपत, छारू, शिवसिंह, संपत, हरिदत्त, ननकू, अब्दुल्ला, बलदेव, रामटहल, गजाधर, गणेश, अलम देवकली, बदरी मँहगू, नत्था, गनपत, छारू, शिवसिंह, हरिदत्त इत्यादि नाम के साथ गये पूर्वियों के नाम की परम्परा पर भी पूर्वीपन का स्पष्ट प्रभाव है।159 भग्गू, खेदू, परोही शिवगोविन्द, सहतू,160  आदि नाम वर्तमान में भी प्रचलित हैं। पूर्वी बोली क्रिया की प्रयुक्तियाँ भी उपन्यास में विद्यमान हैं। वह भी सरनामी में प्रयुक्त हुई हैं। 
समसामयिक भाषिक परिदृश्य में चिंता का विषय यह है कि जैसे-जैसे हम विकास अंधदौड़ में कूदते जा रहे हैं और सबसे आगे निकल जाने की चाहत में अपने लोक से कटते जा रहे हैं। अधिकांशतः पिछड़ेपन की निशानी मान या फिर उसे सर्वग्राही बनाने के आग्रह के कारण परिष्कृत करते हुए उसके मूल को समाप्त करने में लगे हैं। इस प्रवृत्ति को वैश्वीकरण के प्रभाव के रूप में भी रेखांकित कर सकते हैं। बोलियाँ इससे इतना अधिक प्रभावित हो रहीं हैं कि उनके अस्तित्व पर खतरा मँडरा रहा है। नगरीय संस्कृति के प्रभाव और आधुनिक संचार माघ्यमों की व्यापक पैठ इस दिशा में नकारात्मक भूमिका में दिखती है। सरनामी सूदूर देश में पनप कर प्रयुक्त होते हुए हमारी लोक-बोलियों की संपदा को बचाए रखने में भी महती भूमिका निभा रही है। पुष्पिता अवस्थी का उपन्यास ‘छिन्नमूल’ अपनी कथ्य की विशेषताओं के साथ भाषिक धरातल पर भी सरनामी को हिन्दी भाषियों तक पहुँचाने के महती कार्य के संदर्भ में भी देखा जायेगा। 
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कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क