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GAZAL

बशीर बद्र



न जी भर के देखा, न कुछ बात की

बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनायी ख़यालात की

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़बाँ सब समझते हैं जज़्बात की

मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुरआब ( आँसुओं से भरी आँख) का,
बरसती हुई रात बरसात की

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं,
कहाँ दिन गुज़ारा, कहाँ रात की

Comments

बशीर बद्र की गज़ल को पढ कर उनका एक शे’र याद आया-
हज़ारों शे’र मेरे सो गए कागज़ की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िंदा नहीं रहता!
"अर्श" said…
बशीर बद्र साहब की ये ग़ज़ल मैंने अपने ग़ज़ल गायकी में ना जाने कितनी बार गाई होगी ये ग़ज़ल पढाने के लिए आपको ढेरो बधाई साहब...

अर्श
Unknown said…
अरे साहब ये मेरी पसंददीदा गज़लों में से एक है.....काफ़ी दिनों बाद इसको सुना.....आपका पोस्ट पढ़ा और पढ़ते हे मैंने ये ग़ज़ल सुना....बहुत बहुत आभार आपका....
बशीर बद्र जी की मैं जबरदस्त प्रशंसक हूँ, शुक्रिया उन्हें प्रस्तुत करने
के लिए,क्या पंक्ति है-
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनायी ख़यालात की

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