-तसलीमा नसरीन
जब भी देखती हूँ आपका चेहरा, आप मुझे कलकत्ता लगते हैं !
आपको क्या पता है कि मुझे बिल्कुल यही लगता है ?
आप क्या जानते हैं, आप अति असम्भव तरीके से
समूचे के समूचे कलकत्ता ही हैं ?
नहीं जानते न ? अगर जानते तो बार-बार अपना मुँह नहीं फेरते।
सुनें मेरी एक बात-
आपके चेहरे की ओर देखते हुए, आपको नहीं,
मैं देखती हूँ कलकत्ता को,
धूप ने डाल दी है माथे पर सलवटें, आँखों की कोरों में
चिन्ता की झुर्रियाँ,
गालों पर कालिख
होठों पर रेत
आप बेतहाशा दौड़े चले जाते हैं
और फूहड़ तरीके से हो रहे हैं पसीने-पसीने,
अर्से से नहीं कोई खुशख़बरी, अर्से से जी भर नहाए नहीं,
नींद नहीं आती।
आप क्या यह सोच बैठे हैं कि चूँकि मैं पड़ी हूँ, आपके घर में
आपको करीब खींच लेती हूँ, सामने बिठाती हूँ,
चिबुक थामकर चेहरा उठाती हूँ, तन्मय निहारती रहती हूँ
और मेरी पलकों की कोरों में जमा होते जा रहे हैं बूँद-बूँद सपने ?
आपके होठों तक, जब बढ़ाती हूँ अपने भीगे युगल होंठ,
आप सुख से सिहर उठते हैं।
आपको ख़बर नहीं, क्यों मेरे होठ बढ़ जाते हैं,
आपके होठों तक,
गालों
आपके माथे
और आँखों की कोरों तक।
क्यों मेरी उँगलियाँ छूती हैं, आपका चेहरा ?
धीरे-धीरे समेट देती हैं आपके बाल,
सहलाकर मिटा देती हैं माथे की सलवटें,
तनी हुई झुर्रियों को सपाट कर देती हैं,
पोंछ देती हैं पसीना, कालिख-रेत सारा कुछ मेट देती हैं।
क्यों ? मैं क्यों चूमती हूँ आपका चेहरा, आप नहीं जानते।
आपको तो अन्दाज़ा भी नहीं, जब मैं आप से कहती हूँ-
मैं आपसे प्यार करती हूँ,
दरअसल मैं किसे प्यार करती हूँ,
आप नहीं जानते, इसलिए अब भी उम्मीद लगाए हैं !
उफ ! तुम किसी उम्मीद में मत रहो।
किसी को यूँ कंगले की तरह टकटोरते हुए देखना,
कतई भला नहीं लगता मुझे।
तुम इतने बुद्धू क्यों हो ? क्यों नहीं देखते ?
मेरा हाथ जितनी भी बार, कहीं और रखने की कोशिश करते हो,
मैं नहीं रखती, तुम फेरना चाहते हो मेरी निगाह,
फिर भी मेरी आँखें थिर रहती हैं तुम्हारे चेहरे पर !
सिर्फ़ चेहरे पर ही ! मैं तो सिर्फ़ जगे-जगे,
गुज़ार देती हूँ सा-री रात, गुज़ार सकती हूँ पूरी ज़िन्दगी,
तुम्हारा चेहरा निहारते हुए ! हाँ, निहारते हुए सिर्फ़ तुम्हारा चेहरा !
जब भी देखती हूँ आपका चेहरा, आप मुझे कलकत्ता लगते हैं !
आपको क्या पता है कि मुझे बिल्कुल यही लगता है ?
आप क्या जानते हैं, आप अति असम्भव तरीके से
समूचे के समूचे कलकत्ता ही हैं ?
नहीं जानते न ? अगर जानते तो बार-बार अपना मुँह नहीं फेरते।
सुनें मेरी एक बात-
आपके चेहरे की ओर देखते हुए, आपको नहीं,
मैं देखती हूँ कलकत्ता को,
धूप ने डाल दी है माथे पर सलवटें, आँखों की कोरों में
चिन्ता की झुर्रियाँ,
गालों पर कालिख
होठों पर रेत
आप बेतहाशा दौड़े चले जाते हैं
और फूहड़ तरीके से हो रहे हैं पसीने-पसीने,
अर्से से नहीं कोई खुशख़बरी, अर्से से जी भर नहाए नहीं,
नींद नहीं आती।
आप क्या यह सोच बैठे हैं कि चूँकि मैं पड़ी हूँ, आपके घर में
आपको करीब खींच लेती हूँ, सामने बिठाती हूँ,
चिबुक थामकर चेहरा उठाती हूँ, तन्मय निहारती रहती हूँ
और मेरी पलकों की कोरों में जमा होते जा रहे हैं बूँद-बूँद सपने ?
आपके होठों तक, जब बढ़ाती हूँ अपने भीगे युगल होंठ,
आप सुख से सिहर उठते हैं।
आपको ख़बर नहीं, क्यों मेरे होठ बढ़ जाते हैं,
आपके होठों तक,
गालों
आपके माथे
और आँखों की कोरों तक।
क्यों मेरी उँगलियाँ छूती हैं, आपका चेहरा ?
धीरे-धीरे समेट देती हैं आपके बाल,
सहलाकर मिटा देती हैं माथे की सलवटें,
तनी हुई झुर्रियों को सपाट कर देती हैं,
पोंछ देती हैं पसीना, कालिख-रेत सारा कुछ मेट देती हैं।
क्यों ? मैं क्यों चूमती हूँ आपका चेहरा, आप नहीं जानते।
आपको तो अन्दाज़ा भी नहीं, जब मैं आप से कहती हूँ-
मैं आपसे प्यार करती हूँ,
दरअसल मैं किसे प्यार करती हूँ,
आप नहीं जानते, इसलिए अब भी उम्मीद लगाए हैं !
उफ ! तुम किसी उम्मीद में मत रहो।
किसी को यूँ कंगले की तरह टकटोरते हुए देखना,
कतई भला नहीं लगता मुझे।
तुम इतने बुद्धू क्यों हो ? क्यों नहीं देखते ?
मेरा हाथ जितनी भी बार, कहीं और रखने की कोशिश करते हो,
मैं नहीं रखती, तुम फेरना चाहते हो मेरी निगाह,
फिर भी मेरी आँखें थिर रहती हैं तुम्हारे चेहरे पर !
सिर्फ़ चेहरे पर ही ! मैं तो सिर्फ़ जगे-जगे,
गुज़ार देती हूँ सा-री रात, गुज़ार सकती हूँ पूरी ज़िन्दगी,
तुम्हारा चेहरा निहारते हुए ! हाँ, निहारते हुए सिर्फ़ तुम्हारा चेहरा !
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